कत्थक डांस कहां का है | kathak dance which state in hindi कथक किस राज्य का नृत्य है ? का इतिहास उत्पत्ति

kathak dance which state in hindi कत्थक डांस कहां का है | कथक किस राज्य का नृत्य है ? का इतिहास उत्पत्ति ?

कत्थक
कत्थक, भारत की एक आकर्षक नृत्य कला है, जिसकी जड़ें प्राचीन काल में है। लेकिन विभन्न युगों में विकास प्रक्रिया से गुजरते हुए इसने बाह्य प्रभावों के लिए अपने द्वार खुले रखे। कत्थक का मतलब है, “कहानी सुनाने वाला”। इलाकों में उनका गहरा प्रभाव था। मध्य युग में इस्लाम के आने के कत्थक में धीरे धीरे रहस्यवाद भी आ गया। भगवान कृष्ण के प्रति, मध्ययुगीन वैष्णवों की भक्ति भावनाओं को कत्थक नृत्य में कृष्ण लीला के व्यक्त किया गया। गई कवियों ने कृष्ण पर कविताएं लिखीं, उन्हें नर्तकों ने बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत किया।
मुगल बादशाहों के कत्थक नृत्य के कलाकरों को प्रश्रय देने से इस नृत्य शैली पर मुस्लिम सभ्यता का विशेष प्रभाव पड़ा। अकबर और जहांगीर जैसे शहंशाहों ने उत्तरी भारत की नृत्य शैलियों को बहुत प्रोत्साहन दिया। मुस्लिम दरबारों में हिंदुओं की धार्मिक गाथाओं को पसंद नहीं किया जाता था इसलिए कत्थक नृत्यः आंशिक रूप से धर्म निरपेक्ष बन गया । इसके साथ ही कत्थक कलाकारों ने मुगल दरबारों में प्रचलित फारसी ढंग की वेषभूषा का प्रयोग शुरू किया। इस प्रकार हिंदुओं का शास्त्रीय नृत्य होते हुए भी कत्थक में, विशेषकर वेषभूषा में, कुछ इस्लामी बातें आ गई। मुसलमानों का चुस्त पाजामा, जैकट, चोली, ब्लाउज, घाघरा, रूमाल और टोपी आदि कत्थक नृत्य की वेशभूषा बन गए। लेकिन परंपरागत हिंदु वेशभूषा को पूरी तरह नहीं छोड़ा जा सकता था। इस प्रकार हिंदू और मुसलमान दोनों ही संप्रदायों की वेषभूषा कत्थक नृत्य में साथ-साथ उपयोग में आने लगी।
मगलों के पतन के साथ ही कत्थक नृत्य के ओजस्वी युग का अंत हो गया। अवनति के दिनों में कत्थक नृत्य हर तरह से निम्न कोटि का हो गया। आम आदमी इसे श्नाचश् कहकर पुकारता था। 20वीं शताब्दी के प्रथम 25 वर्षों के दौरान मूल , कत्थक के खोए हए मूल्यों को फिर से स्थापित करने के प्रयत्न किए गए। उत्तर भारत में कत्थक की दो शैलियां पहले ही थीं-जयपुर शैली और लखनऊ शैली। जयपुर शैली राजपूत राजाओं के प्रश्रय का परिणाम थी, जो कत्थक नृत्य का पराना धार्मिक स्वरूप बनाए रखना चाहते थे। लखनऊ शैली स्पष्ट रूप से उन दिनों में उभरी जब अवध के अतिम नवाब वाजिद अली ने कुछ समय के लिए (1847 से 1856 ई.) शासन किया। स्वयं नवाब ने संगीत की नई कृतियां लाकर कत्थक के विकास का प्रयत्न किया। कहा जाता है कि कत्थक नृत्य और संगीत दोनों में, ठुमरी को नवाब वाजिद अली लाए। जयपुर और लखनऊ शैलियां दोनों ही 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 20 वीं शताब्दी के प्रथम 25 वर्षों के दौरान जैसे-तैसे चलती रहीं, जब तक कि उन्हें पुनरूज्जीवित नहीं किया गया।
आधुनिक काल में कत्थक का पुनरूत्थान एक व्यक्ति-सुप्रसिद्ध श्मेनकाश् के उत्साह से शुरू हुआ। 1938 में खंडाला में अन्य लोगों को प्रशिक्षण देने के लिए एक स्कूल की स्थापना की। संगीत कला के प्रेमियों और प्रशंसकों, कार्ल खंडालावाला. मनेषी डे, रामनारायण मिश्र, विष्णु शिरोडकर, रामचन्द्र गांगुली और डा. राघवन ने उनकी सहायता की। मेनका ने विशद्ध कत्थक शैली में नृत्य नाटिकाएं प्रस्तुत की, जिनमें शास्त्रीय संगीत की संगत थी। मेनका द्वारा कत्थक में प्रस्तुत श्देव विजय नृत्य श्, श्कृष्ण लीलाश्, मेनका लास्यमश् और श्मालविकाग्निमित्रश् बहुत सफल सिद्ध हुए।
जैसे जैसे कत्थक नृत्य विभिन्न स्थानों पर प्रस्तुत किया गया वैसे-वैसे इसकी ख्याति दूर दूर तक बढ़ती गई। लच्छू महाराज. शम्भ महाराज और विजू महाराज जैसे गुरूओं ने कत्थक को महान नृत्यकला के रूप में स्थापित कर दिया। लच्छू महाराज कत्थक सिखने के लिए बंबई चले गए, और शम्भु और बिरजू महाराज दिल्ली आ गए। 1952 ई. में दिल्ली में भारतीय कला केंद्र की स्थापनाप के साथ ही कत्थक को बहुत बड़ा प्रोत्साहन मिला। दमयंती जोशी गुप्ता, कुमुदनी लखिया, गोपी कृष्ण, सितारा और माया राव तथा अन्य नृत्य कलाकरों ने अपने कार्यक्रमों शैली को कलात्मक गरिमा को सिद्ध कर दिया। कत्थक शैली की नृत्य नाटिकाओं के लिए विख्यात डागर बंधुआंे मुईउद्दीन और अलीमुदीन के ध्रुपद में उच्च कोटि का संगीत तैयार किया।
कत्थक नृत्य की कई विशेषताएं हैं। एक तो इसकी शैली बड़ी सरल लेकिन चित्ताकर्षक है। इसके लिए वेशभषा अलग प्रकार की है, लेकिन परविर्तनीय है। साथ ही भारी-भरकम नहीं है। प्रसाधन सामग्री का उपयोग सुरूचिपर्ण हो आर इसके लिए कोई निश्चित तथा कठोर औपचारिकताएं नहीं है। नृत्य नाटक या किसी एक कलाकार द्वारा प्रस्ता जाने वाले नृत्य में मूल कला के तत्व बने हुए हैं। इसमें व्यक्त किए गए भावों में समझाना आसान इसके साथ जानेवाले गीत भे आकर्षक तथा आसान हैं।
कत्थक संगीत का विकास भजनों, कीर्तनों और ध्रुपद जैसी धार्मिक शैलियों और बाद में ठुमरी, दादरा तथा गजलों से हम है, जिससे यह सुरताल की दुष्टि से अत्यंत कर्णप्रिय सम्मिश्रण है। नृत्य कलाकार मात्राओं के अनुसार ताल पर नृत्य कला है। नर्तक या नर्तकी की पदचाप, जिसे श्तटकारश् कहते हैं, इस नृत्य की एक विशेषता है। यह पहले धीमी गति पर उसके बाद मध्यम गति पर और फिर तीव्र गति पर होती है। इस नृत्य में कलाकार बड़ी तेजी से एक पैर पर तोडा लेता है या चक्कर काटता है।