औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 क्या है | industrial dispute act 1947 in hindi प्रावधान विशेषताएँ

industrial dispute act 1947 in hindi औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 क्या है प्रावधान विशेषताएँ ?

औद्योगिक विवाद अधिनियम :  कार्य के निबंधन और शर्तों संबंधी कोई भी विवाद अथवा मजदूरी या किसी अन्य विषय के ऊपर बातचीत के दौरान असहमति औद्योगिक विवाद अधिनियम के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आता है। व्यवसाय विवाद अधिनियम, 1929 के स्थान पर पहली बार 1947 में पारित औद्योगिक विवाद अधिनियम पूरे भारत में औद्योगिक संबंधों के मामले में मुख्य शासी विधान है। चूंकि समय बीतने के साथ इसका महत्त्व बढ़ता गया, इसकी कमियों को दूर करने के लिए और साथ ही साथ राज्य की हस्तक्षेपकारी भूमिका को सुदृढ़ करने के लिए इसमें 1964, 1965, 1971, 1976, 1982 और 1984 में अनेक संशोधन पारित किए गए।

इस अधिनियम का लक्ष्य कानूनी ढाँचा और सरकारी तंत्र का सृजन करना था जिसके अंदर औद्योगिक विवादों को शांतिपूर्वक ढंग से सुलझाया जा सके। इस अधिनियम के मुख्य उपबंध हैं: (1) हड़तालों और तालाबंदी की वैधता की परिभाषा करना, (2) कामबंदी, छंटनी और बंद करने के लिए प्रतिबंधात्मक प्रक्रिया (3) कामबंदी और छंटनी के लिए क्षतिपूर्ति (4) सुलह प्रक्रिया और (5) न्याय निर्णयन की त्रिस्तरीय प्रणाली।

हड़ताल अथवा तालाबंदी की वैधता इस प्रश्न पर केन्द्रित है कि क्या इसका प्रयोग उचित रीति से किया गया है। उदाहरणस्वरूप, सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं में अचानक हड़ताल अथवा तालाबंदी अवैध हैय इस विषय में पूर्व सूचना दिया जाना आवश्यक है। सभी उद्योगों में, यदि विवाद पहले ही सुलह अथवा न्याय निर्णयन के अन्तर्गत है, तो नया हड़ताल अथवा तालाबंदी निषिद्ध है (किंतु पुरानी हड़ताल अथवा तालाबंदी के जारी रहने को अनुमति दी जा सकती है)। दूसरी ओर, अवैध तालाबंदी या हड़ताल के बदले में हड़ताल अथवा तालाबंदी पूरी तरह से वैधानिक है। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हड़ताल करने वाले कर्मचारियों को अधिनियम में यथा परिभाषित श्श्रमिकश् होना चाहिए, जिसका अभिप्राय यह है कि उसकी मजदूरी एक निश्चित स्तर से कम होनी चाहिए और उसका नियोजन प्रबन्धकीय और प्रशासनिक क्षमता में नहीं होना चाहिए।

कामबंदी, छंटनी और इकाई को बंद करने के संबंध में नियम काफी प्रतिबन्धात्मक हैं। जैसा हमने पहले देखा कि औद्योगिक नियोजन अधिनियम में नौकरी के निलंबन और समाप्ति के लिए शर्तों के विनिर्दिष्ट करने की आवश्यकता है। इसमें से अधिकांश अनुशासनात्मक प्रकृति के हैं। यदि कामबंदी वास्तविक अथवा पूर्वानुमानित वित्तीय घाटों द्वारा प्रेरित है तब औद्योगिक नियोजन अधिनियम अपर्याप्त हो सकता है। औद्योगिक विवाद अधिनियम 1976 में नियोजकों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया है कि वह कामबंदी अथवा किसी श्रमिक की छंटनी अथवा इकाई को बंद करने से पहले सरकार से पूर्व अनुमति ले। इस समय यह शर्त (औद्योगिक विवाद अधिनियम अध्याय ट-ख में संहिताबद्ध) 100 या अधिक श्रमिकों को नियोजित करने वाले सभी उद्योगों पर लागू होती है। इसका उल्लंघन करने पर नियोजक पर भारी दंड लगाया जा सकता है, साथ ही कामबंदी श्रमिकों को बहाल भी करना पड़ता है। इस विशेष उपबंध की अत्यधिक प्रतिबन्धात्मक और अन्तरराष्ट्रीय मानकों द्वारा असामान्य मानकर काफी आलोचना की गई है और सरकार भी श्रनिक विरोधी के रूप में देखे जाने के भय से छंटनी अथवा कामबंदी के लिए अनुमति प्रदान करने में रूढ़िवादी रही है। उदाहरण के लिए, 1977 में, केन्द्र सरकार को कामबंदी/छंटनी/इकाई बंद करने के लिए 60 आवेदन प्राप्त हुए थे, किंतु सिर्फ 6 मामलों में अनुमति प्रदान की गई। असामान्य रूप से इतनी कम दर पर स्वीकृतियों के कारण अध्याय ट-ख के उपबंधों को अभी भी घाटा पर चल रहे उपक्रमों के पुनर्गठन के लिए सबसे बड़ा रोड़ा माना जा रहा है।

यद्यपि कि बड़े फर्मों में (100 या अधिक श्रमिकों वाले) सरकारी अनुमति के अध्यधीन अपेक्षाकृत छोटे अथवा मध्यम आकार के फर्म औद्योगिक नियोजन अधिनियम (जहाँ कहीं यह लागू है) के अनुपालन में स्वतंत्रतापूर्वक कामबंदी अथवा छंटनी कर सकते हैं। छंटनी की किसी भी स्थिति में, श्पीछे आवत पहले जावतश् सिद्धान्त का अनुसरण किया जाता है। किंतु सभी कामबंदी अथवा छंटनी वाले श्रमिक क्षतिपूर्ति के लिए पात्र नहीं होते हैं। यदि एक फर्म औद्योगिक विवाद और औद्योगिक नियोजन अधिनियमों के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत है और 50 अथवा अधिक श्रमिकों को नियोजित करता है, किसी भी श्रमिक जिसे यह वैध तरीके से कामबंदी अथवा छंटनी कर सकता है को क्षतिपूर्ति के भुगतान के लिए वैधानिक रूप से बाध्य है। क्षतिपूर्ति की राशि का निर्धारण कर्मचारी द्वारा किए गए कार्य के वर्षों की संख्या और उसकी कामबंदी पूर्व (अथवा छंटनी पूर्व) मजदूरी के आधार पर किया जाता है। तथापि, इस तरह के दायित्व सिर्फ स्थायी अथवा नियमित श्रमिकों के लिए होते हैं। अनियत अथवा बदली श्रमिक इस तरह की क्षतिपूर्ति का दावा नहीं कर सकते हैं।

अंत में सरकारी तंत्र का प्रश्न आता है जो औद्योगिक विवाद अधिनियम का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह मान लिया गया है कि सरकार (राज्य अथवा केन्द्र) सामूहिक सौदाकारी के सभी मामलों में सावधान रहेगी। यदि सौदाकारी किसी भी बिंदु पर अटक जाती है और पक्षों में समुचित समयावधि के अन्दर समाधान नहीं निकल पाता है, तो सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए। सामान्यतया, बड़े फर्म अर्थव्यवस्था में अपने महत्त्व के कारण सरकार का ध्यान आकृष्ट करते हैं। श्रम मंत्रालय (राज्य और केन्द्र दोनों में) का शीघ्र निपटारे को सुगम बनाना भी एक महत्त्वपूर्ण कृत्य है।

सरकार का काम सुलह के प्रयासों के साथ शुरू होता है। तटस्थ पार्टी के रूप में, यह सुलह अधिकारी, अथवा सुलह बोर्ड अथवा जाँच न्यायालय की नियुक्ति करती है जो विवादग्रस्त पक्षों के परामर्श से विवादों के निपटारे के लिए उपाय खोजती है। सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं के लिए सभी अनिर्णीत विवादों को सुलह बोर्ड को सौंपना अनिवार्य है। सुलह बोर्ड का निर्णय सभी पक्षों पर बाध्यकारी होता है। किंतु यदि कोई निर्णय नहीं हो पाता है (अर्थात् विवाद में सम्मिलित पक्षों द्वारा सभी सुझावों को अस्वीकार कर दिया जाना) तो निःसंदेह यह मामला पुनः सरकार को वापस भेज दिया जाता है, जिसके पास फिर इसे न्यायनिर्णयन के लिए सौंपने का विकल्प है। तथापि, न्याय निर्णयन की प्रक्रिया शुरू होने से पहले विभिन्न पक्ष स्वैच्छिक मध्यस्थता का विकल्प चुन सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो सरकार द्वारा नियुक्त मध्यस्थ एक निर्णय रखेगा जिसे सभी पक्षों को स्वीकार करना होगा और विवाद का समाधान हो जाएगा। किंतु चूंकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि निर्णय सभी पक्षों को संतुष्ट करेगा, कम से कम उनमें से एक मध्यस्थता के लिए सहमत नहीं होगा, और इस स्थिति में न्याय निर्णयन ही एक मात्र विकल्प बचा रहता है। तथापि, केन्द्र सरकार ने जहां वह स्वयं नियोजक है संघ और कर्मचारियों के बीच विवादों के लिए अनिवार्य मध्यस्थता की नीति अपनाई है। वर्ष 1966 से यह नीति है और वेतन तथा भत्तों, काम के साप्ताहिक घंटों और कतिपय संवर्गों के कर्मचारियों की छुट्टी से संबंधित विवाद अंत्तः मध्यस्थता के माध्यम से निपटाए जाते हैं।

न्यायनिर्णयन मुख्य रूप से कानूनी प्रक्रिया है। विशेष न्यायालयों जिसमें श्रम न्यायालय, औद्योगिक न्यायाधिकरण और राष्ट्रीय न्यायाधिकरण सम्मिलित हैं कि त्रिस्तरीय व्यवस्था है। इसमें से राष्ट्रीय न्यायाधिकरण जो पूरी तरह से केन्द्र सरकार के क्षेत्राधिकार में है अनन्य रूप से औद्योगिक विवादों के लिए है। 1997 में देश में कुल 343 श्रम न्यायालय और औद्योगिक न्यायाधिकरण थे, जिसमें से 12 की स्थापना केन्द्र सरकार द्वारा की गई थी। श्रम न्यायालय नियोजन, नियोजन की समाप्ति, हड़तालों की वैधता इत्यादि (जो औद्योगिक विवाद अधिनियम की दूसरी अनुसूची में सूचीबद्ध हैं) से संबंधित विवादों से निपटते हैं। औद्योगिक न्यायाधिकरण श्रम न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आने वाले किसी भी विषय और मजदूरी, क्षतिपूर्ति, बोनस इत्यादि (जो औद्योगिक विवाद अधिनियम की तीसरी अनुसूची में सूचीबद्ध हैं) से संबंधित विवादों से निपट सकती हैं। यदि निचले स्तर के ये दो निकाय विवाद का समाधान करने में विफल रहते हैं तो यह राष्ट्रीय न्यायाधिकरण को सौंपा जा सकता है। तथापि, राष्ट्रीय महत्त्व के विवादों, ऐसे मामले जिसमें एक से अधिक राज्य सम्मिलित हैं, इस शीर्षस्थ निकाय में सीधे भेजे जा सकते हैं। औद्योगिक न्यायाधिकरणों की प्रभावशीलता का प्रमाण कुछ हद तक मिला जुला है, वर्ष 1998 में केन्द्रीय न्यायाधिकरणों में निपटान दर (समाधान विवादों की संख्या को लंबित विवादों की संख्या से विभाजित करने पर आने वाला भाग फल) मात्र 10 प्रतिशत था। निःसंदेह एक वर्ष से दूसरे वर्ष में इस दर में काफी अंतर है। न्यायाधिकरणों के शीघ्रतापूर्वक कार्य नहीं कर पाने का एक मुख्य कारण उनके पास आने वाले मामलों की बड़ी संख्या है। इसके बावजूद भी यह अंतिम उपाय है और यहाँ समाधान नहीं होने का अर्थ है विवाद का अनिर्णीत रह जाना।

बोध प्रश्न 4
1) श्रमिक संघ अधिनियम, 1926 की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए ।
2) औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
3) औद्योगिक विवाद अधिनियम में यथा परिकल्पित सरकारी तंत्र की भूमिका का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
4) सही के लिए (हाँ) और गलत के लिए (नहीं) लिखिए।
क) औद्योगिक विवाद सिविल न्यायालयों में निपटाए जाते हैं। ( )
ख) औद्योगिक विवादों को निपटाने में सरकार से सक्रिय भूमिका निभाने की आशा की जाती है। ( )
ग) श्रमिक संघ अधिनियम, 1926 के अनुसार व्यवसाय संघ कार्यकलाप का विस्तार राजनीतिक कार्यकलापों तक अनिवार्य रूप से नहीं होना चाहिए। ( )
घ) औद्योगिक विवाद अधिनियम के अनुसार, 100 या अधिक श्रमिक वाले फर्म सरकार की अनुमति के बिना श्रमिकों की छंटनी नहीं कर सकते हैं। ( )
ड) 50 अथवा अधिक श्रमिकों को नियोजित करने वाले फर्मों में कामबंदी क्षतिपूर्ति अनिवार्य है।

 बोध प्रश्नों के उत्तर अथवा संकेत

बोध प्रश्न 4
1) श्रमिक संघ अधिनियम, 1926 परिवादों को अभिव्यक्त करने, सामूहिक सौदाकारी में सम्मिलित होने और नागरिक तथा राजनीतिक हितों का अपने बीच संवर्धन के लिए भी संघ बनाने की श्रमिकों की स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान करता है। एक यूनियन के पंजीकरण के लिए कम से कम सात सदस्यों की आवश्यकता होती है और यह कारखाना स्तर और उद्योग स्तर पर स्थापित किया जा सकता है।
2) औद्योगिक विवाद अधिनियम में सामूहिक सौदाकारी और औद्योगिक विवादों को निपटाने के लिए कानूनी ढाँचे और सरकारी तंत्र का उपबंध किया गया है। अधिक विवरण के लिए भाग 31.4 पढ़िए।
3) भाग 31.4 पढ़िए।
4) (क) नहीं (ख) हाँ (ग) नहीं (घ) हाँ (ड.) हाँ ।