भक्ति आंदोलन का भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा impact of the bhakti movement on the medieval indian society in hindi

impact of the bhakti movement on the medieval indian society in hindi ?

प्रश्न: भक्ति के विचार अथवा भाव के स्त्रोत के बारे में लिखिए। भक्ति आंदोलन का भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा।
उत्तर: भक्ति के विचार की आद्यऐतिहासिक पुष्टि तो सिंधु कालीन अवशेषों से ही हो जाती हैं किंतु वैदिक संस्कृति में यह विचार निश्चित रूप से
लोकप्रिय हुआ क्योंकि गीता में मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग-ज्ञान, कर्म और भक्ति बताए गये हैं। व्यक्ति का सम्बन्ध चूँकि नैतिक आचरण से
था। इसलिए बुद्ध ने वैदिक प्रभुत्व के विरुद्ध अपने आंदोलन में सबसे पहले नैतिक आचरण या भक्ति को संकेन्द्रित किया।
बुद्ध के भक्तिभाव के शंकाराचार्य ने ज्ञान के अस्त्र से खण्डित किया और इसके बाद ज्ञान और नैतिक आचरण के रूप में भक्ति का संघर्ष प्रारम्भ हो गया। रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, विष्णुस्वामी आदि ने भक्तिमार्ग को सामान्यतः सगुण की दिशा में मोड़ दिया। निर्गुण-एकेश्वरवाद की धारा भी बहती रही। इस्लाम के आगमन के साथ ही संस्कृति की सुरक्षा, संरक्षण और विकास सम्बन्धी आवश्यकताओं ने भक्ति आंदोलन का मध्यकालीन स्वरूप विकसित किया।
भारतीय समाज पर प्रभाव
ऽ सार्वभौम मानवता के आधार पर लोकधर्म और संस्कृति के समस्त सूत्रों को इकट्ठा किया।
ऽ मानववाद के साथ व्यक्तिवाद को जोड़ा।
ऽ निम्नवर्ग में आध्यात्मिक चेतना का स्फुरण।
ऽ पूजा-अर्चना पद्धति एवं जाति-व्यवस्था का सरलीकरण।
ऽ हिंदु-मुस्लिम विषमता में कमी।
ऽ प्रांतीय भाषाओं में साहित्य का विकास।
ऽ सगुण एवं निर्गुण-भक्ति के समुद्देशीय प्रतिमान।
ऽ निराशावादी वातावरण में हिंदू समाज में नव-स्फूर्ति एवं नव-जागरण का संचार।
ऽ हिंदुओं में धर्म, संस्कृति और सामाजिक सुरक्षा भाव एवं राष्ट्रीय भावना की जागृति।
ऽ सिखों, जाटों, सतनामियों एवं मराठों का राजनीतिक उदय।।
प्रश्न: मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के विभिन्न क्षेत्रों पर पड़े प्रभावों की समीक्षा कीजिए। साथ ही यह भी बताइए कि इसकी भारतीय संस्कृति को क्या देन रही? ।
उत्तर: धार्मिक क्षेत्र में प्रभाव- धार्मिक दृष्टि से इस आंदोलन ने भक्ति पर बल दिया। धर्म में व्यर्थ के आडम्बर का और ईश्वर प्राप्ति के लिए सीधा
सरल भक्ति का मार्ग अपनाया और अनेक नए-नए पंथों को प्रोत्साहन दिया, जैसे- सिक्ख सम्प्रदाय, कबीर पंथ व दादू पंथ इत्यादि।
भक्ति आंदोलन ने भारतीय समाज और संस्कृति को एक नई दिशा प्रदान की। इस आंदोलन ने जहाँ एक ओर मानवताव की विचारधारा को विकसित किया वहीं दूसरी ओर व्यक्तिवादी विचारधारा को सशक्त बनाया। इसने मानव का सी सम्पर्क परम् पिता परमेश्वर से स्थापित कर उसमें संयम, सदाचार, भक्ति और प्रेम जाग्रत किया।
सार्वभौम मानवता के आधार पर लोकधर्म और संस्कृति के समस्त सूत्रों को इकट्ठा किया। इस आंदोलन के समर्थक समाज में जाति-पाति, वर्ग-भेद समाप्त कर सामाजिक समानता की स्थापना कर संस्कृति के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भक्ति आंदोलन ने भारतीय संस्कृति को राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में समान रूप से प्रभावित किया।
मानववाद के साथ व्यक्तिवाद को जोड़ा।
निम्नवर्ग में आध्यात्मिक चेतना का स्फुरण। भक्ति ने समाज में जाति-प्रथा की जटिलताओं को समाप्त कर निम्न वर्ग के लोग के लिए भक्ति का मार्ग खोल दिया। हिन्दू समाज में फैली विभिन्न रूढ़ियों, मद्यपान, पशुबलि आदि को समाप्त कराया।
पूजा-अर्चना पद्धति एवं जाति-व्यवस्था का सरीलीकरण।
हिंदु-मुस्लिम विषमता में कमी। भक्ति आंदोलन ने हिन्दू व मुस्लिम धर्म में समन्वय स्थापित करवाया। भक्ति आंदोलन में सूफी मत के एकेश्वरवाद को स्वीकार कर बहुदेववाद का खंडन किया। केवल एक ही ईश्वर की भक्ति पर जोर दिया। दस प्रकार हिन्दू तथा मुस्लिम धर्म में निकटता आ सकी जिसके कारण हिन्दू मुसलमान द्वेष किसी सीमा तक बंद सा हो गया।
प्रांतीय भाषाओं में साहित्य का विकास। अनेक संतों ने अपनी राचनाओं के द्वारा हिन्दी साहित्य तथा अन्य प्रांतीय भाषाओं को विकसित किया। गुरूनानक ने गुरूमुखी का विकास किया। तुलसीदास ने अवधी व सूरदास ने ब्रजभाषा के माध्यम से साहित्य के क्षेत्र में जनभाषा को प्रोत्साहित किया। महाराष्ट में नामदेव, तुकाराम व ज्ञानदेव आदि संतों ने मराठी भाषा में अपना योगदान दिया। राजस्थानी भाषा को विकसित करने में मीराबाई व दादूदयाल तथा बंगाली भाषा को विकसित करने में चैतन्य का महत्वपूर्ण योगदान है।
ऽ सगुण एवं निर्गुण-भक्ति के समुद्देशीय प्रतिमान। ऽ निराशावादी वातावरण में हिंदू समाज में नव-स्फूर्ति एवं नव-जागरण का संचार हुआ। ऽ हिंदुओं में धर्म, संस्कृति और सामाजिक सुरक्षा भाव एवं राष्ट्रीय भावना की जागृति हुई।
ऽ सिखों, जाटों, सतनामियों एवं मराठों का उदय में भक्ति संतों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रश्न: ष्शंकराचार्य ने विचारों और दर्शनों का समन्वय किया।ष् इस कथन की विवेचना कीजिए और उनके जीवन और विचारों के ऐतिहासिक महत्व का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर: पूर्व मध्यकाल में शंकराचार्य ने प्राचीन काल से ही प्रतिष्ठित वेदान्त दर्शन को आधार बनाते हुए अपने नवीन विचारों को प्रतिपादित किया,
जिसने ब्राह्मणवाद, कुरीतियों व आडम्बरों के कुप्रभावों से ग्रस्त पतनोन्मुखी हिन्दू धर्म के जीर्णोद्धार में सहायक भूमिका निर्वाह की।
तांत्रिक क्रियाओं से परिवर्तित रूप धारण किये बौद्ध धर्म को पुनः स्थापित करने हेतु शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन की नयी व्याख्या करते हुए दार्शनिक चिन्तन में अद्वैतवाद के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया। शंकराचार्य उपनिषदों के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने ब्रह्मसूत्र, गीता व उपनिषदों पर लिखे अपने भाष्यों के माध्यम से अद्वैतवाद का मत प्रतिपादित किया।
उन्होंने अपने अद्वैतवाद की विचारधारा के आधार पर ब्रह्म या ईश्वर को ही एकमात्र सत्ता माना है और सच्चिदानन्द की संज्ञा दी। ब्रह्म व जीवन में कोई भेद नहीं बताते हुए जग को माया या मिथ्या कहा। सच्चिदानन्द की व्याख्या करते हुए उन्होंने ब्रह्म को सत्य, चेतना न्या ज्ञान को चित्त व सांसारिक अनुभूतियों को आनन्द बतलाया। उनके अनुसार परमात्मा व आत्मा एक ही है किन्तु सांसारिक मोह माया के अज्ञानतावश जीवन को परमात्मा से पृथक अस्तित्व लगता है जबकि सांसारिक जीवन मिथ्या है। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति हेतु आत्म-साक्षात्कार को आवश्यक माना क्योंकि आत्म-साक्षात्कार से ही जीवात्मा की परमात्मा से पृथक रहने की अज्ञानता का समापन होता है। उन्होंने मोक्ष की अवस्था को ही परमानन्द माना जो कि ज्ञान की प्राप्ति से ही सम्भव है।
शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन की तर्कपूर्ण व्याख्या के आधार पर अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया। उन्होंने वेदों को महत्व दिया किन्तु उन्होंने इसकी ज्ञान की बातों को ही महत्व दिया जबकि इसमें वर्णित कर्मकाण्डों के वे घोर विरोधी थे, उन्हान वैदिक कर्मकाण्ड पर आधारित मीमांसा दार्शनिकों को वाद-विवाद में परास्त किया। साथ ही सांख्य, जैन व बौद्ध जस नास्तिक दर्शनों का भी खण्डन किया।
बौद्ध धर्म के कडे विरोधी होने के बावजूद शंकराचार्य महायान शाखा के तर्कपूर्ण शून्यवाद व विज्ञानवाद से प्रभावित था इसीलिए उन्हें श्प्रच्छन्न बौद्धश् भी कहा जाता है। उन्होंने कठोर नियमों वाले हीनयान व तांत्रिक प्रभाव के वज्रयान मता की निंदा की। शन्यवाद के सापेक्षता के सिद्धांत को तार्किक व सत्य मानते हुए उन्होंने स्वीकार किया। प्रकृति में घाटा सभी क्रियाओं, सुख-दुःख को उन्होंने एक-दूसरे के सापेक्षिक माना।
शंकराचार्य के जीवन एवं विचारों का ऐतिहासिक महत्त्व है। उन्होंने एकेश्वरवाद पर जोर दत किया। उन्होंने हिन्दू धर्म को अनेक अर्थहीन रीति-रिवाजों व अनावश्यक परम्पराओं से मुक्त कराने का प्रयास किया। उन्होंने एकेश्वरवाद पर जोर देते हुए कर्मकाण्डों का विरोध विचारों के प्रसार हेतु व हिन्दू धर्म के जीर्णोद्वार के लिए उन्होंने सम्पर्ण भारत का भ्रमण किया और चार मठ ज्योतिषमठ (बद्रीनाथ), गोवर्धनपीठ (पुरी), शारदापीठ (द्वारका व अंगेरीपीठ (अंगेरी स्थापित किए। उन्होंने मीमासकों जैन व बौद्ध प्रचारकों को शस्त्राथों में तर्कहीन सिद्व किया।
उन्होनंे सगुण भक्तिधारा की जगह निर्गुण ब्रह्म की उपासना को वरीयता दी।
यद्यपि जटिल दार्शनिक विचारों पर आधारित अद्वैतवाद आम जनता के मन में बैठी निराशा को दूर नहीं कर पाया किन्तु इसने हिन्दू धर्म के परम्परावादी सिद्धान्तों में परिवर्तन के लिए एक तर्कपूर्ण आधार प्रस्तुत किया। शंकराचार्य द्वारा कथित मिथ्या है, से यह दर्शन वास्तविक जीवन हेतु पे्ररणा नही बन सका क्योकि यह कर्मवाद के विरूद्व था। अद्वैतवाद भावनात्मक, नैतिक, व्यावहारिक प्रेरणा आम जनता को देने में असफल रहा।
विभिन्न व्यावहारिक कमियों के बाद भी शंकराचार्य के दार्शनिक विचारों ने हिन्द धर्म के पुनरुत्थान व दक्षिण मे विकसित हो रहे भक्ति आंदोलन को सहयोग प्रदान किया। साथ ही कालान्तर में सगुण भक्ति भावना पर आधारित रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद, माध्वाचार्य का द्वैतवाद, निम्बार्क का द्वैताद्वैतवाद आदि दार्शनिक मतों का विकास भी शंकराचाय क अद्वैतवाद के आधार पर ही हुआ। बाद के इन दार्शनिकों ने शंकराचार्य के अद्वैतवाद के खण्डन के आधार पर ही अपना नवीन मत प्रस्तुत किया, जो बाद में सम्पूर्ण भारत में मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन के लिए प्रेरणा-स्त्रोत बना।
प्रश्न: सूफी दर्शन पर एक लेख लिखिए।
उत्तर: सूफी मत की उत्पत्ति मध्य एशिया में इस्लाम धर्म से हई। मस्लिम रहस्यवाद या अध्यात्मवाद को ही सूफीवाद के नाम से जाना जाता था।
सूफी सिलसिले का आधार कुरान है। कुरान की रूढीवादी व्याख्या श्शरीयतश् तथा उदारवादी व्याख्या श्तरीफश् कहलाती है।
यह सिद्धान्त वेदांत दर्शन के परम एकत्ववाद के अनुरुप है। जिसके अनुसार सृष्टा (ईश्वर) और सृष्टि (मानव) अथवा ईश्वर और आत्मा मिलकर एक निरपेक्ष वास्तविकता का निर्माण करते हैं। आत्मा का परमात्मा के साथ जब एकीकरण हो जाता है तो उसे श्मारीफतश् कहा गया।
सूफी शब्द का प्रयोग करने वाला प्रथम लेखक श्बसराश् का श्जाहीजश् (869 ईस्वी) था। जबकि श्जानीश् के अनुसार सूफी शब्द का प्रथम प्रयोग श्कूफाश् के श्अबुहासिमश् ने किया।
सूफीवाद मूलतः दार्शनिक व्यवस्था पर टिका हुआ था। सूफीवाद का एकतत्वदर्शन, श्वहदत-उल-वुजुदश् (एकेश्वरवाद) के सिद्धांतो, मानव
जाति की एकता पर आधारित था जिसके अनुसार सृष्टा (हक) तथा सृष्टि (जीव) एक समान थे। सारांश यह है की ईश्वर सर्वव्यापक है और सब में उसकी झलक है। इस सिद्धांत के प्रतिपादक श्शेख मुइनुद्दीन इनुल अरबीश् (13वीं सदी) थे। इन्नुल अरबी के सिद्धांत के अनुसार, सृष्टा और सृष्टि अथवा परमात्मा और आत्मा मिलकर एक निरपेक्ष वास्तविकता का निर्माण करते हैं। श्शेख अलाउद्दीन सिम्मानीश् ने इस विचारधारा का खंडन कर श्वहदत-उल-शुहुदश् विचारधारा प्रतिपादित की जिसके समर्थक, श्शेख अहमद सरहिन्दीश् भी थे इसके अनुसार अल्लाह व सृष्टि के बीच अन्तर होता है न कि समायोजन। यह विचार शरिया के विचार से मिलता है।
पहली सर्वेश्वरीवादी, रहस्यवादी महिला श्रबियाश् थी। श्मन्सुल-बिन-हल्लाजश् ने श्अन-हल-हकश् विचार दिया जो श्वहदत-उल-वुजुदश् के अनुरूप था। सूफी संतो के विचारों का संकलन श्मलफूजातश् कहलाता है। भक्ति सुधारकों की तरह अधिकांश सूफियों ने संसार के भौतिकवादी मार्गों का परित्याग किया, जिसे श्तर्क-ए-दुनियाश् कहा गया। सूफी लोगों ने एकान्तवास में जीवन बिताया इनके निवास स्थान
श्खानकाहश् अथवा श्जमायतश् कहलाते थे।
एकेश्वरवादी, सादा व गरीबी का जीवन, अमूर्तिपूजक, ईश्वर प्राप्ती साधन के लिये समा (संगीत व नृत्य) को ईश्वर प्राप्ति में (फना होने में) सहायक, व पीर (गुरू) व श्मुरीदश् (शिष्य) परम्परा आदि सूफियों का दर्शन रहा है। आगे चलकर सूफी. सूफियों के दो वर्ग हो गये।
1. बशरा – शरा को मानने वाले। विशेषकर चिश्ती और सुहरा वरदी (सुरहावर्दी)
2. वे -शरा – जो शरा को नहीं मानते, इनमें अधिकतर घुमक्कड़ सूफी आते थे।
सूफी लोग आगे चलकर कई संप्रदाय में विभाजित हो गये। एक अनुमान के अनुसार संसार में 175 सफी सिलसिले प्रकाश में आये। अबुल फजल 14 सिलसिलों की सूची देता है जिनमें से श्चिश्तीश्श्ए श्सुहरावर्दीश्, श्नक्शबंदीश् एवं कादिरी मुख्यतः भारत में आये। भारत में आने वाला पहला सूफी संत शेख इसमाइल था। जबकि कुछ विद्वान श्अल-हजनवीरीश् या दातागंज बक्श को मानते हैं जिन्होंने कश्फ-उल-महजूब की रचना की। शुरुआती दिनों में चिश्ती व सुहरावर्दी ने अपना स्थान बनाया, एवं ये दोनों ही बसरा के महत्वपूर्ण संप्रदाय थे। सुहरावदी मुख्यः रूप से सिंध, पंजाब और मल्तान तक सीमित थे, जबकि चिश्ती भारत के अनेक भागों में फैल गया।