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icbn in hindi | अन्तर्राष्ट्रीय वानस्पतिक नामकरण संहिता (international code of botanical nomenclature in hindi)

(international code of botanical nomenclature in hindi) अन्तर्राष्ट्रीय वानस्पतिक नामकरण संहिता नियम icbn in hindi full form definiton what is meaning rules  : 

ICBN full form : हिंदी में ICBN का पूरा नाम “अन्तर्राष्ट्रीय वानस्पतिक नामकरण संहिता” होता है तथा इसका पूर्ण नाम अंग्रेजी में international code of botanical nomenclature होता है , यह एक संस्था है जो नए खोजे गए पादप प्रजाति के नामकरण के पैमाने अपने नियमों के आधार पर निश्चित करती है | ये नियम निम्नलिखित है |

नियम (Rules) : 

ये नियम नामकरण से सम्बन्धित सभी तथ्यों की पूर्ण व्याख्या करते है। कोई भी नाम जो इन नियमों के प्रतिकूल हो , मान्य नहीं होता है। कुछ महत्वपूर्ण नियमों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है –

  1. वर्गकों की कोटि (rank of taxa): संहिता के आधार पर किसी भी कोटि का वर्गीकरण समूह वर्गक कहलाता है। आधारभूत वर्गक कोटि प्रजाति है और वंश , कुल , गण , वर्ग , प्रभाग आदि वर्गकों की अपेक्षाकृत उच्च कोटियाँ है। इस प्रकार एक वंश में अनेक प्रजातियाँ और एक कुल में अनेक वंश होते है। पौधों की विस्तृत वर्गीकरण स्थिति को भली भांति समझने के लिए वर्गकों को 2 श्रेणियों में विभेदित किया जा सकता है , ये है –

प्रमुख वर्गक (major taxa) :

  1. जगत   2. प्रभाग
  2. उप प्रभाग  4. संवर्ग
  3. उप संवर्ग   6. गण
  4. उप गण   8. कुल
  5. उप कुल  10. ट्राइब
  6. सब ट्राइब

गौण वर्गक (minor taxa) :

  1. वंश   2. उप वंश
  2. प्रजाति   4. उपजाति
  3. किस्म    6. उप किस्म
  4. फ़ोर्मा   8. क्लोन

विभिन्न वर्गिकीय श्रेणियों के कुछ प्रामाणिक अनुलग्नक निम्नलिखित प्रकार है –

वर्गक अनुलग्नक
संवर्ग ई eae
गण एलीज ales
उप गण एनी ineae
कुल ऐसी aceae
उप कुल ओइडी oideae
ट्राइब ई eae
सब ट्राइब इनी inae

इसके अतिरिक्त भी इन प्रमाणिक अनुलग्कों के कुछ अपवाद देखे जा सकते है , जिनको आज भी मान्यता अथवा प्रामाणिकता प्रदान की जाती है क्योंकि ऐसे नाम काफी लम्बी अवधि से प्रयुक्त किये जाते रहे है और नामकरण नियमों की स्थापना से पूर्व भी काफी लोकप्रिय और बहु प्रचलित रहे है , अत: इनको अपवाद स्वरूप पूर्ववत स्थिति में स्वीकार कर लिया गया है। उदाहरण के लिए नियमानुसार सभी गणों के नाम के पीछे प्रत्यय अथवा अनुलग्नक के रूप में ales अथवा एलीज का प्रयोग किया जाता है , जैसे – पेराइटेलीज अथवा माल्वेलीज आदि लेकिन कुछ गणों जैसे ग्लूमीफ्लोरी और ट्यूबीफ्लोरी में यह -ae या ई है। नियमावली में इन नामों में छूट की व्यवस्था की गयी है। सभी वर्गकों के नाम जैसे कुल और इससे निम्न स्तर की श्रेणियों जैसे वंश , प्रजाति और उपजाति के नामों को लैटिन भाषा में लिखना और टेढ़े अक्षरों अथवा इटैलिक में मुद्रित करना अनिवार्य है।

II. प्रारुपीकरण अथवा प्रारूप विधि (typification or type method)

किसी भी श्रेणी के वर्गकों के कुल , वंश या प्रजाति का नाम , नामकरण प्रारूप के आधार पर रखा जाता है।

प्रारूप किसी भी लेखक द्वारा प्रामाणिक रूप से किसी पादप विशेष के लिए प्रयुक्त वह पादप संग्रहालय शीट है जिसे मूल रूप से पहली बार प्रयुक्त किया गया हो।

नामकरण प्रारूप वह मूल प्रमाण है जिसके साथ नाम स्थायी रूप से सम्बन्धित रहता है। किसी भी प्रजाति या अवजाति वर्गक का एक अलग सुनिश्चित पादप प्रतिरूप होता है। यदि किसी पौधे का प्रतिरुप परिरक्षित नहीं किया जा सके तो इसका वर्णन या चित्र ही उसका प्रारूप होता है। अनेक उदाहरणों में ऐसा देखा गया है कि बड़े वंशों को पादप वर्गीकरण विज्ञानी दो अथवा दो से अधिक वंशो में पृथक करते है तो इस अवस्था में कठिनाई यह आती है कि कौन से नए वंश को वास्तव में मूल रूप से प्रयुक्त हो रहे नाम से जाना जाए। इसके निराकरण के लिए प्रामाणिक विधि का प्रस्ताव किया गया है। इसके अनुसार वंश नाम प्रमाणिक प्रजातियों के मान्य हो जाने पर ही निर्धारित किये जाते है। किसी भी वंश अथवा प्रजाति के प्रारूप को सुनिश्चित करने के लिए मत विभेद काफी लम्बे समय तक चलते है लेकिन सन 1950 में आयोजित स्टॉकहोम कांग्रेस में इस पर विस्तृत विचार विमर्श के बाद प्रारूप के नामकरण हेतु निम्न प्रारूप श्रेणियों को मान्यता दी गयी है –

(1) नाम प्रारूप अथवा मूल प्रारूप : यह लेखक द्वारा निर्धारित नामकरण प्रारूप के लिए काम में लिया गया पादप प्रतिरूप अथवा अन्य कोई और साम्रगी होती है।

(2) चयन प्रारूप : जब होलोटाइप अथवा मूल प्रारूप खो जाए अथवा प्रकाशन के समय लेखक द्वारा निर्दिष्ट नहीं किया गया हो तब मौलिक सामग्री से चयनित ऐसा पादप प्रतिरूप जो नामकरण प्रारूप के रूप में प्रयुक्त होता है , तो इसे चयन प्रारूप कहते है।

(3) समप्रारूप : यह नाम प्रारूप की प्रतिलिपि अथवा दूसरी प्रति होता है। उदाहरण के लिए किसी एक ही स्थान से एकत्र एक ही प्रजाति के शाकीय पौधों को अलग अलग संग्रहालय शीटों पर परिरक्षित किया जाए अथवा एक ही वृक्ष की अलग अलग शाखाओं से अनेक पादप संग्रहालय शीटें तैयार की जाए तो इनमें से एक शीट नाम प्रारूप अथवा मूल प्रारूप और शेष अन्य समप्रारूप कहलाती है।

(4) सहप्रारूप : यदि लेखक द्वारा दो पादप प्रतिरूपों का उल्लेख किया जाए और उनमें नाम प्रारूप को निर्देशित अथवा उल्लेखित नहीं किया गया हो तो इन दो प्रतिरूपों में से एक नाम प्रारूप और दुसरे को सहप्रारूप कहते है। यह स्थिति तब आती है जब एक से अधिक पादप प्रतिरूप तैयार किये जाए और नामप्रारूप को चिन्हित नहीं किया जाए।

(5) कोटाइप : जिस पौधे से होलोटाइप का चयन किया जाता है , अगर उसी पौधे से एक और पादप प्रतिरूप एकत्र किया जाए तो अतिरिक्त पादप प्रतिरूप कोटाइप कहलाता है। वास्तव में यह सिनटाइप के समकक्ष ही है।

(6) नवप्रारूप : जब किसी पादप अथवा वर्गक के नामकरण से सम्बन्धित कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं होती है तो ऐसी अवस्था में नामकरण प्रारूप के लिए काम में लिया जाने वाला पादप प्रतिरूप नवप्रारूप कहलाता है।

(7) अपर प्रारूप : ऐसा कोई पादप प्रतिरूप जो होलोटाइप के अतिरिक्त मौलिक विवरण के साथ उद्धृत (cited) होता है तो उसे अपर प्रारूप अथवा पेराटाइप कहते है।

(8) प्रारूप : जब किसी प्रारूप के सन्दर्भ में केवल प्रारूप अथवा टाइप शब्द का उपयोग किया गया हो तो इसका तात्पर्य होलोटाइप से होता है।

(9) मूलस्थान प्रारूप : जिस स्थान से होलोटाइप तैयार करने के लिए पादप प्रतिरूप का चयन किया गया हो और इसके बाद उसी स्थान से कोई अन्य प्रतिरूप फिर एकत्र किया जाता है तो ऐसे पादप प्रतिरूप को मूल स्थान प्रारूप अथवा टोपोटाइप कहते है।

III. प्राथमिकता का नियम (law of priority in taxonomy)

प्रत्येक वर्गक का केवल एक ही शुद्ध नाम होता है जिसे सर्वप्रथम विधिसम्मत रूप से निर्धारित किया जाता है। अत: ऐसे नाम को प्राथमिकता प्रदान की जाती है और इस नाम का उपयोग ही न्यायसंगत माना जाता है लेकिन प्राथमिकता का सिद्धान्त कुल से उच्च श्रेणी वाले वर्गकों के लिए लागू नहीं होता है।

प्रख्यात पादप वर्गीकरण विज्ञानियों के अनुसार पादप नामकरण के समस्त नियमों में प्राथमिकता का नियम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और इसके अनुसार प्रथम विधिसम्मत नाम को स्वीकार करना ही प्राथमिकता का सिद्धांत है , जैसे कि कैपेरिडेसी कुल के पादप क्लिओम गाइनेंड्रा के नामकरण के निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट हो जायेगा।

(i) इस पादप का वर्णन सर्वप्रथम लिनियस (1753) द्वारा किया गया और उन्होंने इसका नामकरण क्लिओम गाइनेन्ड्रा लिन. के नाम से किया।

(ii) इसके बाद लिनियस ने ही सन 1762 में इसका वर्णन क्लिओम पेंटाफिल्ला लिन. के नाम से किया।

(iii) डि केन्डौले (1824) ने इसके अंतर्गत 3 अलग अलग पादप वंशों की पहचान की। इसके नाम थे क्लिओम ,गाइनेन्ड्रोप्सिस और पोलेनिसिया और उसने लिनियस द्वारा वर्णित पौधे को गाइन्ड्रोप्सिस पेन्टाफिल्ला लिन. डी. सी. का नाम दिया।

(iv) सन 1960 में इल्टिस ने दोनों पादप वंशो अर्थात क्लिओम और गाइनेन्ड्रोप्सिस का एक ही पादप वंश के रूप में समावेश अथवा विलय कर दिया और इस नव संश्लेषित पादप वंश का नामकरण इसके प्रथम नाम क्लिओम के रूप में किया।

(v) अत: प्राथमिकता के सिद्धांत के अनुसार इस पौधे का प्रथम नाम क्लिओम गाइनेन्ड्रा लिन. ही वैध और मान्य होगा।

प्राथमिकता के नियम के लागू हो जाने से पादप वर्गीकरण विज्ञानियों द्वारा अनेक पादप नामों में परिवर्तन किया गया है।

IV. वैधता का नियम (rule of validity)

यह वनस्पतिक नामकरण से सम्बन्धित तीसरा महत्वपूर्ण नियम है। इसके अनुसार किसी भी वानस्पतिक नाम का प्रकाशन वैध या मान्य होना चाहिए। नाम के वैध प्रकाशन हेतु निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखना आवश्यक है –

(1) प्रकाशन (नामकरण) प्रभावी हो , वनस्पतिशास्त्र के सामान्य जानकारों तक उस सन्देश को प्रेषित करने में सार्थक हो जिसके लिए , इसका प्रकाशन किया गया है।

(2) प्रकाशन के साथ नवीन वर्गक का वर्णन संलग्न होना चाहिए , साथ ही इससे सम्बन्धित पूर्ण प्रभावी प्रकाशन का वर्णन और सन्दर्भ भी साथ में संलग्न करना आवश्यक है।

(3) प्रकाशन का वर्णन लैटिन भाषा में होना चाहिए।

(4) अगर वैध प्रकाशन के लिए निर्धारित समस्त स्थितियां एक साथ पूरी नहीं हो पा रही है तो अंतिम आवश्यक शर्त पूर्ण होने पर इस प्रकाशन को वैध मान लिया जाएगा।

V. प्रभाविता का नियम (rule of effectivity)

जैसा कि हम जानते है कि उस वानस्पतिक साहित्य अथवा प्रकाशन को प्रभावी माना जाता है जिसमें अपना सन्देश , संप्रेषित करने की क्षमता होती है। प्रकाशन को प्रभावी बनाने के लिए निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है –

  1. प्रकाशित सामग्री का पुस्तकालयों , शोध प्रयोगशालाओं और वनस्पतिशास्त्रियों के मध्य व्यापक प्रसार किया जाए।
  2. केवल सेमिनार , संगोष्ठी , विज्ञान कांग्रेस अथवा अन्य मीटिंगों और बैठकों , सभा समारोहों में प्रकाशन सम्बन्धी प्रस्तुतिकरण के माध्यम से ही इसे प्रभावी नहीं बनाया जा सकता है।
  3. नए खोजे गए पौधे को गमले में लगाकर उद्यान अथवा सार्वजनिक स्थान पर प्रदर्शित करके भी इसे प्रभावी नहीं बनाया जा सकता है।
  4. 1 जनवरी 1953 अथवा इसके पश्चात् अगर नयी खोजी गयी पादप प्रजाति के नाम का प्रकाशन केवल समाचार पत्रों अथवा अवैज्ञानिकों पत्रिकाओं में ही हुआ हो तो यह भी प्रभावी नहीं होगा।
  5. प्रकाशन वैज्ञानिक शोध पत्रिका में होना चाहिए।
  6. प्रकाशन को इंडेक्स क्यूएंसिस , बायोलोजिकल एब्सट्रेक्ट , इंडियन साइंस एब्सट्रेक्ट और इन्सडोक (INSDOC) जैसी संस्थाओं को भेजा जाना चाहिए।
  7. प्रभावी प्रकाशन की तारीख उस दिन को माना जायेगा जिस तिथि को प्रकाशन मुद्रित रूप से उपलब्ध होता है।
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