प्राचीन भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी PDF पर निबंध history of science and technology in ancient india pdf in hindi

history of science and technology in ancient india pdf in hindi प्राचीन भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी PDF पर निबंध ?

प्राचीन भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
तकनीक का अर्थ है व्यावहारिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वैज्ञानिक ज्ञान का अनुप्रयोग करना। प्राचीन भारत ने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिए हैं। प्राचीन भारत में बड़ी संख्या में वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय ज्ञान के व्याप्त होने के प्रमाण मौजूद हैं। उनमें से कई उस समय के धार्मिक विश्वास से जुड़े थे।
सिंधु सभ्यता के पुरातात्विक अवशेषों से प्रारंभ करते हैं, जो अनुप्रयोगात्मक विज्ञानों की जागकारी होने को उद्घाटित करते हैं। सिंचाई, धातुकर्म, ईंट निर्माण और दस्तकारी, तथा क्षेत्र एवं मात्रा के मापन में वैज्ञानिक तकनीकों का प्रयोग किया जाता था। सिंधु सभ्यता के स्थलों से प्राप्त कलारूपों से ज्ञात होता है कि हड़प्पावासियों ने 2500 ईसा पूर्व में तांबे एवं कांसे के धातुकर्म को विकसित कर लिया था। हालांकि, भारत में प्रौद्योगिकीय ज्ञान ने वास्तविक रूप से वैदिक काल से निरंतर गति प्राप्त की।
यह स्पष्ट रूप से देखा गया कि धर्म एवं प्रौद्योगिकीय उन्नयन के बीच एक घनिष्ठ संबंध था। इनमें से अग्रणी विषय थे, गणित, खगोलशास्त्र, औषधि, भौतिक एवं रसायन, जहां यह संबंध अधिक गहरा था। मोटे तौर पर, तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक वैज्ञानिक ज्ञान एक पृथक् अध्ययन क्षेत्र बन गया और गणित, खगोलशास्त्र, औषधि एवं अन्य विषयों ने अपना पृथक् विकास किया, यद्यपि इनके अनुप्रयोग अंतर-अनुशासनात्मक बने रहे। बड़ी मात्रा में पाए गए लेखन एवं शिलालेखों से प्राचीन भारत में वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी ज्ञान का विविध ब्यौरा प्राप्त होता है।
शुल्वसूत्र, जो कि प्राचीन भारत का एक दस्तकार था, ने रसायन विज्ञान के विकास में योगदान दिया। यह बताया जाता है कि विश्व में भारतीय लुहारों ने सर्वप्रथम इस्पात को प्रस्तुत किया। रंगों की खोज भारतीय रंगरेजों ने की, उन्होंने नीले रंग की खोज की। भारत के प्राचीन लोग शरीर-रचना विज्ञान एवं औषधि में कौशल रखते थे। उन्होंने रोगों का पता लगाने की पद्धतियां ईजाद कीं। दूसरी शताब्दी ईस्वी के चिकित्सा विज्ञानी सुश्रुत एवं चरक को मोतियाबिंद की शल्य चिकित्सा और पथरी दूर करने हेतु आॅपरेशन का श्रेय जाता है। इन्होंने विभिन्न प्रकार के रोगों एवं व्याधियों जिसमें बुखार, कुष्ठ रोग, मिर्गी और तपेदिक शामिल हैं, का वर्णन किया और औषधि के तौर पर उपयोगी विभिन्न प्रकार के पौधों एवं जड़ी बूटियों के नाम रखे। हड़प्पा संस्कृति के समय से ही कृषि की जाती थी और बाद के समय में यह मुख्य व्यवसाय बन गया। विभिन्न प्रकार की आगतों एवं पद्धतियों के उपयोग से बड़ी संख्या में फसलें उगाईं गईं। प्राचीन भारत के लोगों ने उनके आस-पास के घटनाक्रम एवं विश्व पर महत्वपूर्ण सूचना एकत्र की। प्राचीन काल में भारत में विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में विकास इस प्रकार हैः
खगोलविज्ञान एवं ज्योतिषशास्त्र
गणित की विभिन्न शाखाओं के मध्य, हिंदुओं ने खगोलविद्या को अधिकतम महत्व दिया। खगोलशास्त्र को वेदांत के तौर पर अध्ययन किया जाता था और इसे ज्योतिष कहा जाता था। वैदिक काल के दौरान आदिम प्रकार की एक खगोलविद्या चलन में थी जिसका उद्देश्य समय-समय पर दी जागे वाली बलियों के लिए तिथि एवं समय का निर्धारण करना होता था। सूर्यसिद्धांत हिंदू खगोलविद्या पर सुप्रसिद्ध ज्ञात पुस्तक है। इसमें 500 ईस्वी से 1500 ईस्वी के बीच दो से तीन बार संशोधन किया गया। इस पुस्तक में इस प्रकार की पद्धति का उल्लेख किया गया है जिसका इस्तेमाल ग्रहण का अनुमान लगाने के लिए आज भी किया जाता है।
आर्यभट्ट एवं वराहमिहिर खगोलशास्त्र के सुप्रसिद्ध विद्वान थे। आर्यीाट्ट पांचवीं शताब्दी से सम्बद्ध थे जबकि वराहमिहिर छठी शताब्दी से संबंध रखते थे। आर्यभट्ट ने मात्र 23 वर्ष की आयु में आर्यभट्टीय पुस्तक लिखी। उन्होंने वेबीलोनियाई पद्धति से ग्रहों की स्थिति की गणना की। उन्होंने सूर्य एवं चंद्र ग्रहण के कारणों की खोज की। उन्होंने पृथ्वी के परिवृत्त का मापन किया। उन्होंने बताया कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी इसके चारों ओर चक्कर लगाती है।
छठी शताब्दी ईस्वी से सम्बद्ध वराहमिहिर ने बृहत्संहिता लिखी जो खगोलशास्त्र के ऊपर एक दूसरी सुप्रसिद्ध कृति है। बृहत्संहिता खुलासा करती है कि चंद्रमा, पृथ्वी के चंहु ओर परिक्रमा करता है। उन्होंने ग्रहों की हलचल एवं कुछ अन्य खगोलशास्त्रीय समस्याओं की व्याख्या करने के लिए कई ग्रीक ग्रंथों का उपयोग किया। वराहमिहिर ने अपने समय की पांच खगोलशास्त्रीय पुस्तकों का सारांश लिखा। उन्होंने अपने पांच खगोलशास्त्रीय तंत्र में से एक को रोमक सिद्धांत कहा।
ब्रह्मगुप्त ने अपनी पुस्तक ब्रह्मस्फुत-सिद्धांत में प्रेक्षण और खगोलविद्या के मूल्य की सराहना की और उनकी पुस्तक का अरबी भाषा में अनुवाद किया गया। भारत के आधुनिक कर्नाटक में जन्में भास्कराचार्य एक अद्भुत गणितज्ञ थे। उन्होंने खगोलशास्त्र पर एक प्रसिद्ध पुस्तक सिद्धांत शिरोमणि लिखी। चार भागों में लिखी यह पुस्तक 1150 ईस्वी में लिखी गई जब भास्कराचार्य 36 वर्ष के थे। संस्कृत में लिखी इसी पुस्तक में 1450 श्लोक हैं।
खगोलशास्त्र के विकास में प्राचीन गणित की भूमिकाः खगोलशास्त्र के विकास में गणित ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसा इसलिए क्योंकि सटीक कैले.डर तैयार हो सके जिससे सही समय पर धार्मिक कार्यक्रम किए जा सकें। इसमें ग्रहों एवं अन्य अंतरिक्ष निकायों के बारे में सही जागकारी की आवश्यकता होती है। इसके लिए सटीक खगोलीय गणनाओं के लिए गणित को एक यंत्र के तौर पर प्रयोग किया गया।
दूसरी शताब्दी ईस्वी में यवनेश्वरा ने ग्रीक ज्योतिष रचना (120 ईसा पूर्व) का अनुवाद किया और भारतीय सांस्कृतिक चिन्हों, प्रतीकों और हिंदू धार्मिक चित्रों को इसमें शामिल करके इसे लोकप्रिय बनाया। 500 ईस्वी के आस-पास भारतीय गणित एवं खगोलशास्त्र का शास्त्रीय (क्लासिकल) युग शुरू हो गया था। आर्यभट्ट के समय में, कुसुमपुरा प्राचीन भारत के खगोलशास्त्र एवं गणित के एक अग्रणी केंद्र के रूप में उदित हुआ। एक अन्य महत्वपूर्ण केंद्र उज्जैन था जहां वराहमिहिर ने खगोलशास्त्र एवं क्षेत्रमिति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया। वराहमिहिर के समकालीन यतीवरसभा का कार्य जैन गणित पर आधारित है। उज्जैन स्कूल में ही सातवीं शताब्दी में एक महत्वपूर्ण विद्वान थे, ब्रह्मगुप्त। ब्रह्मगुप्त के समकालीन विद्वान ने अस्मका स्कूल चलाया। वे आर्यभट्ट के कार्यों के एक महत्वपूर्ण खगोलशास्त्री थे, जिन्होंने भी आर्यभट्ट पर टीका लिखी।
9वीं शताब्दी ईस्वी में गोविंद स्वामी, महावीर, प्रदुदक्स्वामी,शंकर, एवं सिद्धार्थ जैसे कई गणितज्ञ हुए। प्रदुदक्स्वामी,शंकर एवं सिद्धार्थ ने भास्कर के कार्यों पर टिप्पणी लिखी वहीं महावीर ने ब्रह्मगुप्त की पुस्तक को संशोधित करके प्रसिद्धि प्राप्त की।
गणित
प्राचीन भारत में गणित की समृद्ध परम्परा रही है। प्राचीन गणित का उद्गम सिंधु घाटी सभ्यता में देखा जा सकता है। इस सभ्यता के स्थलों में ऐसे कला रूप पाए गए हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि सिंधु घाटी के लोगों को गणित का ज्ञान था। खुदाई के दौरान यहां बड़ी संख्या में पैमाना (स्केल) मिले हैं जिनका प्रयोग लम्बाई के मापन में किया जाता रहा होगा। एक दशमलव स्केल भी खोजा गया है जिसे ‘इंड्स इंच’ के तौर पर जागा जाता है जो 1.32 इंच (3.35 से.मी.) की एक इकाई पर आधारित है। एक अन्य पैमाना, जो एक कांसे की छड़ है, पाया गया है और जिस पर 0.367 इंच चिन्हित हैं।
यह गौर किया गया है कि इन मापनों का प्रयोग सिंधु सभ्यता के लोगों द्वारा भवनों एवं अन्य शहरी ढांचों के निर्माण में सटीकता के लिए किया जाता होगा। यह ज्ञात होता है कि सिंधु लोगों ने माप-तौल की एकसमान पद्धति को अपनाया। हालांकि, सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों की गणित की उपलब्धियों के बारे में समग्र जागकारी नहीं हैं।
वैदिक युग में गणित का विकासः वैदिक युग में गणित एवं खगोलविज्ञान के विकास ने एक ऊंची छलांग लगाई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि धार्मिक विश्वास पद्धति इसका प्रयोग धार्मिक उद्देश्यों के लिए करना चाहती थी। सबसे पहले अभिलेखित पुस्तक वेदों में शुल्वसूत्र हैं जिसमें रीति-रिवाजों के लिए नियम निर्धारित किए गए। इसी उद्देश्य के लिए शुल्वसूत्र में ज्यामितीय सूचना भी प्रदान की गई है। शुल्वसूत्र को समय-समय पर विद्वानों एवं पुजारियों ने तैयार किया। इनमें बौद्धयान (लगभग 800 ईसा पूर्व), मानव (लगभग 750 ईसा पूर्व), अपस्तम्ब (लगभग 600 ईसा पूर्व) और कात्यायन (लगभग 200 ईसा पूर्व) शामिल हैं।
बौद्धयान छठी शताब्दी ईस्वी में प्रथम गणितज्ञ थे जिन्होंने पाई (Pi) का मान (वैल्यू) की गणना की। उन्होंने पाइथागोरस प्रमेय की अवधारणा की व्याख्या की।
वैदिक काल में शिक्षा पद्धति ने पुजारियों एवं संतों के गणितीय अध्ययन को प्रतिबंधित किया और इसके अध्ययन में व्यवस्थागत पद्धति का अभाव था जैसाकि इसका प्रयोग धार्मिक उद्देश्यों के लि, करना माना जाता था। वैदिक काल में शिक्षा पद्धति परम्परा पर आधारित थी और इसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपा जाता था। गणित एक अनुप्रयोगात्मक विज्ञान रहा और इसने व्यावहारिक समस्याओं के समाधान की पद्धतियों को विकसित किया।
जैन गणितः छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास बौद्ध एवं जैन जैसे नवीन धर्मों का विकास हुआ जिसमें गणित के क्षेत्र में और अधिक विकास देखा गया। इस समय गणित के मुख्य विषय थे संख्या पद्धति, अंकगणितीय प्रक्रियाएं, ज्यामिति, गुणनखंड, साधारण समीकरण, घन एवं चतुर्भुज समीकरण एवं अन्य समुच्चय एवं क्रम परिवर्तन। जैन गणितज्ञों ने अपरिमेय सिद्धांत को विकसित किया जिसमें असीमता के विभिन्न स्तर थे, घातांक की मूलभूत समझ और लघुगणक के कुछ विचार प्रस्तुत किए।
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य के आस-पास संख्या के प्रयोग अस्पष्ट दिखने लगे जब ब्राह्मी संख्या प्रकट होना शुरू हो गई। संख्या पद्धति के प्रयोग के प्रारंभिक प्रमाण तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के अशोक के अभिलेखों में पाए जाते हैं।
पिंगला (प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व) नामक गणितज्ञ ने बाइनरी पद्धति को दशमलव संख्याओं में परिवर्तनीय समीकरण के तौर पर विकसित किया। उन्होंने इस पद्धति को अपनी पुस्तक चंदंदाशास्त्र मंे वणिर्त किया है। उनके द्वारा विवेचित यह पद्धति लेबनिट्ज द्वारा प्रस्तुत पद्धति के बिल्कुल समान है।
आमतौर पर अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि भारत कई गणितीय अवधारणाओं का जन्म स्थान रहा है जिसमें शून्य, दशमलव पद्धति, बीजगणित और लघुगणक, वग्रमूल और घनमूल शामिल हैं। शून्य एक संख्या के साथ-साथ अवधारणा भी है। यह अपने उदय के लिए भारतीय दर्शन का ऋणी है जिसमें शून्य की अवधारणा थी जिसका शाब्दिक अर्थ जीरो है और यह दर्शनशास्त्रीय अवधारणा का प्रतिनिधित्व करता है।
ज्यामितीय सिद्धांतों से प्राचीन भारतीय अनभिज्ञ नहीं थे और यह मंदिर की दीवारों पर चित्रित मूलभावों में देखा जा सकता है जो अधिकतर मामलों में मिश्रित फूलकारी एवं ज्यामितीय बनावट एवं रूप में धूमिल हो गई। क्रमिक गणनाओं की पद्धति को ‘पंच-सिद्धांत’ नामक पुस्तक में विवेचित किया गया है जो 5वीं शताब्दी ईस्वी में लिखी गई।
भारतीय गणित की सफलता का मुख्य कारण भारतीयों की पूर्ण संख्या को लेकर स्पष्ट अवधारणा थी। बीजगणितीय सिद्धांत, जैसाकि यह भी एक अन्य गणितीय अवधारणा है, जो प्राचीन भारत में व्याप्त थाए का संग्रह एवं आगामी विकास आर्यभट्ट द्वारा किया गया, जो 5वीं शताब्दी में पटना शहर में, तत्कालीन पाटलिपुत्र के नाम से ख्यात, रहते थे।
भौतिकी
प्राचीन भारत में अणु की अवधारणा की जड़ें प्राचीन भारतीय दार्शनिकों द्वारा भौतिक संसार को पांच आधारभूत तत्वों में वर्गीकृत करने से निकली है। ये पांच तत्व और ऐसा वर्गीकरण 3000 ईसा पूर्व के पूर्व वैदिक समय से मौजूद था। ये पांच तत्व थे पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल एवं आकाश। ये तत्व मानव की ऐन्द्रिय अवधारणा से भी सम्बद्ध हैं। पृथ्वी का संबंध सूंघने से, वायु का महसूस करने से, आग का दृष्टि से, जल का जीभ से और आकाश का ध्वनि से संबंध है। बाद में, बौद्ध दार्शनिकों ने आकाश तत्व को जीवन, आनंद एवं दुःख से प्रतिस्थापित कर दिया।
प्राचीन काल से, भारतीय दार्शनिक विश्वास करते थे कि आकाश के सिवाय, अन्य सभी तत्व परिस्पृश्य हैं और इस प्रकार पदार्थ के लघु एवं सूक्ष्म अणुओं से बने होते हैं। उन्होंने विश्वास किया कि एक अतिसूक्ष्म अणु जिसे उपविभाजित नहीं किया जा सकता, परमाणु था, जोकि एक संस्कृत शब्द है। परमाणु शब्द संस्कृत भाषा के दो शब्दों, परम जिसका अर्थ है सर्वोत्तम और अणु शब्दों से मिलकर बना है। इस प्रकार, ‘परमाणु’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘अणु से परे’ है और यह एक ऐसी अवधारणा थी जो एक भिन्न स्तर पर थी, जिसने अणु को भी पृथक् करने की संभावना का संकेत किया, जोकि वर्तमान समय में आणविक ऊर्जा का स्रोत है।
छठी शताब्दी ईस्वी में एक भारतीय दार्शनिक कणाद प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने व्यवस्थित रूप से अणु-सिद्धांत को रखा। इन्होंने अपने ‘वैशेषिक सूत्रों’ में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के जो आणविक सिद्धांत दिए हैं, वे आधुनिक विकासवादी सिद्धांत से आश्चर्यजनक रूप से साम्य रखते हैं। एक अन्य भारतीय दार्शनिक, पकुधा कात्यायन, जो बुद्ध के समकालीन थे, ने भी भौतिक विश्व के आणविक संघटन के बारे में विचार उद्घाटित किए। ये सभी तर्क एवं दर्शन पर आधारित थे और इनमें किसी प्रकार के आनुभाविक आधार का अभाव था। इसी प्रकार, सापेक्षता का सिद्धांत (इसमें आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धांत से भ्रम नहीं होना चाहिए) भारतीय दर्शनशास्त्रीय अवधारणा ‘सापेक्षतावाद’ में अपने जनन रूप में मौजूद थी।
रसायन विज्ञान
रसायन विज्ञान में प्राचीन भारत का विकास भौतिकी की तरह विशिष्ट स्तर तक सीमित नहीं था, अपितु यह विभिन्न प्रकार की व्यावहारिक गतिविधियों के विकास तक पाया जाता है। किसी भी प्रारम्भिक सभ्यता में, धातुकर्म कांस्य युग से लौह युग तक सभी सभ्यताओं की केंद्रीय गतिविधि रही और अन्य सभ्यताओं की भी मुख्य गतिविधि रही है जिन्होंने इसका अनुसरण किया। यह विश्वास किया जाता था कि धातु गलन का मूलभूत विचार मेसोपोटामिया और पूर्व के समीप से प्राचीन भारत में पहुंचा। सिक्कों पर मुद्रित 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 17वीं शताब्दी ईस्वी की तिथि भारत में गलन प्रौद्योगिकी के उन्नत स्थिति में होने का प्रमाण है।
5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में, ग्रीक इतिहासकार हेरोडोट्स ने गौर किया कि भारतीय एवं फारसी सेना लोहे की नोंक वाले तीरों का इस्तेमाल करते थे। प्राचीन रोमवासी भारतीय लोहे से बने बर्तनों का इस्तेमाल करते थे।
स्वयं भारत में, प्राचीन भारतीय ने धातुकर्म के उच्च स्तर को प्राप्त करके कुछ विशिष्ट वस्तुओं का निर्माण किया। कुतुब मीनार की एक तरफ, दिल्ली में एक विश्व विरासत स्थल,एक लौह स्तम्भ बना है। यह माना जाता है कि इस स्तम्भ का निर्माण गुप्त काल के आस-पास 500 ईस्वी में हुआ होगा। यह स्तम्भ 7-32 मीटर लम्बा, 40 सेमी- की परिधि के आधार और 30 सेमी. के शीर्ष वाला है और इसका वजन 6 टन अनुमानित किया गया है। गौरतलब है कि यह स्तम्भ खुले प्रांगण में पवन, ऊष्मा एवं मौसम की मार को झेलते हुए विगत् 1500 से भी अधिक वर्षों से खड़ा है और बेहद मामूली प्राकृतिक अपरदन के सिवाय इसमें अभी भी जंग नहीं लगा है। इस प्रकार का जंगरोधक लौह संभव नहीं था यदि लौह एवं इस्पात कुछ दशकों पूर्व ही खोजा गया होता। प्राचीन भारत के रसायन विज्ञान की उन्नत प्रकृति को इत्रों के आसवन और स्नेहकों, डाईज एवं रसायनों के विनिर्माण,शीशों की पाॅलिश, पिगमेंट एवं रंगों को तैयार करना जैसे अन्य क्षेत्रों में भी खोजा जा सकता है। अंजता एवं एलोरा की दीवारों पर पाई गई चित्रकारी (दोनों विश्व विरासत स्थल है), जो 1000 वर्षों बाद भी बिल्कुल नवीन लगती है, भी प्राचीन भारत में हासिल उच्च स्तर के रसायन विज्ञान को उद्घाटित करती है।
औषधि एवं शल्य चिकित्सा
आयुर्वेद के औषधि विज्ञान के तौर पर विकास के लिए यह प्राचीन भारत में इसके उदय का ऋणी है। आयुर्वेद संस्कृत भाषा के दो शब्दों ‘अयूर’ जिसका अर्थ आयु या जीवन से है, और ‘वेद’ जिसका अर्थ है ज्ञान से लिया गया है। इस प्रकार आयुर्वेद का शाब्दिक अर्थ है जीवन या दीर्घायु का विज्ञान। आयुर्वेद में रोगों, उनके लक्षणों, पहचान एवं निदान के बारे में बताया गया है और पूरी तरह से जड़ी-बूटी से प्राप्त औषधियों पर निर्भर है जिसमें विभिन्न प्रकार के कई औषधीय महत्व के पौधों या पादपों का अर्क शामिल है। जड़ी-बूटियों पर निर्भरता आयुर्वेद को एलोपैथी और होमियोपैथी जैसी चिकित्सा पद्धतियों से अलग करता है।
अत्रेय एवं अग्निवेश जैसे भारत के प्राचीन विद्वानों ने 800 ईसा पूर्व आयुर्वेद के सिद्धांतों पर कार्य किया। उनके कार्यों एवं अन्य विकासों को चरक ने संहिताबद्ध किया, जिन्होंने अपनी कृति चरक-संहिता में आयुर्वेद के सिद्धांतों एवं व्यवहारों को संकलित किया जो लगभग 2000 वर्षों से एक मानक पाठ्यपुस्तक बनी हुई है और कई भाषाओं में इसका अनुवाद किया जा चुका है जिसमें अरबी एवं लैटिन भाषाएं शामिल हैं। चरक-संहिता में विभिन्न प्रकार के विषयों जैसे शरीर-रचना, पाचन, मेटाबाॅलिज्म एवं प्रतिरक्षा तंत्र की अवधारणाओं पर विचार एवं वर्णन किया गया है। चरक-संहिता में आनुवंशिकी पर प्रारंभिक अवधारणा भी उल्लिखित की गई है जिसमें चरक ने वर्णन किया है कि जन्मजात अंधता माता-पिता में किसी कमी के कारण नहीं होती, अपितु इसका उदय अंडाणु एवं शुक्राणु में होता है।
प्राचीन भारत में, शल्य चिकित्सा में भी कई उन्नति एवं प्रोन्नयन किये गये। विशिष्ट रूप से, इन उन्नयनों में प्लास्टिक सर्जरी, मोतियाबिंद दूर करना, एवं यहां तक कि दंत शल्य चिकित्सा जैसे क्षेत्रों को शामिल किया गया।
प्राचीन भारतीय शल्यक्रिया की जड़ें 800 ईसा पूर्व से पहले की हैं। सुश्रुत, एक चिकित्सा सिद्धांतकार एवं प्रैक्टिशनर, 2000 वर्ष पहले प्राचीन भारतीय शहर काशी, जिसे अब वाराणसी के नाम से जागा जाता है, में रहते थे। उन्होंने एक चिकित्सा कृति ‘सुश्रुत-संहिता’ लिखी। इस कृति में शल्य क्रिया की सात शाखाओं का वर्णन किया गया है। इस कृति में प्लास्टिक सर्जरी और मोतियांबिंद निकालने जैसे विषयों का भी वर्णन किया गया है। यह संकलन मृत शरीर का उपयोग करके मानव अंगों के अध्ययन पर भी ध्यान देता है।
प्राचीन भारत में चिकित्सा विज्ञान ने कई प्रकार की प्रगति की। प्राचीन भारत में विभिन्न शल्य क्रियाएं की गईं। निश्चेतक (एनेस्थीसिया) के अभाव के बावजूद जटिल आॅपरेशन किए गए। भारत में शल्य क्रिया का अस्तित्व कोई 800 ईसा पूर्व का रिकाॅर्ड किया गया है। यह कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि सर्जरी (शस्त्रकर्म) चिकित्सा की प्राचीन भारत पद्धति आयुर्वेद की आठ शाखाओं में से एक थी। सर्जरी के बारे में बताने वाली सर्वाधिक प्राचीन कृति सुश्रुत-संहिता है। सुश्रुत ने आठ शीर्षकों छेद्य (Excision), लेख्य (Scarification), वेधया (Puneturing),ऐस्था (Exploration), अहर्या (Extraction) वस्र्या (evacuation) और सिवया (Sxturing)-के अंतग्रत सर्जरी का विवेचन किया है।
योग शारीरिक एवं मानसिक पोषण हेतु एक व्यायाम पद्धति है। योगा की उत्पत्ति रहस्य से घिरी है। वैदिक काल से, हजारों वर्ष पूर्व, योगा के सिद्धांत एवं व्यवहार के बारे में वर्णन मिलता है। लेकिन, केवल 200 ईसा पूर्व में पंतजलि ने अपनी कृति योगसूत्र में योगा की सभी मूलभूत अवधारणाओं एवं तत्वों का संग्रह किया।
संक्षेप में, पंतजलि ने उद्घाटित किया कि योग के अभ्यास के माध्यम से मानव शरीर में मौजूद गुप्त ऊष्मा को जीवंत एवं विमुक्त किया जा सकता है, जिसका मानव शरीर एवं मस्तिष्क पर स्वास्थ्यवर्धक प्रभाव पड़ता है। आज, आधुनिक समय में, चिकित्सकीय अभ्यासों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि, चिकित्सकीय तनाव, उच्च रक्तचाप,एमनेसिया,एसिडिटी जैसी व्याधियों को योग के अभ्यासों से नियंत्रित एवं प्रबंधित किया जा सकता है। फिजियोथेरेपी में योगा के अनुप्रयोग को भी मान्यता मिलती जा रही है।
सिविल अभियांत्रिकी एवं स्थापत्य
भारत की शहरी सभ्यता मोहगजोदड़ो एवं हड़प्पा, अब पाकिस्तान में, से ली जा सकती है, जहां 5,000 वर्ष पहले नियोजित शहरी निवेश एवं टाउनशिप मौजूद थी। तब से, प्राचीन भारतीय स्थापत्य एवं सिविल अभियांत्रिकी निरंतर विकसित एवं बढ़ती जा रही है। इसका साकार रूप में भारतीय प्रायद्वीप एवं पड़ोसी क्षेत्रों में निर्मित मंदिरों, महलों एवं किलों में प्रकट होता है। प्राचीन भारत में, आर्किटेक्चर एवं सिविल अभियांत्रिकी को स्थापत्य-कला के रूप में जागा जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ है निर्माण कला।
कुषाण एवं मौर्य साम्राज्यों के दौरान, भारतीय स्थापत्य कला बलूचिस्तान एवं अफगानिस्तान जैसे क्षेत्रों तक पहुंच गई। बामियान, अफगानिस्तान के भगवान बुद्ध जैसी पूरे पर्वत एवं चट्टानों पर भगवान बुद्ध की मूर्ति उकेरी गईं। समय के साथ-साथ, प्राचीन भारतीय निर्माण कला में यूनानी शैली (ग्रीक) हिल-मिल गई और यह मध्य एशिया तक फैल गई।
दूसरी तरफ, बौद्ध धर्म स्थापत्य एवं सिविल अभियांत्रिकी की भारतीय शैली को श्रीलंका, इंडोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया, थाईलै.ड, बर्मा, चीन, कोरिया और जापान जैसे देशों तक ले गया। कम्बोडिया में स्थित अंकोरवाट मंदिर कम्बोडियाई खमेर विरासत में भारतीय स्थापत्य कला के योगदान का जीवंत उदाहरण है।
आज भारत की मुख्य भूमि में, प्राचीन भारतीय स्थापत्य विरासत के कई अद्भुत नमूने हैं जिसमें अंजता,एलोरा, खजुराहो, महाबोधि मंदिर, सांची, बृहदेश्वर मंदिर और महाबलीपुरम् जैसे विश्व विरासत स्थल शामिल हैं।
उत्पादन तकनीक
प्राचीन भारत की यांत्रिकी एवं उत्पादन तकनीक ने प्राकृतिक उत्पाद का प्रसंस्करण किया और उन्हें व्यापार, वाणिज्य एवं निर्यात में परिवर्तित किया। बड़ी संख्या में यात्रियों एवं इतिहासकारों (इसमें मेगस्थनीज, टाॅलेमी, फेक्सियन, जुआगझेंग, मार्कोपोलो, अलबरूनी, और इब्नबतूता शामिल हैं) ने विभिन्न चीजों की ओर संकेत किया, जिन्हें प्राचीन भारतीयों द्वारा ज्ञात समाज एवं विश्व में उत्पादित, उपभोग एवं निर्यात किया जाता था।
जहाज निर्माण एवं नौवहन
मोहगजोदड़ो में एक चित्रित पैनल मिला है जिस पर तैरता जहाज चित्रित है, और हजारों साल बाद अजंता की गुफाओं में भी एक समुद्र में तैरते जहाज को चित्रित किया गया है। प्राचीन भारतीय जहाजरानी एवं नौवहन के विज्ञान से भली-भांति परिचित थे। संस्कृत और पाली की पाठ्य पुस्तकों में समुद्री संदर्भ मिले हैं और प्राचीन भारतीयों, विशेष रूप से तटीय क्षेत्रों से, के कम्बोडिया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, और यहां तक कि चीन जैसे बंगाल की खाड़ी के पार के कई देशों के साथ वाणिज्यिक संबंध थे। इसी प्रकार के समुद्री एवं व्यापार संबंध अरेबिया, मिस्र एवं पर्सिया जैसे अरब सागर के पार के देशों के साथ भी मौजूद थे।
यहां तक कि 500 ईस्वी के आस-पास प्राचीन भारतीय जहाज निर्माता एवं नौवहन संचालक समुद्री कम्पास से अनभिज्ञ नहीं थे। इंस्टीट्यूट ऑफ़ नेवल आर्किटेक्ट्स एंड शिपबिल्डर्स, इंग्लैंड के सदस्य जे.एल. रीड ने 20वीं शताब्दी के प्रारंभ के आस-पास बाॅम्बे गजट में प्रकाशित किया किए ‘‘प्रारंभिक हिंदू खगोलशास्त्री एक चुम्बक का प्रयोग उत्तर एवं पूर्व दिशा निर्धारित करने के लिए करते थे। हिंदू कम्पास एक लोहे की मछली थी जो तेल के पात्र में तैरती थी और उत्तर दिशा की ओर इशारा करती थी। इस प्राचीन हिंदू कम्पास का वर्णन संस्कृत शब्द ‘मच्च-यंत्र’ या ‘फिश मशीन’ से होता है जिससे शंका का समाधान हो जाता है कि वास्तव में ऐसा कोई यंत्र था या नहीं।’’
वनस्पति एवं पशु (वेटनरी) विज्ञान
आयुर्वेद या जीव विज्ञान, विज्ञान की सभी शाखाओं का आधार है। यह आयुर्वेद के संदर्भ में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के बारे में सत्य है। जड़ी-बूटियों के माध्यम से रोगों का इलाज आयुर्वेद का मुख्य हिस्सा है और पादप विज्ञान या वनस्पति विज्ञान का सूक्ष्म ज्ञान इसकी पूर्व शर्त है। तक्षशिला में अपने अध्ययन के दौरान ‘जीवक’ को उनके अध्यापक ने शहर से एक योजन की परिधि के भीतर एक वानस्पतिक सर्वेक्षण करने को कहा और ऐसा एक पौधा ढूंढने की बात कही जिसमें औषधीय तत्व न हों। अच्छी प्रकार जांच करने के पश्चात् वह औषधीय तत्वों से रहित एक भी पौधा ढूंढने में नाकाम रहे। इससे वानस्पतिक अध्ययन के महत्व का पता चलता है। वृक्ष आयुर्वेद के अंतग्रत व्यापक प्राचीन वानस्पतिक साहित्य का उल्लेख किया गया है जिसमें कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं कामन्दक के नीतिशास्त्र का बार-बार वर्णन किया गया है। अग्निपुराण और बृहतसंहिता प्रत्येक में वृक्षआयुर्वेद पर अध्याय हैं। इस प्रकार, यह तार्किक रूप से आशा की जाती है कि वानस्पतिक अध्ययन चिकित्सा संस्थानों में न केवल अपरिहार्य थे, अपितु बेहद लोकप्रिय भी थे और समय के साथ-साथ अध्ययन के एक विशिष्ट विषय के रूप में विकसित हो गया।
मानव जीवन के विज्ञान की छाया के रूप में पशु जीवन का विज्ञान था जिसने बड़ी संख्या में विशिष्ट लेखों, जो प्रत्येक एक विशेष पशु पर थे, से एक विषय तैयार किया। मानव पोषण में दूध के महत्व के संबंध में सुश्रुत ने बड़ी संख्या में पालतू जागवरों के दूध की विशेषता पर गौर किया। गोजातीय पशुओं पर एक विशेष कृति, जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अभी भी निभा रहा है, सर्वप्रथम गवआयुर्वेद शीर्षक के अंतग्रत प्रकट हुई, और जिसका इस्तेमाल भोजराजा ने अपने चिकित्सा विश्वकोष राजमार्तंड में किया। प्राचीन समय से अपने सैन्य महत्व के कारण घोड़े एवं हाथी को लेकर एक विषय तैयार हुआ और बड़ी संख्या में पशु कार्य हुआ जैसे घोड़ों पर सालिहोत्र-संहिता की रचना की गई और जयदत्त सूरी और नकुला ने इस पर टिप्पणी की। पलक्पया द्वारा हाथी पर रचित हस्तआयुर्वेद भारत एवं भारत से बाहर दोनों जगह बेहद लोकप्रिय हुई। कौटिल्य ने अपनी ‘अर्थशास्त्र’ पुस्तक में कई स्थानों पर पशु चिकित्सकों एवं शल्य चिकित्सकों का उल्लेख किया है। मौर्यवंश के महान शासक अशोक भी व्यक्तियों एवं पशुओं दोनों के स्वास्थ्य एवं उपचार के प्रति चिंतित थे जिसके लिए उन्होंने अपने पूरे साम्राज्य में चिकित्सालयों की स्थापना की। यद्यपि वेटनरी साइंस के अध्ययन के एक विशिष्ट विषय के रूप में महत्व एवं मान्यता को सुरक्षित रूप से माना जा सकता है। हम इस बारे में बेहद कम जागते हैं कि इस विषय का अध्ययन केवल चिकित्सा विद्यालयों तक सीमित था या इसकी जिम्मेदारी विशेष अध्यापकों या राजसी पशुशालाओं की देखभाल करने वालों पर थी।
तकनीकी शिक्षा एवं प्रशिक्षु व्यवस्था
तक्षशिला विश्वविद्यालय के विभिन्न स्कूलों के संदर्भ में आमतौर पर अट्ठारह शिल्पों या औद्योगिक और तकनीकी कला एवं हस्तकला का उल्लेख मिलता है। जातकों, महावग्ग, मिलिन्द-पन्हो, एवं अन्य स्रोतों से प्राप्त जागकारी के अनुसार, ये अट्ठारह शिल्प थे (i) गीत-संगीत; (ii) वाद्य संगीत; (iii) नृत्य; (iv) चित्रकला; (v) गणित; (vi) लेखांकन; (vii) अभियांत्रिकी; (viii) मूर्तिकला; (ix) कृषि; (x) पशुपालन; (xi) वाणिज्य; (xii) औषधि; (xiii) परिवहन एवं विधि; (xiv) प्रशासनिक प्रशिक्षण; (xv) धुनर्विद्या एवं सैन्य कला; (xvi) संगीत; (xvii) सर्प चर्मशोधन; और (xviii) गुप्त खजागे को खोजने का कौशल। इन कला एवं कौशलों में लिप्त लोगों ने पेशेवर सुरक्षा के लिए अपने आप को गिल्ड में व्यवस्थित कर लिया और व्यापार में नवीन प्रशिक्षुओं की शिक्षा एवं प्रशिक्षण को संगठित करने के लिए भी ऐसा किया गया। मुग पक्ख जातक ने भी 18 गिल्डों (श्रेणी संघों) का उल्लेख किया है।
उपरिलिखित कला एवं कौशल में तकनीकी शिक्षा के लिए एक प्रशिक्षु तंत्र विकसित किया गया। इस व्यवस्था का विस्तृत वर्णन नारदस्मृति में किया गया है। जब कोई युवा स्वयं को अपने आनुवंशिक कला में प्रशिक्षित करने की इच्छा जाहिर करता था तो उसे सर्वप्रथम अपने संबंधियों एवं मित्रों की अनुमति लेनी होती थी और प्रशिक्षण समाप्त होने तक अपने गुरू के साथ रहना होता था। यह गुरू का कर्तव्य होता था कि वह अपने शिष्य को अपने घर पर पढ़ाता, खाना खिलाता और अपने पुत्र के समान उसका ध्यान रखता और व्यवहार करता तथा उसे किसी अन्य काम में नहीं लगाता। इस दौरान प्रशिक्षु जो कुछ भी आय अर्जित करता वह उसके गुरू की होती थी। प्रशिक्षण समाप्त होने पर और संविदा की तिथि पूरी होने पर प्रशिक्षु अपने गुरू को छोड़कर जा सकता था। प्रशिक्षु व्यवस्था ने अधिगम के अन्य क्षेत्रों में भी गुरु-शिष्य संबंधों पर बल दिया। इसमें कुछ संविदात्मक दायित्व होते थे, जो दोनों पक्षों पर बाध्य होते थे। इस व्यवस्था की मुख्य विशेषता थी कि प्रशिक्षु को गुरू के वास्तविक वर्कशाॅप्स (कर्मशाला) में प्रशिक्षण के लिए लाया जाता था। पुश्तैनी कौशल सीखने की स्थिति में पिता स्वयं गुरू होता था और दोनों के संबंध निश्चित रूप से अलिखित होते थे।