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बांग्ला भाषा का इतिहास क्या है ? बंगला का आधुनिक साहित्य history of bangla language & literature in hindi

history of bangla language & literature in hindi बांग्ला भाषा का इतिहास क्या है ? बंगला का आधुनिक साहित्य ?

बंगला का आधुनिक साहित्य
अंग्रेजों के कब्जे में आने वाला सबसे पहला प्रदेश बंगाल था और रपश्चिमी प्रभाव के लाभ भी सबसे पहले उसी को प्राप्त हुए। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में बंगला साहित्य को नई प्रेरणा के लिए दो केंद्र मिले-फज्ञेर्ट विलियम कालेज और सेरामपुर मिशन। 1800 ई. में स्थापित फोर्ट विलियम कालेज में, विलियम कैरी के निर्दशन में 1801 ई. से बंगला का अध्ययन शुरू हुआ। वे 1831 ई. तक बंगला और संस्कृत के प्रोफेसर रहे। उन्होंने मृत्युंजय विद्यालंकार कौर कुछ अन्य बंगला विद्वानों के साथ मिलकर उन अधिकारियों के लिए बंगला पुस्तकें तैरूार की जो इस कालेज में प्रशिक्षण के लिए आते थे। उधर मिशनरियों ने बाइबिल का बंगला में अनुवाद किया, समाचारपत्र प्रकाशित किए और गद्य शैली के विकास में सहायता की।
इसी मौके पर राजा राममोहन राय ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने उस समय की सामाजिक, धार्मिक, नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र की ज्वलंत समस्याओं पर छोटी-छोटी पुस्तिकाएं और निबंध प्रकाशित किए और बंगला गद्य में एक शक्तिशाली शैली का सृजन कियका। बंगला साहित्य में एक तरह का पुनरोदम राममोहन रायके साथ ही हुआ। तत्वबोधिनी सोसाइटी में उनके शिष्यो, और स्वयं ‘युवा बंगाल‘ (यंग बंगाल) कहलाने वाले पश्चिमी शिक्षा प्राप्त प्रगतिशील विचारों वाले युवकों ने बंगला भाषा को आधुनिक दिशा में अग्रसर होने के लिए बुह प्रोत्साहन दिया। माइकिल मधसूदन दत्त (1824-1873) युवा बंगला आंदोलन के एक अगुआ थे और उन्होंने पश्चिमी साहित्य का बहुत गहरा अध्ययन किया था। दत्त ने बंगला के विकास को एक नई दिशा दी और आधुनिक शैली के अग्रणी बंगाल कवि बन गए। उनकी ‘श्रमिष्ठा‘, ‘मेघनाद-बध काव्य‘, ‘वीरांगना काव्य‘, ‘चतुर्दशप दावली‘, ‘कृष्ण कुमारी‘, ‘पद्मावती‘ और अन्य कृतियों ने बगला साहित्य के क्षितिज विस्तृत किए, परंपराओं को तोड़ा, और उस युग की नई भावना का अत्यंत सफल प्रदर्शन किया।
नई शैली के विकास में महत्वपूर्ण योग देने वाले अन्य लोगों में थे प्यारीचंद्र से थे और डेरोजियों के आदर्शों को मानते थे। उनके ‘अलालेर घरेर दुलाल‘ को बंगला भाषा का पहला पूर्ण उपन्यास माना जाता है। उनके अन्य उपन्यासा जस ‘अभेदी‘ और ‘आध्यात्मिका‘ में लोकचेतना जागृत करने के लिए नैतिक मूल्यों की श्रेष्ठता बताई गई थी। कालिप्रसन्न ‘हतम पेंचर नकसा‘ सरल लोकभाषा में लिखा गया एक उल्लेखनीय प्रयास था, मित्र एक अत्यंत लोकप्रिय नाटककार उनके दो प्रसिद्ध नाटक थे-‘नील दर्पण‘ और ‘कमले कामिनि‘। इनके बाद बहुत से नाटक लिखने वाले प्रमुख लखक गिरीशचंद घोष। इसी क्षेत्र के एक और उच्चकोटि के लेखक थे द्विजेन्द्र लाल।
बंगला गदा शैली के विकास में ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विशिष्ट कार्य किया। कहा जाता है कि बंगला गद्य का जन्म 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ। शैशव राममाहन राय के समय में, बाल्यकाल अक्षयकुमार दत्त और देवेन्द्रनाथ टैगोर के समय में, और यौवन विद्यासागर के समय में आया। ईश्वरचंद्र ने संस्कृत और बंगला में बहुत-सी पुस्तकें लिखीं जिनमें स्कूलों के लिए कुछ पाठ्यपुस्तकें भी थीं। उनकी ‘बैताल पंच बिमसती‘, (1847), बंगला में गद्य लेखन का उत्कष्ट कार्य है।
19वीं शताब्दी के बाद के वर्षों में आधुनिक बंगला गद्य के क्षितिज पर एक नया चमकता हुआ सितारा, बंकिमचंद्र चटटोपाध्याय के रूप में उभरा (1838-1894)। उनकी कृतियों में नए समय की आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति मिली। उनके प्रसिद्ध उपन्यासों, जैसे, ‘देवी चैधरानी‘, ‘कमल कातर दप्तर‘ और ‘आनंद मठ‘ ने अपने समकालीन लोगों और आने वाले पीढियों पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उनके उपन्यास ‘आनंद मठ‘ (1882) में ही देशभाक्ति का गीत था ‘बंदे मातरम‘।
19वीं शताब्दी के बंगला साहित्य की चरम परिणति रवीन्द्रनाथ ठाकुर की लेखनी से हई। रवीन्द्रनाथ अद्वितीत थे। 1881 ई. में उनका ‘संध्या सगीत‘ प्रकाशित हुआ। 3 वर्ष बाद ‘पदावली‘ का प्रकाशन हुआ। 1804 ई में ‘सोनार तरि‘ के प्रकाशन है साथ ही रवीन्द्रनाथ की उच्च कोटि की कविताओं के गुणों की नैसर्गिक प्रतिभा की धाक जम गई। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बहुत सी कविताओं का संग्रह ‘नैवेद्य‘ अपने में एक अनूठी कृति है। इन कविताओं में कवि की नैसर्गिक प्रतिभा अपने विविध रूप और मूल्य लेकर मुखर हुई।
20वीं शताब्दी के प्रारभ में बंगला साहित्य के आकाश में एक और चमकते हुए सितारे का उदय हुआ। यह व्यक्ति था शरतचंद्र चट्टोपाध्याय। उन्होंने बहुत अधिक लिखा। बहुत कम उपन्यासकार हैं जो हर वर्ग के लोगों के मन तक इतनी गहराई से पहुंचे हों जितने कि शरतचंद्र। उनके उपन्याओं में बंगाल नेसारे समाज की सच्ची तस्वीर पाई गई और इन उपन्याओं के चरित्र भी सभी तरह से ऐसे थे जैसे कि समाज में देखने को मिलते थे।
राष्ट्रीय भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले अनेक लेखकों में काजी नजरूल इस्लाम का नाम विशेष उल्लेखनीय है। 1919 ई. से उनके गीत और कविताएं देशभक्ति की प्रतिरूप बन गई। उनकी कविता ‘विद्रोही‘ अपने समय और उद्देश्य के संदर्भ में लगभग अद्वितीय थी। बंगाल में प्रगतिवादी विचारों वाले लेखकों का उदय होने लगा, जिन्होंने अपनी सशक्त लेखनी से साधारण व्यक्ति की वास्तविक परिस्थितियों को सबसे सामने खुले रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। इस विचारधारा वाले प्रमुख लेखक थे प्रेमेन्द्र मित्र, बुद्धदेव बसु और अचिंत्य सेनगुप्त। बदलते हुए समय की नई आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लेखकों में बनफूल, अन्नदा शंकर रे, ताराशंकर बंद्योपाध्याय, आशापूर्ण देवी और नरेन्द्र मित्र के नाम उल्लेखनीय हैं। मानिक बंदोपाध्याय साहित्य में वामपंथी विचारधारा को लाए। उनका उपन्यास ‘पुतुल नाचेर इतिकथा‘ उनके जीवन संबंधो दर्शन की सुंदर व्याख्या है। एक और वामपंथी विचारों वाले प्रमुख लेखक हैं गोपाल हलधर। उनके उपन्यास ‘एकदा‘ ‘अन्य दिन‘ और ‘और एक दिन‘ साहित्य के माध्यम से नए युग का संदेश लाए।
असीम और समृद्ध बंगला साहित्य के माध्यम से नए युग का संदेश लाए। असीम और समृद्ध बंगला साहित्य बराबर विकसित हो रहा हहै। यह एक ऐसी भाषा में पनप रहा है, जो एक ही समय मधुर और विनम्र, और अत्यंत कवित्वमय तथा मनोहारी है।

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