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Categories: BiologyBiology

हर्डमेनिया : एक समुद्री पिचकारी (Herdmania : A sea squirt in hindi) हर्डमानिया का पाचन तंत्र

(Herdmania : A sea squirt in hindi) हर्डमानिया का पाचन तंत्र इन हिंदी ?

हर्डमेनिया : एक समुद्री पिचकारी (Herdmania : A sea squirt) : उपसंघ यूरोकॉर्डेटा अथवा ट्यूनीकेटा के सदस्य अधिकतर स्थानबद्ध एवं केवल समुद्री जन्तु है। ये आर्कटिक से एंटार्कटिक तक सर्वत्र सभी सागरों में , तटवर्ती प्रदेश से लेकर 5 किलोमीटर से भी अधिक अगाध गहराई तक , सभी गहराइयों के निवासी है। हर्डमेनिया अथवा रैबडोसिंथिया वंश ऐसिडिएशिया वर्ग से सम्बन्धित है जो साधारणतया एसीडियंस अथवा समुद्री फौव्वारे कहलाते है। रैबडोसिंथिया वंश पहले 1891 में हर्डमैन द्वारा स्थापित किया गया। लेकिन 1910 में हार्टमेयर ने उसे अग्रता – नियम (law of priority) के अनुसार हर्डमेनिया में परिवर्तित कर दिया जैसे कि लाहिले ने 1888 में मूलतः प्रस्तावित किया था। अब यह लगभग सभी भारतीय एवं पडोसी देशो के विश्वविद्यालयों में अध्ययन के लिए निर्धारित किया गया है। प्रस्तुत वर्णन मुख्यतया हर्डमेनिया पैलिडा पर एस.एम.दास के 1936 में प्रथम बार प्रकाशित कार्य पर आधारित है।

वर्गीकरण (classification)

(हर्टमेयर के 1909-1911 के वर्गीकरण के अनुसार)

संघ – कॉर्डेटा

उपसंघ – यूरोकॉर्डेटा

वर्ग – एसिडिएशिया

उपवर्ग – प्ल्यूरोगोना

गण – स्टोंलिडोब्रैंकिया

कुल – पाइयूरिडी

प्ररूप – हर्डमेनिया , एक समुद्री फौव्वारा

नामों की व्युत्पत्ति (derivation of names)

यूरोकॉर्डेट्स “नोटोकॉर्ड” एवं तंत्रिका रज्जु के अपने टैडपोल लारवा की पुच्छ तक ही सिमित रहने से अभिलक्षित होते है , इसलिए यूरोकॉर्डेटा नाम यूनानी भाषा के यूरोस (uros = tail पुच्छ) एवं कॉर्डा (chorda = cord रज्जू) से उद्ग्रधृत हुआ है।

उपसंघ का दूसरा नाम , अर्थात ट्यूनिकेटा (tunica = outer covering बाह्य आवरण ) एक रक्षक चमड़े के खोल ट्युनिक या टेस्ट के कारण है जो हासित वयस्क के पूर्ण शरीर को घेरता है। उत्तेजित एसिडियन्स आकस्मिक संकोचन द्वारा अपने दो विनालों के द्वारा बलपूर्वक जल की दो प्रधाराये निकालते है इसलिए सुपरिचित “समुद्री फौव्वारे अथवा पिचकारी” कहलाते है। तमिलनाडु में मछुआरे हर्डमेनिया अथवा किसी भी ऐसीडियन को अंडापासी (undapasi , unda = round गोल + pasi = weed खरपतवार) कहते है जिसका अर्थ है गोल खरपतवार क्योंकि इसका न्यूनाधिक अंडाकार शरीर एक हरे समुद्री शैवाल से ढका रहता है। इसे दूसरा तमिल नाम मलाईकेन्ना (mulaikanna ; mulat = breast वक्ष + kanna = teats चूचुक) दिया गया है जो चूचुक सदृश दो साइफनों को , जो ऐसिडियन के स्वतंत्र छोर पर उभरी रहती है , को इंगित करता है।

भौगोलिक वितरण (geographical distribution)

हर्डमेनिया वंश का 12 ज्ञात जातियों द्वारा संसार भर में निरूपण किया जाता है। इनमे से केवल 4 जातियां , हर्डमेनिया पैलिड़ा , हर्डमेनिया मौरिटिआना , हर्डमेनिया सीलोनिका एवं हर्डमेनिया इन्यूरेन्सिस ही हिन्द महासागर में पायी जाती है। प्रथम दो छिछले तटीय जल की जातियां है जबकि अंतिम दो गहरे जल की जातियाँ है। हिन्द महासागर के अतिरिक्त , हर्डमेनिया पैलिडा प्रशांत , अटलांटिक एवं कैरिबियन महासागरों में भी वितरित होती है।

स्वभाव और आवास (habits and habitats)

हर्डमेनिया पैलिडा एक समुद्री एवं समस्त भारतीय सागर तटों के साथ साथ छिछले जल में पाया जाने वाला बहुत सामान्य ऐसिडियन है। एक एकल एवं स्थानबद्ध ऐसिडियन है जो समुद्र की चट्टानी तली से अपने चौड़े आधार द्वारा संलग्न या अपने विस्तृत पाद द्वारा रेतीले फर्श में अंत:स्थापित पाया जाता है।

प्राय: एक स्थान पर 10 से 12 विविध आयु के सदस्य समूह में संलग्न दिखाई देते है। कभी कभी एक ऐसिडियन किसी जीवित गैस्ट्रोपोड मोलस्क , जैसे टरबीनेला पाइरम , टरबीनेला रैपा और जैन्कस आदि के खोल से एक सहभोजी की तरह संलग्न हो जाता है। मोलस्क स्थानबद्ध ऐसिडियन को एक स्थान से दुसरे स्थान पर भोजन , ऑक्सीजन एवं छितराव के अधिक अवसर प्रदान करता हुआ इधर उधर ले जाता है। बदले में , हर्डमेनिया अपनी कंटिकाओं के अस्वादिष्ट होने के कारण मोलस्क को शत्रुओं से छिपाता एवं उसकी रक्षा करता है। हर्डमेनिया के बाहरी आवरण अथवा चोल में विभिन्न प्राणी बड़ी संख्या में निवास करते है , जैसे पटलक्लोम एवं जठरपाद मोलस्क , डाएटम्स , शैवाल , हाइड्राइड्स , सी-ऐनीमोन्स , पोलीजोएंस , बार्नेकिल्स , चपटे कृमि एवं क्रस्टेशियन्स आदि। एक समुद्री शैवाल इसके चोल अथवा कंचुक पर इतना अधिक उगता है कि वह एसिडियन को पूर्णतया छिपा सकता है। हर्डमेनिया एक पक्ष्माभी पोषी है। यह एक सूक्ष्मभक्षी जन्तु है जो डाइएटम्स , शैवालों , इन्फ्युसोरियंस आदि सूक्ष्मदर्शी पौधों एवं जन्तुओ पर पोषित होता है। भोजन एवं ऑक्सीजन लाने वाली जल की धारा क्लोमीय छिद्र से शरीर में प्रवेश करती है एवं अनपचे भोजन , कार्बन डाइऑक्साइड , उत्सर्जी अपशिष्ट एवं जनन कोशिकाओं को लेकर परिकोष्ठीय छिद्र से निकलकर दूर ले जाती है। हर्डमेनिया अपने शरीर को यकायक संकुचित कर अपने क्लोमीय एवं परिकोष्ठीय छिद्रों से जल की पिचकारी एक साथ या स्वतंत्र रूप से छोड़ सकता है। इसलिए इसका साधारण नाम समुद्री पिचकारी अथवा सी-स्क्वर्ट है। हर्डमेनिया उभयलिंगी है। निषेचन बाह्य और समुद्री जल में होता है एवं परिवर्धन अप्रत्यक्ष है। अंडे से स्वतंत्र तैरने वाला टेडपोल लार्वा निकलता है। संक्षिप्त अस्तित्व के पश्चात् लारवा एक आधार पर स्थापित हो जाता है। एवं हासित स्थानबद्ध वयस्क बनने के लिए प्रतिगामी कायांतरण करता है।

बाह्य आकारिकी (external morphology)

1. आकार , परिमाण और रंजन : शरीर पाशर्विय संपीडित एवं कुछ आयतरूप अथवा आयताकार होता है। इसका संलग्न छोर स्वतंत्र छोर से थोडा संकीर्ण होता है। सम्पूर्ण जन्तु बटुए , थैले अथवा आलू सदृश दिखाई देता है। एक औसत वयस्क लगभग 9.5 सेंटीमीटर लम्बा , 7 सेंटीमीटर चौड़ा एवं 4 सेंटीमीटर मोटा होता है। जब पाद वर्तमान होता है तो 3 से 4 सेंटीमीटर लम्बा होता है। परन्तु परिमाण आयु के साथ बढ़ता है एवं कुछ अधिक आयु के प्रोढ़ जन्तु 13 x 8 x 4.5 सेंटीमीटर जितने बड़े पाए गए है। ताजे जीवित प्राणी चोल में सतही रुधिर कोशिकाओं के वितरण के कारण गुलाबी रंग के होते है। संवहनी तुम्बिकाओं के कारण चोल छितराए हुए चमकीले लाल चकते प्रदर्शित करता है जो हर्डमेनिया (ऐसिडिएन्स) का विशिष्ट लक्षण है। परन्तु परिरक्षित प्रतिदर्श पीले भूरे रंग के दिखाई देते है।

2. शरीर के भाग :  सम्पूर्ण शरीर चोल से ढका होता है एवं मुख्य शरीर और पाद नामक दो भागों में बंटा होता है।

(a) मुख्य शरीर : जन्तु का दूर से स्वतंत्र भाग वास्तविक अथवा मुख्य शरीर होता है। यह आधार भाग अथवा पाद से अधिक लम्बा और चौड़ा होता है। मुख्य शरीर का स्वतंत्र छोर , लगभग एक ही समतल पर , क्लोम तथा परिकोष्ठीय विनालों अथवा कीपों नामक दो छोटे बेलनाकार उभारों में निकला होता है। क्लोम अथवा मुख विनाल अपेक्षाकृत छोटा लगभग एक सेंटीमीटर लम्बा एवं बाहर की तरफ दिष्ट होता है। इसके सिरे पर खुलने वाला अन्त्य रन्ध्र क्लोम छिद्र , मुख अथवा अन्तर्वाही छिद्र कहलाता है।

परिकोष्ठीय अथवा अवस्कर विनाल बड़ा , लगभग 1.5 सेंटीमीटर लम्बा एवं ऊपर की तरफ दिष्ट होता है। इसका अन्तस्थ द्वार परिकोष्ठीय रन्ध्र अथवा बहिर्वाही छिद्र कहलाता है। प्रत्येक रन्ध्र अत्यधिक प्रत्यास्थ चोल द्वारा निर्मित चार पालियों अथवा ओष्ठों द्वारा रक्षित होता है।

तनिक से विक्षोभ मात्र से ओष्ठ संकुचित होकर रंध्र को बंद कर देते है। पूर्णतया प्रसारित होने पर प्रत्येक रन्ध्र का किनारा एक चमकीली लाल रेखा द्वारा चिन्हित दिखाई देता है। क्लोम रंध्र परिकोष्ठीय रन्ध्र की अपेक्षा पर्याप्त चौड़ा होता है।

(b) पाद : पाद पूर्णतया चोल अथवा कंचुक से बनता है। यह रंग में गन्दा एवं रेत के कणों कवच के टुकड़ों और अन्य विजातीय वस्तुओं के चिपकने के कारण खुरदरा होता है। इसका आकार और परिमाण परिवर्तनशील होता है। यदि आधार बिल्कुल कड़ा है , जैसे कोई चट्टान अथवा मोलस्क का कवच तो मुख्य शरीर स्वयं एक चौड़ा , चपटा अथवा अवतल आधार बनाकर संलग्न रहता है। लेकिन रेतीली तली पर जन्तु आधार की प्रकृति के अनुरूप एक संकीर्ण लम्बा , अंडाकार अथवा अनियमित पाद बनाकर शरीर को संलग्न करता है। पूर्णतया प्रसारित पाद 3 से 4 सेंटीमीटर तक लम्बा हो सकता है। संलग्न तथा स्थिरण अतिरिक्त पाद शरीर को असंलगन अवस्था में एक सन्तुलन की तरह खड़ा रखता है।

3. दिक्विन्यास : हर्डमेनिया का एक निश्चित लेकिन विशेष दिक्विन्यास होता है। दोनों चपटे , दायें बाएं पाशर्व तलों को प्रकट करते है। अग्र एवं पृष्ठ क्रमशः क्लोम एवं परिकोष्ठीय रन्ध्रों द्वारा सीमांकित होते है , उनके विपरीत तल संगतानुसार पश्च एवं प्रतिपृष्ठ छोरों को प्रदर्शित करते है जो आंशिक रूप से स्वतंत्र एवं संलग्न है। यह असामान्य दिक्विन्यास लारवा के कायांतरण काल होने वाले घूर्णनी परिवर्तनों के कारण होता है।

चोल अथवा कंचुक (test or tunic)

चोल अथवा कंचुक शरीर के चारों तरफ एक रक्षक जैकेट (आवरण) बनाता है एवं एक सहायक श्वसन एवं ग्राही अंग का भी कार्य करता है। यह 4-8 सेंटीमीटर मोटा , कोमल , चमड़ीला एवं पारभासी होता है। शिशु अवस्था में यह लगभग पारदर्शी होता है लेकिन वयस्क में स्थूलन के कारण अपारदर्शी हो जाता है। सम्पूर्ण तल पर अनेक वलनों तथा गर्तों के कारण चोल झुर्रीदार दिखाई देता है। इसका बाह्य तल से निरंतर क्षय होता रहता है लेकिन मैंटल की एपिडर्मिस द्वारा , जो इसका स्त्राव करती है , निचे से प्रतिस्थापित होता रहता है। संपूर्ण पाद केवल चोल का बना होता है। जैसा कि पहले वर्णन किया जा चूका है , चोल बड़ी संख्या में शैवाल , हाइड्रायडस , एनीमोन्स , मोलस्क्स , बारनेकिल्स और अन्य मोनेसिडियन्स , जैसे जीवों को आश्रय देता है।
चोल कोमल उपास्थि की तरह कटता है। यह एक स्वच्छ जिलेटिनी मैट्रिक्स द्वारा बना होता है जिसमें निम्नलिखित भाग अंत: स्थापित होते है –
(i) विविध प्रकार की कणिकाएं
(ii) अंतर्गथित तंतुक
(iii) शाखित रुधिर वाहिनियाँ एवं
(iv) कैल्सियमी कंटिकायें
1. मैट्रिक्स : जिलेटिनी आधात्री , भरण पदार्थ अथवा मैट्रिक्स ट्युनिसिन नामक पोलीसैकेराइड , जो पादप सल्युलोज के समान होता है और कुछ प्रोटीन एवं खनिजो का बना होता है।
नोट : ट्युनिसिन पहले ट्युनिकेट्स तक सिमित माना जाता था। प्रीस्टन ने एक्स-रे तकनीक द्वारा प्रदर्शित किया है कि यह वर्टिब्रेट्स , यहाँ तक कि मानव त्वचा तक में , बहुतायत से पाया जाता है।
2. कणिकाएँ : मैट्रिक्स में मिलने वाली कोशिकाएं उत्पत्ति में मध्यचर्मीय अथवा मीजोडर्मल होती है एवं 6 अथवा 7 विभिन्न प्रकार की होती है जो निम्नलिखित है –
  • बड़ी इओसिनरागी
  • छोटी इओसिनरागी कोशिकाएं
  • छोटी अमीबाभ कोशिकाएं
  • गोलाकार रिक्तिकायुक्त कोशिकाएँ
  • कणिकामय ग्राही कोशिकायें
  • छोटी शाखित तंत्रिका कोशिकायें
  • शल्कीय अध्यावरणीय कोशिकाएं
3. अंतर्गथित तन्तुक : ये चोल में एक महीन जाल बनाते है। उनमें से कुछ चिकने पेशी तन्तुओं के समान , जबकि अन्य तंत्रिका तंतुओ के समान होते है।
4. रूधिर वाहिनियाँ : ये चोल में एक शाखामिलनी तंत्र बनाती है। तल के निकट अनेक शाखाएं अंडाकार अथवा नाशपातीरुपी अन्तस्थ घुन्डियाँ अथवा तुम्बिकाएं बनाती है जो चोल के तल पर दृश्य गुलाबी चकत्तों का कारण होती है। तंत्रिका कोशिकाओं से सम्बन्धित होने के कारण तुम्बिकाएं अतिरिक्त श्वसनांग तथा ग्राही अंगो की तरह कार्य करती है।
5. कंटिकायें : हर्डमेनिया में दो प्रकार की कैल्सियमी कंटिकायें बहुत संख्या में होती है। सभी कंटिकाओं पर उनकी पूरी लम्बाई पर बारीक कंटकों के अनेक सम दूरस्थ वलय होते है जिनके सभी कंटक एक दिशा में संकेत करते है।
(a) दीर्घकंटिकायें : बड़े परिमाण की दीर्घकंटिकायें ह्रदय को छोड़ कर शरीर के सभी भागों में होती है .ये दो प्रकार की होती है .
  • पिपेट रुपी दीर्घकंटिकायें लम्बाई में 3 से 5 मिली मीटर तक वृद्धि करती है।  वे सीधी अथवा वक्र और दोनों नुकीले सिरों वाली हो सकती है। प्रत्येक के मध्य में एक गोलाकार फुलाव होता है जिससे उसका आकार पिपेट सदृश दिखाई पड़ता है।
  • तर्कु रुपी दीर्घकंटिकायेंकेवल 1.5 से 2.5 मिली मीटर तक लम्बी होती है , इनकी संख्या अधिक होती है एवं सामान्यतया पुलों में पायी जाती है।
(b) लघुकंटिकायें : ये परिमाण में बहुत छोटी , केवल 40 से 80 माइक्रो मीटर लम्बी होती है एवं केवल चोल तक सिमित होती है। प्रत्येक एक गोल घुंडीरुपी सिर एवं एक शुंडाकार शरीर के कारण एक साधारण आल्पिन के समान लगती है।
कंटिकायें अंत:कंकाल की तरह एक आंतरिक दृढ आलम्बी ढांचा प्रदान करती है , मेंटल को चोल से दृढ़ता से जमाये रखती है , रुधिर वाहिनियों को पिचकने से बचाने के लिए उनकी भित्ति को दृढ करती है तथा परभक्षियों से बचाती है।
नोट : कंटिकायें विच्छेदन में बाधक होती है एवं उत्तक का बहुत अनावश्यक विदारण करती है। विच्छेदन से पहले इनको हटाने के लिए चोल काटकर अलग कर दिया जाता है एवं जन्तु को रात भर 2 प्रतिशत एल्कोहल अथवा एसिड जल में छोड़ देते है। इसके लिए एचसीएल अथवा HNO3 का प्रयोग किया जा सकता है।
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