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शाकभक्षी क्या होता है , शाकभक्षी किसे कहते हैं अर्थ , मतलब herbivorous in hindi definition example

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प्राणि-जगत् की विविधता और उसके स्रोत
प्राणियों की विविधता इस पुस्तक में प्राणि-जगत् की जो संक्षिप्त रूप-रेखा प्रस्तुत की गयी है उससे उसकी अतिविविधता की काफी अच्छी कल्पना मिल सकती है। एककोशिकीय शरीरों वाले प्रोटोजोया के साथ साथ हमने बंदर जैसे अत्यंत संगठित स्तनधारियों का भी परिचय प्राप्त किया। बंदर कई एक लक्षणों और बरताव की दृष्टि से मनुष्य के समान होता है।
प्राणियों के लिए अनुकूल वातावरण और उनकी जीवन-प्रणाली के लिए आवश्यक परिस्थितियों में भी यही विविधता दिखाई देती है। कुछ प्राणी पानी में रहते हैं तो कुछ जमीन की सतह पर य कुछ जमीन के अंदर तो कुछ अधिकांश समय हवा में। पर विभिन्न प्राणियों के लिए आवश्यक पानी और जमीन में भी फर्क होता है। इस प्रकार कुछ मछलियां समुद्रों और महासागरों में रहती हैं तो कुछ केवल ताजे पानी की नदियों और झीलों में। बहुत-सी मछलियां जीवन का आरंभ ताजे पानी में करती हैं पर बाद में खारे पानी में रहने लगती हैं या कुछ मामलों में इसके विपरीत होता है। उदाहरणार्थ , सर्पमीन समुद्र में पैदा होता है पर बाद में नदियों में प्रवसन करता है। स्थलचर प्राणियों का भी यही हाल है। उनमें से कुछ जंगलों में रहते हैं , तो कुछ स्तेपियों में और कुछ और रेगिस्तानों में।
प्राणियों के भोजन में भी काफी विविधता पायी जाती है। शिकारभक्षी हिंस्र प्राणी दूसरे प्राणियों और अक्सर बड़े बड़े प्राणियों को खा जाते हैं जबकि शाकभक्षी प्राणी दूसरों को नहीं खाते बल्कि उनके लिए केवल वनस्पति-भोजन की आवश्यकता होती है। कुछ प्राणी दूसरों के परजीवी कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं – बाहरी और अंदरूनी।
वैज्ञानिकों की गिनती के अनुसार विभिन्न प्राणियों के दस लाख से अधिक प्रकार हैं (विशेष बहुलता कीटों की है)। प्रत्येक प्राणी अपने वातावरण और परिस्थितियों से अच्छी तरह अनुकूलित पाया जाता है। इस प्रकार, जैसा कि कुछ विस्तारपूर्वक दिखाया गया है , मछलियां पानी में रहने के लिए अनुकूलित होती हैं , तो पंछी हवा में उड़ने के लिए और परजीवी कृमि अपने ‘मेजबान‘ को नुकसान पहुंचाकर जीने के लिए। यदि किसी प्राणी को उसके लिए आवश्यक परिस्थिति से वंचित कर दिया जाये या प्रतिकूल वातावरण में तबदील कर दिया जाये तो वह मर जाता है।
हमारी धरती पर रहनेवाले प्राणियों की विविधता का, हर प्रकार के प्राणी के अपने वातावरण से अनुकूलित होने का स्पष्टीकरण हम कैसे दे सकते हैं ? आखिर इस विविधता का स्रोत क्या है? प्राणी की संरचना और बरताव के अनुकूलन का विकास किस प्रकार हुआ? वैज्ञानिकों के सामने हमेशा से ये प्रश्न खड़े रहे हैं और उनके अलग अलग उत्तर दिये गये हैं। १६ वीं शताब्दी से पहले , यानी जब तक प्राणियों के जीवन का विस्तृत अध्ययन नहीं हुआ था, हर कोई इस स्पष्टीकरण में संतोष मान लेता था कि ‘‘सिरजनहार ने ऐसा बनाया है‘‘। धर्म ऐसे दृष्टिकोणों का बड़ी उत्सुकता से समर्थन और प्रचार करता था।
पर जैसे जैसे प्राणियों से संबंधित ज्ञान में वृद्धि होती गयी वैसे वैसे स्पष्ट होता गया कि उक्त स्पष्टीकरण गलत है और वैज्ञानिक खोजों के खिलाफ है। १६ वीं शताब्दी में फ्रेंच वैज्ञानिक जीन बैप्तिस्त लामा (१७४४-१८२६) और ब्रिटिश वैज्ञानिक चार्लस डार्विन (१८०६-१८८२ ) ने इस प्रश्न का सही और वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित उत्तर प्रस्तुत किया। उन्होंने सिद्ध किया कि प्राणिजगत् हमेशा से वैसा ही नहीं रहा है जैसा उनके समय में था पर परिवर्तित और विकसित हुआ है य और यह कि धरती पर सबसे पहले एककोशिकीय प्रोटोजोप्रा अवतरित हुए और उनमें से जटिलतर प्राणी विकसित हुए। आज का प्राणि-जगत् , उसकी विविधता और वातावरण से उसका अनुकूलन धरती पर जीवों के अस्तित्व में डेढ़ करोड़ से भी अधिक वर्षों के दौरान हुए विकास के फल हैं।
प्राणि-जगत् के ऐतिहासिक विकास से संबंधित लामार्क और डार्विन का सिद्धांत बहुत-से तथ्यों की कसौटी पर सही उतरा है। हम देख चुके हैं कि फौसिलीय प्राणियों में बहुत-से ऐसे प्राणी शामिल थे जो आज अस्तित्व में नहीं हैं। उदाहरणस्वरूप फौसिलीय उरगों, आरकियोप्टेरिक्सों, मैमथों और बहुत-से रीढ़विहीन प्राणियों को लिया जा सकता है। रीढविहीन प्राणियों में प्रोटोजोआ , प्रवाल, मोलस्क और आरोपोडा शामिल हैं। इसका अर्थ यह है कि प्राणि-जगत् बराबर परिवर्तित होता आया है।
आगे यह दिखाई देता है कि धरती का स्तर जितना प्राचीनतर उतने ही वहां के प्राणी अधिक सरलता से संरचित । इस प्रकार आरकिमोजोइक युग से। संबंधित स्तरों में (पृष्ठ १८७ देखो ) रीढ़धारी प्राणियों के कोई अवशेष नहीं मिलते। ये केवल पेलिप्रोजोइक युग से संबंधित स्तरों में पाये जाते हैं और यहां भी केवल । मछलियां , जल-स्थलचर और उरग ही मिलते हैं। पक्षी और स्तनधारी मेसोजोइक यग के ठीक अंत में जाकर अवतरित हुए। फिर सेनोजोइक युग में ही उनमें बहलता और विविधता पायी। धरती के स्तरों में प्राणियों के इस प्रकार के विभाजन से प्राणि-जगत् के विकास और सरलतर संरचनावाले प्राणियों से उच्चतर संरचनावाले प्राणियों की उत्पत्ति से संबंधित लामार्क – डार्विन के सिद्धांत का सहीपन साबित होता है।
इसी प्रकार हम डार्विन और लामार्क के इस सिद्धांत के आधार पर ही कि धरती पर सबसे पहले अवतरित एककोशिकीय प्राणियों से ही बहुकोशिकीय प्राणियों की उत्पत्ति हुई, यह स्पष्टीकरण दे सकते हैं कि प्रत्येक प्राणी का विकास , भले ही उसकी संरचना कितनी भी जटिल क्यों न हो, एक कोशिका से ही शुरू हुआ। प्राणि-जगत् के ऐतिहासिक विकास के सिद्धांत के आधार पर ही हम इस तथ्य का स्पष्टीकरण दे सकते हैं कि वेंगची और मछली बाहरी और अंदरूनी दोनों प्रकार की संरचना की दृष्टि से समान हैं य पक्षियों . और स्तनधारियों के भ्रूण उरगों के भ्रूणों के समान होते हैं । इसी प्रकार के अन्य तथ्य भी स्पष्ट किये जा सकते हैं।
प्राणियों के परिवर्तन और विकास का तथ्य पालतू प्राणियों की उत्पत्ति से सिद्ध होता है। यह सिद्ध किया जा चुका है कि डील-डौल , रंग , कलगी के आकार और अंडे देने की क्षमता की दृष्टि से भिन्नता रखनेवाली मुर्गियों की विभिन्न नस्लें मूलतः भारतीय जंगली मुर्गियों से ही पैदा हुई हैं। इसी प्रकार शशक की विभिन्न नस्लें जंगली शशक से उत्पन्न हुईं। चार्लस डार्विन ने सिद्ध किया कि कबूतरों की सभी नस्लों के पुरखे जंगली चट्टानी कबूतर हैं । यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि पालतू प्राणियों के परिवर्तन और नयी नस्लों की पैदाइश काफी जल्दी , यहां तक कि एक पीढ़ी के देखते देखते होती है।
डार्विन केवल प्राणि-जगत् के विकास से संबंधित तथ्य सिद्ध करके ही नहीं रहे बल्कि उन्होंने इसके कारणों और तरीकों पर भी प्रकाश डाला।
इस बात को ठीक से समझने के लिए हम पहले यह देखेंगे कि पालतू प्राणियों की नयी , अधिक अच्छी नस्लें किस प्रकार पैदा की जाती हैं। प्रत्येक प्राणी अपने समान संतान पैदा करता है – शशक से शशक पैदा होते हैं, गाय से बछड़े, मुर्गी के अंडों से चूजे और इसी प्रकार अन्यान्य प्राणियों से उनके – समान संतानें। प्रत्येक प्राणी में आनुवंशिक रूप से उसके माता-पिता के सामान्य लक्षण आते हैं। पर सभी बच्चे बिल्कुल एक-से नहीं होते। एक ही मुर्गी द्वारा दिये गये अंडों से निकलनेवाले सभी चूजे पूर्णतया समान नहीं होंगे। उनमें से कुछ बड़े होंगे तो कुछ छोटे , कुछ स्वस्थ और सशक्त तो दूसरे अशक्त। उनका रंग भी भिन्न हो सकता है। जब चूजे बढ़कर मुर्गियां बन जायेंगे तो उनमें से कुछेक मुर्गियां दूसरों की अपेक्षा अधिक अंडे देंगी। यह विविधता सबसे पहले और मुख्यतया माता-पिता ( यहां मुर्गा और मुर्गी) के लक्षणों पर निर्भर करती है। दूसरे महत्त्वपूर्ण पहलू हैं विकास की स्थितियां – अंडे तैयार होते समय मुर्गी के लिए काफी भोजन की उपलब्धि , मुर्गी द्वारा या इनक्यूबेटर में सेहाई की स्थिति, चूजों के भोजन का दर्जा , काफी मात्रा में उष्णता, इत्यादि ।
नस्ल-संवर्द्धन के लिए चुनते समय स्वाभाविक ही हम सर्वोत्तम मुर्गियों का चुनाव करेंगे। यदि हम अंडों वाली नस्लें पैदा करना चाहेंगे तो सबसे अधिक अंडे देनेवाली मुर्गियां चुनेंगे और मांसवाली नस्लों के लिए आकार में सबसे बड़ी मुर्गियां। यदि कई पीढ़ियों में इस प्रकार का चुनाव जारी रखा जाये तो एक नयी नस्ल पैदा की जा सकती है। नयी नस्लें पैदा करने का यह तरीका कृत्रिम चुनाव कहलाता है। कृत्रिम चुनाव की सहायता से अच्छी नस्लें पैदा करने के लिए उचित देखभाल और योग्य खिलाई पर पूरा ध्यान देना जरूरी है।
डार्विन ने सिद्ध किया कि चुनाव प्रकृति में भी होता है। यदि पालतू प्राणी व्यवहारतः एक-सी जीवन-स्थितियों में ( समान देखभाल , काफी भोजन , अच्छी परवरिश ) भी भिन्न हो सकते हैं. तो जंगली प्राणियों में और ज्यादा फर्क आना स्वाभाविक ही है। जंगली प्राणियों के जीवन पर सर्दी , सूखा , भारी वर्षा इत्यादि प्राकृतिक परिवर्तनों का सीधा प्रभाव पड़ता है। उनका भोजन भी हमेशा एक-सा नहीं रह पाता। कभी वह काफी बड़ी मात्रा में मिलता है, कभी साधारण आवश्यक मात्रा में और कभी कभी तो अपर्याप्त मात्रा में।
प्राणियों के अस्तित्व के बहुत लंबे समय के दौरान धरती में बराबर परिवर्तन होते आये हैं और आज भी हो रहे हैं। कहीं नये पहाड़ उभर आये हैं तो कहीं भूमि धंस गयी है , किसी इलाके में मौसम सख्त हो जाता है या इसके विपरीत नरम । इन सतत परिवर्तनशील प्रभावों के कारण प्राणियों में भी परिवर्तन होता है और नयी परिस्थितियों में वही जीवित रहते हैं जो बचे रहने के लिए सर्वाधिक अनुकूलित हुए हैं और जो परिवर्तित नहीं हुए वे लुप्त हो सकते हैं। मेसोजोइक युग के अंत में यही हुआ। नये पर्वतों की रचना के कारण ठंड पैदा हुई और बहुत-से उरग , जिनके शारीरिक तापमान परिवर्तनशील थे , नयी स्थितियों में जीवित रहने के अनुकल नहीं रहे और नष्ट हो गये।
दूसरी ओर पक्षी और स्तनधारी अपनी अधिक विकसित श्वसनेंद्रियों , रक्तपरिवहन इंद्रियों और स्थायी शारीरिक तापमान के कारण नयी स्थिति में रहने के लिए अनुकूल थे और वे न केवल बचे रहे बल्कि उनका विकास और सारी धरती पर फैलाव भी शुरू हुआ। सेनोजोइक युग में रीढ़धारियों में से इनका सबसे अधिक फैलाव हुआ।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि प्रकृति में भी जीवन के लिए आवश्यक वातावरण और परिस्थितियों की दृष्टि से सर्वाधिक अनुकूलित प्राणियों के चुनाव की प्रक्रिया जारी रहती है। प्राणियों की आनुवंशिकता और परिवर्तन-शीलता से संबंधित इस प्रक्रिया को चार्लस डार्विन ने प्राकृतिक चुनाव का नाम दिया।
प्राकृतिक चुनाव के फलस्वरूप केवल वही प्राणी बचे रह सकते हैं जो नयी स्थितियों के लिए अधिक अनुकूलित हैं , जिनकी संरचना जटिलतर है। अतः प्राणियों के विकास के साथ साथ उनकी संरचना में क्रमशः अधिकाधिक जटिलता प्राती गयी। फिर भी जहां कहीं जीवन के लिए अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हुईं , वहां सरलतर संरचनावाले प्राणी भी (प्रोटोजोपा , सीलेंट्रेटा और दूसरे ) बचे रहे।

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