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सेंट साइमन कौन था | हेनरी डी सेंट-साइमन के आर्थिक विचार Henri de Saint Simon in hindi
Henri de Saint Simon in hindi सेंट साइमन कौन था | हेनरी डी सेंट-साइमन के आर्थिक विचार ?
कोष्ठक 2.1ः सेंट साइमन (1760-1825)
सेंट साइमन फ्रांसीसी अभिजात वर्ग से जुड़ा था लेकिन जहां तक विचारों का संबंध है वह सर्वप्रथम यूटोपियाई समाजवादी था अर्थात् वह एक ऐसे आदर्श समाज में विश्वास करता था जिसमें प्रत्येक को अवसर तथा संसाधनों में समान भागीदारी मिले। उसका विश्वास था कि समाज की समस्याओं का सर्वोत्तम हल यह है कि आर्थिक उत्पादन का पुनर्गठन किया जाए। इससे सम्पत्ति के स्वामियों का वर्ग अपने उत्पादन के साधनों से वंचित कर दिया जाएगा और इस प्रकार उनकी आर्थिक स्वतंत्रता खत्म हो जाएगी, जो उनके समय में एक महत्वपूर्ण मूल्यवान व्यवस्था थी (टिमाशेफ 1967ः 19)। यदि आप फ्रांसीसी क्रांति पर नजर डालें तो आपको पता चलेगा कि उस समय फ्रांस का सामंती समाज तीन वर्गों में बंटा था, पहला पादरी (बसमतहल) दूसरा कुलीन (दवइपसपजल) और तीसरा जनसाधारण (बवउउवदमते)। इनमें से पहले दो वर्ग ही अधिकांश भू-सम्पत्ति तथा धन संपदा के मालिक थे व ऊंची हैसियत वाले थे। सेंट साइमन इसी सामाजिक तथा आर्थिक संरचना को पुनर्गठित करना चाहता था।
“समाज के पुनर्गठन हेतु आवश्यक वैज्ञानिक कार्य विधियों की योजना‘‘ (च्संद व िजीम ेबपमदजपपिब वचमतंजपवदे दमबमेेंतल वित जीम तमवतहंदपेपदह वि ेवबपमजल, 1928 में प्रकाशित) नामक संयुक्त प्रकाशन में सेंट साइमन तथा कॉम्ट ने तीन अवस्थाओं के नियम के बारे में लिखा और कहा कि प्रत्येक ज्ञान की शाखा को इनमें से गुजरना चाहिए। उनका कहना था कि सामाजिक भौतिकी अर्थात् समाज के प्रत्यक्ष विज्ञान का उद्देश्य प्रगति के प्राकृतिक तथा अपरिवर्तनीय नियमों की खोज करना है। इस विज्ञान को बाद में समाजशास्त्र कहा गया। ये नियम समाज के विज्ञान के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि न्यूटन द्वारा दिए गए गुरुत्वाकर्षण के नियम प्राकृतिक विज्ञानों के लिए महत्वपूर्ण हैं। सेंट साइमन और कॉम्ट के बीच स्थापित यह बौद्धिक संबंध ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सका और अंततोगत्वा मनमुटाव के रूप में समाप्त हो गया।
कॉम्ट के अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक घटनाओं का एक अमूर्त सैद्धांतिक विज्ञान है। शुरू में उसने इसे सामाजिक भौतिकी कहा किन्तु बाद में इसका नाम बदल दिया। उसने यह परिवर्तन इसलिए किया क्योंकि बेल्जियम के एक वैज्ञानिक एडोल्फ क्वेटलेट ने सामाजिक भौतिकी का प्रयोग सरल सांख्यिकी को व्यक्त करने के लिए किया था। इसलिए बाध्य होकर कॉम्ट को समाजशास्त्र शब्द अपनाना पड़ा जो एक लैटिन तथा ग्रीक सब्द का मिला-जुला रूप है जिसका अर्थ है ष्अत्यधिक सामान्यीकृतष् या अमूर्त स्तर पर समाज का अध्ययन (टिमाशेफ 1967ः4)। अब अगले कुछ पृष्ठों में हमने कॉम्ट के मुख्य विचारों पर चर्चा की है। ये विचार तीन अवस्थाओं के नियम, विज्ञानों का श्रेणीक्रम तथा उसके द्वारा स्थैतिक एवं गतिशील समाजशास्त्र के बीच किए गए विभाजन से संबंधित हैं।
मुख्य विचार
आपने यह देखा कि कॉम्ट समाज का नए तरीके से पुनर्गठन करना चाहता था। उसने यह महसूस किया कि यूरोपीय समाज और विशेष रूप से फ्रांसीसी समाज में जो महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे हैं उनके साथ-साथ नए सिद्धांत भी बनने चाहिए। इन नए सिद्धांतों के आधार पर मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को एकीकृत तथा संतुलित करना चाहिए। अतरू ऐसे सामाजिक नियमों की खोज करना उसके लिए बहुत महत्व रखता था जो समाज में परिवर्तन के सिद्धांतों का विवेचन करें।
कॉम्ट समाजशास्त्र को समाज का एक विज्ञान ही नहीं मानता था अपितु उसका विश्वास था कि समाज के पुनर्गठन के लिए भी समाजशास्त्र का व्यावहारिक उपयोग किया जाना चाहिए। वह समाज का विज्ञान प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति विकसित करना चाहता था। यह विज्ञान न केवल मानव जाति के पिछले विकास का विवेचन करेगा अपित उनके भावी मार्ग की भविष्यवाणी भी करेगा। उसके अनुसार मानव जाति का उसी तरह वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जाना चाहिए जिस तरह प्रकृति का अध्ययन किया जाता है। प्राकृतिक नियमों जैसे कि न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम या कॉपिनकस की यह खोज की सूर्य स्थिर है और पृथ्वी तथा अन्य ग्रह उसके चारों ओर घूमते हैं आदि से प्राकृतिक विज्ञानों में प्रगति हुई। इन नियमों से प्रभावित होकर उसे यह विश्वास हो गया कि समाज में भी सामाजिक नियमों को खोजा जा सकता है।
कॉम्ट का यह भी मानना है कि समाज के नए विज्ञान को परंपराओं की अपेक्षा तर्क तथा प्रेक्षण पर निर्भर होना चाहिए। तभी समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में देखा जा सकता है। प्रत्येक वैज्ञानिक सिद्धांत को प्रेक्षित तथ्यों पर और प्रेक्षित तथ्यों को वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए।
इस प्रकार कॉम्ट के अनुसार समाज का विज्ञान, जिसे उसने समाजशास्त्र कहा, प्राकृतिक विज्ञानों की तरह का ही होना था। समाजशास्त्र में भी प्राकृतिक विज्ञानों की तरह जांच का उपयोग करना है अर्थात् प्रेक्षण, प्रयोग तथा तुलना करके निष्कर्ष निकालना है। हालांकि, प्राकृतिक विज्ञान की उपर्युक्त पद्धतियों के साथ-साथ कॉम्ट ने ऐतिहासिक पद्धति का भी प्रतिपादन किया। यह ऐतिहासिक पद्धति (इतिहासकारों द्वारा प्रयुक्त पद्धति से भिन्न) समाजशास्त्र में एक स्वस्थ विकास सिद्ध हुआ। ऐतिहासिक पद्धति द्वारा विभिन्न समाजों के बीच उनके पूरे विकास काल के दौरान तुलना की जाती है। यह पद्धति समाजशास्त्रीय जांच की केंद्र बिंदु है क्योंकि ऐतिहासिक विकास समाजशास्त्र की जान होता है।
कॉम्ट इन पद्धतियों द्वारा सामाजिक नियमों की खोज करना चाहता था क्योंकि इन नियमों को जानकर ही समाज की पुनर्रचना की जा सकती है। इस प्रकार उसके विचार में कोई भी सामाजिक क्रिया मानव समाज के लिए तभी लाभकारी हो सकती है जब मानव विकास के नियम स्थापित हो जाएं। ये नियम ही सामाजिक व्यवस्था के आधार को परिभाषित करते हैं।
कॉम्ट के अनुसार कोई भी वस्तु या विचारधारा निरपेक्ष नहीं होती है। प्रत्येक ज्ञान एक सापेक्ष अर्थ में ही सत्य होता है और वह अनंतकाल तक प्रामाणिक नहीं रह सकता। इस प्रकार, विज्ञान का एक स्वतः सुधारकारी स्वरूप होता है और जो भी वस्तु या विचारधारा सही नहीं रहती अस्वीकृत कर दी जाती है। इस अर्थ में इस नये विज्ञान ने परंपरा की सत्ता की वह जगह ले ली जिसे अभी तक अस्वीकार न किया जा सका था और इसलिये ही, नये विज्ञान को सकारात्मक विज्ञान कहा जाता है (कोजर 1971ः5)।
विज्ञानों का श्रेणीक्रम
कॉम्ट के अनुसार विज्ञानों की जांच करने से पता चलता है कि न केवल सामान्य मानव चिंतनधाराएं उपर्युक्त तीनों अवस्थाओं में होकर गुजरी हैं अपितु प्रत्येक विषय भी उसी ढंग से विकसित हुआ है। अर्थात् प्रत्येक विषय का एक सामान्य तथा सरल स्तर से अत्यधिक जटिल स्तर की ओर विकास हुआ है। उसने विज्ञानों की श्रेणीक्रम व्यवस्था प्रस्तुत की जो निम्नलिखित के साथ मेल खाती है।
प) विभिन्न विज्ञानों में ऐतिहासिक रूप से आरंभ तथा विकास करने का क्रम
पप) एक दूसरे पर निर्भर होने का क्रम (प्रत्येक अपने पूर्ववर्ती पर आधारित होता है और अपने परवर्ती के लिए मार्ग प्रशस्त करता है)
पपप) अपनी विषय वस्तु के संबंध में निरंतर कम होती सामान्यता तथा बढ़ती हुई जटिलता तथा
पअ) अपने अध्ययन के अंतर्गत आने वाले तथ्यों में संशोधन करने की ज्यादा से ज्यादा क्षमता।
इस तरह, विज्ञानों के आरंभ तथा जटिलताओं के आधार पर विज्ञानों का क्रम इस प्रकार था – गणित, रसायन, विज्ञान, खगोलिकी, भौतिकी, जैविकी, समाजशास्त्र तथा अंत में नैतिक मूल्य । नैतिक मूल्य नामक विषय से कॉम्ट का अभिप्राय वास्तव में मानव का व्यक्तियों के रूप में अध्ययन करने से था (ऐसा अध्ययन जो समाजशास्त्र के बाद आएगा और मनोविज्ञान तथा नीतिशास्त्र का मिश्रित रूप होगा)।
इनमें समाजशास्त्र सबसे जटिल विज्ञान था क्योंकि इसमें सबसे जटिल विषय अर्थात् समाज का अध्ययन करना था। इसलिए समाजशास्त्र का जन्म अन्य विज्ञानों के बहुत समय बाद हुआ। अन्य विज्ञानों की विषय वस्तु समाजशास्त्र की तुलना में सरल थी।
समाजशास्त्र का जन्म मानव जाति द्वारा अपने समाज से संबंधित कुछ नए वस्तुनिष्ठ तथ्यों, जैसे सामाजिक अवस्था, मलिन बस्तियों का विस्तार, गरीबी आदि को पहचानने से जुड़ा हुआ है। इन तथ्यों से प्रभावी ढंग से निबटने के लिए उनका विवेचन करना आवश्यक है। कॉम्ट ने जब समाजशास्त्र को विज्ञानों के श्रेणीक्रम का सर्वोच्च शिखर कहा तो वह विज्ञान को सामान्य रूप से एकीकृत करना चाहता था। समाजशास्त्र को अन्य विज्ञानों की तुलना में कोई ऊंची हैसियत देने का दावा नहीं करना था। वह तो केवल यह चाहता था कि सकारात्मक ज्ञान में वृद्धि के साथ-साथ सभी विज्ञानों का एक दूसरे के साथ संबंध स्थापित किया जा सकता है।
कॉम्ट के अनुसार सभी विज्ञान इन तीन अवस्थाओं – धर्मशास्त्रीय, तत्वमीमांसक तथा अंत में। सकारात्मक अवस्था से होकर गुजरते हैं। लेकिन अलग-अलग विज्ञान इन तीनों अवस्थाओं से एक साथ नहीं गुजरते। वास्तव में तो जो विज्ञान श्रेणीक्रम में जितना अधिक ऊंचा होगा, उतनी ही देरी से वह एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाएगा। सकारात्मक ज्ञान के विकास के साथ-साथ उसने समाजशास्त्र के लिए सकारात्मक पद्धतियों को अपनाने का समर्थन किया (टिमाशेफ 1967ः 23)।
स्थैतिक एवं गतिशील समाजशास्त्र
कॉम्ट ने समाजशास्त्र को दो प्रमुख भागों स्थैतिक (ेजंजपब) और गतिशील (कलदंउपब) समाजशास्त्र में विभाजित किया। इस विभाजन का विचार जैविकी (इपवसवहल) से लिया गया क्योंकि वह विज्ञानों के श्रेणीक्रम की धारणा में विश्वास रखता था। जैविकी समाजशास्त्र से एक नम्बर पहले वाला पूर्ववर्ती विज्ञान है और इसलिए इन दोनों के लक्षण एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं।
स्थैतिक समाजशास्त्र में समाज के अस्तित्व की दशाओं का अध्ययन किया जाता है जबकि गतिशील समाजशास्त्र के अंतर्गत समाज की सतत गतिशीलता या एक अवस्था के बाद दूसरी अवस्था आने के नियमों का अध्ययन किया जाता है। दूसरे शब्दों में, पहले भाग में सामाजिक व्यवस्था और दूसरे भाग में सामाजिक परिवर्तन या समाज में प्रगति का अध्ययन किया जाता है।
कॉम्ट के बारे में चर्चा करते हुए टिमाशेफ ने लिखा है कि स्थैतिकी मनुष्य के समाज में अस्तित्व की दशाओं के बीच समरसता या क्रमबद्धता का सिद्धांत है। जबकि गतिशीलता सामाजिक प्रगति का सिद्धांत है और यही प्रगति समाज का मौलिक विकास या संवृद्धि का द्योतक है।
टिमाशेफ (1967ः 25) के अनुसार व्यवस्था तथा प्रगति घनिष्ठ रूप से एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं क्योंकि प्रगति के अनुकूल हुए बिना कोई सामाजिक व्यवस्था स्थापित नहीं हो सकती और तब तक समाज में कोई प्रगति नहीं हो सकती जब तक वह व्यवस्था में समाहित न हो। इस प्रकार यद्यपि विश्लेषण की दृष्टि से स्थैतिक और गतिशील समाजशास्त्र में भेद किया जाता है लेकिन वास्तव में स्थैतिक तथा गतिशील नियम पूरी प्रणाली में एक दूसरे से जुड़े होते हैं। कॉम्ट द्वारा स्थैतिकी और गतिशीलता में किया गया अंतर, जो कि प्रत्येक व्यवस्था तथा प्रगति के साथ जुड़ा है, वर्तमान में स्वीकार्य नहीं है क्योंकि आज समाज इतने जटिल हो गए हैं कि उन्हें व्यवस्था तथा प्रगति की साधारण धारणाओं द्वारा विवेचित नहीं किया जा सकता। कॉम्ट के विचार प्रबोधन काल (म्दसपहीजमउमदज चमतपवक) की भावना से प्रभावित थे और इसी काल में ये विचार पनपे थे। समकालीन समाजशास्त्री इन विचारों से सहमत नहीं हैं। लेकिन उसका समाजशास्त्र का स्थैतिक और गतिशील में विभाजन आज भी सामाजिक संरचना तथा सामाजिक परिवर्तन शब्दों के रूप में विद्यमान है।
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