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Growth and multiplication in bacteria in hindi , जीवाणुओं में वृद्धि एवं गुणन क्या है , वृद्धि वक्र

Growth and multiplication in bacteria in hindi , जीवाणुओं में वृद्धि एवं गुणन क्या है , वृद्धि वक्र ?

जीवाणुओं में वृद्धि एवं गुणन (Growth and multiplication in bacteria)

जीवाणुओं में अन्य सजीवों की भाँति पोषण प्राप्त कर कोशिकीय पदार्थों की मात्रा में वृद्धि होती है। यह क्रिया अनेक रासायनिक उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप होती है। इस प्रकार कोशिका के आमाप में एवं कोशिकीय संहति में वृद्धि को कोशिकीय वृद्धि (cell grwoth) कहते हैं। कोशिकीय वृद्धि हेतु ऊर्जा स्रोत, कार्बनिक स्रोत, खनिज लवणों, वृद्धि कारकों के अतिरिक्त अनुकूल वातावरणीय परिस्थितियों की आवश्यकता भी होती है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा जीवाणुओं का जीवन काल सूक्ष्म होता है एवं वातावरणीय कारकों की सहनशीलता की सीमा संकीर्ण होती है। अतः कोशिकीय वृद्धि भी सीमित प्रकार की ही पायी जाती है। कोशिकीय वृद्धि के उपरान्त जीवाण कोशिका एक निश्चित आमाप ग्रहण करती है और जीवाणु द्विविखण्डन (binary fission) द्वारा जनन कर अपनी संख्या में वृद्धि करते हैं। विभाजन करने वाली कोशिका मातृकोशिका व दोनों विभाजित कोशिकाएँ पुत्री कोशिकाएँ कहलाती हैं। द्विविखण्डन के दौरान न्यूक्लिओइड का विभाजन कोशि के विभाजन से पहले हो जाता है अतः वृद्धिरत अनेकों जीवाणु समष्टि (population) की कोशिकाओं में दो क्रोमेटिन काय (chromatin body) दिखाई देती है। कोशिका संकिरण द्वारा या सिकुड़ कर अथवा अपने भीतर पट्ट बना कर दो भागों में विभक्त होती है। कुछ जातियों में पुत्री कोशिकाएं। जनक कोशिकाओं के साथ ही विभाजन के उपरानत संलग्न रहती हैं तथा निवह (colony) बनाती है।

प्रजनन के दौरान भी अनेक जैव रासायनिक क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं जिनके द्वारा न्यूक्लिक अम्ल, प्रोटीन आदि बनते हैं एवं आनुवंशिक पदार्थ का द्विगुणन होता है एवं प्रत्येक द्विभाजित जीवाण कोशिका में अन्य कोशिकीय पदार्थों के अतिरिक्त आनुवंशिक पदार्थ का स्थानान्तरण होता है। इसके उपरान्त प्रत्येक पुत्री जीवाणु कोशिका में वृद्धि प्रावस्था पायी जाती है। एशरिकिंआ कोली को पोषक तत्वों से परिपूर्ण माध्यम में संर्वधन किये जाने पर आनुवंशिक पदार्थ DNA के पूर्ण प्रतिकृतिकरण हेतु 40 मिनट का समय लगता है। इसके उपरान्त 20 मिनट का समय कोशिकीय विभाजन हेतु लिया जाता है। स्पष्ट है कि कोशिकीय वृद्धि एवं विभाजन हेतु कुल 60 मिनट का समय लिया जाता है जो कि एक कोशिकीय-चक्र (cell-cycle) हेतु विशिष्ट परिस्थितियों में लिया गया है। यदि परिस्थितियाँ अधिक अनुकूल हों एवं पोषक माध्यम समृद्ध (rich) प्रकार का हो तो कोशिकीय-चक्र कम समय का होता है। ऐसे में कोशिकीय वृद्धि हेतु लिये गये समय एवं विभाजन हेतु लिये गये समय में अतिव्यापन (overlaping) की क्रिया होती है। यह क्रिया प्रथम 20 मिनट के लिये पायी जाती है अतः नयी संतति कोशिकाओं के कोशिकीय चक्र में 30 मिनट का समय ही लिया जायेगा। इस प्रकार DNA पदार्थ के द्विगुणन की क्रिया में कम समय लिये जाने के कारण एवं अतिव्यापन के कारण कोशिकीय चक्र में समय कम लगने लगता है। इसी जीवाणुओं में वृद्धि अन्य प्राणियों की अपेक्षा अत्यधिक तीव्र प्रकार की पायी जाती है।

(a) जननिक काल (Generation time) : जीवाणु कोशिकाओं के द्वारा दो कोशिका विभाजन के बीच लिया गया आवश्यक समय जननिक काल या द्विगुणन काल (generation time or population doubling time) कहलाता है। यह काल आदर्श परिस्थितियों में ही मान्य होता है। ट्यूबरक्ल सामान्यतः जननिक काल 20 मिनट की अवधि का होता हैं कुछ जीवाणु जैसे में यह 20 दिन का होता है। जीवाणु अत्यन्त शीघ्रता के साथ ज्यामितिक श्रेणी (geometric progression) 1, 2, 4, 8, 16, 32, 64, 128….. के द्वारा जनन करते हैं। एक अकेला जीवाणु 24 घण्टे में 1021 संतति (progeny ) उत्पन्न कर सकता है, जिसका भार 4000 टन होता है। वास्तव में जीवाणु जिस माध्यम में तथा जिस स्थान पर रहता है वहाँ उपस्थित अनेकों आवश्यक अवयवों, वृद्धि कारकों तथा स्थान की कमी के कारण कुछ विभाजन क्रियाओं के उपरान्त ही वृद्धि रूक जाती है । वृद्धि व जनन क्रियाओं के अवरूद्ध होने में पोषक द्वारा उत्पन्न प्रतिरोधी तथा विषैले (toxic. substances) पदार्थ भी भूमिका रखते हैं।

जीवाण्विक वृद्धि को हम दो स्तर पर देखते हैं (i) जीवाणु के आमाप में की गयी वृद्धि (ii) कोशिकाओं की संख्या में वृद्धि। जीवाणुओं के आमाप में होने वाली वृद्धि सीमित प्रकार की होती है क्योंकि कोशिका के निश्चित सीमा तक वृद्धि करने के पश्चात् विभाजन होने की क्रिया आरम्भ हो जाती है। आमाप में वृद्धि Mg रहित माध्यम में तथा पेनिसिलीन या एक्रोफ्लेविन प्रभावित माध्यम में कोशिकीय विभाजन की क्रिया अवरूद्ध हो जाती है। प्रजनन क्रिया द्वारा जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि को जीवसंख्या वृद्धि (population growth) कहते हैं। जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि जीवाणुओं में वृद्धि अनेकों कारकों पर निर्भर करती है, अतः शीघ्र ही परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण सीमित हो जाती है। जीवाणुओं की कोशिकाओं की गणना (count) दो विधियों द्वारा की जाती है-

(अ) सकल गणना (Total count) : इस विधि द्वारा एक प्रतिदर्श (sample) में उपस्थित सभी जीवाणु कोशिकाओं (जीवित अथवा मृत) की गिनती निम्न विधियों द्वारा की जाती है – ( 1 ) यह गुणना सूक्ष्मदर्शी द्वारा गणना कक्ष (counting chamber) का उपयोग कर की जाती है। (2) इलेक्ट्रोनिक विधि से भी गणना सरलता के साथ की जाती है। (3) स्लाइड पर बनाये गये आलेप (smear) में आयतन के आधार पर सम्पूर्ण संवर्धन के आयतन में उपस्थित जीवाणुओं की संख्या ज्ञात की जाती है। (4) अपारदर्शिता ( opacity) के आधार पर अवशोषण मापी (absorptiometer or nephalometer) द्वारा भी जीवाणु कोशिकाओं की गणना की जाती है। (5) जीवाणु कोशिकाओं को अपकेन्द्रण (centrifugation) या छनन (filtration) विधियों के द्वारा पृथक कर भी गणना की जाती है। (6) कुछ आवश्यक पदार्थों जैसे नाइट्रोजन के रासायनिक विश्लेषण (chemical assay) द्वारा भी जीवाणु कोशिकाओ की संख्या ज्ञात की जाती है।

(ब) जीवनक्षम कोशिकीय गणना (Viable count) : विधि से केवल जीवित कोशिकाओं अर्थात् वृद्धि तथा विभाजन योग्य कोशिकाओं की ही गणना की जाती है। यह गणना तनुकरण (diluting) या लेपन (plating) विधि से की जाती है। तनुकरण (dilution) विधि में निलम्बन (suspension) को इस सीमा तक तनु किया जाता है कि इकाई मात्रा की किसी अच्छे माध्यम में प्रविष्ट कराने पर ये वृद्धि करने में असक्षम हो जाते हैं। अनेकों परखनलियों में विभिन्न तनु अवस्थाओं में वृद्धिरत कोशिकाओं की गणना सांख्यिकीय विधियों द्वारा की जाती है इस विधि से की गयी गणना वास्तविक न होकर अनुमानित ही होती है। लेपन विधि में उचित तनु अवस्थाओं को ठोस संवध ‘न माध्यम में प्रविष्ट कराते हैं जो सतह पर की जाती है । निवह उत्पन्न होने में कुछ समय लगता है, उत्पन्न हुई निवह की गणना करने पर जीवनक्षम कोशिकीय गणना प्राप्त होती है। (b) जीवाण्वीय समष्टि तथा वृद्धि वक्र (Bacterial population and growth curve)

वृद्धि वक्र (Growth curve) : जीवाण्वीय समष्टि-वक्र संवर्धन माध्यम में निवेशित (inoculating) जीवाणुओं की गिनती कर ज्ञात किया जाता है। प्रतिदर्श (sample) के छोटे भाग में प्रति घण्टे की दर से गिनती कर 24 घण्टे के आँकड़े प्राप्त कर लिये जाते हैं। सूक्ष्मदर्शी द्वारा गिनती करने से कोशिकाओं की सकल संख्या प्राप्त होती है, जबकि तनुकरण या प्लेट विधि (dilution or plate mothod) से केवल जीवित जीवाणु कोशिकाओं (viable bacteria cells) की संख्या ज्ञात होती है। जब जीवनक्षम जीवाणु कोशिकाओं के लॉगेरिथ्म ( logarithms) को समय (time) के साथ आलेखित करते हैं तो चित्र 11.2 के अनुसार वृद्धि वक्र (growth curve) प्राप्त होता है। जीवाणुओं में प्रजनन की दर (rate) एवं समय (time) वातावरण द्वारा प्रभावित होते हैं। किसी दिये हुए समय में जीवाणुओं द्वारा प्रारूपिक जीव संख्या वृद्धि वक्र को चित्रानुसार दर्शाते हैं। वृद्धि वक्र से आरम्भिक काल (initial period) का भी ज्ञान होता है जिस काल में वृद्धि नहीं होती है। उपरान्त वृद्धि वक्र में वह भाग दृष्टिगोचर होता है जिसमें द्रुतगति से वृद्धि होती है । वृद्धि वक्र अन्त में वह भाग होता है जिसमें जीवनक्षम जीवाणु समष्टि में ह्रास होता है इन सभी प्रावस्थाओं के मध्य संक्रामी काल (transitional period) (वक्रित भाग) भी पाया जात है । वृद्धि वक्र को आर प्रावस्थाओं में विभक्त किया जाता है-

  1. आरम्भिक स्थिर प्रावस्था ( Initial stationary phase)
  2. द्रुतगति वृद्धि प्रावस्था (Logarithmic growth phase)
  3. लॉगेरिथ्म वृद्धि प्रावस्था (Logarithmic growth phase)
  4. ह्रासमान वृद्धि प्रावस्था (Phase of decreasing growth rate) लॉगेरिथ्मिक वृद्धि प्रावस्था
  5. अधिकतम स्थिर प्रावस्था (Maximum stationary phase) स्थावर प्रावस्था
  6. मृत्यु दर वृद्धि प्रावस्था (Phase of increasing death rate)
  7. लॉगेरिथ्मिक मृत्यु प्रावस्था (Logarithmic death phase)
  8. उत्तरजीविता प्रावस्था (Survival phase or phase of decreasing death rate) या ह्रासमान मृत्यु दर प्रावस्था।

(1) आरम्भिक स्थिर प्रावस्था ( Initial stationary phase) : यदि किसी संवर्धन माध्यम में सूक्ष्मजीवो को प्रवेशित कराया जाये तो शीघ्र ही जीवाणुओं की संख्या दुगुनी नहीं हो जाती बल्कि सम्रान ही बनी रहती है। इस समय प्रजनन दर व मृत्यु दर समान या बराबर पायी जाती है। इस प्रावस्था में दिये गये प्रतिदर्श में जीवाणु कोशिकाओं की संख्या में वृद्धि नहीं होती है। कोशिकाएँ इस दौरान क्रियात्मक रूप में अत्यन्त सक्रिय रहती है तथा जीवद्रव्य का संश्लेषण होता है। प्रोटीन RNA आदि की मात्रा में वृद्धि होती है। आंतरिक उपापचयी पदार्थों, एन्जाइम तथा को- एन्जाइम का संश्लेषण होता है। इस अवस्था में कोशिकाएँ उस माध्यम के अनुकूल बनने का कार्य करती है, जिसमें ये संवर्धन कर रही है। इस अवस्था में लिया गया समय जाति व परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है।

(2) द्रुतगति प्रावस्था (Phase of accelerated growth) : प्रथम प्रावस्था के उपरान्त जीवाणु विभाजन की क्रिया आरम्भ कर देता है सभी जीवाणु कोशिकाओं में प्रथम प्रावस्था एक साथ समाप्त नहीं होती है अतः इस प्रावस्था के अन्त तक समष्टि के सदस्यों की संख्या में क्रमिक रूप से वृद्धि होती रहती है। समष्टि की संख्या में वृद्धि समय बढ़ने के साथ बढ़ती है अर्थात् प्रत्येक कोशिका विभाजन की क्रिया में लिया जाने वाला समय घटता जाता है । अन्ततः इस प्रावस्था के अन् में समष्टि की विभाजन दर अधिकतम हो जाती है।

यह प्रथम एवं तृतीय प्रावस्था के मध्य का संक्रामी काल है। इस काल (transition period) में कोशिकाएँ प्रतिकूल वातावरणीय कारकों जैसे ताप, उच्च परासरणी दाब व जीवाणुनाशक रसायनों के प्रति अत्यन्त संवेदनशील हो जाती है।

(3) लॉगेरिथ्म वृद्धि प्रावस्था (Logarithmic growth phase) : इस प्रावस्था में कोशिकाएँ लगातार एक समान दर से विभाजन करती रहती है। कोशिकाओं की लॉग संख्या व समय को आलेखित (plotted) कर लेने पर एक सीधी रेखा बनती है। इस प्रावस्था में कोशिकाएँ संतुलित वृद्धि करती हैं तथा कोशिकाओं में द्रव्यमान एवं आयतन में समान दर पर वृद्धि होती है। इस प्रावस्था में कोशिकाओं का आमाप (size) छोटा पाया जाता है क्योंकि ये लगातार विभाजन करती रहती है। क्रियात्मक रूप से इस प्रावस्था में सम्पूर्ण समष्टि समान रूप से वृद्धि व विभाजन करती रहती है। क्रियात्मक रूप से इस प्रावस्था में सम्पूर्ण समष्टि समान रूप से वृद्धि व विभाजन में भाग लेती है। इस अवस्था में प्रजनन दर अधिकतम व मृत्युदर लघुतम होती है। समष्टि के जीव भौतिक तथा रसायनिक पदार्थों के प्रति संवेदनशील रहते हैं एवं यह प्रावस्था कई घण्टों तक बनी रहती है। लॉगेरिथ्म वृद्धि प्रावस्था के निम्न दो मुख्य लक्षण हैं-

(i) कोशिकाओं में वृद्धि की दर अधिकतम व स्थिर बनी रहती है।

(ii) जनन काल अल्पमत व स्थिर होता है।

(4) ह्रासमान वृद्धि प्रावस्था (Phase of decreasing growth rate) : इस प्रावस्था में जीव लॉगेरिथ्म वृद्धि प्रावस्था से अपेक्षाकृत हासित दर पर विभाजन करते हैं। संवर्धन माध्यम में पोषणीय पदार्थों की कमी व दूषित पदार्थों के एकत्रित होते रहने के कारण विभाजन की दर हासित हो जाती है। यह तृतीय व पंचम प्रावस्था के मध्य की संक्रामी प्रावस्था है।

(5) अधिकतम स्थिर प्रावस्था (Maximum stationary phase) : कोशिका विभाजन तथा कोशिकाओं की मृत्यु के मध्य संतुलन बनाये रखने की इस प्रावस्था में समष्टि लगातार एक समान बनी रहती है। सकल जीवनक्षम कोशिकाओं की संख्या कुछ समय तक परिवर्तनशील बनी रहती है। इस प्रावस्था में पोषक पदार्थों में कमी, हानिकारक उत्पादों के एकत्र होने एवं सीमाकारी कारकों के सक्रिय होने के कारण जन्म दर व मृत्यु दर बराबर होती है।

(6) मृत्यु दर वृद्धि प्रावस्था (Phase of increasing death rate) : इस प्रावस्था में जीवनक्षम कोशिकाओं की संख्या समय के बढ़ने के साथ घटती जाती है । मृत्यु दर क्रमिक रूप बढ़ कर प्रावस्था के अन्त में अधिकतम पर पहुँच जाती है। यह पंचम एवं सप्तम प्रावस्था के बीच की संक्रामी अवस्था है।

(7) लॉगेरिथ्मिक मृत्यु प्रावस्था (Logarithmic death phase) : जीवाणुओं की संख्या इस प्रावस्था में चिरंघाती रूप से घटती है अर्थात् समान समय के अन्तराल पर जीवित कोशिकाओं में से आधी कोशिकाएँ उसी समय में मृत हो जाती है। जैसे प्रथम घण्टे में समष्टि 1 करोड से घट कर 1⁄2 करोड़, आगे आने वाले 1 घण्टे में 1/4 करोड़ और इसके बाद आगे वाले 1 घण्टे में 1/8 करोड…. रह जाती है, अतः मृत्यु दर स्थिर बनी रहती है। मृत्यु दर भिन्न-भिन्न जातियों में भिन्न पायी जाती है।

(8) उत्तरजीविता प्रावस्था या ह्रासमान मृत्यु दर प्रावस्था (Survival phase or decreasing growth rate) : मृत्यु दर में वृद्धि की इस प्रावस्था में अन्ततः संतुलन बन जाता है अथात् मृत्यु दर व वृद्धि दर में संतुलन होने के कारण समष्टि की संख्या लगभग समान बनी रहती है। जीवित रही कोशिकाओं की संख्या जाति पर निर्भर रहती है जो 3-4 दिनों से लेकर वर्षों तक हो : है। बीजाणु के बनने के उपरान्त कोशिका एक लम्बे समय तक जीवित बनी रहती है, जबकि, बीच सभी कायिक कोशिकाएँ मृत हो जाती है। एक समष्टि में कुछ कोशिकाएँ उत्परिवर्ती (mutant) प्रकार की होती हैं जो वातावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल रह कर जनक कोशिकाओं की अपेक्षा द्रुत गति से वृद्धि करती है। ये उत्परिवर्ती कोशिकाएँ प्रतिकूल परिस्थितियों में भी करने की क्षमता रखती है। द्रुत गति से वृद्धि करने की क्षमता रखती है।

(c) वृद्धि वक्र का महत्त्व (Significance of growth curve) : वृद्धि वक्र का महत्व जीवाणु विशेष हेतु वातावरणीय परिवर्तनों के संदर्भ में इनके द्वारा की जाने वाली अनेक उपा क्रियाओं को समझने हेतु आवश्यक है। जैसे डेयरी से प्राप्त दुग्ध पास्तेरीकृत ( pasteurized) होता है जिसमें दुग्ध को 80°C पर गर्म करके निम्न ताप पर फ्रिज में रखते हैं अथवा पेक (pack) कर रखा जाता है। इस प्रकार यदि दुग्ध से रोगजनक जीवाणु तो नष्ट हो जाते हैं किन्तु इसमें अनेक मृतोपजीवी, अहानिकारक प्रकार के जीवाणु भी होते हैं या विद्यमान रहते हैं जो उचित तापक्रम मिलते ही उपापचयी क्रियाएं आरम्भ करते हुए प्रोटीन पदार्थों को दुर्गन्ध उत्पन्न करने वाले उत्पादों में परिवर्तित करते हैं एवं दुग्ध खराब हो जाता है। उपभोक्ता द्वारा प्राप्त दुग्ध में मृतोपजीवी जीवाणु लॉग चले जाते हैं अन्यथा प्रावस्था में रहते हैं। यदि दुग्ध को फ्रिज में रखते हैं तो ये लोग प्रावस्था लॉग प्रावस्था में जीवाणु वृद्धि कर दुग्ध को खराब कर देते हैं। विभिन्न पेक पर लिखी समाप्ति तिथि (expiry date) वास्तव में लेग प्रावस्था का ही ज्ञान कराती है। जीवाणुओं द्वारा विभिन्न प्रकार के संवर्धन माध्यमों में वृद्धि दर ज्ञात कर पहचानने एवं वर्गीकरण हेतु उपयोग किया जाता है। लॉग प्रावस्था में जीवाणुओं द्वारा अपने विशिष्ट आनुवंशिक लक्षणों का प्रदर्शन किया जाता है। इसका उपयोग रोगजनक जीवाणुओं को रोगविज्ञान प्रयोगशाला (pathological laboratory) में विशिष्ट संवर्धन माध्यमों में वृद्धि कराकर पहचानने हेतु किया जाता है जिसके आधार पर ही चिकित्सक उचित औषधि देकर रोग निवारण करता है । औद्योगिक महत्त्व के जीवाणुओं का उपयोग एन्टीबायोटिक औषधियों, कार्बनिक अम्लों, हार्मोन, विटामिन आदि के निर्माण हेतु किया जाता है। इसके लिये इन जीवाणुओं लगातार सक्रिय बनाये रखा जाता है अतः वृद्धि चक्र का पूर्ण ज्ञान होना लाभकारी होता है।

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