गुरूत्वीय अन्योन्य क्रियाओं के आधीन सामान्य हल गुरुत्वीय अन्योन्य क्रिया क्या है , Gravitational Interaction in hindi ?
केप्लर के ग्रहीय गति के नियम (Kepler’s Laws of Planetary Motion)
खगोल विज्ञान (astronomy) के प्रेक्षणों का आधार पर सन् 1609 में केप्लर ने ग्रहों की गति से सम्बन्धित नियमों की खोज की। नियम इस प्रकार हैं –
(1) प्रत्येक ग्रह सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्ताकार (elliptical) कक्षा में चक्कर लगाता है जिसकी नाभि (focus) पर सूर्य स्थित होता है।
(2) सर्य से ग्रह को मिलाने वाली रेखा के द्वारा प्रति सेकण्ड प्रसर्पित (swept) क्षेत्रफल नियत रहता
है अर्थात्
1/2 r2 (dθ/ dt) = नियत
(3) कक्षीय गति में ग्रह के परिक्रमण काल T का वर्ग (T2) ग्रह की कक्षा की अर्ध दीर्घ अक्ष (semi major axis) a के घन (a2) के अनुक्रमानुपाती होता है।
T2 ∝ a3
केप्लर के नियमों से न्यूटन के निष्कर्ष (Newton’s conclusion from Kepler’s laws) – ग्रहों की गति के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्लेटो तथा बुद्ध ग्रहों के अतिरिक्त अन्य सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर लगभग वृत्ताकार कक्षा में चक्कर लगाते हैं।
माना एक ग्रह का द्रव्यमान m है जो सूर्य के चारों और r त्रिज्या की वृत्ताकार कक्षा में v वेग से चक्कर लगा रहा है। वृत्ताकार कक्षा के लिए अर्ध दीर्घ अक्ष a = कक्षा की त्रिज्या r अतः केप्लर के तृतीय नियम के अनुसार
T2 =Kr3
यहाँ K एक नियतांक है। यदि ग्रह का कोणीय वेग ω हो तो
ω = 2 π/T या ω2 = 4π2/T2
जिससे ω2 = 4π2/Kr3
ग्रह पर लगने वाला अभिकेन्द्रीय बल का मान होगा
F =m ω2r = 4π2 m/Kr2
अतः केप्लर के नियमों के आधार पर न्यूटन ने निम्नलिखित निष्कर्य निकाले
(1) ग्रह पर अभिकेन्द्रीय बल सदैव ग्रह से सूर्य की दिशा में लगता है।
(2) यह बल सूर्य से ग्रह की माध्य दूरी r के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होता है अर्थात्
(3) यह बल ग्रह के द्रव्यमान के अनुक्रमानुपाती होता है अर्थात् (Fa m) |
न्यूटन ने इन नियमों को व्यापक रूप देते हुए यह कहा कि यह बल केवल सूर्य तथा ग्रहों के मध्य ही नहीं अपितु ब्रह्माण्ड में उपस्थित सभी पिण्डों या कणों के मध्य लगता है।
- गुरूत्वीय अन्योन्य क्रिया (Gravitational Interaction)
गुरूत्वीय क्षेत्र सम्बन्धी नियम (केप्लर का द्वितीय नियम) बताता है कि गुरूत्वीय अन्योन्य क्रिया से सम्बन्धित बल केन्द्रीय बल होते हैं अर्थात् यह बल दा पिण्ड जिनमें अन्योन्य क्रिया हो रही है (इस समस्या में दो पिण्ड सूर्य तथा ग्रह हैं), को मिलाने वाली रेखा के अनुदिश लगता है, चित्र (5) । इसके अतिरिक्त यदि गुरूत्वीय अन्योन्य क्रिया को सभी पिण्डों को लिए सार्वभौमिक माना जाये तो अन्योन्य क्रिया से सम्बन्धित बल F पिण्ड में उपस्थित पदार्थ की मात्रा अर्थात द्रव्यमान के अनुक्रमानुपाती होगा । अब याद यह माना जाय कि यह बल दोनों पिण्डों के मध्य दूरी r पर निर्भर करता है तो गुरूत्वीय अन्योन्य बल केन्द्रीय बल के रूप में F = + mm F (r) लिखा जा सकता है।
बल की, दूरी r पर निर्भरता ज्ञात करना एक जटिल प्रश्न है। हालाकि हम इस निर्भरता को द्रव्यमान m तथा m’ के बीच भिन्न-भिन्न दूरियों पर रखकर प्रायोगिक रूप से बलों का मापन करके ज्ञात कर सकते हैं परन्तु इस विधि में गुरूत्वीय बलों के मापन के लिए हमें अत्यन्त सुग्राही प्रायोगिक व्यवस्था की आवश्यकता होगी चूँकि गुरूत्वीय अन्योन्य क्रियाएँ बहुत दुर्बल होती है। गुरूत्वीय बल का मान अत्यल्प होगा जब तक कि दोनों पिण्डों का द्रव्यमान बहुत अधिक न हो, (जैसा कि सूर्य-ग्रहों के लिये होता है या दोनों पिण्डों के मध्य दूरी बहुत कम न हो i इस स्थिति में अन्य अन्योन्य क्रियाएँ जैसे विद्युत चुम्बकीय अन्योन्य क्रियाएँ गुरूत्वीय बलों की तुलना में अत्यन्त प्रबल होगी और गुरूत्वीय प्रभावों पर आच्छादित हो जायेंगी। प्रयोगों के परिणामों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गुरूत्वीय क्रियाएँ आकर्षण बल के रूप में होती है तथा दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती रूप से परिवर्तित होती है; अर्थात्
F(r) ∝ – 1/r2
अतः गुरूत्वीय बल को निम्न रूप से व्यक्त कर सकते हैं
F(r) =-G mm/r2 r
F(r) =-K/r2 r, यहाँ k = G mm”
G एक सार्वत्रिक नियतांक है जिसे गुरुत्वीय नियतांक कहते हैं। प्रयोग द्वारा इसका मान 6.67 x 10-11 न्यूटन-मी2/किग्रा.2 प्राप्त होता है।
अतः किन्ही दो पिण्डों के बीच होने वाली गुरूत्वीय अन्योन्य क्रियाएँ एक केन्द्रीय आकर्षण बल के रूप में व्यक्त की जा सकती हैं और यह बल पिण्डों के द्रव्यमानों के अनुक्रमानुपाती तथा उनके बीच दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होता है।
- जड़त्वीय एवं गुरूत्वीय द्रव्यमान (Inertial and Gravitational Mass)
(i) जड़त्वीय द्रव्यमान- न्यूटन के द्वितीय नियम के अनुसार किसी पिण्ड पर कार्यरत बाह्य बल उसमें बल के कारण उत्पन्न त्वरण के अनुक्रमानुपाती होता है अर्थात्
F a a
F = ma ………………………..(1)
यहाँ m अनुपातिक नियतांक है जो पिण्ड पर कार्यरत बल तथा उसमें उत्पन्न त्वरण के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है। यह नियतांक m पिण्ड के एकांक त्वरण उत्पन्न करने के लिए आवश्यक बल के मान को भी व्यक्त करता है। समीकरण (1) से स्पष्ट है कि पिण्ड का यह नियतांक जितना अधिक होता है तो उसी बल के लिए उत्पन्न त्वरण का मान उसी अनुपात में कम हो जायेगा अर्थात् अनुपातिक नियतांक m पिण्ड के जड़त्वता का द्योतक होता है इसलिए जड़त्व के गुण द्वारा मापे जाने वाले इस नियतांक को जड़त्वीय द्रव्यमान (Intertial mass) कहते हैं। इसे ज्ञात करने हेतु ब्रह्माण्ड में ऐसे स्थान पर जाना होगा जहाँ पर गुरूत्वीय क्षेत्र नहीं हो तथा अन्य कोई बल भी नहीं हो। इस विलगित (isolated) स्थान पर समीकरण (1) द्वारा m का मान ज्ञात किया जा सकता है। यदि किन्हीं दो पिण्डों का जड़त्वीय द्रव्यमान m1 तथा m2 है तथा समान बल F द्वारा इनमें उत्पन्न त्वरण क्रमशः a1 तथा a2 है तो
F = m1 a1 तथा F= m2a2
M1/m2 = a2/a1 …………………………(2)
समीकरण (2) से किसी मानक (जड़त्वीय द्रव्यमान) पिण्ड m1 में उत्पन्न त्वरण a1 तथा अज्ञात जड़त्वीय द्रव्यमान वाले पिण्ड में उसी बल से उत्पन्न त्वरण a2 ज्ञात कर m2 द्रव्यमान का भी मापन किया जा सकता है। इस समीकरण से स्पष्ट है कि पिण्ड में उत्पन्न त्वरण जडत्वीय द्रव्यमान के व्युत्क्रमानुपाती होता है।
(ii) गुरूत्वीय द्रव्यमान- पिछले अनुच्छेद के अनुसार किसी पिण्ड पर कार्यरत गुरूत्वीय बल उसके एक ऐसी भौतिक राशि के अनुक्रमानुपाती होती है जो पिण्ड का नैज (intrinsic) गुण होता है और उसमें विद्यमान पदार्थ की मात्रा पर निर्भर करता है। इस भौतिक राशि को पिण्ड का गुरूत्वीय द्रव्यमान कहते हैं। अतः
F a m’
पृथ्वी के प्रष्ठ पर इस गुरूत्वीय बल को ‘भार’ (weight) से व्यक्त करते हैं। सामान्यतः भार को स्प्रिंग या तुला से ज्ञात करते हैं। पिण्ड का भार ज्ञात करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पिण्ड साम्यावस्था में है तथा उसमें कोई त्वरण नहीं लग रहा है। इस परिस्थति में गुरूत्वीय बल F उस पिण्ड के नजगुण गुरूत्वीय द्रव्यमान पर निर्भर करता है। यदि किन्हीं दो पिण्डों के गुरूत्वीय द्रव्यमान m1‘ तथा m2‘ हैं तथा किसी स्थान पर उनके भार क्रमशः W1 तथा W2 हों तो,
W1 = m2‘g तथा W2 = m2 ‘g
यहाँ g एक गुरूत्वीय नियतांक है।
W1/W2 = m1/m2
अतः किसी स्थान पर किन्हीं दो पिण्डों के गुरूत्वीय द्रव्यमानों का अनुपात उनके भारों (गुरूत्वीय बलों) के अनुपात के बराबर होती है। दोनों पिण्डों को परस्पर जोड़ने पर उनका गुरूत्वीय द्रव्यमान अदिश राशियों (scalar quantities) के समान जुड़ता है अर्थात्
M = m1‘ +m2‘
(iii) जड़त्वीय एवं गुरूत्वीय द्रव्यमानों में समानता- माना किसी स्थान पर m1 तथा m2 जड़त्वीय द्रव्यमान के दो पिण्ड पृथ्वी के गुरूत्वीय क्षेत्र में मुक्त रूप से गिर रहे हैं। प्रत्येक पिण्ड पर समान त्वरण g उत्पन्न होता है क्योंकि यह त्वरण पिण्ड के द्रव्यमान पर निर्भर नहीं करता है। . दोनों पिण्डों पर लगे बल का मान होगा।
F1 =m1 g तथा F2 =m2 g
F1/F2 = m1/m2
चूंकि यह बल पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण बल के कारण लग रहा है अतः F1, बल पहले पिण्ड का भार W1, के बराबर होगा तथा F2, दूसरे पिण्ड के भार w2, के बराबर होगा। इसलिए समीकरण (4) से
F1/F2 = W1/W2 = m1/m2 ……………………………(5)
समीकरण (3) तथा (5) की तुलना करने पर
M1/m2 = m1/m2 mगुरूत्वीय/m जड़त्वीय = नियतांक
अतः गुरूत्वीय द्रव्यमान जड़त्वीय द्रव्यमान के अनुक्रमानुपाती होता है। यदि दोनों का समान मात्रक से नापा जाये तो दोनों का मान समान लिया जा सकता है। गुरूत्वीय द्रव्यमान एवं जड़त्वीय द्रव्यमान परिभाषा की दृष्टि से सर्वथा भिन्न होते हैं परन्तु इनके प्रायोगिक मान प्रत्येक पिण्ड के लिए एक ही स्थान पर गरूत्वीय त्वरण का मान समान होने के कारण समान होते हैं। यदि भिन्न-भिन्न पिण्ड के लिए त्वरण का मान भिन्न-भिन्न होता तो अवश्य ही पिण्ड विशेष के गुरूत्वीय द्रव्यमान तथा जड़त्वीय द्रव्यमान भिन्न होते।
- गुरूत्वीय अन्योन्य क्रियाओं के आधीन सामान्य हल (General Solution under Gravitational Interaction)
केप्लर का द्वितीय नियम जो क्षेत्रीय वेग के स्थिरता का नियम है, पिण्ड के कक्षीय गति में कोणीय संवेग के संरक्षण के नियम का प्रतिफल होता है। अब हम यह प्रदर्शित करेंगे कि केप्लर का प्रथम एवं तृतीय नियम गुरूत्वीय अन्योन्य क्रिया से सम्बन्धित केन्द्रीय बल का प्रतिफल होता है और सभी शांकव (कॉनिक) परिच्छेदों (conic sections) वाले कक्षाओं पर लागू होता है।
माना गुरूत्वीय अन्योन्य क्रिया से सम्बन्धित केन्द्रीय बल को व्युत्क्रम वर्ग के नियम से व्यक्त करते हैं।
अतः F (r) =- k/r2 r या F(r) =-k/r2 ………………………….(1)
यहाँ केन्द्रीय बल आकर्षण प्रकृति का है तथा k एक धनात्मक नियतांक है।
केन्द्रीय बल के आधीन गतिशील कण या पिण्ड के पथ का समीकरण होगा
[खण्ड (1) के समीकरण (19) से]
D2u/dθ2 + u = – m/J2u2 F (1/u) = km/J2 …………………………..(2)
क्योंकि F (1/u) = – ku2 जहाँ u = 1/r, पिण्ड का द्रव्यमान m है तथा कोणीय संवेग J है।
यदि समीकरण (2) में ψ = u – mk/J2
D2 ψ/dθ2 + ψ = 0
यह सरल आवर्त गति के अवकल समीकरण के समतुल्य है इसलिए इसका हल होगा
ψ = ψ0 cos (θ – θ0)
यहाँ ψ0 तथा θ0 दोनों अज्ञात नियतांक है जिनका मान गतिशील कण की प्रारम्भिक स्थिति से ज्ञात कर सकते हैं।
U = mk/j2 + ψ0 cos (θ – θ0)
1/r = mk/j2 [1 +J2 ψ0/mk cos (θ – θ0)]
R = p/1 + ε cos(θ – θ0)
P = J2/mk ε = J2 ψ0/mk
जहाँ θ के मान में परिवर्तन से r का मान न्यूनतम से अधिकतम मान तक परिवर्तित होता है, θ = θ0 पर r न्यूनतम व θ = (θ0 + π ) पर अधिकतम होता है । θ में कोण 2 π से परिवर्तन होने पर पुनः समान अवस्था प्राप्त होती है।
अतः कोण पर स्थिति बिन्दु को वर्तन बिन्दु (turning point) भी कह सकते हैं।
सरलता के लिए ध्रुवीय निर्देश-तंत्र का इतना घूर्णन कर दें कि θ0 = θ हो जाये तो इस स्थिति में
R = p/1+ ε cos θ
यह एक शांकव (कॉनिक) (conic) का समीकरण है जिसकी नाभि (focus) मूल बिन्दु पर होती है और जिसकी उत्केन्द्रता (eccentricity) ε तथा p/ ε नाभि से नियता (directrix) की दूरी है। अतः गरूत्वीय अन्योन्य क्रियाओं के आधीन गतिशील कण या पिण्ड का पथ शांकव परिच्छेद के रूप में होता है।
उत्केन्द्रता ε – समीकरण (5) से ज्ञात होता है कि शांकव परिच्छेद की आकति या गतिशीलता कण के पथ उत्केन्द्रता ε पर निर्भर करती है जो एक अन्य अज्ञात राशि ψ0 पर निर्भर करती है, परन्तु इसका मान ऊर्जा के संरक्षण के नियम से ज्ञात कर सकते हैं जिसके अनुसार
E = 1/2 m (dr/dt)2 + J2/2mr2 + U
गुरूत्वीय बल क्षेत्र के लिये U = – K/r
E = 1/2 m (drdt)2 + J2/2mr2 – K/r ………………………………(6)
वतन बिन्दु θ = θ0 = 0 पर r का मान न्यूनतम होता है और इस बिन्दु पर पिण्ड के वेग का घटक(dr/dt) का मान शून्य होता है। इसलिए समीकरण (6) से ऊर्जा संरक्षण सिद्धान्त की पालना में
E = J2/2mr2 min – k/rmin ……………………………..(7)
तथा शांकव परिच्छेद के समीकरण (5) से
rmin = p/(1 + ε) …………………………..(8)
समीकरण (8) को (7) में तथा p= J2/mk रखने पर
E = mk2/2J2 (ε2 – 1)
ε = (1 + 2EJ2/mk2)1/2 ……………………….(9)
स्पष्टतः किसी गतिशील पिण्ड के लिए E, J, m तथा k ज्ञात होते हैं जिससे ε का मान ज्ञात किया जा सकता है।
(ii) कार्तीय निर्देशांकों में पथ का समीकरण- गुरूत्वीय बलों के आधीन गतिशील पिण्ड के पथ का समीकरण पथ की उत्केन्द्रता ε पर निर्भर करता है। उत्केन्द्रता के भिन्न-भिन्न मान होने से पथ की प्रकति भी भिन्न हो जाती है। पथ की प्रकृति ज्ञात करने के लिए समीकरण (5) को कार्तीय निर्देशांकों में परिवर्तित करते हैं। अतः x = r cos θ तथा y = r sin θ समीकरण (5) में रखने पर
R + r ε cc, θ = p
√X2+y2 + e ε = p
X2 + y2 = (p – εx)
या (1- ε2)x2 + 2ε px +y2 = p 2 …………………………(10)
स्थिति
यदि ε = 1 हो तो समीकरण (10) से
y2 =- 2εpx + p2
यह परवलय का समीकरण है।
स्थिति-II
यदि ε <1 हो तो समीकरण (10) में दोनों ओर ε2 p2/(1 – ε2) जोड़ कर उसे निम्न रूप से लिख सकते हैं
(1 – ε2)x2 + 2εpx + ε2 p2/(1 – ε2) + y2 = p2 + ε2 p2/(1 – ε2) = p2/(1 – ε2)
X2 + 2 εp/(1 – ε2) x + ε2p2/(1 – ε2)2 + y2/(1 – ε2) = p2/(1 – ε2)2
[x + εp/(1 – ε2]2 + y2(1 – ε2) = p2(1 – ε2)2
(x + x0)2/a2 + y2/b2 = 1
X0 = εp/(1 – ε2)
A = p/(1 – ε2) b = p/(1 – ε2)1/2
यह दीर्घ वृत्त का समीकरण है जिसकी अर्ध दीर्घ अक्ष a है तथा अर्ध लघु अक्ष b है।
स्थिति-3:
यदि ε = 0 है तो
x2 +y2 = J2/mk ……………………..(13)
यह समीकरण वृत्त का है।
स्थिति-4:
यदि ε >1 हो तो समीकरण (12) से
(x – εp/ ε2 – 1)/(p/ ε2 – 1) – y2/(p2 ε2 – 1) = 1 ………………………(14)
उपरोक्त समीकरण अतिपरवलय का होता है।
चित्र- (6) निम्न सारिणी में पथ का वर्गीकरण E तथा ε के फलन में दिया गया है।
ε E पथ |
>1 >0 अतिपरवयल |
=1 =0 परवलय
<1 <0 दीर्घवृत्त =0 = mk22J2 वृत्त
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