ग्रेमिनी , पोऐसी – कुल (gramineae , poaceae family in hindi) ग्रेमिनी कुल के पौधे लक्षण नाम गुण

(gramineae , poaceae family in hindi) ग्रेमिनी , पोऐसी – कुल क्या है पादप का ग्रेमिनी कुल के पौधे लक्षण नाम गुण बताइए महत्व क्या है ?

ग्रेमिनी , पोऐसी – कुल (gramineae , poaceae family) :

(घास कुल : ग्रीक : पोआ अर्थात घास)
वर्गीकृत स्थिति : बेन्थैम और हुकर के अनुसार –
प्रभाग – एन्जियोस्पर्मी
उपप्रभाग – मोनोकोटीलिडनी
श्रृंखला – ग्लूमेसी
कुल – ग्रेमिनी , पोएसी

ग्रेमिनी पादप कुल के विशिष्ट लक्षण (salient features of gramineae)

  1. अधिकांश सदस्य एकवर्षीय अथवा बहुवर्षीय शाक या क्षुप।
  2. मूल अपस्थानिक , तना सामान्यतया खोखला।
  3. पर्ण सरल , एकांतर , द्विपंक्तिक और पर्णाच्छद और पर्ण फलक में विभेदित।
  4. पर्णाच्छद और फलक के संधिस्थल पर एक विशेष संरचना जिभिका पाई जाती है।
  5. पुष्पक्रम यौगिक अथवा संयुक्त कणिश यह अनेक कणिशिकाओं द्वारा निर्मित होता है।
  6. कणिशिका का सबसे निचे वाला सहपत्र बंध्य होता है इसे तुष कहते है। ऊपरी जननक्षम सहपत्र एक या एक से अधिक , प्रमेयिका अथवा लेमा कहलाते है।
  7. पुष्प अथवा पुष्पक उभयलिंगी अथवा एकलिंगी , अवृंत और एकव्याससममित प्रत्येक पुष्पक एक पश्च सहपत्रिका युक्त जिसे शाल्किका कहते है।
  8. पुंकेसर सामान्यतया 3 और मुक्तदोली।
  9. जायांग त्रिअंडपी , युक्तांडपी , एककोष्ठीय , बीजांडन्यास भित्तीय।
  10. वर्तिका दो और वर्तिकाग्र पक्षवत।
  11. फल केरियोप्सिस।

प्राप्ति स्थान और वितरण (occurrence and distribution of gramineae)

इस कुल में लगभग 630 वंश और 10000 से भी अधिक पादप प्रजातियाँ सम्मिलित है जो विश्व के प्राय: सभी भागों में पाई जाती है। इस कुल के सदस्य अपने परिवेश के अनुसार अत्यधिक अनुकूलनशीलता प्रदर्शित करते है। अत: उत्तरीध्रुवीय क्षेत्रों से लेकर बियाबान रेगिस्तानों में इस कुल के पौधे पाए जाते है। भारत में पाए जाने वाले आवृतबीजी कुलों में ग्रेमिनी सबसे बड़ा कुल है , यहाँ इसके 239 वंश और 1150 प्रजातियाँ पायी जाती है जो समुद्री किनारों से लेकर हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं में लगभग 6000 मीटर की ऊँचाई तक पायी जाती है।

कायिक लक्षणों का विस्तार (range of vegetative characters)

प्रकृति और आवास : अधिकांश सदस्य सामान्यतया एकवर्षीय , द्विवर्षीय अथवा बहुवर्षीय शाक अथवा क्षुप है , इनकी अधिकतम ऊँचाई 2 से 5 मीटर तक होती है लेकिन बाँस और डेन्ड्रोकेलेमस की अनेक प्रजातियों में काष्ठीय वृक्ष प्रकृति पायी जाती है। और इनकी ऊंचाई 35 मीटर तक अथवा इससे भी अधिक होती है। कुछ बाँसों का जीवन चक्र 100 वर्ष से भी अधिक का होता है। बहुवर्षीय प्रजातियों में तने की निचली पर्वसंधियों से एक चिरस्थायी , संधिताक्षी प्रकन्द बनता है जिससे पौधे की वृद्धि होती है। स्तम्भ के अग्रस्थ सिरे पर पुष्पक्रम विकसित होता है और इस सम्पूर्ण संरचना को कल्म कहते है। शीतोष्ण घासों के कल्म अशाखित और उष्णकटिबंधीय घासों में शाखित होते है।
मूल : जड़ें अपस्थानिक और रेशेदार होती है। जिया मेज (मक्का) और सेकेरम ओफिसेनेरम (गन्ना) में भूमि के पास स्थित तने अथवा कल्म की पर्व संधियों पर अवस्तम्भ मूल भी पाई जाती है जो इन तनों को सीधा खड़ा रखने में सहायक होती है।
स्तम्भ : वायवीय तना सामान्यतया पर्वसंधियों और लम्बे खोखले पर्वों से युक्त संधित स्वरूप प्रदर्शित करता है अर्थात इस प्रकंद युक्त वायवीय तने की सम्पूर्ण संरचना को कल्म (clum) कहते है। पर्व कुछ उदाहरणों जैसे – जिया मेज (मक्का) , थेमेडा और एन्ड्रोपोगोन में ठोस होते है बल्कि ट्रिटिकम (गेहूँ) और बेम्बूसा अथवा बांस में खोखले होते है। तना उधर्व , श्यान अथवा विसर्पी भी हो सकता है। बहुवर्षी प्रजातियों जैसे साइनोडोन डेक्टाइलोन अथवा दूब में ऊपरी भूस्तारी विकसित होते है , कुछ अन्य प्रजातियों में अंत:भूस्तारी भी विकसित होते है और प्रकन्द और मूल स्कन्ध का निर्माण होता है। उपरोक्त सभी संरचनाएँ पौधे के कायिक जनन में सहायक होती है।
इस कुल के अधिकांश सदस्यों में मुख्य अक्ष के आधार पर उपस्थित कलिकाएँ पाशर्वीय शाखाओं में विकसित होती है , इन शाखाओं को तलशाखाएँ कहा जाता है।
पर्ण : एकान्तरित , सरल और द्विपंक्तिक होती है और इनमें मुख्यतः समानांतर शिराविन्यास पाया जाता है। सामान्यतया प्रत्येक पर्ण , एक स्तरिका अथवा फलक और पर्णाच्छद में विभेदित होती है। पर्णाच्छद , कल्म को चारों तरफ से घेरता है , यह पर्व संधि से जुड़ा रहता है। कभी कभी पर्णाच्छद के कोर जुड़ कर एक नलिका बना लेते है (जैसे ब्रोमस में) और पर्व को चारों तरफ से आच्छादित कर इसके आधारीय भाग को सुरक्षा प्रदान करते है। फलक और पर्णाच्छद के संधि स्थान पर एक झिल्लीनुमा अतिवृद्धि पाई जाती है , इसे जिभिका कहते है। बाँस अथवा बेम्बूसा में जीभिका अनुपस्थित होती है। पर्णफलक लम्बी और संकीर्ण , रेखिक अथवा भालाकार , संवलित अथवा अंतर्वलित होती है। पर्णफलक सामान्यतया पर्णाच्छद से सीधे ही जुड़ा रहता है लेकिन कुछ सदस्यों जैसे – बेम्बूसा और डेन्ड्रोकेलेमस में पर्णफलक और पर्णाच्छद के बीच छोटा पर्णवृन्त पाया जाता है।

पुष्पीय लक्षणों का विस्तार (range of floral characteristics)

पुष्पक्रम : पोऐसी में पाया जाने वाला पुष्पक्रम यौगिक प्रकार का होता है। अन्य कुलों के विपरीत यहाँ पुष्पक्रम की इकाई पुष्प न होकर स्पाइकिका अथवा कणिशिका होती है। विभिन्न सदस्यों में अनेक स्पाइकिकाएं कणिश अथवा स्पाइक में जैसे – ट्रिटीकम में अथवा सरल असीमाक्ष जैसे – पैसपेलम और ब्राइजा में अथवा यौगिक असीमाक्ष गुच्छे में जैसे – एविना में व्यवस्थित होती है।
स्पाइकिका अथवा कणिशिका : प्रत्येक स्पाइकिका की अक्ष रेचिला कहलाती है। यह सूक्ष्म होती है। रेचिला पर सहपत्रों की दो सम्मुख पंक्तियाँ व्यवस्थित होती है। पोऐसी में रेचिला पर उपस्थित सहपत्रों को तुष और ग्लूम्स कहा जाता है , ये तुष शल्की और खुरदरे होते है। रेचिला के आधारीय भाग में सामान्यतया 2 कभी कभी 1 से 6 तक सहपत्र अथवा तुष बंध्य होते है जबकि अन्य सभी तुषों के कक्ष में पुष्प उत्पन्न होते है। इन जननक्षम अथवा पुष्पीय तुष को प्रमेयिका कहते है।
रेचिला और प्रमेयिका के बीच एक झिल्लिमय और द्विशिरिय संरचना पाई जाती है जिसे शाल्लिका कहते है। यह पूर्ण अथवा आंशिक रूप से प्रमेयिका से घिरी होती है और इसकी आकारिकीय प्रवृति सहपत्रिका के समकक्ष कही जा सकती है।
पुष्प : पुष्प छोटे , अवृन्त , सहपत्री , सहपत्रकी , अनाकर्षक , उभयलिंगी लेकिन जिया मेज और अन्य कुछ प्रजातियों में एकलिंगी , एकव्याससममित , त्रितयी और अधोजायांगी होते है।
परिदलपुंज : अत्यन्त समानीत होती है जिनको लोडीक्यूल कहा जाता है। यह अग्र पाशर्व स्थिति में शल्किका के बिल्कुल ऊपर एक एक दोनों तरफ अवस्थित होते है। ये सामान्यतया मांसल और रोमिल होते है। बेम्बूसा में एक पश्च लोडीक्यूल भी पाया जाता है और यहाँ 6 लोडीक्यूल 3+3 के दो चक्रों में पाए जाते है , डेन्ड्रोकेलेमस में लोडीक्यूल्स पूर्णतया अनुपस्थित होते है।
पुमंग : सामान्यतया तीन पुंकेसर एक चक्र में पाए जाते है , विषम पुंकेसर अग्रस्थिति में होता है। बेम्बूसा और ओराइजा में 6 पुंकेसर 3+3 के दो एकान्तर चक्रों में व्यवस्थित होते है। यूनिऑला में केवल एक ही पुंकेसर होता है जो अग्र स्थित पाया जाता है। आरथ्रेक्सोन में केवल दो पुंकेसर होते है , जबकि कुछ अन्य प्रजातियों जैसे – पेरियाना में असंख्य पुंकेसर पाए जाते है। पुंतन्तु स्वतंत्र , परागकोष लम्बे , द्विकोष्ठी , आधारलग्न अथवा मुक्तदोली और अंतर्मुखी होते है।
जायांग : सामान्यतया त्रिअंडपी , युक्तांडपी , अंडाशय उच्चवर्ती और एककोष्ठीय है , बीजांड न्यास भित्तीय। इस कुल के जायांग की आंतरिक संरचना का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि त्रिअंडपी जायांग के दो बीजांडसन बंध्य होते है , इसी कारण पोएसी कुल का जायांग आभासी एकांडपी अथवा आभासी एकभागी दिखाई देता है।
वर्तिकाग्र और वर्तिकाएँ दो , पक्ष्मवत और अन्तस्थ होती है। जिया मेज अथवा मक्का में एक लम्बी वर्तिका दो वर्तिकाओं और वर्तिकाग्रों के जुड़ने से बनती है जबकि बेम्बूसा में तीन वर्तिकाएँ पाई जाती है।
फल और बीज : एकबीजधारी , शुष्क केरिओप्सिस होता है , यह इस कुल का विशिष्ट पहचान का लक्षण है। केरिओप्सिस की फलभित्ति बीजावरण से संलयित रहती है। बीज भ्रूणपोष युक्त होता है।
परागण और प्रकीर्णन : सामान्यतया इस कुल के सदस्यों अर्थात घासों में स्वपरागण अथवा वायु परागण पाया जाता है। अधिकांश प्रजातियों में बीज छोटे होते है और इनका प्रकीर्णन भी वायु द्वारा ही होता है , जहाँ तुष , शूलमय होते है , वहां जन्तुओं द्वारा बीजों का प्रकीर्णन होता है।
पुष्पसूत्र :
बंधुता और जातिवृतीय सम्बन्ध :-
बैंथम और हुकर ने ग्रेमिनी कुल को दो उपकुलों पेनिकेसी और पोऐसी में विभक्त किया और इस कुल को उनके द्वारा श्रृंखला ग्लूमेसी में साइपेरेसी के साथ रखा गया। एंग्लर और प्रेंटल द्वारा उपरोक्त कुलों को गण ग्लूमीफ्लोरी में रखा गया। यह कुल न केवल आवृतबीजी पौधों अपितु सम्पूर्ण पादप जगत का सर्वाधिक विकसित अथवा प्रगत कुल कहा जा सकता है। इसके सम्भावित कारण निम्नलिखित है –
  1. अधिकांश सदस्य शाकीय , एकवर्षीय घासें।
  2. आंतरिक संरचना में बिखरे हुए संवहन बंडल।
  3. पत्तियों में समानांतर शिराविन्यास।
  4. पुष्पक्रम सघन कणिश अथवा पेनिकल।
  5. पुष्प छोटे अनाकर्षक और एकव्यास सममित।
  6. विभिन्न पुष्पीय भाग सरल और समानीत।
  7. वायुपरागण का पाया जाना।
  8. बीजों का प्रकीर्णन सामान्यतया वायु के द्वारा होता है।
  9. फल शुष्क और कैरिओप्सिस प्रकार का।
  10. इस कुल के सदस्य सर्वदेशीय होते है , अर्थात विश्व के सामान्यतया सभी भागों में पाए जाते है।

आर्थिक महत्व (economic importance)

I. धान्य अथवा अनाज :
  1. ओराइजा सेटाइवा – चावल।
  2. ट्रिटीकम एस्टाइवम – गेहूँ।
  3. जिया मेज – मक्का।
  4. होर्डियम वल्गेयर – जौ
  5. एविना सेटाइवा – जई।
इसके अतिरिक्त इस कुल के कुछ महत्वपूर्ण गौण अथवा मोटा अनाज किस्में निम्नलिखित है –
  1. पेनीसीटम टाइफोइडिस – बाजरा।
  2. सोरघम वल्गेयर – ज्वार।
  3. इल्यूसीन कोराकाना – रागी।
  4. पेनिकम मिलियेसीयम – सामा।
II. चारा :
  1. सोरघम हेलीपेन्स – सूड अथवा बारू।
  2. सोरघम वल्गेयर – ज्वार।
  3. एविना सेटाइवा – जई।
  4. सीटेरिया ग्लाऊका – बान्द्रा
  5. पेनीसीटम नर्वोसम
  6. फेलेरिस सिरुलेन्सिस
  7. हाइग्रोराइजा ऐरिस्टाटा
इनके अतिरिक्त साइनोडोन (दूब) , पोआ और फेस्टूका की विभिन्न प्रजातियों का उपयोग न केवल पशु चारे में किया जाता है अपितु इनको बगीचों , लान और खेल के मैदानों में भी लगाया जाता है।
III. शर्करा :
सेकेरम आफ़िसिनेरम (गन्ना) से चीनी और गुड तैयार किये जाते है और इससे प्राप्त शीरा एल्कोहल निर्माण में काम आता है। बची हुई खोई को जलाने और काग़ज और पैकिंग का सामान बनाने में काम लिया जाता है।
IV. तेल :
इस कुल के कुछ पौधों से सुगन्धित और वाष्पशील तेल प्राप्त होते है जिनका उपयोग इत्र बनाने , मच्छर प्रतिकारी क्रीम और अनेक दवाइयाँ बनाने में किया जाता है। कुछ प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित प्रकार है –
  1. सिम्बोपोगोन सिट्रेटस – पत्तियों से लेमन घास तेल प्राप्त होता है।
  2. सिम्बोपोगान मार्टिनाई – इसकी मोतिया किस्म की पत्तियों से पामरोज तेल और सोफिया किस्म से जिन्जर घास तेल मिलता है।
  3. सिम्बोपोगोन नारडस – इसकी पत्तियों से सिट्रोनेला तेल तैयार होता है।
  4. वेटीवेरिया जिजेनोइडिस – खस के प्रकन्द और जड़ों से खस का इत्र और तेल प्राप्त होता है , इसकी जड़ों से टाटिया बनाते है जो गर्मियों में ठंडक प्रदान करने के काम आता है।
V. कागज :
  1. डेन्ड्रोकेलेमस – बांस की सभी प्रजातियाँ।
  2. बेम्बूसा – बाँस की अनेक प्रजातियाँ
  3. ओराइजा सेटाइवा – चावल
  4. इरियेंथस मुंजा – सिरकी , सरकंडा
  5. सेकेरम बेंगालेन्स – बड़ा नाल
VI. अन्य उपयोग :
बाँस की विभिन्न प्रजातियों मुख्यतया बेम्बूसा एरुंडेनेसिया और डेन्ड्रोकेलेमस स्ट्रिक्टस और इनके अतिरिक्त ऐरुंडेनेरिया , जाइजेंटोक्लोआ और मेलोकेना आदि का उपयोग परदे की चिक , टोकरियाँ , लाठी , बल्ली  , सिढ़ी और अत्याधुनिक फर्नीचर और हथकरघा उद्योग में किया जाता है।
बाँस के कोमल शीर्षस्थ सिरों से स्वादिष्ट अचार बनाया जाता है।
बेम्बूसा और डेन्ड्रोकेलेमस की विभिन्न प्रजातियों से बंसलोचन नामक आयुर्वेदक औषधि तैयार की जाती है।

कुल पोएसी के प्रारूपिक पादप का वानस्पतिक वर्णन (botanical description of typical plant from poaceae family)

ट्रिटिकम एस्टाइवम लिन. (triticum aestivum linn.) :
स्थानीय नाम – गेहूँ
प्रकृति और आवास – एकवर्षीय घास , खाद्यान फसल के लिए उगाया जाता है।
मूल – अपस्थानिक रेशेदार जड़ें।
स्तम्भ – उधर्व , बेलनाकार , अशाखित , पर्वसंधि पर ठोस और पर्व पर खोखला , अरोमिल , पर्वसन्धियाँ पर्णाच्छदों से आवरित।
पर्ण – सरल , एकान्तरित , अननुपर्णी , रेखीय निशिताग्र , अवृंत , शिराविन्यास समानान्तर , पर्णाच्छद और पर्णफलक की संधि पर झिल्लीवत जीभिका उपस्थित।
पुष्पक्रम – स्पाइकिका का स्पाइक।
पुष्प – अवृन्त , उभयलिंगी , एकव्यास सममित , अपूर्ण छोटा और अनाकर्षक , अधोजायांगी।
परिदलपुंज : दो झिल्लीनुमा लोडीक्यूल्स के रूप में जो मांसल और रोमिल , अग्रपाशर्व स्थिति में दो पेलिया के मध्य होते है।
पुमंग : पुंकेसर-3 , पृथक , विषम पुंकेसर अग्र स्थिति में , पुंतन्तु लम्बे , पराग कोष मुक्तदोली , अंतर्मुखी।
जायांग : त्रिअंडपी , आभासी एकांडपी , अंडाशय उच्च्वर्ती , एककोष्ठीय , बीजांडविन्यास आधारीय , वर्तिका छोटी वर्तिकाग्र पंखवत।
फल : शुष्क कैरिओप्सिस।
पुष्प सूत्र :

प्रश्न और उत्तर

प्रश्न 1 : खस का इत्र और तेल प्राप्त होता है –
(अ) पत्तियों से
(ब) तने से
(स) जड़ से
(द) पुष्पों से
उत्तर : (स) जड़ से
प्रश्न 2 : सबसे लम्बी वर्तिका पाई जाती है –
(अ) बाजरा में
(ब) मक्का में
(स) गेहूँ में
(द) गन्ने में
उतर : (ब) मक्का में
प्रश्न 3 : पोऐसी में पुष्पक्रम होता है –
(अ) कोरिम्ब
(ब) संयुक्त स्पाइक
(स) अम्बेल
(द) साइथीयम
उत्तर : (ब) संयुक्त स्पाइक
प्रश्न 4 : पोएसी कुल में फल कहलाता है –
(अ) डूप
(ब) बेरी
(स) केरियोसिस
(द) फली
उत्तर : (स) केरियोसिस
प्रश्न 5 : लेमन ग्रास तेल प्राप्त होता है –
(अ) सिम्बोपोगोन
(ब) ऐबिना
(स) सिटेरिया
(द) पेनिकम
उत्तर :   (ब) ऐबिना