JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: sociology

गोविन्द सदाशिव घुर्ये का जीवन परिचय | Govind Sadashiv Ghurye in hindi G. S. Ghurye पुस्तकें ए आर देसाई

Govind Sadashiv Ghurye in hindi G. S. Ghurye गोविन्द सदाशिव घुर्ये का जीवन परिचय पुस्तकें ए आर देसाई ?

गोविंद सदाशिव घुर्ये (1893-1984)
आपको यह मालूम ही है कि जी.एस. घुर्ये मुंबई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में अध्यापन करते थे। वे नृजाति शास्त्री थे। उन्होंने ऐतिहासिक, भारतशास्त्र संबंधी और सांख्यिकीय सामग्री के आधार पर जनजातियों और जातियों का अध्ययन किया। आइए, अब हम उनके जीवन की जानकारी प्राप्त करें। इसके बाद हमने उनके मुख्य विचारों और समाजशास्त्र पर उनकी महत्वपूर्ण रचनाओं की जानकारी लें।

जीवन परिचय
इस उपभाग में हमने जी.एस.घुर्ये की पुस्तक, आई एण्ड अदर एक्सप्लोरेशन्स, 1973, के आधार पर उनके जीवन परिचय का विवरण दिया है। गोविंद सदाशिव घुर्ये का जन्म 12 दिसंबर 1893 में भारत के पश्चिमी तट पर स्थित मालवन नामक एक छोटे से कस्बे में हुआ था। मालवन मुंबई से लगभग 320 कि.मी. दूर है। वे समृद्ध ब्राह्मण परिवार के थे जिसकी अपनी दुकानें और अन्य संपत्ति थीं। घुर्ये का नाम इनके दादा के नाम पर रखा गया था जिनकी मृत्यु उसी साल हुई थी, जिस वर्ष इनका जन्म हुआ था। इनका परिवार बहुत अधिक धर्म परायण था तथा धर्मनिष्ठा के लिए उस क्षेत्र में प्रसिद्ध था।

व्यापार में घाटा होने और उनके दादा की मृत्यु के कारण जी.एस. घुर्ये के पिता को नौकरी करनी पड़ी। उनकी नौकरी परिवार के लिए बहुत भाग्यशाली सिद्ध हुई। घुर्ये अपने माता-पिता की चार संतानों में से एक थे। उनके एक बड़े भाई थे जिनकी वे बहुत प्रशंसा करते थे। इसके अलावा उनकी एक बहन और एक भाई भी थे। उन्होंने मालवन के एक स्कूल में प्रवेश लिया। सन् 1905 में उनका ‘‘यज्ञोपवीत‘‘ संस्कार (sacred thread ceremony) हुआ। इस समय उन्होंने पांचवी कक्षा की पढ़ाई पूरी कर ली थी और अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश लिया। इनकी मातृभाषा मराठी थी और इनकी आरंभिक शिक्षा भी मराठी में हुई थी। परन्तु परिवार में संस्कृत शिक्षा की परंपरा थी। उनके दादा को संस्कृत का ज्ञान था। इन्होंने भी संस्कृत भाषा पढ़ना शुरू किया। परिवार के धार्मिक वातावरण, धर्मनिष्ठा और ज्ञान की प्रसिद्धि का घुर्ये पर गहरा प्रभाव पड़ा था। उन्होंने अंग्रेजी पढ़ी और आधुनिक शिक्षा ग्रहण की लेकिन हिंदू धर्म और परंपरा में उनकी गहरी जड़ें थीं। इनकी माता ने उन्हें दसवीं कक्षा की परीक्षा की पढ़ाई के लिए जूनागढ़, गुजरात में भेजा। यहाँ उनके बड़े भाई पहले ही अध्ययन कर रहे थे। सन् 1912 में वे बहाउद्दीन कालेज में प्रविष्ट हुए। यहाँ उन्हें संस्कृत का अच्छा ज्ञान हो गया।

इसके बाद वे मुंबई विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए। यहाँ उस समय प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा होती थी। उन्होंने बीस अन्य लड़कों के साथ यह परीक्षा उत्तीर्ण की। उस समय वहाँ कोई भी महिला विद्यार्थी नहीं थी लेकिन बाद में एक ईसाई छात्रा उनकी कक्षा में आ गई। अपने कालेज में वे प्रथम रहे। विश्वविद्यालय में उनका चैथा स्थान था। जब उन्होंने विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया उस समय उनके भाई वहां भौतिकी पढ़ाते थे। वे बहुत मेहनती छात्र थे। बीच-बीच में बीमार रहने के बावजूद भी उनका प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा।

सन् 1916 में वे बी ए की परीक्षा में प्रथम आए। इसके बाद उनका विवाह वेनगुर्ला (महाराष्ट्र) में अपनी ही जाति के संपन्न परिवार की एक लड़की से हो गया। महाराष्ट्र की पंरपरा के अनुसार विवाह के बाद माता-पिता ने उनकी पत्नी का नाम रुक्मिणी रख दिया जिसे बाद में घुर्ये ने बदल दिया। 1923 में जब घुर्ये ने अपनी गृहस्थी शुरू की तो वे फिर से अपनी पत्नी को पुराने नाम साजुबाई से बुलाने लगे। वे शादी के बाद लड़की के पहले नाम को बदलने की पंरपरा के विरुद्ध थे। वे शरीर को गुदवाने की पंरपरा के भी विरुद्ध थे, क्योंकि वे इसे क्रूरतापूर्ण क्रिया मानते थे।

बी.ए. की परीक्षा में अच्छे परिणाम के लिए उन्हें भाऊ दाजी पुरस्कार मिला। भाऊ दाजी लाड भारतशास्त्र के महान विद्वान थे और वे मुंबई के आधुनिक पद्धति से प्रशिक्षित प्रथम चिकित्सक थे। घुर्ये ने अपने कालेज में संस्कृत में 74 प्रतिशत अंक प्राप्त किए थे। उन्हें कालेज में फैलो (थ्मससवू) नियुक्त किया गया और उन्होंने वहां से एम ए की डिग्री प्राप्त की। एम ए के लिए उन्होंने अंग्रेजी और संस्कृत भाषाओं को चुना और बाद में पाली भाषा भी पढ़ी। उन्होंने तुलनात्मक भाषाशास्त्र (comparative philology) का कोर्स भी किया जो उसी साल विश्वविद्यालय में शुरू हुआ था। उन्होंने एम.ए. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके लिए उन्हें कुलपति का स्वर्णपदक मिला जो पूरे विश्वविद्यालय का सर्वोच्च सम्मान है।

विश्वविद्यालय के इतिहास में यह उनकी अभूतपूर्व सफलता थी क्योंकि इससे पहले किसी को भी संस्कृत के साथ एम.ए. में प्रथम श्रेणी प्राप्त नहीं हुई थी।

इसके बाद उन्होंने विदेश में समाजशास्त्र में अध्ययन करने के लिए छात्रवृति का आवेदन किया। वह विज्ञापन मुंबई विश्वविद्यालय ने निकाला था। इसके लिए उन्हें विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफेसर पैट्रिक गेडिस से मिलने के लिए कहा गया। गेडिस के कहने से उन्होंने ‘‘मुंबई एक शहरी केंद्र‘‘ विषय पर निबंध लिखा जिसकी मेडिस ने अत्यधिक प्रंशसा की। इसके परिणामस्वरूप घुर्ये को विदेश में अध्ययन के लिए छात्रवृति मिल गई।

घुर्ये समुद्री जहाज से इंग्लैड गए। वे वहां एल.टी. हॉबहाऊस के विद्यार्थी बन गये। वहां वे कई अन्य विद्वानों के साथ-साथ डॉ. ए. सी. हैडन से भी मिले । हैडन प्रसिद्ध नृजाति विज्ञानी थे और वहाँ पूर्व साक्षर संस्कृतियों (preliterate cultures) का अध्ययन कर रहे थे। हैडन ने घुर्ये का डब्लयू एच आर रिवर्स से परिचय कराया। घुर्ये पर इनका काफी प्रभाव पड़ा। इस समय रिवर्स अपनी प्रतिष्ठा के सर्वोच्च शिखर पर थे और वे कैम्ब्रिज स्कूल ऑफ साईकॉलॉजी के संस्थापक थे। रिवर्स बाद में भारत भी आए और यहां उन्होंने नीलगिरि पर्वतीय क्षेत्र की बहुपति विवाह वाली टोडा जनजाति का अध्ययन किया। घुर्ये ने इस समय समाजशास्त्र पर कई लेख लिखे और उन्हें जरनल ऑफ द रॉयल एंथ्रोपोलॉजिकल इन्स्टीट्यूट में और एन्थ्रोपॉस पत्रिका में प्रकाशित करवाया। 1930 के दशक में उन्होंने भारत में जाति और प्रजाति विषय पर, कास्ट एंड रेस इन इंडिया, नाम की महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. डिग्री दी गई। रिवर्स की मृत्यु के बाद वे वापस भारत आ गए।

उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से मिली छात्रवृत्ति पर छह मास तक कलकत्ता में काम किया। इसके पश्चात् 1924 में उन्हें और कलकत्ता विश्वविद्यालय के के.पी. चट्टोपाध्याय को मुंबई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के रीडर पद पर नियुक्त कर दिया गया। घुर्ये को यह नियुक्ति इसलिए दी गई कि उन्हें डब्ल्यू एच.आर रिवर्स ने अत्यधिक सम्मान और मान्यता दी थी। उसी साल इन्होंने मुंबई एशियाटिक सोसाइटी की सदस्यता स्वीकार कर ली। उनके मार्गदर्शन में कई विद्यार्थियों ने शोधकार्य किए। उनके कई विद्यार्थी आज प्रसिद्ध समाजशास्त्री हैं, जिन्होंने समाजशास्त्र और सामाजिक नृशास्त्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

मुंबई विश्वविद्यालय में रीडर पद पर नियुक्त होने के दस साल बाद सन् 1934 में उन्हें प्रोफेसर और समाजशास्त्र विभाग का अध्यक्ष बना दिया गया। 1934 में उन्हें इंडियन साइंस कांग्रेस के नृशास्त्र भाग का अध्यक्ष चुना गया। उसी साल रॉयल एशियाटिक सोसाइटी की मुंबई शाखा की प्रबंध समिति ने इन्हें रॉयल एशियाटिक सोसाइटी का मनोनीत सदस्य चुना। सन् 1942 में ये मुंबई की ऐंथ्रोपोलॉजिकल सोसाइटी के अध्यक्ष बन गए और सन् 1948 तक ये इस पद पर बने रहे। उन्होंने कई पुस्तकें और लेख लिखे। संस्कृत का अच्छा ज्ञान होने के कारण वे भारतीय समाज के संदर्भ में धार्मिक शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन कर सके। उन्होंने जातियों और जनजातियों, ग्रामीण-शहरीकरण, भारतीय साधुओं और भारतीय वेशभूषा के बारे में व्यापक अध्ययन किया। अपने जीवन में उन्होंने कई सर्वोच्च सम्मान प्राप्त किए जो शायद ही भारत के किसी भी बुद्धिजीवी को प्राप्त हुए हों। वे केवल राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत के प्रसिद्ध समाजशास्त्री माने जाते थे। इनकी मृत्यु 1984 में हुई।

 मुख्य विचार
गोविंद सदाशिव घुर्ये ने मुख्य रूप से भारत में समाजशास्त्र के निम्नलिखित क्षेत्रों में योगदान दिया। ये क्षेत्र हैं, जातियों और जनजातियों का नृजातीय शास्त्र की दृष्टि से वर्णन, ग्रामीण शहरीकरण, धार्मिक घटनाएं, सामाजिक तनाव और भारतीय कला।

 भारत में जाति और नातेदारी व्यवस्था
1930 के दशक के आरंभ में उन्होंने भारत में जाति और प्रजाति पर, कास्ट एंड रेस इन इंडिया, नामक पुस्तक प्रकाशित की। भारतीय जातियों के संबंध में जानकारी के लिए यह पुस्तक आज भी महत्वपूर्ण है। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने जातिप्रथा की ऐतिहासिक, तुलनात्मक औरं एकीकृत परिप्रेक्ष्य में जाँच की है। बाद में उन्होंने भारत-यूरोपीय संस्कृतियों में नातेदारी व्यवस्था का तुलनात्मक अध्ययन किया। अपने नातेदारी और जाति के अध्ययनों में घुर्ये ने दो मुद्दों पर विशेष बल दिया

(क) भारत की नातेदारी और जाति व्यवस्था की तरह कुछ अन्य देशों में भी ऐसी ही व्यवस्था हैं और

(ख) भारत में नातेदारी और जाति व्यवस्था एकीकृत ढांचे का काम करती है। भारतीय समाज का विकास इन व्यवस्थाओं के माध्यम से विभिन्न जातीय और नृजातीय समूहों के एकीकरण पर आधारित है।

गोत्र और चरण भारतीय यूरोपीय भाषाओं की स्वजन श्रेणियां (kin & categories) थीं जिन पर लोगों के पद और प्रस्थिति की व्यवस्था आधारित की गई। ये श्रेणियां अतीत काल के ऋषियों ने दी हुई थीं। ये ऋषि ही गोत्र और चरण के वास्तविक या आधारनामी संस्थापक थे। भारत में वंशक्रम का उद्भव जरूरी नहीं है कि रक्त संबंध से ही खोजा जाए। बहुत सी वंश पंरपराएं प्रायः अतीत के ऋषियों के आध्यात्मिक उद्भव पर आधारित थीं। नातेदारी व्यवस्था से परे गुरु-शिष्य संबंध भी दिखाई देते हैं, ये भी आध्यात्मिक वंशक्रम पर आधारित थे। शिष्य को अपने वंश का उद्भव अपने गुरु में खोज कर विशेष गर्व का अनुभव होता है। इसी प्रकार जाति और उपजाति लोगों को व्यवस्थाबद्ध रूप में एकीकृत करती थीं जो उनके ठंश की शुद्धता और अशुद्धता (छुआछूत) पर आधारित थी। अंतर्विवाह और सहभोजिता के जो नियम जातियों को एक दूसरे से अलग करते थे, वे वास्तव में जातियों के एकीकरण के साधन रूप थे तथा विभिन्न जातियों को सामूहिकता या समष्टि में संगठित करते थे। इस एकीकरण के लिए हिंदू धर्म में संकल्पनात्मक और अनुष्ठान संबंधी निर्देशक सिद्धांत दिए गए। भारत में ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्रं की व्याख्या द्वारा, जाति विन्यास और क्रमों के वैधीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की (धर्मशास्त्र धर्म संहिताओं के संक्षिप्त रूप हैं)।

 भारत में जाति की नई भूमिकाएं
जाति के संबंध में घुर्ये की पुस्तक में कुछ दिलचस्प पूर्व अनुमान थे जो बाद में सही साबित हुए। एक तो उन्होंने यह देखा कि भारतीय जातियों ने स्वैच्छिक संगठनों को शिक्षा और सुधारवादी उद्देश्यों को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहित किया। इसी संदर्भ में दक्षिण भारत में नादार, रेड्डी और कम्मा जातियों ने, महाराष्ट्र के सारस्वत ब्राह्मणों ने और उत्तर भारत के वैश्यों और कायस्थों ने (यहां कुछ ही नाम दिए हैं) अपनी जाति सभाओं की स्थापना की। घुर्ये का अनुमान था कि भविष्य में ये सभाएं अपनी जाति संबंध के आधार पर लोगों में राजनैतिक जागरूकता भी पैदा करेंगे। आजादी के बाद भारत में जाति सभाएं अपनी जाति के लोगों को राजनैतिक रियायतें या सुविधाएं दिलवाने के लिए काफी प्रयत्नशील रहीं। कुछ वर्षों के बाद, राजनैतिक विश्लेषक, रजनी कोठारी ने जाति पर आधारित सभाओं का व्यापक रूप से विश्लेषण किया है। घुर्ये के विपरीत, कोठारी ने इन जाति-आधारित सभाओं की सामाजिक कल्याण की गतिविधियों जैसी सकारात्मक भूमिकाओं को मान्यता दी है। घुर्ये के अनुसार जाति सभाओं ने लोकतांत्रिक ढांचे में लोगों की राजनैतिक आकांक्षाओं को प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया है। घुर्य ने पिछड़े वर्गो द्वारा पहले से अधिक विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिए किए जाने वाले विभिन्न आंदोलनों की ओर भी संकेत किया है। ऐसा प्रतीत होता था कि ये संघर्ष भारतीय समाज की एकता को कम महत्व दे रहे हैं। इस प्रकार जाति व्यवस्था इस अर्थ में ‘‘बहुवादी‘‘ (pluralist) बनती जा रही थी। इसका मतलब है कि प्रत्येक जाति अपनी जाति के लिए दूसरों की अपेक्षा राष्ट्रीय संपति का ज्यादा से ज्यादा भाग हथियाना चाह रही थी। इस प्रकार विशेषाधिकारों को पाने के लिए इन जातियों की होड़ ने समाज की एकता को हानि पहुँचाई थी।

भारत में जनजातियों का अध्ययन
घुर्ये ने अपने अध्ययन में जनजातियों पर व्यापक शोधकार्य किया है इसके साथ-साथ उन्होंने जनजातियों के विशिष्टि मुद्दों पर भी अध्ययन किया है। उन्होंने अनुसूचित जनजातियों पर अपनी एक पुस्तक में भारत की जनजातियों के ऐतिहासिक, प्रशासनिक और सामाजिक आयामों का वर्णन किया। उन्होंने महाराष्ट्र की विशिष्ट जनजातियों जैसे कोली के संबंध में भी लिखा । घुर्ये के विचार में भारतीय जनजातियों की स्थिति पिछड़े वर्ग के हिंदुओं जैसी थी। उनके पिछड़ेपन का कारण था, उनका हिंदू समाज में पूरी तरह से एकीकृत न होना। दक्षिण-मध्य भारत में रहने वाले संथाल, भील और गोंड आदि जनजातियों के कुछ भाग हिंदू समाज में पूरी तरह से एकीकृत हो गए हैं लेकिन इनका बहुत बड़ा भाग कभी भी पूर्ण रूप से एकीकृत नहीं हुआ। इन परिस्थितियों से इनके बारे में केवल यह ही कहा सकता है कि ये लोग हिंदू समाज में पूर्ण रूप से एकीकृत वर्ग नहीं है (घुर्ये 1963)।

जनजातीय जीवन में हिंदू धर्म के मूल्यों और प्रतिमानों को सम्मिलित करना एक सही कदम था। हिंदुओं के सामाजिक वर्गो के साथ बढ़ते हुए संपर्क के कारण जनजातियों ने धीरे-धीरे हिंदुओं के कुछ मूल्यों और जीवन पद्धति को आत्मसात कर लिया और उन्हें हिंदू जाति व्यवस्था का ही अंग समझा जाने लगा। फलस्वरूप जनजाति के लोगों ने शराब पीना छोड़ दिया, शिक्षा प्राप्त करना आरंभ कर दिया और हिंदू-कृषकों के प्रभाव से कृषि के तरीकों में भी सुधार किया। इस विषय में रामकृष्ण मिशन और आर्य समाज जैसे हिंदू स्वैच्छिक संगठनों ने रचनात्मक भूमिका अदा की। उत्तर-पूर्वी जनजातियों पर लिखी अपनी बाद की रचनाओं में घुर्ये ने अलगाववादी प्रवृत्तियों का उल्लेख किया। उनके विचार में यदि इन प्रवृत्तियों को न रोका गया तो देश की राजनैतिक एकता को खतरा हो सकता है।

 भारत में ग्रामीण-शहरीकरण
घुर्य की ग्रामीण-शहरीकरण की प्रक्रिया में दिलचस्पी थी। उनका यह मत था कि भारत में शहरीकरण औद्योगिक विकास का परिणाम नहीं है। भारत में बीसवीं सदी के पूर्वाध तक शहरीकरण की प्रक्रिया ग्रामीण क्षेत्रों से ही आरंभ हुई थी। उन्होंने इसकी पुष्टि में कुछ संस्कृत ग्रंथों और दस्तावेजों के उदाहरण देकर बताया कि सुदूर गांवों में बाजार की आवश्यकता के कारण शहरी क्षेत्रों का विकास हुआ। दूसरे शब्दों में, कृषि-व्यवस्था के विस्तार के कारण आवश्यकता से अधिक अनाज की पैदावार होने लगी। इसके विनिमय के लिए और अधिक मंडियों और बाजारों की जरूरत थी। कई ग्रामीण क्षेत्रों में किसी बड़े गांव के एक भाग को मंडी या बाजार में बदल दिया जाता था। इसके फलस्वरूप ऐसे क्षेत्रों में कस्बों का निर्माण हो गया जिसमें धीरे-धीरे प्रशासनिक, न्यायिक और अन्य संस्थाएं भी बन गईं। यहां पर यह बताना उचित होगा कि इन शहरी केंद्रों के निर्माण में भी सामंतवादी संरक्षण का हाथ रहता था। अतीत में शहरी दरबारों की रेशमी कपड़ों, हथियारों, आभूषणों, धातु की शिल्पकृतियों की मांग के कारण ही वाराणसी, कांचीपुरम, जयपुर, मुरादाबाद जैसे शहरी केंद्रों का विकास हुआ था।

संक्षेप में, घुर्ये की दृष्टि में ग्रामीण-शहरीकरण का कारण गांव की स्थानीय आवश्यकताएं ही थीं। ब्रिटिश उपनिवेश काल के दौरान महानगरीय केंद्रों के विकास से भारतीय शहरी जीवन में बदलाव आया। अब ये छोटे-बड़े शहर कृषि उत्पादन और हस्तशिल्प की वस्तुओं की खपत के क्षेत्र नहीं रहे थे, बल्कि वे प्रमुख निर्माण-केंद्र बन गए जिन्होंने भीतरी ग्रामीण क्षेत्रों को कच्चा माल पैदा करने का क्षेत्र बना लिया। इसके साथ-साथ ये ग्रामीण क्षेत्र औद्योगिक उत्पादों की खपत के केंद्र बन गए। इस प्रकार महानगर केंद्र ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर हावी हो गए।

पिछली व्यवस्था के विपरीत अब शहरीकरण का फैलाव भीतरी ग्रामीण क्षेत्रों में होने लगा दिखें चित्र 5.1)।

घुर्ये ने 1957 में, महाराष्ट्र के पुणे जिले में लोनीकांड गांव का अध्ययन किया। इसका उद्देश्य सामाजिक ढांचे की निरंतरता को उभारकर प्रस्तुत करना था। पहले सन् 1819 में एक ब्रिटिश अधिकारी ने इस गांव का अध्ययन किया था। इस संदर्भ में उन्होंने गांव की रूपरेखा, आर्थिक अधिसंरचना, जातियों का गठन, बाजार व्यवहार तथा राजनैतिक और धार्मिक प्रवृत्तियों का वर्णन किया। 1957 में किए गए पुनर्सर्वेक्षण में घुर्ये को गांव के जनसांख्यिकी, आर्थिक और सामाजिक विस्तार में कोई खास अंतर नहीं दिखाई दिया। इसके अलावा, घुर्ये ने देखा कि गांव की रूपरेखा प्राचीन काल के एक लेख में उल्लिखित विवरण से मेल खाती थी। उन्होंने यह भी देखा कि गांव में कोई सुनिश्चित सामाजिक संरचना भी नहीं थी। वहां का सामाजिक ढांचा बिखरा हुआ सा था। इसके बावजूद यह गांव एक व्यावहारिक इकाई के रूप में जीवित रहा।

अगले अनुभाग को पढ़ने से पहले सोचिए और करिए 2 को अवश्य पूरा कर लें।
सोचिए और करिए 2
इस इकाई के उपभाग 5.5.2 भारत में ग्रामीण-शहरीकरण के बारे में जी.एस. घुर्ये के मुख्य विचारों को ध्यान से पढ़िए। किन्हीं दो वृद्ध व्यक्तियों के साथ उनके शहर, कस्बे या गांव में औपनिवेशिक शासन के बाद हुए परिवर्तनों के बारे में चर्चा कीजिए। उनसे गांव की रूपरेखा में हुए परिवर्तनों की जानकारी प्राप्त कीजिए। गांव में बाजार तथा आवासीय इलाके की स्थिति के बारे में जानकारी लीजिए।

अब आप मेरे शहर या बस्ती या गांव में ग्रामीण-शहरी विकासश् विषय पर लगभग एक पृष्ठ की टिप्पणी लिखिए। यदि संभव हो तो अपनी टिप्पणी की तुलना अपने अध्ययन केंद्र के अन्य विद्यार्थियों की टिप्पणी से कीजिए।

भारत में धार्मिक विश्वास और रीति-रिवाज
घुर्ये ने भारत में धार्मिक विश्वासों और रीति-रिवाजों के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने सन् 1950 से 1965 के बीच इस विषय पर तीन पुस्तकें लिखी। उनके विचार में प्राचीन भारत, मिस्र और बैबिलोनिया में धार्मिक चेतना धर्म-स्थलों से जुड़ी हुई थी। भारत और मिस्र के पूजापाठ की पद्धति और धर्म-स्थलों का वास्तुकला में भी समानता थी। घुर्ये ने भारतीय धर्म में विभिन्न देवताओं की भूमिका पर अपनी रचना में शिव, विष्णु और दुर्गा जैसे प्रमुख देवी-देवताओं के उद्भव का अध्ययन किया है। उन्होंने इस अध्ययन के द्वारा पूजा की बृहत् स्तरीय पद्धति में स्थानीय या उपक्षेत्रीय विश्वासों को जोड़ने की आवश्यकता को पहचाना है। इन देवी-देवताओं के इर्द-गिर्द धार्मिक समष्टि में भारत के विभिन्न नृजातीय समूह एकीकृत हो गए थे। भारत में प्रमुख पंथों के विस्तार का आधार राजनैतिक समर्थन या लोक समर्थन रहा था। महाराष्ट्र के गणेश उत्सव और बंगाल के दुर्गा पूजा उत्सवों को लोकप्रिय बनाने में बालगंगाधर तिलक और बिपिन चंद्रपाल जैसे राष्ट्रवादियों के प्रयास शामिल थे। ये राष्ट्रवादी नेता स्वाधीनता संग्राम के दौरान अपने राजनैतिक विचारों के प्रचार के लिए धार्मिक दृष्टि का उपयोग कर रहे थे। आज भी इन उत्सवों के पीछे राजनैतिक छवि दिखाई देती है।

 भारतीय परम्परा में साधु की भूमिका
घुर्ये ने अपनी पुस्तक, इंडियन साधुज, में संन्यास की दोहरी प्रकृति की समीक्षा की। भारतीय संस्कृति के अनुसार ऐसा समझा जाता है कि साधुओं या सन्यासियों को सभी जाति-प्रतिमानों, सामाजिक परंपराओं आदि से मुक्त होना चाहिए। वस्तुतः वह समाज के दायरे से बाहर होता है। शैवमतावलंबियों में यह आम रिवाज है कि जब उनके समूह का कोई व्यक्ति सन्यास या आत्मत्याग के मार्ग को अपनाता है तो वे उसका ‘‘नकली दाहसंस्कार‘‘ कर देते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वह समाज के लिए तो ‘मृत‘ समान है लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से उसका ‘पुनर्जन्म‘ होता है। फिर भी यह बड़ी दिलचस्प बात है कि आठवीं शताब्दी के सुधारक शंकराचार्य के समय से प्रायरू हिंदू समाज का मार्गदर्शन साधुओं ने किया। ये साधु एकातवासी नहीं थे। इनमें से अधिकांश मठ-व्यवस्था से जुड़े हुए थे जिनकी अपनी विशिष्ट परंपरा होती थी। भारत में मठ-व्यवस्था बौद्ध धर्म और जैन धर्म की देन है। बाद में शंकराचार्य ने हिंदू धर्म के भी मठ स्थापित किए।

भारतीय साधुओं का काम धार्मिक विवादों में मध्यस्थता करना था। वे धर्मग्रंथों के अध्ययन-अध्यापन के संरक्षक थे और बाहरी हमलों से धर्म की रक्षा करते थे। इस प्रकार हिंदू समाज में सन्यास एक रचनात्मक शक्ति के रूप में था। घुर्ये ने विभिन्न श्रेणियों के साधुओं पर विस्तार से विचार किया इनमें शैव (दशनामी) और वैष्णव (बैरागी) प्रमुख थे। इन दोनों मतों में नागा साधु थे। (ये नागा साधु युद्धप्रिय होते हैं और वस्त्र नहीं पहनते) ये साधु हिंदू धर्म को हानि पहुंचाने वालों लड़ने को तैयार रहते हैं। बंकिम चंद्र चटर्जी का बंगला उपन्यास ‘‘आनंदमठ‘‘ शैव साधुओं की ही कहानी है इन साधुओं ने उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश फौजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष में भाग लिया। इसमें संदेह नहीं कि वे ब्रिटिश फौजों से पराजित हुए लेकिन इससे उनकी हिंदू धर्म के प्रति निष्ठा का पता चलता है। ये साधु जो कुंभ के मेले पर बड़ी संख्या में एकत्र होते हैं पूरे भारत का लघु रूप हैं। वे अलग-अलग क्षेत्रों से आते हैं और अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं लेकिन वे सभी एक ही धार्मिक व्यवस्था के अंग हैं। घुर्य के विचार में सन्यास भूतकाल का अवशेष मात्र नहीं है अपितु वह हिंदू धर्म का प्राणभूत पहलू है। आधुनिक युग में विवेकानंद, दयानंद सरस्वती और श्री अरबिंद घोष जैसे कुछ सुप्रसिद्ध सन्यासियों ने हिंदू धर्म के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

 भारतीय कला और वास्तुकला
घुर्ये की भारतीय कला में भी गहरी रुचि थी। उनके अनुसार हिंदू, जैन, और बौद्ध धर्म के कलात्मक स्मारकों में कई समान तत्व थे। इसके विपरीत हिंदू और मुस्लिम स्मारक बिल्कुल भिन्न मूल्य-पद्धतियों पर आधारित थे। भारतीय मंदिरों के प्रेरणा स्रोत भारतीय तत्व थे। उनकी विषय वस्तु वेदों, महाकाव्यों और पुराणों पर आधारित थी। लेकिन मुस्लिम कला फारसी या अरबी संस्कृति पर आधारित थी और इनका आधार भारत की संस्कृति में नहीं था। घुर्ये इस मत से सहमत नहीं थे कि भारत के मुस्लिम स्मारकों में हिंदू व मुस्लिम धर्म दोनों का समन्वय दिखाई देता है। मुस्लिम इमारतों में हिंदू कला के तत्व केवल अलंकरण के लिए प्रयुक्त हुए हैं। इसके विपरीत, राजस्थान पर मुस्लिम शासकों का राजनैतिक नियंत्रण होने के बावजूद भी राजपूती वास्तुकला में हिंदू आदर्शों और मूल्यों को बनाए रखा गया। घुर्ये ने प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक की वेशभूषा के बारे में भी लिखा। उन्होंने हिंदू, बौद्ध और जैन कलाकृतियों (वास्तुकला और मूर्तिकला) द्वारा विभिन्न कालों की वेशभूषा में विभिन्नताओं का चित्रण किया।

हमने पहले बताया है कि राधाकमल मुकर्जी ने भी भारतीय कला के बारे में लिखा है, लेकिन कला के प्रति इन दोनों के दृष्टिकोणों में भिन्नता थी। मुकर्जी ने शताब्दियों से फल-फूल रही कला को सभ्यता के मूल्यों, प्रतिमानों और आदर्शो के वाहक के रूप में देखा। इसके विपरीत घुर्ये ने कला को विशेषतरू हिंदू विन्यास के रूप में देखा। घुर्ये ने लिखा कि राजपूत वास्तुकला में हिंदू धर्म में उनकी आस्था प्रकट होती है। मुकर्जी ने इसी कलात्मक तथ्य को कुछ निम्न दृष्टि से देखा। उनका कहना था कि राजपूत लोग बड़े उत्साह से स्मारक बनाने में संलग्न थे तथा उनका यह विश्वास था कि वे स्मारक उनके पश्चात् उनकी कलात्मक विरासत के रूप में जीवित रहेंगे। इस प्रकार, मुस्लिम शासकों के साथ निरंतर युद्धों के बावजूद भी राजपूत अपने संसाधनों का उपयोग कला के संरक्षण के लिए करते रहे।

 हिंदू-मुस्लिम संबंध
घुर्ये ने अपनी पुस्तकों में हिंदू-मुस्लिम संबंधों के बारे में पर्याप्त चर्चा की है। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को ऐसे अलग समूहों के रूप में माना है जिनमें पारस्परिक आदान-प्रदान की संभावना लगभग नहीं है।

घुर्ये के मन में हिंदुओं के प्रति समर्थन की भावना इसलिए पैदा हुई क्योंकि भारत में लगभग सात शताब्दियों के इस्लामी शासन में हिंदू-मुस्लिम के बीच संघर्ष का वातावरण बना रहा था। इस दौरान जबरदस्ती धर्मपरिवर्तन, पूजास्थलों के विनाश आदि के कारण हिंदुओं का मानस बुरी तरह विक्षुब्ध हो गया। यहां यह बात बता देना उचित होगा कि कुरान के नियमों के अनुसार मुस्लिम शासकों द्वारा की गई लूटपाट इस्लाम में स्वीकार्य नहीं है। इस्लाम धर्म भी हिंसा का समर्थन नहीं करता। मुस्लिम शासकों ने धार्मिक विश्वास के बजाय राजनैतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर अपनी हिंदू प्रजा पर बल प्रयोग किया था। इसे छोड़कर हिंदू-मुस्लिम समुदाय की परस्पर क्रियाएं सांस्कृतिक दृष्टि से रचनात्मक और सामाजिक दृष्टि से लाभप्रद थीं। सूफी मत ने भारत में भक्ति संप्रदाय को प्रोत्साहित किया। उर्दू साहित्य तथा हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की समृद्धि और समान जीवन-पद्धति ने यह दिखाया कि इस्लामी शासन की सकारात्मक भूमिका भी थी। देश में सांप्रदायिक तनाव, वास्तव में, औपनिवेशिक शासन की देन थी। भारत में ब्रिटिश शासकों की यह राजनैतिक कूटनीति थी कि भारतीय समाज को विशेष रूप से हिंदुओं और मुसलमानों को बांट कर रखा जाए। उन्होंने यह नीति सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद बनाई थी ताकि हिंदू और मुसलमान एक संयुक्त ताकत बनकर उनके विरुद्ध न खड़े हो सकें। शहरीकरण से उत्पन्न हुए परस्पर हितों के टकराव ने भी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। इक्कीसवीं सदी में भी भारत के शहरी क्षेत्रों में धर्म की आड़ में राजनैतिक और आर्थिक कारणों वश सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं। घुर्ये की पुस्तक में समसामयिक उपद्रवों पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है। उन्होंने दिखाया कि वास्तव में, ब्रिटिश शासन से पूर्व दोनों सम्प्रदायों के लोगों के बीच सहयोग का संबंध था।

महत्वपूर्ण रचनाएं
घुर्ये की समाजशास्त्र पर कुछ महत्वपूर्ण रचनाएं निम्नलिखित हैं।
प) इंडियन साधुज (1953)
पप) फैमिली एंड किन इन इंडो-यूरोपियन कल्चर (1961)
पपप) गॉड्स एंड मैन (1962)
पअ) एनॉटमी ऑफ ए रुरर्बन कम्युनिटी (1962)
अ) शैड्यूल्ड ट्राइब्स (1963)
अप) कास्ट एंड रेस इन इंडिया (1969)
समाजशास्त्र से अलग घुर्ये की अन्य पुस्तकों से उनकी विविध विषयों में रुचि का पता चलता है। इनमें से कुछ पुस्तकें हैं।
प) भरतनाट्यम् एंड इट्स कॉस्ट्यूम (1958)
प) सिटीज एंड सिविलाइजेशन (1962)
पपप) इंडियन कॉस्ट्यूम (1966)

बोध प्रश्न 3
प) गोविंद सदाशिव घुर्ये को बहुत अधिक प्रभावित करने वाले ब्रिटिश नृशास्त्री का नाम लिखिए।
पप) घुर्ये ने भारतीय समाज में जाति का अध्ययन करने के लिए किस दृष्टिकोण को अपनाया था? तीन पंक्तियों में उत्तर लिखिए।
पपप) भारत में जनजातियों के बारे में घुर्ये के विचार लिखिए। उत्तर के लिए पांच पंक्तियों का उपयोग कीजिए।
पअ) भारत में शहरी संवृद्धि के अध्ययन के संबंध में घुर्ये के दृष्टिकोण का वर्णन कीजिए। दस पंक्तियों में उत्तर दीजिए।

बोध प्रश्न 3 उत्तर 
प) जी.एस. घुर्ये को ब्रिटिश मानव विज्ञानी डॉ. डब्ल्यू.एच.आर. रिवर्स ने अत्यधिक प्रभावित किया था।
पप) घुर्ये ने भारत में जाति-व्यवस्था के ऐतिहासिक, तुलनात्मक और एकीकृत पक्षों का अध्ययन किया। उनका दृष्टिकोण नृजाति अध्ययन पर आधारित था। इसके लिए उन्होंने ऐतिहासिक, भारतशास्त्र संबंधी और सांख्यिकीय सामग्री का इस्तेमाल किया।
पपप) घुर्ये के अनुसार भारत में भील, गोंड और संथाल आदि विभिन्न जनजातियों की स्थिति ‘‘पिछड़े वर्ग के हिंदुओं‘‘ जैसी है। हिंदू समाज में पूरी तरह एकीकृत न होने के कारण ही ये जनजातियां पिछड़ी हुई हैं।
पअ) घुर्ये के विचार में भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया बेजोड़ है क्योंकि यह औद्योगिक विकास के परिणामस्वरूप नहीं हुई है। भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया ग्रामीण क्षेत्रों से ही शुरू हुई क्योंकि वहां आवश्यकता से अधिक खाद्यानों के विनिमय की जरूरत थी। ग्रामीण क्षेत्रों में धीरे-धीरे जिन बाजारों का विकास हुआ वे छोटे शहरों के केंद्र बन गए और उनकी अपनी प्रशासनिक व्यवस्था, न्यायिक व्यवस्था और अन्य संस्थाएं स्थापित हो गई। ये शहरी केंद्र कभी-कभी सामंतवादी संरक्षण पर आश्रित होते थे। ऐसे शहरों के कुछ उदाहरण वाराणसी, कांचीपुरम, जयपुर, मुरादाबाद आदि हैं।

Sbistudy

Recent Posts

मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi

malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…

4 weeks ago

कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए

राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…

4 weeks ago

हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained

hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…

4 weeks ago

तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second

Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…

4 weeks ago

चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi

chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…

1 month ago

भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi

first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…

1 month ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now