जाने हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के कार्य क्या है , functions of hcl in stomach in hindi , जठरीय रस का नियमन (Regulation of gastric secretion) ?
हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के कार्य (Functions of HCL)
(i) यह भोजन के साथ आये हुए हानिकारक जीवाणुओं (bacteria) को नष्ट करता है जिससे भोजन के आमाशय में सड़ने एवं संक्रमण होने (infection) की क्रिया नहीं होती है।
(ii) यह जठर रस में उपस्थित अक्रियाशील एन्जाइम्स (जैसे पेप्सीनोजन एवं प्रोरेनिन) को क्रियाशील (पेप्सिन एवं रेनिन) बनाता है।
(ii) यह मुख गुहा से आये भोजन को अम्लीय माध्यम (pH 1.0 से 1.5) प्रदान करता है। इससे आमाशय में टायलिन एन्जाइम की क्रिया समाप्त हो जाती है।
(iv) यह पाइलोरिक छिद्र (pyloric apeature) के खुलने तथा बन्द होने को क्रिया को नियंत्रित करता है।
- यह आंत्रीय श्लेष्मिका (intestinel ) स्तर से सिक्रेटिन (secretin) नामक एन्जाइम स्त्रावित होने में एवं अग्राशीय रस (pancreatic juice) के स्त्रावण में मदद करता है।
- यह कोशिकाओं के मध्य उपस्थित जीवित पदार्थ को घोल देता है जिससे ये कोशिकाऐं एन्जाइम क्रिया के लिए तैयार हो जाती है।
जठरीय रस का नियमन (Regulation of gastric secretion)
जैसे ही अर्धपचित (semidigested) भोजन आमाशय से ग्रहणी में प्रवेश करता है उसी समय ग्रहणी की श्लेष्मिका सतह से एन्टेरोगैस्ट्रोन (enterogastrone) नामक हार्मोन स्त्रावित होता है। यह हार्मोन आमाशय में पहुचकर जठरीथ रस के स्त्राव तथा जठरीय गतिशीलता (gastric motihity) कम करता है।
कभी-कभी जठरीय रस में HCL की मात्रा काफी कम हो जाती है जिसे अल्प अम्लीयता (hypoacidity) कहा जाता है। अल्प अम्लीयता अनेक विकास जैसे कब्ज (constipation), रक्तक्षीणता ( anaemia). जठरीय कार्सीनोमा (gastric carcinoma) इत्यादि में दिखी गई है। यदि HCL का स्त्रावण सामान्य से अधिक होता है तो इसे अति अम्लीयता (hyperacidity) कहा जाता है। यह दशा जठरीय छिद्रन (gastric ulcer) तथा पित्ताशय (gall bladder) के विकारों में देखी जाती है।
जठरीय रस स्त्रावण का नियंत्रण ( Control of gastric juice secretion)
अमाशय का स्त्रावण तंत्रिका (nervous ) एवं हारमोन (Hormone) दोनों से ही नियंत्रित रहता है । जठर रस को निम्न तीन प्रावस्थाओं में विभाजित किया गया है :
(i) सिफेलिक प्रावस्था ( Caphalic phase) : आमाशय में उपस्थित जठर ग्रन्थिय भोजन के आमाशय में पहुँचने से पूर्व की जर रस का स्त्रावण कर सकती है।
यह क्रिया भोजन के देखने (sight), सूंघने ( smell) एवं चखने (taste) के कारण होती है। यह क्रिय वैगस ( vagus) तंत्रिका की प्रतिवर्ती संवेदन (reflex stimulation) के कारण होती है। इसी कारण जर रस को साइकिस ज्यूस (pshychic juice) भी कहते हैं। खाली आमाशय में इसके स्त्रवण से प्राणी को भूख का अहसास होता है। इस कारण जठर रस को एपीटाइट ज्यूस (appetite juice) भी कहा जाता है।
(ii) जठर प्रावस्था (Gastric phase) : भोजन के आमाशय में पहुँचने पर होने वाले जटर रस के स्त्राव को जठर प्रावस्था (gastric phase) स्त्रावण कहा जाता है। भोजन में उपस्थित प्रोटीन के कारण आमाशय के पालोरिक भाग की श्लेष्मिक से गेस्ट्रिन (gastrin) नामक हारमोन का स्त्रावण होता है। यह हारमोन रूधिर द्वारा आमाशय के सभी भागों में उपस्थित जठर ग्रन्थियों को उत्तेजित है जिससे जठर रस का स्त्रावण होता है।
भोजन के रूप में ग्रहण की जाने वाली कुछ सामग्री जैसे माँस (meat) एव मास सूप (meat- soup) जठर रस के स्त्रावण को उत्तेजित करते हैं। इनके अतिरिक्त एल्कोहॉल, (alocohol), केफीन (caffeine) एवं हिस्टामिन (histaimine) भी जाता है रस निष्कासन हेतु एक उद्दीपन की तरह कार्य करते हैं। इन सभी को स्त्राव वर्धक (secretogogues) कहा जाता है।
(iii) आंत्रिक प्रावस्था (Intestinal phase) : आमाशय में भोजन के पाचन से बनने वाला पदार्थ जब ग्रहणी (dudodenum) में प्रवेश करता है तब यह एक संवेदी प्रभाव दर्शात है। इसके कारण होने वाला जठर रस का स्त्राव आन्त्रिक प्रावस्था कहलाता है। इस प्रकार के स्त्रावण की क्रियाविधि का पूर्ण ज्ञात अभी प्राप्त नहीं हुआ है परन्तु ऐसा माना जाता है कि आमाशय में भोजन के पाचन से प्राप्त पदार्थ ग्रहणी में पहुँचकर श्लेष्मिका सतह को प्रभावित करते हैं जो ग्रस्ट्रिन के समान कोई पदार्थ स्त्रावित करती है जिससे जठर रस का स्त्रवण होता है। इस प्रकार की प्रावस्था से उपरोक्त वर्णित प्रावस्थाओं की अपेक्षा काफी कम जठर रस स्त्रावित होता है परन्तु यह स्त्रावण 8-10 घण्टे तक के लम्बे काल के लिये होता है।
आमाशय में भोजन के जठर रस द्वारा पाचन के पश्चात् यह एक गाढ़ी लुगदी के समान हो जाता है। इसे काइम (chyme) कहा जाता है। भोजन की यह अवस्था आमाशय की दीवार में क्रमांकुचन (peristalsis) क्रिया के कारण प्राप्त होती है । आमाशय की क्रमाकुंचन तरंगें स्वायत्त तन्त्रिका तंत्र (autonomic nervous system) के अधीन होती है। भोजन काइम के रूप में पाचन हेतु आमाशय से ग्रहणी में प्रवेश करता है।
( 4 ) ग्रहणी में पाचन (Digestion in duodenum) : आमाशय में उपस्थित पाइलोरिक वाल्व के थोड़े-थोड़े अन्तराल में खुलने पर काइम ग्रहणी में प्रवेश करता है । ग्रहणी की सतह से किसी भी प्रकार के पाचक रस का स्त्रावण नहीं होता परन्तु इसकी गुहिका (lumen) में पित्तरस (bile juice) एवं अग्नाशयी रस (pancreatic juice) आकार भोजन से मिलते हैं जो क्रमशः यकृत (liver) एवं अग्नाशय (pancreas) से स्त्रावित होते हैं। ये रस काइम के अम्लीय प्रभाव को समाप्त करके उसे क्षारीय बना देते हैं। क्षारीय माध्यम भोजन के पाचन हेतु आंत्र में आवश्यक होता है।
(A) पित्तरस (Bile juice) : यकृत की कोशिकाएँ (hepatic cells or hepatocytes) एक हरे-पीले (greenish-yellow) तरह का स्त्रावण करती है जो पित्ताशय (gall bladder) एकत्रित रहता है तथा आवश्यकता पड़ने पर पित्त वाहिनी (bile duct) द्वारा ग्रहणी की समीपस्थ भुजा (proximal limb) की गुहिका में पहुँच जाता है।
पित्तं की रासायनिक प्रकृति तथा इसमें पाये जाने वाले पदार्थों का अनुपात इस प्रकार है-
पित्त रस का रासायनिक संगठन (Chemical composition of bile juice)
- कुल मात्रा (Total amount ) : 500 से 1000 मि.ली. / 24 घण्टे में
- Ph : 7.7-8.6 (क्षारीय)
- जल (Water) : 89.0%
- ठोस (Solid) : 11.0%
(i) पित्त लवण ( Bils salts) : 6.0%
(ii) पित्त वर्णक (Bils pigments) : 3.4%
(iii) कोलेस्टरॉल (Cholesterol) : 0.8%
(iv) लेसिथिन (Lecithin) : 0.3%
(v) अकार्बनिक लवण ( Inorganic salts) : 6.0%
पित्त के मुख्य घटकों का वर्णन निम्न है।
पित्त लवण (Bile salts) : पित्त में लवण के रूप में सोडियम ग्लाइकोकोलेट (sodium glycocholate) एवं सोडियम टॉरोकोलेट ( sodium faurocholate) पाये जाते हैं। ये लवण निम्नलिखित कार्य करते हैं
(i) ये लवण भोजन में उपस्थित वसाओं का विखण्डन तथा पायसीकरण ( emulsification) कहते हैं। ये जल का पृष्ठ तनाव (surface tension) कम कर देते हैं जिससे लाइपेज एन्जाइम की क्रिया हेतु आधार तल बढ़ जाता है। इस क्रिया से वसा के अवशोषण में भी सहायता मिलती है। (ii) पित्त लवण वसा में घुलनशील विटामिन्स A, D, E एवं K के आहार नाल द्वारा अवशोषण में मदद करते हैं।
(iii) ये लवण पाचक रस में उपस्थित अक्रिय (inactive) लाइपेज को सक्रिय कर अधिक प्रभावी (effective) बनाते हैं।
पित्त वर्णक (Bile pigments) : ये वर्णक यकृत कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन (hemoglobin) के अपघटन से बनते है। पित्त में मुख्यतया बिलीरूबिन (billirubin) एवं बिलीवर्डिन (biliverdin) नामक वर्णक होते हैं। बिलीरूबिन पीले तथा बिलीवर्डिन हरे रंग का पदार्थ होता है। आंत्र में उपस्थित जीवाणुओं द्वारा बिलीरूबिन, मीजोबिलिरूबिनोजन (mesobilirubinogen) में अपघटित हो जाता है जो अन्त में स्टरकोबिलीनोजन (stercobilinogen) में परिवर्तित हो जाता है। स्टरकोबिलीनोजन ऑक्सीकरण (oxidation) से स्टरकोबिलिने (sterocobilin) बनाता है जो विष्ठा (faeces) को पूरा रंग प्रदान करता है। स्टरकोबिलीनोजन एवं स्टरकोबिलिन की कुछ मात्रा आँत्र से अवशोषित होकर रूधिर में पहुँचती है जो वृक्क को स्थानान्तरित कर दी जाती है। वृक्क में ये यूरोक्रोम (urochrome) नामक पदार्थ बनाते हैं जो मूत्र (urine) को पीला रंग प्रदान करता है तथा अन्त में बाहर त्याग दिये जाते हैं।
इस प्रकार पित्त वर्णक मात्र उत्सर्जी पदार्थ होते हैं जो पाचन से सम्बन्ध नहीं रखते है। यह अपचित भोजन द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिये जाते हैं।
कोलिस्टरोल एवं लेसिथिन (Cholesterol and Lecithin)
ये फॉस्टफोलिपिड्स (phospolipids) होते हैं जो भोजन के साथ ग्रहण किये जाते हैं तथा कुछ मात्रा में शरीर संश्लेषित हो जाते हैं। ये भी उत्सर्जी पदार्थ के रूप में पाये जाते हैं।
अकार्बनिक लवण (Inorganic salts) : ये Na, K, Ca के CL, CO, एवं PO4 होते हैं। इसमें NaHCO3 भी होते हैं। अकार्बनिक लवण काइम के अम्लीय माध्यम को निष्क्रिय करके उसे क्षारीय बनाते हैं।