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मूलीय त्वचा या बाह्य त्वचा क्या है (epiblema or epidermis in plants in hindi) मूलीय त्वचा किसे कहते है

(epiblema or epidermis in plants in hindi) मूलीय त्वचा या बाह्य त्वचा क्या है मूलीय त्वचा किसे कहते है परिभाषा , प्रकार |

हिस्टोजन सिद्धांत (histogen theory) : हेन्सटीन (1868) के अनुसार प्ररोह शीर्ष के समान ही मूल शीर्ष संगठन भी तीन प्रकार की ऊतकजन (हिस्टोजन) कोशिकाओं क्रमशः डर्मेटोजन पेरीब्लेम और प्लीरोम के द्वारा निर्मित होता है। यह तीन विभाज्योतकी क्षेत्र क्रमशः बाह्यत्वचा , वल्कुट और संवहन ऊतकों का निर्माण करते है। इसके अतिरिक्त जड़ों में एक तथा विभाज्योतकी क्षेत्र गोपकजन भी पाया जाता है जो कि मूल गोप के विकास हेतु उत्तरदायी होता है।

हेबरलेंड (1914) के अनुसार मूलशीर्ष में तीन प्रकार के विभाज्योतकी क्षेत्र पाए जाते है जिनकों क्रमशः (i) अधिकत्वक (ii) भरण विभाज्योतक और (iii) प्राक एधा कहते है।
ये मूलीय त्वचा , भरण ऊतक और संवहन तंत्र का निर्माण करते है। सामान्य रूप से यह अवधारणा ऊतकजन सिद्धांत की पुनरावृत्ति कही जा सकती है।
हैबरलेंड के अनुसार मूल शीर्ष पर उपस्थित प्रारंभिक अथवा विभाज्योतकी कोशिकाओं की प्रकृति और प्रकार के आधार पर निम्नलिखित चार प्रकार के मूल शीर्ष पाए जाते है –
(i) रेननकुलस प्रकार : इस प्रकार के मूल शीर्ष में प्रारम्भिक कोशिकाएँ अथवा विभाज्योतकी कोशिकाएं केवल एक पंक्ति में होती है। इससे जड़ के विभिन्न क्षेत्रों का निर्माण होता है और इसी से मूलगोप भी बनता है। मूलगोप से परिवर्तित कुछ कोशिकाएँ मूलीय त्वचा अथवा बाह्यत्वचा में विभेदित हो जाती है। इस प्रकार के मूल शीर्ष रेननकुलेसी और लेग्युमिनोसी कुल के पौधों में पाए जाते है।
(ii) केस्युराइना प्रकार : इस प्रकार के मूलशीर्ष कैस्युराइनेसी और प्रोटीएसी कुलों के पौधों में पाए जाते है। यहाँ विभाज्योतक या आद्यक कोशिकाओं की दो परतें उपस्थित होती है। इनमें से अन्दर वाली परत से संवहन ऊतक अथवा केन्द्रीय सिलिंडर का निर्माण होता है जबकि बाहर वाली परत से वल्कुट बाह्य त्वचा और मूलगोप बनते है।
(iii) सामान्य प्रकार : अधिकांश द्विबीजपत्रियों में आद्यकों की तीन परतें पायी जाती है जिनमें से सबसे बाहर वाली परत से बाह्यत्वचा और मूलगोप , मध्यपर्त से वल्कुट और अन्दर वाली तीसरी परत से केन्द्रीय सिलिंडर का विकास होता है।
(iv) मक्का प्रकार : इस प्रकार के मूल शीर्ष में चार परतें पायी जाती है। सबसे बाह्य परत गोपकजन कहलाती है , जिससे मूलगोप बनता है। भीतर वाली परतें क्रमशः मूलीय त्वचा , वल्कुट और केन्द्रीय सिलिंडर का निर्माण करती है। एकबीजपत्रियों में प्राय: इस प्रकार का मूल शीर्ष पाया जाता है।

कार्प केप सिद्धांत (korper kappe theory)

यह सिद्धांत श्यूप (1917) के द्वारा प्रस्तुत किया गया था। इस अवधारणा के अनुसार मूल शीर्ष में दो प्रकार के विभाज्योतकी क्षेत्र पाए जाते है जिनकी कोशिकाएँ विभाजन तल में भिन्न होती है।
शुरू में दोनों ही क्षेत्रों की कोशिकाओं में प्रथम विभाजन अनुप्रस्थ तल में होता है। इसके बाद इनसे बनने वाली दो संतति कोशिकाओं में से एक लम्बवत रूप से विभाजित होती है। जैसे जैसे विभाजन का यह क्रम आगे बढ़ता है तो इसके साथ ही यहाँ विभाज्योतकी क्षेत्र की आकृति उलटे T की आकृति के समान हो जाती है। इसमें T का ऊपरी सिरा मूल शीर्ष से विपरीत दिशा में रहता है। इसे कार्पर कहते है और दूसरा केन्द्रीय क्षेत्र होता है जिसे केप कहते है। कार्पर और केप दोनों ही क्रमशः ट्यूनिका और कार्पस के समकक्ष संरचनाएँ है। अत: उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह सिद्धांत ट्युनिका कार्पस सिद्धांत का बदला हुआ प्रारूप है।

निष्क्रिय केन्द्र अथवा शान्त केंद्र सिद्धांत (quiescent centre concept)

थामसन और क्लाउज (thomsan and clowes 1968) ने कुछ एकबीजपत्री पौधों , जैसे मक्का के मूलशीर्ष में अनेक कोशिकाओं का एक समूह टोपीनुमा संरचना के रूप में ज्ञात किया है। इस संरचना की कोशिकाएँ निष्क्रिय अथवा शान्त होती है और सामान्य रूप से यह सक्रीय और विभाजनशील नहीं होती। वस्तुतः यह विभाज्योतक कोशिकाओं के भंडार गृह के रूप में कार्य करता है अर्थात जब वृद्धि करते समय मूल शीर्ष का विभाज्योतकी क्षेत्र क्षतिग्रस्त हो जाता है तो उस अवस्था में यह नयी विभाज्योतक कोशिकाओं को प्रदान करने का कार्य करता है।
इस क्षेत्र की कोशिकाओं में डीएनए , RNA और प्रोटीन की मात्रा कम होती है और इनमें अन्त:प्रद्रव्यी जालिका और माइटोकोंड्रिया आदि भी कम होते है। इसके अतिरिक्त इनके केन्द्रक में केन्द्रिक (nucleolus) अपेक्षाकृत छोटे होते है। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि इस क्षेत्र में हार्मोन का संश्लेषण होता है जो मूल वृद्धि को नियंत्रित करते है।

मूल की प्राथमिक संरचना (primary structure of root in hindi)

मूल भूमिगत भाग है और इनमें पर्व और पर्वसन्धियों का अभाव होता है। इसके अतिरिक्त इनके अंतिम सिरों पर मूलगोप भी उपस्थित होता है लेकिन पाशर्व उपांगो का अभाव होता है। पर्व और पर्वसन्धियों की अनुपस्थिति और पाशर्व उपांगों की अनुपस्थिति के कारण मूल की आंतरिक संरचना तने की तुलना में सरल होती है।
प्राथमिक मूल की आंतरिक संरचना निम्नलिखित ऊत्तक तंत्रों से संगठित होती है –
1. बाह्य त्वचा अथवा मूलीय त्वचा (epidermis or epiblema)
2. वल्कुट (cortex)
3. संवहनी तंत्र (vascular system)
1. बाह्य त्वचा अथवा मूलीय त्वचा (epidermis or epiblema) :
शिशु जड़ों की प्रारंभिक अवस्था में बाह्यत्वचा मुख्यतः एक अवशेषी ऊतक के रूप में कार्य करती है और इसकी परत पर असंख्य मूलरोम पाए जाते है जो कि जल और खनिज पदार्थो के अवशोषण का कार्य करते है। बाह्यत्वचा को राइजोडर्मिस अथवा रोमधारक सतह भी कहते है। जड़ में मूल रोमों का निर्माण , बाह्यत्वचीय कोशिकाओं के विस्तार से संभव होता है। कुछ पौधों में मूलरोम बनाने वाली बाह्यत्वचीय कोशिकाएँ आस पास की अन्य कोशिकाओं की तुलना में छोटी होती है और इनको ट्राइकोब्लास्ट (trichoblast) कहते है। मूल रोम के परिवर्धन के समय ट्राइकोब्लास्ट में एक छोटा सा उभार उत्पन्न होता है। इस उभार के अग्र सिरे पर कोशिकाद्रव्य और केन्द्रक स्थानान्तरित हो जाते है। जैसे जैसे मूलरोम का विकास होता है उसके साथ कोशिका द्रव्य भित्ति के नजदीक आ जाता है और मध्य भाग में एक बड़ी रसधानी अथवा रिक्तिका बन जाती है। मूल रोमों का निर्माण जड के उस भाग में सबसे अधिक देखा जाता है जहाँ जाइलम की मात्रा सबसे कम होती है। जड़ के जिस क्षेत्र में मूलरोम का विकास होता है उसे मूल रोम क्षेत्र भी कहते है। जैसे जैसे जड़ की वृद्धि जमीन के भीतर होती जाती है तो मूल रोम क्षेत्र की स्थिति में भी बदलाव आता है। कूरियर (1957) के अनुसार मूल रोम की भित्ति पर पेक्टिन , कैलसीकृत पदार्थ और सेल्यूलोज आदि यौगिकों का स्थूलन पाया जाता है। जैसे ही मूल रोम की वृद्धि परिपर्ण हो जाती है तो मूल रोम के अग्रस्थ भाग पर पेक्टिन के कैल्सीभवन और सेल्यूलोज के घटकों में बदलाव आने से यह कठोर हो जाता है। कुछ पौधों में मूल रोम चिरस्थायी होते है जबकि अनेक शाकीय पौधों में यह शीघ्र ही नष्ट हो जाते है। बहुवर्षीय शाकीय पौधों में जड़ की बाह्यत्वचा मोटी और चिरस्थायी होती है और यह जड की सुरक्षात्मक परत के रूप में कार्य करती है। इस पर क्यूटिकल का निक्षेपण भी पाया जाता है। कुछ लवणोद्भिद पौधों में जैसे राइजोफोरा में जड़ कुछ धनात्मक प्रकाशनुवर्ती होती है और भूमि की सतह से ऊपर अथवा बाहर की तरफ पायी जाती है। इन्ही जड़ों जो श्वसन मूल कहते है। इनकी बाहरी सतह पर छिद्र पाए जाते है जो श्वसन में सहायता प्रदान करते है। बाह्यत्वचा पर पाए जाने वाले इन छिद्रों को वातरन्ध्र कहते है।
बाह्य त्वचा का प्रमुख कार्य जड़ की सुरक्षात्मक परत के रूप में कार्य करना और जल और खनिज पदार्थो का भूमि से अवशोषण करना होता है।
अधिकांश जड़ों में बाह्यत्वचा परत की कोशिकाएँ एक पंक्ति में पायी जाती है , इनके बीच अंतरकोशिकीय स्थान और रंध्र नहीं पाए जाते है। कुछ अधिपादप पौधों जैसे – आर्किड्स में बाह्यत्वचा बहुस्तरीय होती है और इनमें अधिकांशत: विशेष प्रकार की कोशिकाएं भी उपस्थित होती है , इसको वेलोमेन (velamen) कहते है। वेलामेन परत की कोशिकाएँ आर्द्रताग्राही (hygroscopic) होती है और वल्कुट कोशिकाओं से जल के वाष्पीकरण को रोकने के लिए एक सुरक्षात्मक सतह का कार्य करती है। वेलामन कोशिकाओं की भित्तियों पर द्वितीयक स्थूलन पाया जाता है। इनके मध्य अंतर्कोशिकीय स्थान अनुपस्थित होते है और यह मृत कोशिकाएँ होती है।
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