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Categories: Biology

Environmental Biotechnology in hindi , वातावरणीय जैव तकनीकी क्या है परिभाषा उदाहरण

बताइए Environmental Biotechnology in hindi , वातावरणीय जैव तकनीकी क्या है परिभाषा उदाहरण ?

वातावरणीय जैवतकनीकी (Environmental Biotechnology)

सूक्ष्मजीव विश्व के सभी भागों में व्यापक रूप से फैले हुए हैं। ये सभी प्रकार के वातावरण एवं वास परिस्थितियों में पाये जाते हैं। आर्कटिक क्षेत्र, उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र, घने जंलग, बर्फीले प्रदेश, मरुस्थलीय क्षेत्र, गर्म व शीतल जल, तेल-कूपों, वायु, जल, मृदा, मृत पदार्थों, जन्तु व पौधों की देह के बाहर व भीतर अर्थात् सभी स्थानों यहाँ तक कि ज्वालामुखी क्षेत्र में भी पाये जाते हैं। ये वायुमण्डल एवं भूमि के विभिन्न स्तरों में रह कर सामान्य जैविक क्रियाएँ करते हुए अपनी संख्या में वृद्धि करते रहते हैं। इन्हें अन्य जीवों की भाँति ताप, नमी, भोजन एवं वायु की सामान्य आवश्यकता होती है। वातावरण में इनकी उपस्थिति अन्य जीवों की भाँति हमें अनेक प्रकार से प्रभावित करती है। प्रत्येक प्राणी जो इस भूमण्डल में रहता है श्वांस व भोजन ग्रहण करता है किसी न किसी माध्यम से इन्हें अपनी देह में आमन्त्रित करता रहता है।

सूक्ष्मजीव हानिकारक एवं लाभदायक दोनों की प्रकार के हो सकते हैं अनेक सूक्ष्मजीव भयानक रोगों को जन्म देते हैं, जिनसे महामारी जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है व करोड़ों लोग मौत का शिकार बन जाते हैं। वनस्पतियों में भी रोग फैलाकार फसल को संदूषित कर हानि पहुँचाते हैं। जबकि अनेकों सूक्ष्मजीव वायुमण्डल या मृदा में रहकर प्राकृतिक रूप में उपयोगी क्रियाएँ जैसे नाइट्रोजन न कार्बन-चक्र को नियमित बनाये रखना, मृत कार्बनिक पदार्थों को सरल पदार्थों में परिवर्तित करना, हमारी देह में रहकर पाचन क्रिया में सहायता करना आदि क्रियाएँ करते रहते हैं।

वैज्ञानिकों ने सूक्ष्मजीवों को अनेक जातियों का अध्ययन कर इनसे लाभ उठाकर मानव के जीवन स्तर में सुधार लाने के प्रयास किये हैं। इस ज्ञान के कारण ही आज शल्य चिकित्सा, औषधि विज्ञान एवं औद्योगिक क्षेत्र में व्यापक प्रगति हुई है। इनकी उपापचयी क्रियाओं का उपयोग अनेक उद्योगों में किया जाने लगा है। अनेक नाशक जीवों (pests) का नाश करने या नियंत्रण करने में भी अब जैव कीटनाशी (bio insecticides) का उपयोग होने लगा है। बढ़ते पेट्रोलियम पदार्थों के उपयोग को देखते हुए सूक्ष्मजीवों की सहायता से पेट्रोलियम पदार्थों या ईंधन की प्राप्ति के मार्ग खुल गये हैं। भूमि व सागर के तल से धातुओं की प्राप्ति (recovery of metals) की अनेक विधि याँ खोजी गयी हैं। चूँकि अनेक सूक्ष्मजीव मल, मूत्र, मिट्टी व जल में रहकर इसमें उपस्थित कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थों जो दूषित प्रकृति के होते हैं का अपघटन करते रहते हैं । अतः इनका उपयोग अपशिष्ट जल के उपचार ( waste water treatment) हेतु भी किया जाता है, विश्व की गंभीर समस्या प्रदूषण को घटाने में इनका उपयोग व्यापक स्तर पर किया जाने लगा है। पर्यावरण को सूक्ष्मजीवों से मुक्त रखने हेतु निर्वात मार्जक (vacuum cleaner) पराबैंगनी किरणों (ultra violet rays), रासायनिक पदार्थों, तामक्रम प्रभाव, आयनर विधि एवं लैमिनर वायु प्रवाह विधियों का उपयोग किया जाता है, इस प्रकार इनके प्रभाव से भोजन, जल एवं अन्य उपयोगी पदार्थों को इनसे बचाया जाता है एवं प्राणियों को शुद्ध वातावरण उपलब्ध कराने के प्रयास किये जा रहे हैं।

धातुओं की पुनः प्राप्ति (Recovery of Metals)

मृदा अनेक सूक्ष्मजीवों को प्राकृतिक माध्यम प्रदान करती है, जहाँ रहकर ये वृद्धि एवं सामान्य क्रियाएँ करते रहते हैं। एक ग्राम मृदा में जीवाणुओं की संख्या 105 – 60° तक हो सकती है। अनेक जीवाणु मृदा की गहरी पर्तों में जाये जाते हैं जो विशिष्ट धातुओं के अयस्क (ore) के साथ जुड़े रहते हैं अतः ये जीवाणु इन धातुओं या खनिज पदार्थों के सूचकों (indicators) के रूप में कार्य करते हैं।

पिछले सौ वर्षों के अनुसंधान कार्यों से यह तथ्य प्रकाश में आये हैं कि सूक्ष्मजीव जल धातुकर्मी (hydrometallurgical) उद्योगों में धातुओं को इनके अयस्कों से प्राप्त करने में सहायक होते हैं । ईसा से 1000 वर्ष पूर्व ताँबे की प्राप्ति में सूक्ष्मजीवों के योगदान के प्रमाण मिले हैं। रोम साहित्य में उल्लेख है कि सल्फाइड के खनिजों को विलयशील बनाने हेतु इनका उपयोग किया जाता था। स्पेन में भी इसी पद्धति से धातु प्राप्ति किये जाने के प्रमाण मिलते हैं। आदिकाल में धातुओं को अल्प स्तर के अयस्कों से निक्षालित (leaching) करते हेतु सूक्ष्मजीवों युक्त मृदा का उपयोग इस कार्य हेतु किया जाता था। अयस्क से धातुओं की प्राप्ति की पुरानी पद्धति जिसमें धातुओं को पिघला कर अलग-अलग किया जाता था, अधिक खर्चीली होने के साथ की साथ प्रदूषण उत्पन्न करने वाली थी। आधुनिक काल में विभिन्न प्रकार के अयस्कों से धातुओं की प्राप्ति हेतु अलग-अलग जातियों के जीवाणुओं द्वारा निक्षालन की क्रिया करायी जाती है। जैवप्रौद्योगिकी का अनुसंधान का यह क्षेत्र जैवखनिजीकरण (Biomineralization) कहलाता है।

जैव धात्विकी का प्रथम उल्लेख 1971 में मिलता है कनाडा में यूरेनियम निष्कर्षण हेतु एवं दक्षिणी अफ्रीका में स्वर्ण निष्कर्षण इस विधि से किया जाता है। ताँबा प्राप्ति हेतु ऐसी तकनीक की खोज 1950 में किये जाने का उल्लेख मिलता है। यह विधि कम खर्चीली व कम प्रदूषण उत्पन्न करने वाली है। अमेरिका में 30% ताँबा थायोबेसिलस का उपयोग किया जाता है। भारत व चीन में थायोबेसिलस फेरकिसडेन्स का उपयोग कोयले के अयस्क से सल्फर अलग करने हेतु किया गया है।

सल्फाइड धातुओं का ऑक्सीकरण का सल्फेट एवं सल्फ्युरिक अम्ल बनाने हेतु जीवाणुओं का उपयोग किया गया है, इस क्रिया को गति देने हेतु थायोबेसिलस, थायोऑक्सीडेन्स, थायोबेसिलस सल्फोलोबस तथा थायोबेसिलस फेरोक्सिडेन्स, फेरोबेसिलस टेरोऑक्सीडेन्स, फेरोबेसिलस सल्फोक्सीडेन्स आदि वायवीय जीवाणुओं का उपयोग करते हैं। जीवाणुओं का उपयोग कॉपर, वेनेडियम, निकल, मॉलीबिडनम, जिंक, आर्सेनिक, एन्टीमनी जर्मेनियम, सेलेनियम, मेगनीज एवं यूरेनियम धातुओं के सल्फेट अयस्कों से प्राप्त करने में भी किया जाता है।

अल्प स्तर के वयस्कों को बड़े तालाब पात्रों में एकत्रित कर इन पर जल का छिड़काव करते हैं जल के धीरे-धीरे रिसते रहने कारण निक्षालित होने की क्रिया होती है। घुलनशील धातु निक्षालित होकर जल के साथ बाहर आते जाते हैं जिनसे रसायनिक क्रियाओं द्वारा शुद्धधातु प्राप्त किया जाता है। यह निक्षालित विलयन तालाब के पेंदें में एकत्रित हो जाता है। यहाँ इसमें विद्युत प्रवाह कर ऋणात्मक छोर पर ताँबे को प्राप्त कर लिया जाता है। इसे जैव अवशोषी छनकों (bioabsorptionfilters) द्वारा एल्गीका उपयोग करके भी धातु को प्राप्त किया जाता है। यह तकनीक कम खर्चीली व पूर्णत: जैविक (biological) है। ताँबे की प्राप्ति हेतु इससे FeSo, व ताँबा अलग-अलग हो जाते हैं एवं शुद्ध ताँबा प्राप्त कर लिया जाता है। शेष विलयन को पुर्नउत्पादित टेंक में पम्प कर दिया जाता है जहाँ थायोफेरोआक्सीडेन्स जीवाणुओं द्वारा FeSo4 Fe2 (SO4)3 में बदल दिया जाता है। pH घटाने हेतु H2So4 की अतिरिक्त मात्रा डाली जाती है। इस प्रकार निक्षालित विलयन पुनः आवेशिक हो जाता है। मैक्सीको में इस विधि से प्रतिदिन 50 टन ताँबे की प्राप्ति की जाती है ।

कुल साइडेरोकेप्सेसी (siderocapsaceae) के जीवाणु अपने द्वारा स्त्रावित सम्पुट (capsule) लौह एवं मैग्नीज ऑक्साइड एकत्रित कर लेते हैं। ये अधिकतर लौह युक्त जल में रहते हैं। इनमें भी धातुओं को प्राप्त करने में सहायता प्राप्त होती है।

लौह जीवाणु फेरिक हाइड्रोक्साइड से संतृप्त रहते हैं और जिस तल स्त्रोत में रहते हैं, इसके तल पर लौह अयस्क का ढेर लगता जाता है, जहाँ से लौह अयस्क प्राप्त किया जाता है। हाल्डोनी एवं बूटकेविच (Haldoni and Butecwitch) द्वारा यह खोज की गई की जल की गहरी पर्तों में लौह एवं मैंगनीज का ऑक्सीकरण एवं अवकरण होता है। यदि कार्बनिक पदार्थों की कमी हो जाती है फैरिक ऑक्साइड एवं अन्य ऑक्साइड स्त्रोत के तल पर फेरोमैग्नीज अयस्क के रूप में जमा होते रहते हैं। इस अयस्क से जीवाणुओं द्वारा क्रियाकर मैग्नीज धातु प्राप्त किया जाता है।

ताँबे के अयस्क से जैव निक्षालन (bio leaching ) तकनीक से ताम्बा प्राप्त करने हेतु थायोबेसिलस फेरोक्सिडेन्स (thiobacillus feroxidans) रसायन कार्बपोधी ( chemolithotrophs) जीवाणुओं का उपयोग किया जाता है जिन्हें चट्टानभक्षी जीवाणु ( rock eating bacteria) भी कहते हैं। जीवाणु लौह सल्फर अयस्क FeS, पर क्रिया कर Fe+2 को आयनिक अवस्था में पृथक कर देता है तो Fe+3 में रूपान्तरित हो जाता है। सल्फर मुक्त होकर H+ आयन्स के साथ गन्धक का अम्ल बनाता जाता है। कॉपर सल्फाइड लौह आयन व सल्फ्यूरिक अम्ल के साथ क्रिया कर कॉपर H2SO4 सल्फेट व लौह में बदल जाता है जो पुनः क्रिया कर फैरस सल्फेट व ताँबे के रूप में प्राप्त होता है।

FeS2 + 2H+ → 2O2  → Fe3+ + H2SO4 + S

Iron pyrite

CuSO4 + Fe3+ + 2H+ s →  CuSO4 + Fe2+ + 2H+S

CuSO4 + 2Fe + H2SO4  →   2 FeSO4 + Cu + 2H+

अमेरिका में 30% ताँबे का उत्पादन इसी विधि से किया जाता है, इस जैव तकनीक द्वारा यूरेनियम अयस्कों से यूरेनियम प्राप्ति भी की गयी है जो परमाणु भट्टियों में ऊर्जा प्राप्ति हेतु उपयोग में लाया जाता है। थायोबेसिलस फेरोआक्सीडेन्स का उपयोग कनाडा में यूरेनियम की प्राप्ति एवं दक्षिणी अफ्रकी में सोने की प्राप्ति हेतु किया जाता है। राइजोपस जीवाणु में निम्न श्रेणी के यूरेनियम अयस्क तथ परमाणु भट्टियों से प्राप्त अपशिष्ट को शुद्ध करने की क्षमता पायी जाती है। परमाणु भट्टियों से प्राप्त अपशिष्ट निस्तारण (disposal) में भी जीवाणुओं के उपयोग का अध्ययन किया जा रहा है। स्यूडोमोनास जीवाणु का कोबाल्ट, लैड, निकल, केडमियम, पारे एवं एन्टीमनी के अयस्कों से शुद्ध धातु प्राप्त करने के प्रयोग भी किये जा रहे हैं।

बेसिलस सेरेयस CO2 उत्पन्न करता है जिसकी उपस्थिति में ट्राइकैल्शियम फॉस्फेट घुलनशील डाइ कैल्शियम लवणों में बदल जाता है।

Ca3(PO4)2 + 2CO2 + 2H2O → Ca2H2(PO4)2 + Ca (HCO3)2

जीवाणुओं की कोशिका में उपस्थित प्रोटीन पदार्थ भारी धातुओं के सम्पर्क में आने पर धातुकीय एल्बुमिनेट और अम्ल बनाते हैं।

R – COOH + AgNO 3 → R – COOAg + HNO3

इस श्रेणी में चाँदी, सोना, ताँबा, जिंक, लैड आदि धातु हैं। यह क्रिया आलिगोडायनिक (oligodynamic) क्रिया कहलाती है, इस क्रिया के परिणामस्वरूप बाह्य सतह यदि इन धातुओं या इनसे निर्मित गहनों अथवा बर्तनों की जीवाणुओं के सम्पर्क में आती है तो इनका क्षय होने लगता है। धन आवेश युक्त धातु ऋण आवेश युक्त जीवाणुओं की सतह पर एकत्रित होने लगता है एवं इनका क्षय होता जाता है। वायरस भी इस प्रकार की क्रिया करते हैं। प्रकृति में उपस्थित जीवाणुओं द्वारा यह क्रिया धातुओं को उनके अयस्कों से पृथक् में सहायक होती है जिसका उपयोग धातु उद्योगों में किया जाता है।

धातुओं की सूक्ष्मजीवों द्वारा प्रेरित का एकत्रित किया जाना (Microbically induced metal deposits) कुछ जीवाणु जो मृदा में पाये जाते हैं। वे स्वर्ण व चाँदी को नदी के पेंदें में एकत्रित होने में सहायक होते हैं। वेनेजुएला व अलास्का में एक विधि से धातु प्राप्त होने के प्रमाण मिले हैं। क्लोरिला वेल्गेरिस ( chlorella vulgaris) व बेसिलस सेरेयस (Bacillus cereus) द्वारा प्रयोगशाला में लघु स्वर्ण विलयन से धात्विक स्वर्ण या गोल्ड क्लोराइड के प्राप्त होने के प्रमाण मिले हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि ऋणात्मक आवेश वाले पालिमर के धनात्मक आवेश वाले कण जीवाणुओं द्वरा आकर्षित किये जाने से यह क्रिया होती है। यह सोचा गया है कि क्यो न ऐसे जीन्स जो खजिनों कण में सहायक होते हैं पहचान कर इनका क्लोन बनाकर ई. कोलाई में स्थानान्तरित कर दिया जाये ताकि यह क्रिया इच्छित प्रकार से कराई जा सके।

सूक्ष्मजीवों द्वारा धातुओं की पुनः प्राप्ति के लाभ एवं हानि (Merits and demerits of metal recovery by microoganisms)

  1. यह आधुनिक एवं कम खर्च या कम ऊर्जा द्वारा सम्पन्न की जाने वाली क्रिया है।
  2. इस क्रिया का उपयोग लघु स्तर पर या व्यापक स्तर पर कहीं भी संभव है।
  3. इस विधि का उपयोग अनेक धातुओं की प्राप्ति हेतु किया जाता है किन्तु माध्यम व परिस्थितियों में अन्तर रखा जाता है।
  4. इस विधि का उपयोग खनन स्थल पर ही किया जा सकता है लम्बे चौड़े कारखाने की आवश्यकता नहीं होती अतः कम लागत पर सम्पन्न होती है।
  5. इस क्रिया के दौरान कोई विषाक्त पदार्थ या प्रदूषणकारी तत्व नहीं बनते जिनका निस्तारण बड़ी समस्या होती है।
  6. यह धीमी गति से होने वाली क्रिया है।
  7. यह सजीवों द्वारा निश्चित परिस्थितियों ताप, pH पोषक पदार्थों की उपस्थिति में सम्पन्न होती है अत: इसमें उपयोगी जीवाणुओं का जीवित रखा जाना अन्यन्त आवश्यक होता है।
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