प्रबोधन किसे कहते हैं , मुख्य विशेषता क्या थी Enlightenment in hindi मॉन्टेस्क्यू का प्रबोधन में योगदान बताइए।

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प्रश्न: प्रबोधन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: अठारहवीं सदी में यूरोप में वैचारिक स्तर पर एक नये दृष्टिकोण का विकास हुआ, जिसमें धर्म निरपेक्ष और विवेक सात परिपृच्छा (पूछताछ) को प्रोत्साहित किया गया, जिसे सामूहिक रूप से ‘‘प्रबोधन‘‘ कहा जाता है। उनका नारा था. ‘‘तर्क सहिष्णुता और मानवता‘‘ (रीजन, टालरेंस एण्ड ह्यूमेनिटी)। प्रबोधन काल में सर्वसाधारण के विचारों और दष्टिकोण में विज्ञान व तर्क को बढ़ावा देने के कारण इतना अधिक परिवर्तन आ गया कि बहुत से लोग इसे ‘‘बौद्धिक क्रांति‘‘ भी कहते हैं। बौद्धिक क्रांति में चिंतन का केन्द्र मनुष्य था। परम लक्ष्य मानव कल्याण स्वीकार किया गया। यह माना गया कि राज्य, चर्च तथा अन्य संस्थाओं को केवल मनुष्य के कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिये। प्रबोधन आंदोलन ने अठारहवीं सदी में फ्रांस में बहुत ही स्पष्ट और सशक्त भूमिका अदा की। इस काल में शामिल प्रवर्तक या तो फ्रांसीसी थे या फ्रांसीसी विचारों से प्रभावित। फ्रांस की बौद्धिक क्रांति के प्रवर्तकों की परम्परा इतिहास में ‘प्रबुद्धवादियों‘ के नाम से विश्रुत है। प्रबुद्धवादी मुख्यतः विवेकवादी थे। विवेकवादी होने के नाते वे प्रत्येक तथ्य की सत्यता और उपयोगिता को विवेक की कसौटी पर कसते थे। वे मानवतावादी धारणा के पोषक थे।
अठारहवीं शताब्दी यूरोप के इतिहास में ‘आलोचना एवं तर्क की शताब्दी‘ के नाम से प्रख्यात है। फ्रांस में विभिन्न विचारकों एवं दार्शनिकों ने अपने आलोचनात्मक लेखों और विचारों से अनेक प्राचीन मान्यताओं और परम्पराओं पर जो प्रश्न-चिन्ह लगा दिये थे, उनके कारण वहां की निद्रित जनता में जागृति आयी। 18वीं शताब्दी के फ्रांसीसी बुद्धिजीवी या तथाकथित दार्शनिक वर्ग को ‘फिलॉजाइस‘ कहा जाता था। प्रबोधन युगीन प्रमुख विचारकों जैसे जॉन लॉक, मोंटेस्क्य. वाल्टेयर, काण्ट, रूसो दिदरो थे।
प्रश्न: मॉन्टेस्क्यू का प्रबोधन में योगदान बताइए।
उत्तर: मोंटेस्क्यू (1689-1755 ई.): एक प्रसिद्ध विचारक, तत्ववेत्ता और इतिहासकार था। उसकी प्रथम प्रसिद्ध रचना ‘‘पर्शियन लेटर्स‘‘ 1721 ई. में प्रकाशित हुई। यह व्यंग्यात्मक शैली में लिखी गयी एक मनोरंजक कृति है। इसमें दो काल्पनिक ईरानी यात्री फ्रांस की यात्रा करते हुए वहां के समाज के विभिन्न पक्षों के माध्यम से व्यंग्य करते हैं।
उसकी सर्वाधिक विख्यात रचना ‘‘दि स्पिरिट ऑफ लॉज‘‘ फ्रांसीसी भाषा में ‘ल एम्प्रिट दशल्वायस‘ (कानून की आत्मा है। जिसका प्रकाशन 1748 ई. में हुआ। इस ग्रंथ का केंद्र बिन्दु मोंतेस्क्यू की विधि विषयक धारणा है। उसने राजा के दैवी अधिकार के सिद्धांत का और इस मान्यता का कि पुरातन संस्थाएं केवल इसलिए पवित्र हैं कि वे प्राचीन और प्रतिष्ठित हैं, तिरस्कारपूर्वक खण्डन किया। उसका कथन था कि इंग्लैण्ड का शासन संसार में सर्वोत्तम था। अमेरिका के संविधान लेखन पर मांटेस्क्यू के विचारों का काफी प्रभाव पड़ा। मोंतेस्क्यू पर सर्वाधिक प्रभाव ब्रिटिश विद्वान लॉक का था, उसने लॉक से ‘शक्ति पार्थक्य‘ का दर्शन लिया। मोंतेस्क्यू संवैधानिक राजतंत्र का समर्थक था। उसकी मान्यता थी कि निरंकश राजतंत्र को नियंत्रित करने के लिए शासन के तीन अंगों – व्यवस्थापिका (कानून बनाना), कार्यपालिका (कानून लागू करना) और न्यायपालिका (कानून की परिभाषा करना)- के क्षेत्रों को पृथक् करना आवश्यक है, ताकि एक-दूसरे पर नियंत्रण रखा जा सके। उसने विधि-सम्मत शासन प्रणाली की दो अनिवार्य शर्ते मानी। प्रथम, शक्ति का विभाजन और द्वितीय, नियंत्रण एवं संतुलन। इस प्रकार उसने अपनी पुस्तक में ‘‘शक्ति पार्थक्य‘‘ (सेपरेशन ऑफ पावर) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
प्रश्न: वाल्तेयर का प्रबोधन में योगदान बताइए।
उत्तर: अठारहवीं शताब्दी के फ्रांसीसी लेखकों में वाल्तेयर सबसे प्रभावशाली था। वह अपने युग का सर्वाधिक सम्मानित व्यक्ति था। उसका मूल नाम ‘‘फ्रांस्वा मारी आरुए‘‘ था। उसे ‘लेखन कला का जादूगर‘ कहा गया। उसने 1718 ई. में अपना पहला नाटक ‘ईडिपस‘ लिखा, जिसमें निरंकुशता और कट्टरता पर कटु व्यंग्य था। उदार निरंकुशवाद का समर्थन करते हुए वाल्तेयर ने कहा कि ‘‘मैं चूहों की अपेक्षा एक सिंह द्वारा शासित होना पसंद करुंगा।‘‘ उसे ‘यूरोप का बौद्धिक देवता‘ कहा गया।
वह एक महान् लेखक, कवि, दार्शनिक, पत्रकार, नाटककार, आलोचक और इस सबसे बढ़कर व्यंग्यकार था। उसने अपने दर्जनों उपन्यासों, ऐतिहासिक पुस्तकों, पत्रों, निबंधों, नाटकों और कविताओं में राज्य और चर्च में चल रहे भ्रष्टाचार, अभिजात वर्ग के विशेषाधिकारों, सेंसरशिप, गुलामी और युद्ध की निंदा की। वाल्तेयर कहा करता था कि ‘दुनिया में एक ही तो ईसाई था वह भी सलीब पर चढ़ा दिया गया।‘ उसकी मशहूर पुकार थी, ‘‘इन बदनाम चीजों (चर्च) को नष्ट कर दो।‘‘ वह कहा करता था कि ‘गिरजाघरों में तो मूखों को ही शांति मिलती है।‘ इसलिए उसने ‘भ्रष्ट गिरजे को नष्ट करने‘ का बीड़ा उठाया। उसका वाक्-चातुर्य और व्यंग्य, उसकी भाषा की स्पष्टता तथा उसका मानवतावादी निवेदन अठारहवीं शताब्दी और फ्रांस को क्रांति में व्याप्त रहे। वाल्तेयर, न्यूटन को सीजर और सिकन्दर से महान् मानता था। वाल्तेयर संवैधानिक राजतंत्र का पोषक था तथापि विधियों के निर्माण में शासितों के हितों का ध्यान रखने का हिमायती था। उसकी मान्यता थी कि दण्ड अपराध के अनुपात में दिया जाना चाहिये। वाल्तेयर की दूसरी पुस्तक ‘लुई 14वें का युग‘ 1751 ई. में प्रकाशित हुई। वाल्तेयर की यह कृति इतिहास और दर्शन के अधिक निकट थी। इतिहास लेखन में दर्शन, कला एवं विचारों का समावेश इसी समय से प्रारम्भ होता है।
वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रबल समर्थक था। एक बार उसने एक व्यक्ति को सम्बोधित करते हुए कहा था- ‘‘यद्यपि म आप से सहमत नहीं हूँ तथापि आपके ऐसा कहने के अधिकार की सुरक्षा के लिए मैं अपनी जान भी दे सकता हूँ।‘‘ दूसरे अवसर पर पुनः कहा कि ‘‘यद्यपि मैं तुम्हारे कथन से सहमत नहीं हूँ किन्तु मैं अन्त समय तक तुम्हारे ऐसा कहन के अधिकार की सुरक्षा के लिए तुम्हारा समर्थन करता रहूँगा।‘‘
1763 ई. में प्रकाशित ‘टिटाइज ऑन टॉलरेन्स‘ में उसने असहनशीलता को अनुचित ही नहीं वरन एक कलंक बताया। वालेया के समय तक अधिकांश लेखक प्राचीन अथवा पूर्व मध्यकाल की घटनाओं को ही प्रकाश में लाने का प्रयत तो उनके नैतिक जीवन पर प्रकाश डालने का कोई इतिहासकार प्रयत्न नहीं करता था। उसने घटना-प्रधान सामग्रा. संकलन के साथ-साथ नैतिक दृष्टि से उसका मूल्यांकन कर इस क्षेत्र में नई दिशा प्रदान की। वाल्तेयर द्वारा उसकी कृतिया में इतिहास बोझिल न होकर एक कहानी के रूप में उभरा – सरसता, व्यंग्य और नैतिक दृष्टि को सहेजे हए। इसी परम्परा का निर्वाह उसने स्वीड्न के शासक चार्ल्स 12वें पर लिखी कृति में निभाया।
अपनी मत्य से पर्व वह ‘यूरोप का साहित्य सम्राट‘ मान लिया गया था। वाल्तेयर को फ्रांस में ही नहीं सार यूरापन विवेक, प्रबुद्धता और प्रकृति के सिद्धांत के प्रचार-प्रसार का श्रय प्राप्त दांत के प्रचार-प्रसार का श्रेय पाप्त है। उसे फ्रांस में ‘प्रबोधन यग का नेता‘ मान लिया गया। इतिहासकार हॉलैण्ड रोज लिखता है कि ‘‘यद्यपि वाल्तेयर ने परानी शासन-व्यवस्था के राजनीति रूपों पर प्रहार नहीं किया परन्तु सत्ता, परम्परा, रूढ़िवादी विचारों – जिस पर वे टिके थे, पर आक्रमण करके उसने नींव को खोखला करना प्रारम्भ कर दिया था।‘‘
प्रश्न: रूसो का प्रबोधन में योगदान बताइए।
उत्तर: जीन जेकस रूसो (1712-1778) फ्रांस का सर्वाधिक प्रबुद्ध दार्शनिक था। रूसो ने अपने जीवन में अनेक निबंध, उपन्यास और अंत में अपनी जीवनी लिखी। रूसो का जन्म 1712 ई. में जिनेवा के बदनाम घड़ीसाज के घर हुआ।
रूसो ने अपने एक निबंध ‘डिस्कोर्सेज ऑन साइंस एण्ड आर्ट्स‘ में आधुनिक सभ्यता की खुलकर आलोचना की। इस निबंध के माध्यम से रूसो ने सम्भवतः क्रांति की सम्भावना से लोगों को अवगत कराया। 1754 ई. में उसने एक अन्य लेख प्रकाशित किया, जिसका विषय था, ‘‘असमानता के उद्गम पर विवेचना‘‘। इसमें उसने व्यक्त किया कि सीधे-सादे मनुष्यों के हृदयों में किस प्रकार घमण्ड, लालच और स्वार्थ ने अपना स्थान बनाया तथा उन्हें पथ-भ्रष्ट किया।
उसने यह माना कि सामाजिक दोषों का कारण बहुत सीमा तक असमानता है। उसने स्पष्ट किया कि मानव समाज में दो प्रकार की असमानताएं हैं – प्रथम, प्राकृतिक, द्वितीय, समाज के द्वारा व्युत्पन्न पहले प्रकार की असमानता स्वीकार की जा सकती है क्योंकि उस पर नियंत्रण नहीं हो सकता। परन्तु सामाजिक असमानताओं को दूर किया जा सकता। उसने नारा दिया ‘प्रकृति की ओर लौटो‘ (Back to Nature)‘ जिसका अभिप्रायः था मनुष्य के सहज आवेगों का दमन। रूसो ने व्यक्ति को भद्र पशु की संज्ञा दी है। यह भद्र पशु पूर्ण रूप में स्वतंत्र था। प्रकृति की ओर लौट चलो का अर्थ ऐतिहासिक रूप में लौटना बिल्कुल नहीं है बल्कि मानव का नैतिक प्रवृत्तियों द्वारा निर्देशित जीवन है। नैक्सीन ने रूसो को ‘प्रकृति का शिशु (Child of Nature)‘ कहा है।
आधुनिक शिक्षाविदों ने रूसो की कृति ‘एमिल‘ से बहुत से विचार ग्रहण किये हैं। उसके अनुसार शिक्षा में नैतिक मूल्यों का विकास सर्वोपरि होना चाहिए। वह ग्रीक तथा लैटिन भाषाओं का विरोधी तथा व्यावहारिक एवं तकनीकी शिक्षा का समर्थक था। जिसमें आज की मोंटेसरी. किंडर गार्डन जैसी शिक्षा पद्धतियों का पर्वाभ्यास मिलता है। रूसो की सबसे प्रसिद्ध पुस्तक ‘सोशल कॉन्ट्रेक्ट‘ (सामाजिक संविदा, 1762 ई.) इस वाक्य से आरम्भ होती है, “मनुष्य स्वतंत्र उत्पन्न हुआ, फिर भी हर कहीं वह जन्जीरों से जकड़ा है।‘‘ उसने लिखा कि आदिम काल में मनुष्यों को ‘स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्वभाव‘ प्राप्त था।
रूसो ने निरंकुश राजतंत्र पर प्रहार किया तथा राजा के दैवीय अधिकारों का खण्डन कर सामाजिक समझौते की स्थापना की। उसने बताया कि जनतंत्र ही शासन प्रणाली का आदर्श रूप है। रूसो को विश्व इतिहास में ‘आधुनिक लोकतंत्र‘ का जन्मदाता माना जाता है। अब्राहम लिंकन की लोकतंत्र की परिभाषा ‘‘जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन‘‘ रूसो के दार्शनिक सिद्धांतों से प्रभावित है।
सोशल कॉन्टेक्ट के अलावा रूसो की अन्य रचनाएं हैं – ‘स्वीकृति अथवा स्वीकारोक्ति (आत्मकथा)‘, ‘जिली (उपन्यास)‘, ‘कनफेशन‘, ‘सैकेण्ड डिसकोर्स‘, ‘डिसकोर्स ऑन द ऑरिजन ऑफ इनइक्यूलेटी।‘
सामान्य इच्छा
रूसो ने राज्य और सम्प्रभुता के लिए सामान्य इच्छा (General Bill)‘ शब्द का प्रयोग किया। सामान्य इच्छा का विचार रूसो के विचारों का केन्द्र बिन्दु है – रूसो के अनुसार मानव में दो प्रकार की इच्छा पाई जाती है – (i) समुदाय के कल्याण की इच्छा (Realwill), (ii) स्वार्थपूर्ण इच्छा। सामान्य इच्छा का अभिप्राय, समूचे समाज के भलाई की इच्छा है अर्थात् सभी के कल्याण की इच्छा है। अतः यह एक आदर्शवादी संकल्पना है। यह गुणात्मक है, मात्रात्मक नहीं। समुदाय के कल्याण की इच्छा का योग सामान्य इच्छा है। हर्नशा ने कहा कि ‘लेवियाथान का कटा सिर ही, रूसो की सामान्य इच्छा है।
रूसो ने तत्कालीन राजनैतिक जीवन को दो प्रमुख विचार प्रदान किये –
1. जनता की सार्वभौमिकता
2. नागरिकों की राजनैतिक समानता।
यह ठीक है कि उसने क्रांति की बात नहीं कि किन्तु तत्कालीन संस्थाओं और व्यवस्थाओं को नकार कर उसने कांति का मार्ग प्रशस्त किया। किसी एक व्यक्ति या संस्था में विश्वास न प्रकट करके उसने मानवमात्र में आस्था प्रकट की थी। सभी व्यक्तियों को उसने स्वतंत्र और समान माना था। इसीलिए फ्रांस की क्रांति के नारे – समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व उसी के विचारों से प्रेरित थे। क्रांति के समय उसी के विचारों का सबसे अधिक प्रभाव पडा। नेपोलियन ने सत्य ही कहा था कि ‘‘रूसो का जन्म न होता, तो फ्रांस की राज्य क्रांति का होना असम्भव था।‘‘ रोबर्ट दरगैंग ने ‘यूरोप फ्राॅम रिनेसा टू वाटरल‘ में रूसो का मल्यांकन करते हुए कहा है, ‘‘संसार में ऐसे व्यक्ति कम हुए हैं, जिन्होंने रूसो के समान मानव चिंतन को प्रभावित किया हो। राजनीतिक, शिक्षा, धर्म, कला, नैतिकता और साहित्य सभी पर रूसो के विचारों की छाप दिखाई देती है।‘‘
प्रश्न: दिदरो का प्रबोधन में योगदान बताइए।
उत्तर: फ्रांस की क्रांति को प्रभावित करने वाले दार्शनिक लेखकों में दिदरो का महत्वपूर्ण स्थान है। ‘विवेक के महत्व‘ पर बल देते हुए दिदरो ने ‘फिलॉसाफिक थॉट‘ पुस्तक लिखी। उसने कहा ‘‘जिस विषय पर कोई प्रश्न नहीं उठा हो, उसे कभी प्रमाणिक नहीं माना जा सकता। विश्वास करने के लिए शंका करना अनिवार्य है।‘‘ दिदरो का उद्देश्य ‘‘जनता के सम्मुख सम्पूर्ण ज्ञान प्रस्तुत करना था।‘‘
दिदरो का विश्वास था कि सत्य ज्ञान से सभी दोषों का निराकरण और सुख की वृद्धि हो सकती है। अतः उसने विश्वकोष का सम्पादन प्रारम्भ किया ताकि विभिन्न विषयों पर सरल एवं सुगम रीति से प्रकाश डाला जा सके और लोगों को उनका सत्य ज्ञान प्राप्त हो सके।यह श्विश्वकोषश् (Encyclopedia) 1751 से 1772 तक 17 खण्डों में प्रकाशित हुआ। उंसमें कई लेख स्वयं दिदरो के लिखे हुए थे। इस कार्य में उसे बड़े-बड़े लेखकों का सहयोग प्राप्त हुआ। दिदरो को सरकार ने बड़ा परेशान किया और उसे कारावास भी भोगना पड़ा परन्तु उसका प्रयत्न चलता रहा। इस ‘विश्वकोष‘ में अनेक विषयों के साथ एकतंत्र शासन, सामन्त-प्रथा, कर-पद्धति, अंधविश्वास, असहिष्णुता, कानून, दास-प्रथा आदि पर बड़े विशद् रूप में विचार किया गया जिससे जनता के सामने उनके सही रूप तथा उनके गुण-दोष प्रकट हुए। जो कार्य वाल्तेयर अकेला कर रहा था, उसमें इस विश्वकोष से बड़ी सहायता मिली।
प्रश्न: प्रबोधनकालीन उदारवाद की प्रकृति की विवेचना कीजिए।
उत्तर: उदारवाद इस राजतंत्रीय शक्ति के प्रत्युत्तर के रूप में जन्मा, जिसका यह दावा था कि दैवी अधिकारों के आधार पर राजा की शक्ति निरंकुश होती है। उदारवाद का विचार राजनीतिक क्षेत्र के साथ-साथ आर्थिक क्षेत्र में भी परिलक्षित हुआ। इस युग का नवोदित बुर्जुआ वर्ग वाणिज्यवाद के स्थान पर अहस्तक्षेप के सिद्धांत पर आधारित मुक्त-व्यापार की आर्थिक व्यवस्था चाहता था। उन्होंने बुर्जुआ तथा कुलीन वर्ग में अंतर करने वाले वंशानुगत विशेषाधिकारों के अंत की भी पैरवी की।
उदारवाद का विकास मूलतः इंग्लैण्ड व यूरोप में हुआ। उदारवाद का दार्शनिक आधार ‘हॉब्स‘ के विचारों में ही विद्यमान है।
(प) नकारात्मक उदारवाद (अहस्तक्षेपवादी राज्य): शास्त्रीय उदारवादियों ने राज्य और आर्थिक गतिविधियों के मध्य अलगाव किया। इनके अनुसार, ‘राज्य का हस्तक्षेप आर्थिक गतिविधियों में नहीं होना चाहिए। आर्थिक गतिविधियों का नियंत्रण बाजार के आधार पर होगा।‘ जिसे एडम स्मिथ ने ‘अदृश्य हाथ‘ की संज्ञा दी। इनके अनुसार, ‘सभी व्यक्तियों को खुला छोड़ देने से समूचे समाज का भला हो जायेगा।‘ एडम स्मिथ की प्रसिद्ध रचना “The Welath of Nations” (1776) है। थॉमस रॉबर्ट मॉल्थस ने “An Essay on the Principle of Population” (1798) नामक रचना लिखी। उदारवादियों के अनुसार राज्य को कम से कम कार्य करने चाहिए। इसी कारण जैसा कि जरमी बेन्थम का भी तर्क था, कि ‘‘सर्वोत्तम सरकार वह है, जो सबसे कम शासन करती है।‘‘ यहां कम से कम शासन का अर्थ कम से कम विषयों पर शासन से है। मान्तेस्क्यू, टॉमस पेन आदि ने उदारवाद के विकास में योगदान दिया। एडम स्मिथ (द वेल्थ ऑफ नेशनश 1776), रिकार्डो, माल्थस, जरमी बैंथम (डिसोर्सेज ऑन सिविल एण्ड पेनल लेजिसलेशन), जॉन स्टुअर्ट मिल (प्रिंसीपल ऑफ पॉलिटिकल इकोनोमी 1848) आदि ने आर्थिक क्षेत्र में राज्य के अहस्तक्षेप का सिद्धांत दिया। अठारहवीं शताब्दी के उदारवाद ने मुक्त व्यापार तथा समझौते पर आधारित अर्थव्यवस्था, जिसमें राज्य का हस्तक्षेप न हो, का समर्थन किया। इस प्रकार का उदारवाद “नकारात्मक उदारवाद‘‘ कहलाया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन में कम से कम हस्तक्षेप प्रारंभिक उदारवाद का एक पक्ष रहा, जिसे राजनीति विज्ञान की शब्दावली में ‘‘नकारात्मक उदारवाद‘‘ कहा गया है।
(ii) सकारात्मक उदारवाद (कल्याणकारी राज्य) : ‘संशोधनात्मक उदारवाद/नैनी/स्टेट/सामाजिक उदारवाद/ आधुनिक उदारवाद‘ एक ही संकल्पना के नाम है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरणों में नकारात्मक उदारवाद का स्थान सकारात्मक उदारवाद ने ग्रहण किया। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विचार को आम सुख के सिद्धांत के साथ समायोजित किया गया। यह कहा जाने लगा कि समाज के हितों के संवर्द्धन के लिए राज्य का हस्तक्षेप उचित है। सेबाइन के अनुसार, ‘शास्त्रीय उदारवादी विचारधारा का संशोधन जे.एस.मिल, स्पेंसर और टी.एच.ग्रीन ने किया।‘ जे. एस मिल पहले उदारवादी विचारक हैं, जिन्होंने व्यक्ति व राज्य के मध्य समाज नामक तीसरे महत्वपूर्ण तत्व का खोज की। जे.एस.मिल ने अपनी प्रसिद्ध रचना – “Principles of Political Economy” (1848) में लिखते हुए कहा कि ‘‘राज्य का आर्थिक गतिविधियों में हस्तक्षेप आवश्यक है, क्योंकि समाज में सभी व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति समान नहीं होती है।‘‘
एल.टी. हाबहाउस, सकारात्मक उदारवाद के प्रबल समर्थक हैं, जिन्होंने ‘‘Liberalism‘‘ (1911) नामक रचना लिखी। सकारात्मक उदारवाद को सामाजिक उदारवाद भी कहा जाता है। इन्होंने ‘राज्य को एक आवश्यक अच्छाई माना‘। इनके अनुसार, श्राज्य, व्यक्ति के नैतिक जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर करता है।‘ लास्की तथा मैकाइवर ने भी आवश्यक सेवाएं राज्य के हाथों में रखने की वकालत की। ग्रीन ने ‘उदारवाद का आदर्शवादी संशोधन‘ किया। ग्रीन, कल्याणकारी राज्य के सिद्धांत के मुख्य प्रतिपादक हैं। ग्रीन के अनुसार, ‘राज्य का कार्य, बाधाओं को बाधित करना है।‘ टी.एच. ग्रीन ने सामाजिक बुराइयों, जैसे-अज्ञानता, नशाखोरी तथा भिक्षावृत्ति के उन्मूलन के लिए राज्य द्वारा सकारात्मक भूमिका के निर्वाह की दलील दी। सकारात्मक उदारवाद के आर्थिक आधार का निर्माण ‘जॉन मेनॉर्ड कींस‘ और ‘ग्रैलब्रॉथ‘ ने किया। जॉन मेनॉर्ड कीस ने अपनी प्रसिद्ध रचना – “The General Theory of Employment, Interest and Money” (1936) में कहा, कि ‘राज्य के सक्रिय हस्तक्षेप के द्वारा अर्थव्यवस्था को मंदी का शिकार होने से बचाया जा सकता है।‘ मान्तेस्क्यू की पुस्तक ‘दि रिपरिट ऑफ लॉज‘, बेन्थम की ‘फ्रेगमेन्ट ऑन गवर्नमेन्ट‘ तथा एडम स्मिथ की ‘वेल्थ ऑफ नेशन्स‘ उदारवाद के क्रमिक विकास की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अवस्थाओं का बोध कराती हैं।
(iii) नव-उदारवाद (स्वेच्छातंत्रवाद) : नव-उदारवाद को नव-दक्षिणपंथ भी कहा जाता है। नव-उदारवादी विचारधारा का आधार ‘एफ.ए. हेयक‘ ने रखा। इन्होंने व्यक्तिवादी, अणुवादी समाज व बाजारवाद अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित किया। गरीबों के कल्याण के नाम पर प्रशासन या नौकरशाही के आकार में वृद्धि होती है। इनके अनुसार, कल्याणकारी राज्य का लाभ गरीबों को नहीं, अपितु मध्यम वर्ग को प्राप्त होता है। हेयर उस कल्याणकारी राज्य की संकल्पना के विरोधी हैं, जिसका प्रयोग ब्रिटेन में हुआ।
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर आज तक उदारवाद के स्वरूप में कई परिवर्तन आए हैं। व्यक्तिगत विकास, स्वतंत्रता, लोकतंत्र आदि की अवधारणाएँ उदारवाद की पर्यायवाची मानी जाती हैं। उदारवाद अपने युग की एक महान् उदात्त विचारधारा थी, इसमें कोई सन्देह नहीं है। परन्तु आज उदारवाद की निर्बलताएं नजर आती हैं। आर्थिक विपत्तियों से मस्त एक स्वतंत्र जीवन प्रदान करने में उदारवाद की विफलता उसकी बड़ी कमजोरी है। आने वाले कल में उदारवाद एक विशिष्ट विचारधारा के रूप में टिका रहेगा या अन्य किसी विचारधारा में विलीन हो जायेगा, इसका उत्तर समय ही देगा।