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बीज अनुकूलन : बीजों में पारिस्थितिकीय अनुकूलन (ecological adaptation in seeds in hindi)
बीजों में पारिस्थितिकीय अनुकूलन या बीज अनुकूलन (ecological adaptation in seeds in hindi) : बीजधारी पौधों के जीवन चक्र में बीज एक अत्यंत उपयोगी , महत्वपूर्ण और उत्तरदायित्वपूर्ण संरचना होती है , जो कि पौधे के वंश को आगे बढ़ाने और पादप प्रजाति के नवीन क्षेत्रों में प्रसार और फैलाव का कार्य करती है। अत: उपर्युक्त गुरुत्तर दायित्वों के निर्वहन हेतु बीजों की बाह्य और आंतरिक संरचना में अनेक पारिस्थितिकी अनुकूलन लक्षण पाए जाते है।
विभिन्न पादप प्रजातियों के बीजों में अपने परिवेश के साथ स्वयं को समायोजित कर लेने की अनुकूलन क्षमता होती है।
विभिन्न पौधों में बीजों के पारिस्थितिकी अनुकूलन का यदि विस्तृत अध्ययन किया जाए तो इनमें पारिस्थितिकी अनुकूलन के निम्नलिखित प्रमुख बिंदु उभर कर सामने आते है –
1. बीज प्रसुप्तावस्था : जैसा कि हम जानते है , बीज उच्चवर्गीय पौधों की एक ऐसी अनूठी संरचना है जिसमें लम्बे समय तक पौधे भ्रूण के माध्यम से सूक्ष्म और सुषुप्तावस्था में रह सकते है। इस प्रकार हम यह भी कह सकते है कि बीजों में पायी जाने वाली सुषुप्तावस्था एक विशेष प्रकार का पारिस्थितिक अनुकूलन है , जिसमें भ्रूण सुरक्षित रहता है और बीज अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों को सफलतापूर्वक गुजार देते है। जब परिस्थितियाँ अनुकूल होती है और जल , तापमान , प्रकाश और आर्द्रता उपयुक्त प्रकार से उपलब्ध होते है जो बीजों का सफल अंकुरण संपन्न होता है तभी नवविकसित पादपक की अनुकूलतम वृद्धि सम्भव होती है।
2. अंकुरण संदमनक पदार्थो की उपस्थिति (presence of germination inhibitors) : अनेक पादप प्रजातियों के फलों , बीजों , बीजों के भ्रूण और बीज चोल में कुछ विशेष प्रकार के रासायनिक पदार्थ अंकुरण संदमनक पाए जाते है जो बीजों के सामान्य अंकुरण की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करते है। इस प्रकार के रासायनिक पदार्थो की फल और बीज में उपस्थिति का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इनके कारण प्रतिकूल परिस्थितियों के बीज का अंकुरण नहीं हो पाता है और इनमें उपस्थित भ्रूण पूर्णतया सुरक्षित रहता है। इसके अतिरिक्त फल भित्ति में उपस्थित अंकुरण अवरोधक पदार्थ यह भी सुनिश्चित करते है कि बीजों का अंकुरण फलों में किसी भी प्रकार से सम्भव नही हो सके और इनका अंकुरण फल के स्फुटन और बीजों के प्रकीर्णन के पश्चात् ही हो सके। विभिन्न पौधों के बीजों में अलग अलग प्रकार के अंकुरण अवरोधक रासायनिक पदार्थ मौजूद होते है , जैसे रूटेसी कुल के पौधों में कार्बनिक अम्ल और टमाटर में फेरुलिक अम्ल अंकुरण अवरोधकों के रूप में पाए जाते है। टमाटर के बीजों का पाचन जब विभिन्न पक्षियों और जन्तुओं द्वारा कर लिया जाता है और भित्तियों गल जाती है तब अनुकूल परिस्थितियों में ही इनके बीजों का अंकुरण संभव हो पाता है। इसी प्रकार विभिन्न पौधों के फलों और बीजों में पाया जाने वाला एब्सिसिक अम्ल भी एक सामान्य संदमनक पदार्थ है। कुछ पौधों में तो संदमनक पदार्थो की सांद्रता और इनके बीजों की अंकुरण क्षमता में सीधा सम्बन्ध पाया जाता है। मृदा में मौजूद बीजों में उपस्थित संदमनक पदार्थो का निक्षालन वर्षा के अलावा सिंचाई के जल में लगातार होता रहता है , जिससे बीजों में इनकी सांद्रता कम हो जाती है और इनका सफल अंकुरण हो पाता है। इस प्रकार फलों और बीजों के रासायनिक संदमनक पदार्थो की उपस्थिति एक प्रकार से इन पौधों को प्रकृति द्वारा दिया गया अनुपम उपहार है , जिसके द्वारा विपरीत परिस्थितियों में अंकुरण और नवोदभिद के नष्ट हो जाने की सम्भावना समाप्त हो जाती है।
3. मरुस्थलीय पौधों के बीजों में पारिस्थितिकी अनुकूलन (adaptation in the seed of xerophytic plants) : शुष्क अथवा मरुस्थलीय आवासों में जलाभाव की परिस्थितियों का सफलतापूर्वक सामना करने के लिए पौधों में विभिन्न प्रकार के अनुकूलन लक्षण पाए जाते है। विभिन्न अल्पजीवी एकवर्षीय शाकीय पौधों का जीवन चक्र बहुत ही अल्पकालिक अथवा छोटा होता है। इनमें बीज अंकुरण से लेकर पुष्पन और निषेचन और बीज निर्माण की प्रक्रियाएँ कुछ सप्ताहों से लेकर कुछ महीनों में ही पूरी हो जाती है। अत: इस प्रकार के अल्पजीवी पौधों के लिए बीज ही एकमात्र चिरकालिता और वंश वृद्धि का एक मात्रा साधन है। अल्पजीवी पौधों का जीवन चक्र इनकी आवास स्थली पर होने वाली वर्षा की अवधि से सम्बन्धित होता है। पहली बरसात होने पर ही इनके बीज अंकुरित हो जाते है और वर्षा ऋतू की अवधि में ही इन अंकुरित पौधों का कायिक विकास , पुष्पन और निषेचन होकर इनके बीज बन जाते है। इनके बीजों का आवश्यकतानुसार प्रकीर्णन हो जाता है या ये अनुकूल वातावरण होने तक उसी स्थान पर पड़े रहते है। आगामी वर्षा ऋतु में इनका फिर अंकुरण हो जाता है। राजस्थान की मरुस्थलीय जलवायु और बालुई मृदा में इस प्रकार के अनेक पौधे उगते है। जैसे मोल्यूगो सरवियाना टेफ्रोसिया स्ट्राइगोसा और ओल्डनलेंडिया कोरम्बोसा आदि। वर्षा ऋतू की समाप्ति के पश्चात् पूरे वर्ष भर मरुस्थल में मौजूद ये बालुका स्तूप पादप रहित रहते है और वर्षा ऋतू में इन टीलों पर घास और शाकीय पादप पाए जाते है।
अधिकांश मरुद्भिदीय पौधों में बीजांकुरण की प्रक्रिया के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इस प्रकार की अधिकांश पादप प्रजातियों में बीज का अंकुरण 10 से 15 मिमी बरसात हो जाने के बाद प्रारंभ होता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इनके बीजों में कुछ अंकुरण संदमनक पदार्थ जैसे एब्सिसिक अम्ल आदि पाए जाते है जो कि जल में घुलनशील होते है। बलुई मिट्टी में पड़े हुए इन बीजों में मौजूद इन अंकुरण संदमनक पदार्थो का जल के रिसाव के साथ साथ सतत रूप से निक्षालन होता रहता है। इस प्रकार इन पदार्थो की मात्रा बीजों में कम हो जाती है और इनका अंकुरण हो जाता है।
इस प्रक्रिया के अंतर्गत बीजों का अंकुरण तभी संभव हो पाता है जबकि मिट्टी में अंकुरित पौधों की वृद्धि के लिए पर्याप्त जल की मात्रा उपलब्ध हो , इसके अतिरिक्त कुछ मरुदभिद अल्पजीवी पौधों में बीजों के अंकुरण के लिए तेज वर्षा के जल में बीजों के साथ बालुई कणों और कंकडो का बहकर आना भी आवश्यक होता है। इसका एक मात्र प्रमुख कारण यह है कि जल में बहते हुए कुछ पौधों के बीजों जैसे सरसीडियम के बीजों का आवरण बजरी के कणों और कंकडों से रगड़ खाकर कोमल हो जाता है और बीच चोल के द्वारा जल का अवशोषण होकर अंकुरण की शुरुआत होती है।
4. तापक्रम के प्रति अनुकूलन (adaptations for temperature) : अधिकांश पौधों में तापमान के प्रति अनुकूलन बीज प्रसुप्ति को समाप्त कर अंकुरण की तैयारियों के रूप में परिलक्षित होता है।
प्राय: शरद ऋतु में उगने वाले एक वर्षीय पौधे गर्मियों की तेज धुप और उच्च तापमान और शुष्क वातावरण को सहन करने में अक्षम होते है। अत: इसके पूर्व ही ये अपना जीवन चक्र समाप्त कर इससे बच निकलते है। कुछ पौधों सिडम में बीजों के परिपक्व होने के पश्चात् उच्च तापमान की आवश्यकता तो होती है परन्तु इस पौधे की वृद्धि शीतकाल में होती है और शरद ऋतु के अंत में इसके बीजों का निर्माण होता है। शरद ऋतु के अंत में ये बीज परिपक्व होकर नीचे जमीन पर गिर जाते है , गर्मियों के उच्च तापमान में सुषुप्तावस्था में रहते है और आगामी शरद ऋतु में अंकुरित हो जाते है। पर्णपाती वनों में उगने वाले पौधों के बीजों का अंकुरण प्राय: बसंत ऋतु से थोडा पहले होता है , जिससे वृक्षों की शिखर संरचना में फैलाव से पूर्व ही वे उपयुक्त मात्रा में प्रकाश को प्राप्त कर अपने आपको भली प्रकार स्थापित कर लेते है।
5. लवणोद्भिद पौधों में बीजों का अनुकूलन (adaptations in halophytes) : अधिकांश लवणोद्भिद पौधों में वातावरण के अनुरूप अन्य पादप अंगों के साथ ही बीजों की संरचना और कार्यिकी में भी अनेक अनुकूलन लक्षण देखे जा सकते है।
कुछ विशेष प्रकार के पौधे अधिक लवणयुक्त खारी मिट्टी में प्राय: वर्षा ऋतु में या जब मृदा में जल की मात्रा बहुत अधिक हो तभी उगते है। वैसल (1972) के अनुसार ऐसे पौधों को आभासी लवणोद्भिद कहा जा सकता है। इन पौधों की बीज संरचना में इस प्रकार की विशेष परिस्थितियों के लिए पर्याप्त अनुकूलन पाए जाते है। हालांकि मृदा में उपस्थित लवणों की उच्च सांद्रता , परासरण प्रभाव के कारण इनके बीजों में अंकुरण को संदमित करती है। वर्षा ऋतु में जल की पर्याप्त उपलब्धता के कारण जब लवणों की सांद्रता में कमी आ जाती है तब इन पौधों के बीजों का अंकुरण होता है।
स्पाइनीफेक्स क्वेरोसस नामक पादप का पुष्पक्रम गोलाकार और दृढ आनुशुकी के रूप में पाया जाता है। इसमें कठोर और रोमिल सहपत्र होते है , जिनकी सहायता से निषेचन के बाद यह पुष्पक्रम पौधे से अलग होकर रेत में कलाबाजियाँ खाता हुआ विचरण करता रहता है। हवा के साथ इसके बीज रेत में बिखरते जाते है , जिनका अंकुरण अनुकूलन परिस्थितियों में होता है।
अधिकांश मेंग्रोव पौधों जैसे राइजोफोरा और एवीसीनिया के फल और बीज वायुकोषों की उपस्थिति के कारण वजन में हल्के होते है और इनके चारों ओर मोम की परत भी पायी जाती है। भार में हल्के होने के कारण इनके बीज और फल जल की सतह पर तैरते रहते है। परन्तु इसके साथ यह भी देखा गया है कि अधिकांश मैन्ग्रोव पौधों में बीज और नवोद्भिद पादप अंकुरण के समय जल में उपस्थित उच्च लवण सान्द्रता के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते है। अत: ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए इन पौधों में एक विशेष प्रक्रिया सजीवप्रजकता पायी जाती है जिसके अंतर्गत इन मेंग्रोव पौधों जैसे – राइजोफोरा एवीसीनिया और केसूला में बीजों का अंकुरण जनक पादप पर फल में ही प्रारंभ हो जाता है। बीज के अंकुरण के पश्चात् इनका बीज पत्राधार लगभग 50 से 90 सेंटीमीटर लम्बाई तक का हो जाता है और यह बीजपत्राधार और मूलांकुर नीचे की तरफ लटकते रहते है। उधर्व स्थिति अथवा खड़ी अवस्था में ही यह नीचे गिर जाते है और मूलांकुर या तो कीचड़ में धँस जाता है तथा यदि ऐसा नहीं होता तो नवोद्भिद पानी में तैरता हुआ बहते हुए जल की लहरों के साथ किनारों पर पहुँच जाता है। किनारों पर पहुंचते ही इससे जड़ों का और प्रांकुर का निर्माण बहुत तेजी से होता है। मैन्ग्रोव पौधों में इस प्रकार के सजीवप्रजक अंकुरण का सर्वप्रथम अध्ययन हेबरलेंडट द्वारा किया गया था।
6. जैविक कारकों के प्रति बीजों का अनुकूलन (adaptation of seeds for biotic factors) : विभिन्न प्रकार के सजीव पादप और जन्तु जैविक कारकों के रूप में पर्यावरण का अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग कहे जा सकते है इसलिए अन्य वातावरण कारकों के समान ही इन जैविक कारकों का प्रभाव विभिन्न पौधों के बीजांकुरण पर दृष्टिगोचर होता है। इस तथ्य को समझने के लिए हम एक परजीवी पुष्पीय पादप स्ट्राइगा का उदाहरण ले सकते है , जिसके बीजों का अंकुरण इसके परपोषी पादप की उपस्थिति में ही या इसके द्वारा स्त्रावित पदार्थो की उपस्थिति में ही होता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि स्ट्राइगा के बीजों में अंकुरण के लिए आवश्यक उपयोगी पदार्थ अथवा उपापचयी रसायन इसके परपोषी पौधे की जड़ों से ही स्त्रावित होते है। इसी प्रकार पक्षियों द्वारा भोजन के लिए प्रयुक्त फलों और बीजों में म्यूसीलेज पदार्थ पाया जाता है। जिसकी उपस्थिति के कारण बीजों को उचित आधार पर संलग्न और स्थापित होने में सहायता मिलती है , उदाहरण के तौर पर विस्कम नामक अधिपादपीय प्रजाति के बीज वृक्ष की शाखाओं पर चिपक जाते है और अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त होने पर अंकुरित हो जाते है।
अनेक पक्षियों और प्राणियों द्वारा भोजन के लिए विभिन्न पौधों के फलों का भक्षण किया जाता है। ये पक्षी और जन्तु इन पौधों के बीजों को अपनी विष्ठा के साथ बाहर निकाल देते है। इनकी आहार नाल में उपस्थित पाचक रसों और एंजाइम के प्रभाव से बीजों की अंकुरण क्षमता बढ़ जाती है और इनका अंकुरण आसानी से हो जाता है। यही नहीं फलों को खाने वाले पक्षियों और जन्तुओं के माध्यम से इनके बीजों का प्रकीर्णन दूरस्थ स्थानों में होने में आसानी रहती है।
अनेक वृक्षों जैसे यूकेलिप्टस और प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा की शिखर संरचना अथवा छाया के निचे किसी अन्य पादप प्रजाति के बीजों का अंकुरण नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि यूकेलिप्टस की चर्मिल पत्तियों के अवशेष बीजों के सफल अंकुरण में बाधा पहुँचाते है। इनकी परत बीज और मृदा के मध्य एक प्रकार का यांत्रिक अवरोध उत्पन्न करती है। इसकी वजह से बीज अंकुरण के बाद इनके नवोद्भिदो की कोमल जड़ें , इस यांत्रिक अवरोधी परत को नहीं भेद पाती और इसकी छाया में नवोदभिद के प्रांकुरों को प्रकाश भी उपलब्ध नहीं हो पाता और वे मर जाते है।
इसी प्रकार प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा और कुछ अन्य पौधों की पत्तियों और अन्य पादप भागों से कुछ ऐसे रासायनिक पदार्थ स्त्रावित होते है जो अन्य पौधों के बीजों के अंकुरण हेतु संदमनक का कार्य करते है। इन रासायनिक पदार्थो की संदमनकारी प्रकृति अथवा तो स्वयं के बीजों के लिए अथवा इसी प्रकार के अन्य बीजों के लिए या सभी प्रकार के पौधों के बीजों के लिए भी हो सकती है। अनेक वृक्षों में इस प्रक्रिया को देखा जा सकता है। इस प्रवृत्ति के द्वारा एक ही स्थान पर असंख्य पौधों के एकत्रीकरण की प्रक्रिया पर अंकुश लगाया जा सकता है।
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