अपवाह बेसिन क्या है ? drainage basin in hindi definition in geography नदी बेसिन किसे कहते हैं परिभाषा

नदी बेसिन किसे कहते हैं परिभाषा अपवाह बेसिन क्या है ? drainage basin in hindi definition in geography ?

उत्तर : वह सम्पूर्ण क्षेत्र जहाँ से कोई नदी जल ग्रहण करती है वह क्षेत्र उस नदी का बेसिन कहलाता है |

नदी, पवन, हिमानी तथा समुद्र तटीय स्थलाकृतियाँ
(RIVER, WIND, GLACIATED & COASTAL LANDFORMS)
सेल्सबरी के अनुसार “नदी का मुख्य कार्य स्थल को सागर तक ले जाना है। अपरदन के कारणों में नदी एक महत्वपूर्ण कारक है। टार एवं मार्टिन के शब्दों में “नदी भूतल पर बना हआ प्राकतिक प्रवाह मार्ग है।‘‘ वर्षा से प्राप्त जल का कुछ हिस्सा वाष्प बनकर उड़ जाता है, कुछ भाग भूमि में समा जाता है व भूमिगत जल बन जाता है तथा कुछ हिस्सा सतह पर निश्चित मार्ग पर बहता हुआ सागर में मिलता है। इस बहते हुए जल को ही नदी या सरिता कहते हैं। प्रत्येक नदी ढाल के अनुसार बहती है। कई नदियाँ आपस में जुड़ जाती हैं व एक बड़ी नदी का जन्म होता है। हर नदी का अपना बहाव क्षेत्र होता है। किसी क्षेत्र की छोटी-बड़ी नदियाँ, सहायक नदियाँ एवं नालों के सम्मिलित रूपा को उस क्षेत्र का अपवाह तन्त्र (drainage system) कहा जाता है तथा वह क्षेत्र अपवाह बेसिन (drainage Basin) कहलाता है। जिस निश्चित मार्ग पर नदी प्रवाहित होती है उसे नदी घाटी (River valley) कहा जाता है। नदी अपने मार्ग में बहते हुए सम्पूर्ण बेसिन को प्रभावित करती है। वह अपनी घाटी को काट-छाँट कर विकसित करती है साथ ही अपवाह बेसिन में काट-छाँट कर स्थलरूपाों का विकास करती है। अतः नदी या बहता हुआ जल पृथ्वी की सतह पर सबसे महत्वपूर्ण अपरदन का कारक (agent) माना जाता है। –
नदी घाटी के विकास एवं नदी बेसिन की स्थलाकृतियों का विकास मुख्यतः नदी के अपरदन के स्वरूपा एवं उसकी गतिशीलता, धरातल की संरचना आदि अनेक तत्वों से प्रभावित होती है। नदी अपने अपवाह क्षेत्र में अपरदन, परिवहन एवं निक्षेपण तीनों कार्य करती है। इसकी क्रियाशीलता पर निम्न तत्वों का प्रभाव पड़ता हैः
(1) नदी घाटी के ढाल की प्रकृति :- नदी की अपरदन शक्ति उसके पानी की धारा की गति पर निर्भर करती है। अपनी तीव्र गति से नदी बड़ी मात्रा में अवसादों को बहा ले जाती है। इसके साथ बड़ेबड़े कंकड़-पत्थर भी लुढ़क जाते हैं व टूटकर चूर्ण बन जाते हैं। नदी घाटी का ढाल जितना तेज होता है। उसकी अपरदन व परिवहन की मात्रा भी उसी प्रकार बहुत बढ़ जाती है।
(2) नदी बेसिन की चट्टानों की संरचना एवं स्थिति :- अपरदन का सीधा संबंध चट्टानों का संरचना से होता है। अगर नदी के मार्ग में कठोर आग्नेय चट्टानें हैं तो अपरदन की गति मंद पायी जाता है क्योंकि ये कठोर होती हैं। अवसादी या ढीले कणों वाली चट्टानें आसानी से अपरदित हो जाती हैं। चट्टानों में संधियाँ अधिक पायी जाती हैं और कठोर मुलायम चट्टानें मिले-जुले रूपा में पायी जाती हैं तो कोमल चद्राने शीघ्र कट जाती हैं व कठोर चट्टानें खड़ी रह जाती हैं। ऐसी स्थिति में क्षिप्रिका, पॉट होल्स या प्रपात का निर्माण होता है।
(3) जलवाय :- नदी की अपरदन शक्ति पर जलवायु का भी प्रभाव पड़ता है। आर्द्र जलवायु पटेशों में वर्षा की अधिकता के कारण नदियों में जल की मात्रा अधिक पाई जाती है अतः उनकी अपरदन शक्ति भी अधिक होती है। जैसे ब्रह्मपुत्र या अमेजन नदी। शुष्क प्रदेशों में नदी के कार्य कम प्रभावशाली होते हैं।
(4) नदी, में अवसादों की मात्रा एवं किस्म :- नदी अपने अपवाह क्षेत्र से ही अवसादों का अधिग्रहण करती है, जिस नदी में नुकीले अवसाद अधिक होंगे उसमें कटाव तीव्र होगा। अगर अवसादों की मात्रा अत्यधिक हो जाती है तो अपरदन शक्ति कम हो जाती है जैसे- मिसिसिपी नदी की निचली घाटी। नदी के जल की मात्रा एवं अवसादों की मात्रा के अनुपात पर नदी की अपरदन शक्ति निर्भर करती है।
नदी का कार्य
(Work of Rivers)
नदी का कार्य अपने अपवाह क्षेत्र की समस्त विषमताओं को समाप्त कर आधार तल के समकक्ष भूखण्ड को अपरदित करना होता है इस प्रक्रिया में वह चट्टानों को अपरदित करती है, अवसादों को बहा कर दूर ले जाती है तथा निम्न क्षेत्रो में निक्षेप करती है। नदी का यह सम्पूर्ण कार्य समतलीकरण (gradation) कहलाता है।
नदी का अपरदन कार्य (Erosional work of river)-
नदी अपरदन की क्रिया निम्नलिखित रूप से सम्पादित होती हैः-
(1) सन्निघर्षण (Attrition) – नदी का जल अपने तीव्र बहाव के साथ शिलाखण्डो को लुढ़का कर ले जाता है। ये शिलाखण्ड अपिस से टकराते रहते हैं जिससे टूट-फूट होती रहती है। आपसी रगड़ तथा घर्षण द्वारा पत्थर -कंकड़ों के टूटने की क्रिया को सन्निघर्षण कहते है। शिलाखण्ड बारीक वह महीन होते जाते हैं और उनका परिवहन आसान होता जाता है।
(2) अपघर्षण (Abrasion) :- नदी के साथ बहने वाले चट्टानों के टुकडे व लुढ़ककर साथ चलने वाले शिलाखण्ड सम्पर्क में आने वाली चट्टानों को खरोंचते जाते हैं। ये नदी के औजार (tools) की तरह कार्य करते हैं। इस प्रकार पाव, तली व रास्ते में आने वाली चट्टानों में काट-छाँट होती रहती है. इसे अपघर्षण कहते हैं।
(3) घोलीकरण (Solution) :- नदी के जल का सम्पर्क रास्ते की चट्टानों से होता है एवं चट्टान के घुलनशील तत्व जल में घुल जाते हैं व शैल से अलग हो जाते हैं। इसे घोलीकरण या कार्बनिशन क्रिया कहा जाता है।
(4) जलगति क्रिया (Hydraulic action) : इस क्रिया द्वारा अपरदन में केवल जल का ही सहयोग होता है अन्य साधनों का नहीं। जल के प्रवाह व गति के कारण धक्के से मार्ग की चट्टानें टकर नदी के साथ प्रवाहित हो जाती हैं। इसे नदी की जलगति क्रिया कहा जाता है। जल का वेग महत्वपूर्ण भूमिका रखता है।
उपर्युक्त नदी अपरदन के चारों प्रकार एक दूसरे से संबंधित है। जलगति क्रिया से जो चट्टाने टूट-फूट कर जल के साथ बहने लगती हैं वो मार्ग में आने वाली चट्टानों एवं नदी घाटी को लगातार रगड़ती रहती है जिससे नदी घाटी का विकास होता है। आपस में चट्टानों के टकडे टकराते रहते हैं तथा बारीक होते जाते है। इससे नदी अपनी घाटी में महीन दोमट मिट्टी का निक्षेप करती है। नदी के विभिन्न भागा क अनुसार अपरदन के चार प्रकार पाये जाते हैंः-
(1) पाश्विक अपरदन (lateral erosion) – इससे नदी की घाटी के किनारों का अपरदन होता है, जिससे घाटी की चैड़ाई बढती जाती है। नदी की पौढावस्था व वद्धावस्था में पाश्विक अपरदन अधिक होता है।
(2) लम्बवत अपरदन (Vertical erosion)- इसे अधःकर्तन (Downcuting) भी कहा जाता है। नदी के साथ बहने वाले ककड़-पत्थर तली को खरोंचते जाते हैं। बड़े आकार के एवं नुकीले टुकड़े तली की चट्टानों में अपरदन करते है जिससे जलगतिका (Potholes) का निर्माण होता है। इससे नदी की घाटी गहरी होती जाती है। युवावस्था में नदी लम्बवत अपरदन अधिक करता है।
(3) शीर्ष अपरदन ( Headward erosion) इस क्रिया द्वारा नदी शीर्ष की ओर कटाव कर अपक घाटी का विस्तार करती है। यह मन्दगति से होने वाला अपरदन है। इस क्रिया से धीरे-धीरे जलविभाग कटते जाते हैं।
(4) मखवर्ती अपरदन (Mouthward erosion)- यह नदी अपने मार्ग में आगे बढ़ते हुए कर जाती है और तब तक चलता है जब तक नदी झील या सागर में नहीं मिल जाती। अन्तिम अवस्था डेल्टा का निर्माण होता है।