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प्रसुप्ति क्या है | बीज प्रसुप्ति किसे कहते हैं , परिभाषा , काल महत्व बताइये मतलब dormancy in seeds in hindi

dormancy in seeds in hindi प्रसुप्ति क्या है | बीज प्रसुप्ति किसे कहते हैं , परिभाषा , काल महत्व बताइये मतलब मीनिंग इन इंग्लिश |

बीजों में निलम्बित संजीवन (suspended animation in seeds) : अंकुरण के समय बीज में भ्रूण के अतिरिक्त कुछ संचित भोज्य पदार्थ भी पाए जाते है। बीजों में जल की मात्रा बहुत कम अर्थात लगभग 5 से 12 प्रतिशत होती है। अत: इस कारण उपापचयिक प्रक्रियाएँ अत्यन्त मन्द गति से होती है। अंकुरण के समय पर्याप्त मात्रा में जल उपलब्ध होने पर ये उपापचयिक क्रियाएँ सामान्य गति से होनें लगती है। बीज की इस अवस्था की तुलना हम काफी हद तक उभयचारी और अन्य प्राणियों में होने वाली शीतनिद्रा से कर सकते है। शीतनिद्रा में इन प्राणियों की उपापचयी क्रियाएँ भी लगभग शून्य हो जाती है परन्तु यह अवस्था समाप्त होने पर वे सामान्य रूप से जीवनयापन करने लगते है। इसी क्रम में बीजों में भी सक्रीय उपापचयी क्रियाएँ अथवा संजीवन कुछ अवधि के लिए स्थगित अथवा निलम्बित हो जाती है। निलंबित संजीवन की यह अवधि कुछ दिनों से लेकर हजारों वर्षो तक की हो सकती है।

वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार इस प्रावस्था को प्रसुप्तावस्था अथवा प्रसुप्ति काल कहा जाता है। प्राय: प्रसुप्ति शब्द का उपयोग पौधे की किसी भी ऐसी अवस्था के लिए किया जाता है , जिसके अन्तर्गत पौधे की सक्रीय वृद्धि कुछ समय के लिए अस्थायी रूप से रुक जाती है। प्रसुप्ति शब्द का उपयोग पर्ण की कक्षस्थ कलिकाओं की विलंबित सक्रियता के लिए भी किया जाता है।
बीजों में प्रसुप्तावस्था का विशेष महत्व है।

निलंबित संजीवन के कुछ रोचक उदाहरण

विभिन्न पौधों के बीज प्राय: विभिन्न कारकों के अनुरूप जैसे पादप प्रजाति अथवा बीज की प्रकृति और संग्रहण परिस्थितियों आदि के कारण अलग अलग समय तक जीवनसक्षम रहते है। इसी प्रकार अनेक मैन्ग्रोव वनस्पति पादपों में सजीव प्रजकता पायी जाती है , जैसे राइजोफोरा में। इन पौधों के बीज परिपक्व होते ही , उसी समय जनक पौधों पर ही अंकुरित हो जाते है। इस प्रकार इन मेंग्रोव पौधों के बीजों में प्रसुप्ति काल नही पाया जाता।
अधिकांश बीजधारी पौधों में प्रसुप्तिकाल कुछ माह से लेकर 3 अथवा 4 वर्षो तक का हो सकता है। लिलीयेसी कुल के अधिकांश सदस्यों जैसे प्याज और लहसुन आदि के बीज 2-3 महीने तक ही जननक्षम रहते है। बीजों के निलंबित सजीवन के रोचक उदाहरणों में से एक उत्तरपूर्वी चीन में देखा गया था जहाँ के एक गाँव में पवित्र कमल पुष्प का बीज लगभग 0.7 से 3 मीटर गहराई में सैकड़ो वर्षो तक दबा रहा और 1288 वर्षो के बाद उसकी जीवन क्षमता बरक़रार रही और उसका सफल अंकुरण करवाया गया। इसी प्रकार उत्तरी ध्रुव के टुन्ड्रा क्षेत्र लूपिन नामक पौधे के बीज हजारों वर्षो से बर्फ में दबे हुए थे। पिछले कुछ वर्षो में जब इन बीजों को अंकुरित होते हुए पाया गया तो इनका अध्ययन करने पर इनकी आयु लगभग दस हजार वर्ष अंकित की गयी।

निलंबित संजीवन के कारण (causes of suspended animation in seeds)

विभिन्न आवृतबीजी और अनावृतबीजी पौधों के बीजों में प्रसुप्तावस्था के अनेक कारण होते है जैसे बीज की संरचना , कार्यिकी गतिविधियां अथवा कुछ वातावरणीय कारकों जैसे ताप , प्रकाश आदि। उपर्युक्त सभी में से कुछ अथवा किसी एक कारक के प्रभावी होने पर बीज का अंकुरण नहीं हो पाता।
बीज प्रसुप्ति की प्रक्रिया को अध्ययन की सुविधा हेतु मोटे तौर पर दो वर्गों में बाँटा जा सकता है ये है –
(1) प्राथमिक प्रसुप्ति (primary dormancy)
(2) द्वितीयक प्रसुप्ति (secondary dormancy)
(1) प्राथमिक प्रसुप्ति (primary dormancy) : विभिन्न बीजों में समाहित कुछ आंतरिक कारणों से कई बार इनका अंकुरण विलंबित हो जाता है। इस प्रक्रिया को प्राथमिक प्रसुप्ति कहते है। इन बीजों में प्राथमिक प्रसुप्ति अग्रलिखित कारणों से संभव है –
(i) बीज चोल अथवा फल भित्ति के कारण
(ii) भ्रूण की अवस्था के कारण
(iii) बीजों में अंकुरण संदमको की उपस्थिति
(iv) विशिष्ट प्रकाश आवश्यकताएँ
(v) निम्न तापक्रम की आवश्यकता
(i) बीज चोल या फल भित्ति के कारण (due to seed coat or pericarp) : विकासशील बीजों में परिवर्धन और परिपक्वन की प्रक्रिया के अन्तर्गत कई प्रकार के परिवर्तन होते है। इन परिवर्तनों के कारण बीजों में प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन करने की क्षमता विकसित होती है। लेकिन विकासशील बीजों में होने वाले ये परिवर्तन कभी कभी इनके अंकुरण में भी रुकावट पैदा करते है। बीजों में जल की मात्रा तो बहुत कम होती है परन्तु विभिन्न भोज्य पदार्थ जैसे स्टार्च , शर्करा और प्रोटीन आदि पर्याप्त मात्रा में संचित होते है। इनमें स्वयं की और बीज चोल की संरचना के कारण वायु और जल आदि अन्दर प्रवेश नहीं कर पाते। उपर्युक्त सभी कारण अंकुरण पर विपरीत प्रभाव डालते है। बीज चोल और बीज की विशिष्ट संरचना के निम्नलिखित कारण है –
(a) जल के प्रति अपारगम्यता (impermeability to water) : अनेक पौधों के बीजों में बीज चोल और इनकी बाहरी कोशिकाएँ मोम , लिग्निन , वसीय पदार्थो और पोलीसेकेराइड्स के निक्षेपण की वजह से जल के प्रति अपारगम्यता हो जाती है। बिजांकुरण के लिए जल की उपस्थिति सर्वप्रमुख आवश्यकता है। इसलिए बीज के अन्दर जल के प्रवेश नहीं कर पाने के कारण इसका अंकुरण भी नहीं होता।
कुछ पौधों के फलों की संरचना भी विशेष प्रकार की होती है , जिससे इसके बीजों का अंकुरण रुक जाता है और प्रसुप्तिकाल की अवधि बढ़ जाती है। कमल गट्टा में फल भित्ति की संरचना विशिष्ट प्रकार की होती है जिससे इसके फलों और बीजों में जल का प्रवेश किसी भी प्रकार संभव नहीं हो पाता। ऐसी अवस्था में फलभित्ति को तोड़कर ही जल की प्रविष्टि करवाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त इस पादप में बीज चोल भी अत्यधिक स्थुलित होता है। इसलिए कमल गट्टे के बीजों का अंकुरण अनेक वर्षो तक संभव नहीं हो पाता है।
कुछ पौधों जैसे मेलीलोटस और ट्राइगोनैला आदि लेग्यूमिनोसी कुल के सदस्यों में बीज चोल और फलभित्ति कवकों और जीवाणुओं के संक्रमण के कारण नरम हो जाती है। और यह कुछ समय बाद जल के प्रति भी पारगम्य हो जाती है। इसलिए कालान्तर में इनके बीजों का अंकुरण आसानी से हो जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ पौधों में विशिष्ट छिद्र संरचनाएँ बीजों में जल के प्रवेश को नियन्त्रित करती है। उदाहरण के तौर पर ल्यूपिनस आरबोरियस में फल और बीज में आर्द्रताग्राही वाल्व के कारण जल का आवागमन नियंत्रित होता है। प्रारूपिक बीज में जल का प्रवेश केवल हाइलम द्वारा ही संभव हो पाता है। जब वायुमंडल में नमी की मात्रा अधिक होती है तो वायुमंडलीय जल का अवशोषण करके हाइलम की कोशिकाएँ फूल जाती है और इस प्रकार जल के प्रवेश मार्ग को अवरुद्ध कर देती है।
(b)  बीजों की गैसों के प्रति अपारगम्यता (seeds impermeability to gases) : अनेक पौधों के बीज जल के प्रति तो पारगम्य होते है परन्तु ये वायुमण्डलीय गैसों के प्रति अपारगम्य होते है , कभी कभी कुछ बीजों में बीज चोल कार्बन डाइ ऑक्साइड या ऑक्सीजन में से किसी एक गैस को अपने अन्दर प्रविष्ट नहीं होने देती। जैन्थीयम की फल संरचना में दो बीज पाए जाते है – इनमें से ऊपर वाला एक बीज प्रसुप्त होता है और इसके कारण भ्रूण में ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं हो पाती। ऐसी अवस्था में इन बीजों की प्रसुप्ति को अधिक मात्रा में ऑक्सीजन देकर ही भंग किया जा सकता है।
(c) बीजों का यांत्रिक प्रतिरोध (mechanical resistance of seeds) : अनेक पौधों जैसे केप्सेला में बीज चोल अत्यन्त दृढ और कठोर होता है ऐसी अवस्था में अंकुरित भ्रूण इसको भेद कर बाहर नही निकल पाता। इस प्रकार विभिन्न पौधों में मोटा और सख्त बीज चोल इनकी प्रसुप्तावस्था में प्रमुख भूमिका निभाता है। इन पौधों के फलों और बीजों में बीज चोल को नरम और दुर्बल कर देने से इनका बिजांकुरण संभव हो सकता है। कुछ पौधों के बीजों से धीरे धीरे जल अपघटनकारी एन्जाइमों का स्त्राव होता है जो बीज चोल पर अभिक्रिया कर इसे कमजोर कर देते है। एक अन्य उदाहरण ज्वार में बीज तुष से संलग्न हो जाते है जिससे इनका अंकुरण नही हो पाता।

(ii) भ्रूण अवस्था के कारण बीज प्रसुप्ति (due to embryo condition)

भ्रूण के परिवर्धन से ही नवोद्भिद पादप निर्मित होता है। अत: अनेक परिस्थितियों में बीज में उपस्थित भ्रूण के अविकसित रह जाने से और इसी प्रकार के अन्य कारणों से अंकुरण नहीं हो पाता।
(a) अल्पविकसित अथवा अल्पजीवी भ्रूण की उपस्थिति (underdeveloped embryo) : अनेक पौधों में  बीज तो पूर्णतया परिपक्ब हो जाता है परन्तु भ्रूण का विकास पूरी तरह से नही हो पाता। यह अल्पविकसित ही रह जाता है। इसके अतिरिक्त अनेक पौधों के बीजों में भ्रूण का विकास नाम मात्र का अथवा बिल्कुल ही नहीं हो पाता। कुछ बीजों में अन्य सभी पोषक पदार्थों की उपस्थिति के बावजूद भ्रूण अल्पजीवी होता है। वही दूसरी तरफ कुछ पौधों में पूर्णतया परिपक्व और जननक्षम भ्रूण का विकास इनकी बीज प्रसुप्ति के दौरान होता है।
(b) अन्य कारक (other embroyonal reason) : विभिन्न बाहरी कारकों अथवा अन्य कारणों से कुछ पौधों के बीजों में हालाँकि भ्रूण पूर्णतया विकसित होता है फिर भी अंकुरण नहीं हो पाता। उदाहरण के तौर पर सलाद अथवा लेट्यूस के पौधे में भ्रूण पूर्णतया विकसित होता है परन्तु यह चारों तरफ से भ्रूणपोष द्वारा घिरा हुआ होता है जो मोटी भित्तियुक्त होता है। इस कारण भ्रूण बाहर नहीं आ पाता और बीज का अंकुरण नहीं होता। इसी प्रकार पोएसी कुल के अन्नोत्पादक पौधों जैसे गेहूँ में परिपक्व हो जाने के बावजूद भी बीज तुरन्त ही अंकुरित नही होते अपितु ये कुछ समय के बाद अर्थात इनके वृद्धि काल के आस पास अंकुरित हो पाते है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है , कि इनके परिपक्व बीजों में पहले भ्रूण पूर्णतया विकसित नहीं हो पाता होगा।

(iii) अंकुरण संदमक पदार्थो की उपस्थिति (presence of germination inhibitors)

वनस्पति शास्त्रियों द्वारा विभिन्न पौधों के बीजों के अध्ययन के दौरान विभिन्न बीजों से ऐसे रासायनिक पदार्थो को पृथक्ककृत किया गया है जो बीजों के अंकुरण की प्रक्रिया को अवरुद्ध करते है। परन्तु इसके अतिरिक्त इन बीजों से कुछ ऐसे रासायनिक पदार्थ भी स्त्रावित होते है , जिनकी वजह से बीजों के अंकुरण को बढ़ावा मिलता है। इस प्रकार के रासायनिक पदार्थो में टैनिन , फीनोलिक पदार्थ , कुछ कार्बनिक अम्ल , एल्कलाइड , जिबरैलिन और IAA आदि के नाम उल्लेखनीय है। अपनी प्रकृति के आधार पर उपर्युक्त पदार्थ बीजों के अंकुरण को कुछ पौधों में अवरुद्ध कर सकते है या कुछ अन्य पौधों में इसे बढ़ावा दे सकते है , जैसे टमाटर के बीजों में फेरुलिक अम्ल पाया जाता है , जो भ्रूण की वृद्धि को अवरुद्ध कर इसके बीजांकुरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
इसी प्रभाव जैंथियम के बीजों में यह देखा गया है कि इनकी प्रसुप्तावस्था में अंकुरण अवरोधक पदार्थ जो बीज चोल से बाहर नहीं निकल पाते , वे ऑक्सीजन की कमी के कारण भी अधिक प्रभावी होते है। यही कारण है कि जब बीजों को ऑक्सीजन की अधिक मात्रा उपलब्ध हो जाती है तो यह ऑक्सीजन संभवतः इन अंकुरण अवरोधक पदार्थो के ऑक्सीकरण अथवा निक्षालन में सहायक होती है। इन पदार्थो की कमी अथवा विलुप्त होने पर बीज का प्रसुप्तिकाल समाप्त हो जाता है और इसका अंकुरण हो जाता है।
(iv) विशेष प्रकार की प्रकाश आवश्यकताएँ (specific light requirements) : प्रकाश की दीप्ती काल और इसकी गुणवत्ता और तीव्रता भी अनेक पौधों में बीज के अंकुरण को प्रभावित करती है। इस प्रकार के बीजों को फोटोब्लास्टिक बीज कहा जाता है। जिन बीजों में प्रकाश की उपस्थिति के कारण बीजांकुरण को बढ़ावा मिलता है उनको धनात्मक फोटोब्लास्टिक बीज कहते है। इसके विपरीत प्रकाश के कारण जिन बीजों के अंकुरण की मात्रा कम हो जाती है , उनको ऋणात्मक फोटोब्लास्टिक बीज कहते है जैसे नाइजैला डेमेसेन्स और साइलेन आर्नेरिया। वही दूसरी तरफ धनात्मक फोटोब्लास्टिक बीजों में डिजीटेलिस परप्युरिया , चीनोपोडियम रूब्रम और केप्सैला बरसा पेस्टोरिस के नाम उल्लेखनीय है।
इसके अतिरिक्त प्रकाश के विभिन्न रंगों की तरंगे भी बीजान्कुरण को प्रभावित करती है। बोर्थविक और सहयोगियों (1962) के अनुसार लाल प्रकाश (650 nm) अंकुरण के लिए प्रभावी और सहायक होता है जबकि अवरक्त लाल प्रकाश (730 नैनोमीटर) बीज के अंकुरण को रोक देता है। इसके अतिरिक्त कुछ पौधों , जैसे – खीरा , लेट्यूस और टमाटर के बीज अंकुरण के परिक्षेप्य में प्रकाश के प्रति संवेदनशील नहीं होते और ये अंधकार और प्रकाश में समान रूप से अंकुरित हो सकते है।
इसी प्रकार लेमियोसी कुल के सदस्य सेल्विया की दो प्रजातियों में बीज की आयु भी इनकी प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता को प्रभावित करती है। अधिक पुराने अथवा जीर्ण बीज प्रकाश के प्रति अपनी संवेदनशीलता को शीघ्र ही खो देते है। इसके साथ ही कुछ अन्य पौधों के बीजों में जैसे रूमेक्स एसिटोसा में प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता एक वर्ष अथवा इससे भी अधिक अवधि तक विद्यमान रहती है।
प्रकाश अभिप्रेरित अंकुरण की क्रियाविधि (mechanism of light induced germination) : बीज अंकुरण की प्रक्रिया के प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता के लिए एक विशेष वर्णक फोइटोक्रोम उत्तरदायी होता है। वैसे तो यह वर्णक मुख्य रूप से पत्तियों में मौजूद होता है परन्तु इसकी उपस्थिति बीजों में भी मानी जाती है। फाइटोक्रोम की बीजों में उपस्थिति और मात्रा pH , तापमान , आर्द्रता , बीज की आयु और किस्म के अनुरूप प्रभावित होती है। इसके अतिरिक्त प्रकाश की गुणवत्ता और मात्रा का भी फाइटोक्रोम की बीज में उपस्थिति पर प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पौधों में विशेषकर बीजों में फाइटोक्रोम वर्णक के दो प्रारूप PR (phytochrome red ) और PFR (phytochrome far red) पाए जाते है। लाल रंग के प्रकाश में PR संभवत: PFR में रूपान्तरित हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप बीज के अंकुरण को बढ़ावा मिलता है। इसके विपरीत अवरक्त लाल प्रकाश में वर्णक PFR प्रारूप PR में रूपान्तरित हो जाता है। जिसकी वजह से अंकुरण नहीं हो पाता। किसी भी अवस्था में बीजों में  PFR और PR की मात्रा का अनुपात इनके अंकुरण की नियंत्रित करता है। यह अनुपात प्रकाश की मात्रा द्वारा निर्धारित होता है। लेट्यूस के पौधे में फाइटोक्रोम की मात्रा 30 से 40 प्रतिशत और नाइजैला में 3 प्रतिशत तक आवश्यक होती है। इस प्रकार लेट्यूस के बीजों को नाइजैला की तुलना में बीज अंकुरण के लिए अधिक मात्रा में प्रकाश की आवश्यकता होती है।
(v) निम्न तापक्रम की आवश्यकतायें (low temperature requirements) : अनेक पौधों जैसे एसर और सेब आदि के बीजों के अंकुरण के लिए एक निश्चित अवधि तक निम्न तापमान को आवश्यकता होती है। निम्न ताप के अंकुरण हेतु वांछनीय अवधि विभिन्न पौधों में अलग अलग हो सकती है। पौधों के बीजों के अंकुरण के लिए किया जाने वाला निम्न ताप उपचार वासन्तीकरण कहलाता है। इस प्रक्रिया में बीजों को अति न्यून तापक्रम (0.5 डिग्री सेल्सियस) पर एक निश्चित अवधि के लिए रखा जाता है। वासन्तीकरण की प्रक्रिया विभिन्न पौधों के बीजों की प्रसुप्ता भंग करने में अत्यंत प्रभावी होती है। इसकी वजह से अनेक पादप बीजों की प्रसुप्ता समाप्त हो जाती है , बीजों को पानी में भिगोकर निम्न तापमान पर रखने की प्रक्रिया को पूर्व शीतलीकरण भी कहते है। तापक्रम का असर विभिन्न प्रकार से पाया गया है जैसे यदि एक ही प्रजाति के बीजों को निश्चित अवधि के लिए एक समान तापक्रम पर रखा जाए तो इनमें अंकुरण अधिक अनुपात में नहीं होता। सफल अंकुरण के लिए तापमान में 5 से 15 डिग्री सेल्सियस तक बदलाव की आवश्यकता होती है , जैसे अरबी के बीजों में यदि तापमान का परिवर्तन 10 डिग्री सेल्सियस हो तो इनमें अंकुरण का अनुपात लगभग 90% होता है
तापमान और प्रकाश का संयुक्त प्रभाव (combined effect of temperature and light) : अनेक पौधों , जैसे – गेंदा में बीज का अंकुरण केवल उच्च तापमान पर ही नहीं होता बल्कि इनको अंकुरण के लिए प्रकाश की आवश्यकता भी होती है परन्तु ये तापक्रम से अवश्य प्रभावित होते है। प्रकाश की उपस्थिति में निम्न तापमान पर भी बीजों का अंकुरण हो जाता है परन्तु अन्धकार अथवा प्रकाश की अनुपस्थिति में उस तापमान पर अंकुरण नहीं होता। इस प्रकार गेंदे के पौधों में बीजांकुरण के लिए निम्न तापमान के साथ प्रकाश की भी आवश्यकता होती है। इसी क्रम में एक अन्य उदाहरण लेपीडियम नामक पौधे की एक प्रजाति का लिया जा सकता है जिसके बीजों को बुवाई के दो दिन बाद यदि लाल प्रकाश से उद्भासित किया जाए और तापमान 15 से 25 डिग्री सेल्सियस तक हो तो बीजों का सफल अंकुरण हो सकता है।
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