जलसाही या समुद्री अर्चिन पाचन तंत्र के भाग और कार्य , digestive system of sea urchin in hindi श्वसन तन्त्र

जाने जलसाही या समुद्री अर्चिन पाचन तंत्र के भाग और कार्य , digestive system of sea urchin in hindi श्वसन तन्त्र ?

पाचन तन्त्र (Digestive system) :

सी अर्चिन का मुख जन्तु के मुखीय ध्रुव के मध्य में स्थित होता है । मुख एक लम्बी ग्रसनी या ग्रसिका में खुलता है जो उर्ध्वाधर रूप से अरिस्टोटल की लालटेन से निकलती है । ग्रसनी काट में पंचकोणीय दिखाई देती है तथा धागों की सहायता से लालटेन से जुड़ी रहती है । ग्रसिका नीचे की ओर घूम कर अकस्मात् ही फूल कर एक फूले हुए आमाशय में सतत रहती है। आमाशय में कोष समान थेले पाये जाते है । आमाशय एक कुण्डली बनाते हुए क्षैतिज रूप से कोरोना की भीतरी भित्ति के सम्मुख होता हुआ अपना पूरा परिपथ पूर्ण करते हुए अपने आप पर घूम कर आन्त्र में खुलता है। आन्त्र भी आमाशय की तरह घड़ी की सुई की दिशा में तरंगित रास्ता अपनाते हुए ऊपर की ओर उठकर संकरी मलाशय में सतत रहती है । आमाशय के प्रारम्भ में ही एक छोटी सीकम पायी जाती है तथा एक संकरी नलिका जिसे साइफन कहते हैं, आमाशय के दोनों सिरों को जोड़ती है। साइफन भीतर से पक्ष्माभों द्वारा आस्तरित होती है तथा यह उपमार्ग (bypass) या गटर की तरह कार्य करते हुए भोजन के साथ आये हुए अतिरिक्त जल की मात्रा को बाहर निकालता है। जिससे अमाशय व आन्त्र में पाचक रसों की सान्द्रता प्रभावित न हो व भोजन के पाचन की क्रिया पूर्ण हो सके।

जल संवहनी तन्त्र (Water vascular system) :

सी अर्चिन का जल संवहनी तन्त्र अन्य इकाइनोडर्म जन्तुओं की तरह ही होता है। यह निम्नलिखित संरचनाओं से मिलकर बना होता है।

  1. मुख्य जल वलय (Water ring) तंत्रिका वलय (nerve ring) के ऊपर तथा अरिस्टोटल की लालटेन के शिखर पर, रूधिर वलय (heamal ring) के नीचे तथा ग्रसनी को घेरते हुए उसके चारों ओर पायी जाती है।
  2. पांच छोटे तथा स्पंजी अंतरा अरीय (inter radial ) काय पाये जाते हैं। जिन्हें पोलियन आशय (Polliain vesicle) या टीडमान के काय (Tiedmann’s bodies) कहते हैं ।
  3. अश्मनाल (Stone canal) : वलय नाल के एक अन्तरार से अश्मनाल निकलती है तथा ऊर्ध्वाधर से ऊपर की ओर उठकर छलनी समान मेड्रिपोराइट से बाहर खुलती है। मेड्रिपोराइट से ही जल जल-संवहनी तन्त्र में प्रवेश करता है । अश्मनाल के साथ अक्षीय अंग (axial organ) तथा जनन स्टोलन (genital stolen) भी उपस्थित होती है। इकाइनस की अश्मनाल झिल्ली नुमा होती है इसमें अस्थिकाएँ (ossicles) नहीं पायी जाती है। अतः तारा मछली की तुलना में अश्मनाल कोमल होती है।
  4. अरीय नालें (Radial canals) : वलय नाल से प्रत्येक वीथि क्षेत्र के सम्मुख एक – एक अरीय नाल निकलती है इस प्रकार वलय नाल से कुल पांच अरीय नालें निकलती है। प्रत्येक अरीय नाल चर्वणक उपकरण के रोटुला के नीचे नीचे चलते हुए अरिस्टोटल की लालटेन के किनारे से होते हुए पेरिस्टोम की भीतरी सतह के सहारे अरीय नाल से एक एकल शाखा निकलती है जो दो बड़े स्पर्शक समान मुखीय पादों (buccal podia ) में जाती है। फिर यह अरीय नाल अपनी तरफ के रेडियस पर उपस्थित ऑरिकल्स के मेहराव के नीचे से गुजरते हुए ऊपर की ओर उठकर अरीय तंत्रिका रज्जू के सम्पर्क में तथा कवच की आन्तरिक सतह के साथ होती हुई वीथि खांच के मध्य से गुजर कर अन्त में ऑक्युलर प्लेट पर उपस्थित अन्तस्थ स्पर्शक में समाप्त हो जाती है।
  5. अनुप्रस्थ या पार्श्व नालें (Tansverse or lateral canals) : प्रत्येक अरीय नाल से कई अनुप्रस्थ या पार्श्व नालें निकल कर एक पत्तीनुमा पतली भित्ति के बने आशय, जिसे तुम्बा या एम्पुला (ampulae) कहते है में खुलती है। अत: इन्हें पदीय नाल (podial canal) भी कहते हैं। प्रत्येक अरीय नाल में दायें व बायें दोनों और पार्श्व नालों की एक-एक पंक्ति पायी जाती है। ये नालें सांतरित विन्यास (staggered arrengement) प्रस्तुत करती है अर्थात् दांये व बायें ओर की नालें आमने-सामने नहीं होती है। इसी तरह सभी पार्श्व नालों की लम्बाई भी एक समान नहीं होती है। लम्बी व छोटी नालों में एकान्तरण पाया जाता है । प्रत्येक तुम्बिका या एम्पुला दो नालों द्वारा अपनी ओर के नाल पाद से जुड़ी रहती है। ये नालें सम्बन्धित वीथि प्लेट में उपस्थित युग्मित छिद्रों में होकर नाल पाद तक जाती है।

जल संवहनी तन्त्र मुख्य रूप से द्रव स्थैतिक दाब के माध्यम से गमन में सहायक होता है । जब गमन करना होता है तो एम्पुला सिकुड कर इसमें भरे तरल को नाल पाद में धकेलती है। नाल पाद में अतिरिक्त जल की मात्रा आ जाने से यह लम्बा होकर कंटिकाओं से आगे निकल कर सतह के सम्पर्क में आ जाता है व सतह पर चिपक जाता है। व तारा मछली की तरह गमन करता है। पोलियन आशय अमीबोसाइट्स का निर्माण करते हैं।

रक्त परिसंचरणतन्त्र (Blood vascular system ) :

सी अर्चिन में वास्तविक परिसंचरण तन्त्र नहीं पाया जाता है। यहाँ दो तन्त्र मिलकर रक्त परिसंचरण का कार्य करते हैं (i) रूधिर तन्त्र ( haemal system) (ii) परिरूधिर तन्त्र (perihaemalsystem) ।

परिरूधिर तन्त्र (Perihaemal system) : इकाइनस में इसकी उत्पत्ति प्रगुहा (coclom) से होती है। इसके प्रगुहीय स्थान अत्यन्त समानीत व असतत होते हैं। यदि हम लालटेन की प्रगुहा को परिरूधिर वलय कोटर (perihaemal ring sinus) माने तो यह उपस्थित हो सकती है अन्यथा यह अनुपस्थित होती है। पांच परिरूधिर अरीय वाहिकाएँ (perihaemal radial vessels) पायी जाती है जो मुखीय व अपमुखीय सतह पर अन्ध रूप से समाप्त हो जाती है। ये वाहिकाएँ प्रत्येक अरीय जल नाल (radial water canals) के नीचे उपस्थित रहती है। अक्षीय कोटर (axial sinus) जो अक्षीय अंग के चारों तरफ पायी जाती है, मुखीय सिरे पर अन्ध रूप से समाप्त हो जाती है। जबकि अपमुखी सतह पर यह मेड्रिपोरिक नाल (medriporic canal ) में खुलती है तथा अपमुखी कोटर से नहीं जुड़ती है।

रूधिर या अन्तराली तन्त्र (Haemal or Lacunar system): इस तंत्र में सबसे पहले परिमुखीय रूधिर वलय (circum oral haemal ring) पायी जाती है जो ग्रसिका को घेरे रहती है तथा जल संवहनी वलय के नीचे स्थित होती है। इस परिमुखीय रूधिर वलय से पांच अरीय रूधि र कोटर निकल कर अरीय तंत्रिका तथा अरीय जल संवहनी नाल के मध्य होती हुई अपमुखी सह पर अन्ध रूप से समाप्त हो जाती है।

अक्षीय अंग (axial organ) में एक अक्षीय जालक (axial plexus ) पाया जाता है। ऐसे है एक अपमुखी रूधिर वलय (aboral haemal ring) से धागे समान संरचनाएँ निकल कर जनन अंगों तक जाती है। मुखीय वलय से एक स्पष्ट जठर आंन्त्रीय तन्त्र पाया जाता है जो मुखीय वलय से निकलता है। इसमें दो मुख्य सीमान्तीय (marginal) चेनल्स सम्मिलित होती है। एक आन्तरिक या अध वाहिका है जो साइफन के सहारे सहारे चलती है तथा एक बाहरी या पृष्ठ वाहिका आन्त्र के दूसरी ओर तरंगित रूप से पायी जाती है।

श्वसनतन्त्र (Respiratory system) :

श्वसन व उत्सर्जन की क्रिया सम्पूर्ण शारीरिक सतह द्वारा सम्पन्न होती है। श्वसन मुख्य रूप से शरीर में उपस्थित दस छोटे, घने, खोखले व शाखित परिमुखीय क्लोमों (gills) द्वारा होता है जो मुख को घेरे रहते हैं। अरिस्टोटल की लालटेन के शीर्ष पर स्थित पांच दन्त कोष (dental sac ) आन्तरिक क्लोमों की तरह कार्य करते हुए श्वसन क्रिया में भाग लेते हैं व परिआन्तरांग गुहा को ऑक्सीजन पहुँचाते हैं। नाल पाद व साइफन भी श्वसन क्रिया में सहायक होते हैं।

तंत्रिका तन्त्र (Nervous system) :

समुद्री अर्चिन में तंत्रिका तन्त्र सुविकसित नहीं होता है। इसके तंत्रिका तन्त्र में हनुउपकरण (jaw apparatus) के भीतर मुख के चारों ओर परिमुख तंत्रिका वलय (cirum oral nerv ring) पायी जाती है। इस तंत्रिका वलय से पांच अरीय तंत्रिकाएँ निकलती है। प्रत्येक अरीय तंत्रिका अपनी-अपनी तरफ की जल संवहनी अरीय नाल के साथ-साथ चलती हुई अन्तस्थ स्पर्शक (terminal tentacle) तक जाती है तथा अन्तस्थ स्पर्शक के शीर्ष पर तथा कथित नेत्र का निर्माण करती है। इनमें उपस्थित वर्णक कोशिकाओं के कारण इन्हें नेत्र समान संरचनाएँ माना गया था। इन्हीं अरीय तंत्रिकाओं से शाखाएँ निकल कर नाल पादों, स्फीरिडिया, वृन्त पाद या पेडिसिलेरिया तथा कटिकाओं को जाती है। इन सभी संरचनाओं पर तंत्रिकीय नियंत्रण होता है।

समुद्री अर्चिन में अधोतंत्रिका तंत्र (hyponcural) व प्रगुहीय तंत्रिका तन्त्र (coelomic nervous system) अल्प विकसित होता है। अपमुखीय या बहितंत्रिका तन्त्र अनुपस्थित होता है। समुद्री अर्चिन में विशिष्ठ संवेदांगों का अभाव होता है।

जनन तन्त्र (Reproductive system) :

समुद्री अर्चिन में नर व मादा पृथक-पृथक होते हैं परन्तु इनमें लैंगिक विभेदन नहीं पाया जाता है। देहगुहा के अपमुखीय भाग में अन्तर अरीय स्थान में पांच बड़े पिण्ड रूपी जननांग पाये जाते हैं। ये जननांग मजबूत आंत्रयोजनियों (mesenteries) द्वारा मजबूती से अपने नियत स्थान पर स्थित रहते हैं।

परिपक्व हाने पर ये जननांग अत्यधिक पालिदार व बहुत बड़े हो जाते हैं। मादा में परिक्व अण्डाशय पीले भूरे रंग के दिखाई देते हैं जबकि परिपक्व वृषण गुलाबी सफेद रंग के दिखाई देते हैं। प्रत्येक जनन ग्रन्थि अपुमुखीय सतह पर एक छोटी जनन वाहिका में सतत रहती है, जो एपिकल तन्त्र की जननीय प्लेट पर उपस्थित एक जनन छिद्र से बाहर खुलती है। यह जानना दिलचस्प होगा की समुद्री अर्चिन के परिपक्व जननांगों को कच्चे या भून कर खाया जाता है। आज भी भूमध्य सागरीय व दक्षिणी अमेरिका में इन्हें भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है।

निषेचन (Fertilization) :

निषेचन बाह्य, समुद्री जल में होता है। परिपक्व अण्डाणु व शुक्राणु जल में विसर्जित कर दिये जाते हैं। जैसा की पूर्व में बताया जा चुका है कि समुद्री अर्चिन समूह में निवास करते हैं अतः अण्डाणु व शुक्राणु आस-पास ही विसर्जित किये जाते हैं अतः पूंछ युक्त शुक्राणु तैरते हुए अण्डाणु तक पहुँच कर उसे निषेचित करते हैं।

परिवर्धन (Development) :

प्रारम्भिक अवस्था में विदलन त्वरित, पूर्णभंजी तथा समान प्रकार की होती है। प्रारम्भिक परिवर्धन तारा मछली के समान ही होता है। परिवर्धन अप्रत्यक्ष होता है अर्थात् लारवा अवस्था पायी जाती है। गेस्टुला भवन के उपरान्त एक छोटा अर्द्धपारदशी द्विपार्श्व, मुक्त जीवी लारवा का विकास होता है। इकाइनस का लारवा इकाइनोप्लूटियस लारवा ( echinopluleus) कहलाता है। इसमें अनेक लम्बवत् केल्केरियाई छड़ों द्वारा आलम्बित भुजाएँ पायी जाती है। यह लारवा स्वतन्त्र रूप से तैरते हुए छोटे-छोटे समुद्री जीवों को खाता है। 5 से 6 सप्ताह में यह लारवा कायान्तरित होकर छोटे, गोलाकार, वयस्क सी अर्चिन का निर्माण करता है।

प्रश्न (Questions)

लघुत्तरात्मक प्रश्न

  1. इकाइनस का वर्गीकरण लिखिये ।
  2. इकाइनस कहाँ-कहाँ पाया जाता है।
  3. इकाइनस के चर्वण उपकरण को क्या कहते हैं व क्यों ?
  4. इकाइनस में कितने प्रकार के वृन्त पाद पाये जाते हैं ? उनके नाम लिखिये।
  5. इकानस में कितने व किस प्रकार के क्लोम पाये जाते हैं ?
  6. इकाइनस के जल संवहनीतन्त्र की विशेषताएँ लिखिये।
  7. इकाइनस के जननांग कैसे होते हैं व क्या विशेषता होती है।
  8. इकाइनस के लारवा का क्या नाम है व इसकी विशेषताएँ बताइये ।

दीर्घउत्तरात्मक प्रश्न

  1. इकाइनस का वर्गीकरण बताते हुए इसके आवास एवं स्वभाव के बारे में बताईये ।
  2. इकाइनस की बाह्य संरचना का वर्णन कीजिये ।
  3. इकाइनस में पाये जाने वाले अरिस्टोटल के लालटेन की संरचना व कार्य समझाइये।
  4. इकाइनस के जल संवहनी तन्त्र का वर्णन कीजिये ।
  5. इकाइनस में प्रजनन, निषेचन, परिवर्धन व लारवा पर टिप्पणी लिखिये ।