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कॉकरोच का पाचन तंत्र मुख गुहा एवं आहार नाल digestive system of cockroach in hindi mouth

पढ़िए जीव विज्ञान में कॉकरोच का पाचन तंत्र मुख गुहा एवं आहार नाल digestive system of cockroach in hindi mouth ?

बाह्य कंकाल (Exoskeleton)

कॉकरोच का सम्पूर्ण शरीर मोटी, दृढ़, काइटिनी क्यूटिकल से ढका रहता है जो इसका बाह्य कंकाल बनाती है। शरीर के प्रत्येक खण्ड का बाह्य कंकाल चार प्लेटनुमा संरचनाओं का बना होता है जिन्हें स्क्ले राइट्स (sclerites) कहते हैं। इनमें से पृष्ठ तल की तरफ पाये जाने वाले स्क्ले राइट्स को टरगम (tergum), अधर तल की तरफ पाए जाने वाले स्क्ले राइट्स को स्टरनम (ternum) तथा पार्श्व में पाये जाने वाले स्क्लेराइट्स को प्लूरा (pleura) कहते हैं। प्रत्येक खण्ड के स्क्लेराइट्स आपस में तथा आगे पीछे के खण्डों की स्केलेराइट्स से लचीली झिल्लियों द्वारा जुड़े रहते हैं, इन्हें सन्धिकारी कलाएँ (arthrodial membranes) कहते हैं। सिर में पायी जाने वाली कंकालीय प्लेटों का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। वक्ष तथा उदर खण्डों में स्क्लेराइट्स स्पष्ट होते हैं। वक्ष भाग में टरगम बड़ी व मोटी होती है। पूर्ववक्ष (prethorax) की टरगम काफी बड़ी हाती है व इसे प्रोनोटम (pronotum) कहते हैं उदर के खण्डों की स्क्ले राइट्स पतली होती है। कॉकरोच के उदर में 10 टरगा (terga) पायी जाती है। नर व मादा दोनों में आठवीं तथा नवीं टरगा, सातवीं टरगम से ढ़की रहती है। दसवीं टरगम पीछे की तरफ द्विपालित होती है। पांचवीं तथा छठी टरगा के बीच की सन्धि कलाओं पर एक-एक जोड़ी गन्ध ग्रन्थियाँ (stink-glands) पायी जाती हैं। उदर के अधर तल पर पायी जाने वाली स्क्लेराइट्स स्टरनम कहलाती हैं। नर कॉकरोच में 9 तथा मादा में केवल सात स्टरना स्पष्ट दिखाई देते हैं। मादा की सातवीं स्टरनम बड़ी व नौकाकार होती है तथा यह आठवीं तथा नवीं स्टरना को ढके रखती है। आठवीं तथा नवीं स्टरना गाइनेट्रियम (gynatrium) नामक कक्ष बनाती है जिसके पश्च भाग को ऊथीकल कक्ष (oothecal chamber) कहते हैं।

अन्तःकंकाल (Endoskeleton) : क्यूटिकल न केवल शरीर का बाह्य कंकाल बनाती है बल्कि कई स्थानों पर भीतर प्रवेश कर अन्त:कंकाल भी बनाती है। क्यूटिकल अग्रआंत्र, पश्च आंत्र श्वास नलिकाओं तथा जनन वाहिकाओं का भी अस्तर बनाती है। क्यूटिकल के अन्तर्वलन से बनने वाली कंकाली संरचनाएँ एपोडीम्स या आन्तरवर्ध (apodemes) कहलाते हैं। ये वक्ष एवं उदर में पाये जाते हैं तथा पेश्यिों को जुड़ने का स्थान उपलब्ध कराते हैं। सिर में क्यूटिकल का अन्तर्वलन एक तम्बू के आकार की अन्त:कंकाली संरचना का निर्माण करता है जिसे मस्तिष्क छदि या टेन्टोरियम (tentorium) कहते हैं। देह भित्ति या अध्यावरण (Body wall or integument)

कॉकरोच की देह भित्ति तीन स्तरों की बनी होती है

  1. क्यूटिकल (Cuticle)
  2. अधिचर्म (Hypodermis)
  3. आधारी कला (Basement membrane)
  4. क्यूटिकल (Cuticle) : क्यूटिकल सबसे बाहरी कठोर, मोटी व निर्जीव स्तर होती है। अधिचर्मी कोशिकाएँ क्यूटिकल का स्रावण करती हैं। औतिकी रूप से क्यूटिकल तीन स्तरों की बनी होती है, जो क्रमशः अधिक्यूटिकल (epicuticle), बहिःक्यूटिकल (exocuticle) तथा अन्त:क्यूटिकल (endocuticle) कहलाती है। अधिक्यूटिकल (epicuticle) सबसे बाहरी एवं पतला स्तर होता है। यह लगभग 24 मोटी होती है तथा काइटिन रहित प्रोटीन की बनी होती है। इसके ऊपर बाहर की तरफ मोम की एक महीन परत पायी जाती है, जो इसे जल अवरोधी बनाती है। जगह-जगह इसमें संवेदी शूक पाये जाते हैं। इन शूकों का स्रावण अधिचर्म में उपस्थित शूकजनक कोशिकाओं (trichogen cells) द्वारा किया जाता है। बहिक्यूटिकल (exocuticle) मध्यवर्ती स्तर होता है, यह 10 से 204 तक मोटा होता है। इसी परत में मेलानिन (melanin) नामक वर्णक पाया जाता है। अन्त:क्यूटिकल (endocuticle) सबसे भीतरी तथा सबसे मोटी परत होती है। यह 20 से 30 u मोटी होती है। बहि तथा अन्त: क्यूटिकल में प्रोटीन्स तथा काइटिन की एकान्तरित समानान्तर परतें पायी जाती हैं। प्रोटीन्स में मुख्यतः स्क्ले रोप्रोटीन (scleroprotein) होते हैं। रिचर्डस (Richards) तथा एण्डरसन (Anderson) ने इलैक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा अध्ययन कर यह बताया है कि बहि तथा अंत:क्यूटिकल में अनेक खोखली सर्पिलाकार कुण्डलित नलिकाएँ पायी जाती हैं, जिन्हें रन्ध्रनाल (pore canals) कहते हैं। इन रन्ध्रनालों की संख्या बारह लाख प्रति वर्ग से.मी. होती है। ये रन्ध्रनालें बाहर की तरफ सूक्ष्म छिद्र द्वारा खुलती है। इन रन्ध्रनालों में सम्भवतः लवण का घोल भरा रहता है। इन नालों का वास्तविक कार्य अज्ञात है। परन्तु ऐसा माना जाता है कि ये नाले क्यूटिकल की । पारगम्यता तथा लचीलेपन को प्रभावित करती हैं।
  5. अधोचर्म (Hypodermis) : यह स्तम्भाकार कोशिकाओं की इकहरी परत की बनी होती है। इसकी अनेक कोशिकाएँ ग्रन्थिल कोशिकाओं में रूपान्तरित हो जाती हैं, जो क्यूटिकल का स्रावण करती हैं तथा त्वक पतन (moulting) के समय पाचक एन्जाइमों का प्रावण करती है। अधोचर्म में कुछ बड़ी व अनियमित आकार की कोशिकाएँ भी पायी जाती हैं जिन्हें पीताणु (oenocytes) कहते हैं। ये कोशिकाएँ संभवतः मोम का प्रावण करती हैं जिसे क्यूटिकल की बाहरी सतह पर स्थानान्तरित कर दिया जाता है।
  6. आधारी कला (Basement membrane) : अधोचर्म के ठीक नीचे पतली चपटी कोशिकाओं की एक झिल्ली पायी जाती है, जिस पर अधोचर्म टिकी रहती है उसे आधारी कला कहते हैं।

देहगुहा (Body Cavity) : कॉकरोच में एक बड़ी देहगुहा पायी जाती है, जिसमें इसके आन्तरांग निलम्बित रहते हैं, परन्तु यह वास्तविक देहगुहा या सीलोम (ceolom) नहीं होती है क्योंकि इसके चारों तरफ पेरिटोनियम का आवरण नहीं पाया जाता है। यह गुहा ऊत्तक द्रव्य एवं रक्त से भरे बड़े-बड़े पात्रों (sinuses) के समेकन से बनी एक द्वितीयक गुहा होती है अतः इसे हीमोसील (haemcoel) कहते हैं। वास्तविक सीलोम तो केवल जनदों में उपस्थिति गुहा के रूप में पायी जाती है।

वसाकाय (Fat bodies) : हीमोसील के अधिकांश भाग में एक पालिदार श्वेत ऊत्तक फैला रहता है। यह ऊत्तक मीजोडर्म से विकसित होता है। इसे वसाकाय या कारपोरा एडीपोसा (corpora adiposa) कहते हैं। यह विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं का बना होता है तथा इसमें वसा, प्रोटीन एवं ग्लाइकोजन आदि का संचय किया जाता है। वसा काय में पायी जाने वाली प्रमुख कोशिकाएँ निम्न प्रकार हैं

(i) पोष कोशिकाएँ (Trophocytes) : ये संख्या में सबसे अधिक होती है तथा इनमें वसा, ग्लाइकोजन तथा प्रोटीनों का संचय होता है।

(ii) पीताण (oenocytes) : ये कोशिकाएँ सम्भवतः त्वचा निर्मोचन के समय नयी क्यूटिकल  के निर्माण हेतु लिपोप्रोटीन (lipoprotein) तथा मोम का प्रावण करती है।

(iii).माइसेटोसाइट (Mycetocytes) : इनमें सहजीवी अन्त:कोशिकीय जीवाणु या बैक्टीरॉयड (bacterioids) भरे रहते हैं। हैनरी व ब्लॉक (Henry and Block) के अनुसार ये जीवाणु अमीनों अम्लों के संश्लेषण में सहायक होते है। कैलर (Keller) का मत यह है कि ये जीवाणु सम्भवत. यूरिक अम्ल को तोड़कर उसकी नाइट्रोजन को पुनः उपयोग के लिए उपलब्ध कराते हैं।

(iv) यूरेट कोशिकाएँ (Urate cells) : ये कोशिकाएँ उत्सर्जन से सम्बन्धित होती हैं। ये कोशिकाएँ जीवन पर्यन्त हीमोलिम्फ में से नाइट्रोजन युक्त उत्सर्जी पदार्थों को ग्रहण कर यूरिक अम्ल के रूप में संचित करती रहती हैं। इस प्रकार के उत्सर्जन को संचायक उत्सर्जन (storage excretion) कहते हैं।

पाचन तन्त्र (Digestive System)

कॉकरोच का पाचन तन्त्र मुख, मुख गुहा एवं आहार नाल से मिलकर बना होता है।

मुख (Mouth) : सिर की अधर सतह पर मुख पाया जाता है जो मुखांगों (mouth parts) द्वारा घिरा रहता है। कॉकरोच के सर्वाहारी (omnivorous) होने के कारण मुखांगों में कोई विशिष्टता नहीं होती है फिर भी ये कुतरने, चबाने व लेहन के लिए उपयुक्त होते हैं। कॉकरोच में निम्न मुखांग पाये जाते हैं-लेब्रम, मेन्डिबल, प्रथम जोड़ी जम्भिका पाद, द्वितीय जोड़ी जम्भिका पाद या लेबियम तथा अधोग्रसनी। इनका विस्तृत वर्णन पूर्व में, सिर के उपांगों में किया जा चुका है।

मुख गुहा (Mouth Cavity) : मुखांगों से घिरी एक छोटी गुहा पायी जाती है जिसे मुखगुहा कहते हैं। इसका अधिग्रसनी से पूर्व का भाग सिबेरियम (cibarium) तथा पिछला भाग लालाशय (salivarium) कहलाता है। मुखगुहा में भोजन को पीसा जाता है तथा उसके साथ लार मिलाई जाती

आहारनाल (Alimentary Canal) : मुखगुहा एक लम्बी कुण्डलित नलिका कार संरचना में खुलती है जिसे आहारनाल कहते हैं। इसे तीन प्रमुख भागों में बांटा जा सकता है

  1. अग्र आन्त्र (Foregut or Stomodaeum)
  2. मध्य आन्त्र (Midgut or Mesenteron)
  3. पश्च आन्त्र (Hindgut or Proctodaeum)
  4. अग्र आन्त्र (Foregut or Stomodaeum): यह आहारनाल का सबसे अग्र भाग होती है तथा भ्रूणीय एक्टोडर्म से विकसित तथा क्यूटिकल द्वारा आस्तरित होती है। यह निम्नलिखित भागों से मिलकर बनी होती है- (i) ग्रसनी (ii) ग्रासनाल (iii) अन्नपुट या क्रॉप (iv) पेषणी।।

सनसनी (Pharynx): मुखगुहा सिर में ग्रसनी में खुलती है। यह एक खड़ी नलिका के रूप में पायी जाती है जो पीछे मुड़कर ऑक्सीपिटल रन्ध्र के समीप ग्रासनाल में खुलती है। ग्रसनी की दीवार अनेक प्रसार पेशियों (dialatory muscles) द्वारा सिर के अन्त:कंकाल मस्तिष्क छदि या टेन्टोरियम से जुड़ी रहती है।

(ii) ग्रासनाल (Oesophagus) : यह एक पतली नलिकाकार संरचना होती है जो ग्रीवा में होती हुई वक्ष भाग में प्रवेश करती है। वक्ष में यह थैलीनुमा अन्नपुट या क्रॉप में खुलती है। इसकी दीवार भीतर से अत्यधिक भंजमय (folded) होती है।

(iii) अन्नपुट (Crop) : यह एक पतली भित्ति की नखाकार, फूली हुई व थैलेनुमा संरचना होती है। यह उदर भाग में कुछ दूर तक फैली रहती है। इसकी दीवार भंजमय व लचीली होती है।

  • पेषणी (Gizard) : अन्नपुट पीछे की तरफ एक संकरी, मोटी भित्ति वाली, पेशीय एवं शंकुरूपी संरचना में खुलती है, जिसे पेषणी (gizzard) या प्रोवेन्ट्रिकुलस (proventriculus) कहते हैं। पेषणी की दीवार मोटी एवं कठोर होती है तथा इसमें वर्तुल पेशी स्तर बहुत अधिक विकसित होता है। इसलिए यह एक गांठ जैसी संरचना दिखाई देती है। संरचना की दृष्टि से यह आहारनाल का सबसे जटिल भाग होता है। इसमें भोजन को पीसा जाता है। इस कार्य के लिए पेषणी का अग्रभाग उपयुक्त होता है तथा इसे आर्मेरियम (armarium) कहते हैं। आर्मेरियम की भित्ति पर बहुत मोटी क्यूटिकल का स्तर पाया जाता है तथा सम्पूर्ण भित्ति छ: अनुलम्ब भंजों (folds) में उठी होती है। आर्मेरियम के अग्रभाग में प्रत्येक भंज के स्वतन्त्र किनारे पर क्यूटिकल अत्यधिक मोटी व नुकीली होकर दांत नमा संरचनाओं का निर्माण करती है। पिछले भाग में ये भंज चौड़े होकर कोमल गद्दी नुमा संरचना का निर्माण करते हैं जिन्हें पदपल्प (pulvilus) कहते हैं| इनमें पीछे की ओर दिष्ट लम्बे रोम पाये जाते हैं, जो मिलकर एक जालनुमा संरचना बनाते हैं तथा भोजन का छानकर आगे जाने देते हैं। पीछे की तरफ, पेषणी, एक लम्बी नलिका के रूप में मध्य-आंत्र में खुल जाती है इसे पचाय कपाट या स्टोमोडियल वाल्व (stomodaeatvalve) कहते हैं। यह अपने ही ऊपर उलट कर दोहरी भित्ति की संरचना का निर्माण करता है।
  1. मध्य आन्त्र (Midgut or Mesenteron) : यह संकरी एवं समान मोटाई की कोमल नलिका होती है। इसका अग्रभाग जो मुखपथीय कपाट को घेरे रहता है, कार्डिया (cardia) कहलाता है। कार्डिया के अग्र सिरे से 8 लम्बे, पतले अंगुली समान नलिकाकार अन्ध प्रवर्ध निकले रहते हैं जिन्हें यकृत अन्धनालें (hepatic caeca) कहते हैं। यकृत अन्धनालों के दूरस्थ किनारे बन्द होते हैं। मध्य आन्त्र को वेन्ट्रिकुलस (ventriculus) भी कहते हैं। इसका भीतरी स्तर भ्रूणीय एण्डोडर्म से बनी स्तम्भाकार ग्रन्थिल उपकला कोशिकाओं का बना होता है। पश्च भाग में पायी जाने वाली कोशिकाओं में छोटे-छोटे रसांकुर जैसे उभार पाये जाते हैं तथा ये कोशिकाएँ अवशोषी होती है। मध्यआंत्र में क्यूटिकल का अस्तर तो नहीं पाया जाता है परन्तु एक महीन पारदर्शी परिपोष या पेरिट्रॉफिक झिल्ली (paritrophic membrane) का आवरण पाया जाता है। यह आवरण मध्यआंत्र की कोशिकाओं द्वारा स्रावित किया जाता है तथा यह मध्यआंत्र की कोमल भित्ति को रगड आदि से बचाती है। मध्यआंत्र की भित्ति में एपीथीलियम के बाहर वर्तल एवं अनुलम्ब पेशी स्तर पाये जाते है मध्य आन्त्र के पश्च सिरे पर मैल्पीजियनी नलिकाएं (malpighian tubules) पायी जाती है।
  2. पश्य आन्त्र (Hindgut or Proctodaeum): मध्य आंत्र से गुदा द्वार तक फैला हुआ भोप भाग पश्च आंत्र कहलाता है। अग्रआंत्र की तरह यह भी भ्रणीय एक्टोडर्म से विकसित होती है तथा क्यूटिकल द्वारा आस्तरित होती है। इसे तीन भागों में विभेदित किया जा सकता है- (1) क्षुद्रान्त्र या इलियम (ileum) (ii) बृहदांत्र या कोलन (colon) (iii) मलाशय (rectum)

(i) क्षुद्रात्र (Ileum): यह एक छोटी संकरी नलिका होती है। इसके पिछले सिरे पर छ: छोटी-छोटी त्रिभुजाकार पालियाँ पायी जाती है जिन पर क्युटिकल की कटिकाएँ पायी जाती है। ये पालियाँ एक प्रकार की अवरोधनी (sphinctor) का कार्य करती हैं।

(ii) वृहदान्त्र (Colon) : यह अपेक्षाकृत अधिक लम्बी व मोटी होती है। यह कुण्डलित होकर हीमोसील में व्यवस्थित रहती है। इसकी दीवार में भंज पाये जाते हैं परन्तु कटिकाओं का अभाव होता है।

  • मलाशय (Rectum): यह आहारनाल का सबसे अन्तिम भाग होता है। यह छोटा व फूला हुआ होता है। इसकी दीवार पर भीतर की तरफ छ: अनुलम्ब भंज पाये जाते हैं जिन्हें मलाशयी पैपिली (rectal papillae) कहते हैं। इन पर एपीथीलियम मोटी व क्यूटिकल महीन होती है। यह मल से जल का अवशोषण करती है। मलाशय अपने पश्च सिरे पर गुदाद्वार द्वारा बाहर खुलता है।

लार ग्रन्थि पुंज (Salivary Gland Complex) : कॉकरोच के वक्ष भाग में ग्रासनाल के दोनों तरफ एक-एक लार ग्रन्थि पायी जाती है। प्रत्येक ग्रन्थि एक द्विपालित, कटी-फटी पत्तै समान या अंगूर के गुच्छों की तरह अनेक स्रावी पालियों की बनी होती है। स्रावी पालियाँ महीन नलिकाओं द्वारा परस्पर जुड़ी रहती है। इन स्रावी पालियों में दो प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती है- (i) जाइमोजनी कोशिकाएँ (zymogen cells) तथा (ii) डक्टूयल धारी कोशिकाएँ (ductule containing cells)। कोशिकाएँ लार का नावण करती हैं, लार में जाइमेज (zymase) एन्जाइम तथा श्लेष्म पदार्थ पाये जाते हैं। ग्रन्थिल पालियों से छोटी-छोटी नलिकाएँ मिलकर एक बड़ी लार वाहिका का निर्माण करती है। लार को संचित करने के लिए एक लम्बी अण्डाकार थैले नुमा संरचना पायी जाती है, जिसे आशय (reservoir) कहते हैं। प्रत्येक ग्रन्थि के साथ एक आशय पाया जाता है। आशय की भित्ति पतली व पारदर्शी होती है। प्रत्येक आशय से एक आशयी वाहिका निकलती है जो लार वाहिका के साथ मिलकर सह लार वाहिका (common salivary duct) का निर्माण करती है। यह अधिग्रसनी (hypopharynx) की अधर सतह पर खुलती है। लार वाहिकाओं तथा आशयी वाहिकाओं में क्यूटिकल के बने स्प्रिंगनुमा छल्ले पाये जाते हैं।

भोजन, भोजन ग्रहण एवं पाचन (Food, Feeding and Digestion)

भोजन : कॉकरोच एक सर्वआहारी प्राणी होता है। यह रोटी, कपड़ा, कागज, मांस, पुस्तकों की यहाँ जिल्द, मरे हुए कीड़े-मकोडे, चमडा, सरेस, आदि को भोजन के रूप में ग्रहण कर लेता है। यहाँ तक कि यह अपनी त्यागी हुई क्यूटिकल का भी भक्षण कर लेता है

भोजन ग्रहण : कॉकचलो समय अंगिकाओं से फर्श पर झाडू सा लगाता रहता है तथा गिकाओं की सहायता से भोजन खोजता है। खाद्य वस्तु मिल जाने पर अग्र टांगों तथा जम्भिकाओं द्वारा इसे पकड़ कर मैन्डिबलों के बीच में दिया जाता है। मेन्डिबल्स की सहायता से भोजन को छोटे-छोटे टुकड़ों में पीस लिया जाता है। मुखगुहा के लालाशय (salivarium) में भोजन के साथ लार मिलाई जाती है। लार में उपस्थित श्लेष्म पदार्थ भोजन को चिकना बनाता है तथा उसमें उपस्थित जाइमेज एन्जाइम स्टार्च का जलीय अपघटन कर देता है। चिकना भोजन आसानी से निगल कर ग्रसनी में भेज दिया जाता है।

पाचन : मुख गुहा से भोजन ग्रसनी तथा ग्रासनाल में होता हुआ अन्नपुट में पहुँच जाता है. ऐसा आहारनाल में उत्पन्न क्रमांकुचन गति (peristaltic movement) द्वारा होता है। अन्नपुट में भोजन की पाचन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। अन्नपुट में मध्य आंत्र से स्त्रावित पाचक रस भोजन के साथ मिलाये जाते हैं इसमें मुख्य रूप से कार्बोहाइड्रेट्स का पाचन होता है। अन्नपुट से क्रमांकुचन की गति द्वारा भोजन पेषणी में आता है, जहाँ पेषणी में उपस्थित क्यूटिकल से बनी दन्तिकाओं द्वारा भोजन को और महीन कणों में पीसा जाता है। पेषणी के पश्च भाग में उपस्थित पदपल्प (pulvilus) पर उपस्थित लम्बे-लम्बे शूकों की सहायता से भोजन को छानकर सूक्ष्म कणों को मुख पथीय कपाट (stomodael valve) में होकर मध्य आंत्र में भेज दिया जाता है। मध्य आंत्र की उपकला तथा यकृत अन्ध नलिकाओं द्वारा प्रावित एन्जाइम्स भोजन में मिलाये जाते हैं। इनमें प्रोटीन को पचाने वाले . ट्रिप्सिन प्रोटिएजेज तथा पेप्टीडेज (trypsin, proteases and peptidase), कार्बोहाइड्रेट को पचाने वाले एमाइलेज (amylase), माल्टेज व लेक्टेज (maltase and lactase), तथा वसा को पचाने वाले लाइपेज (lipase) एन्जाइम्स पाये जाते हैं। इस तरह उपरोक्त वर्णित एन्जाइम्स की सहायता से भोजन का पाचन पूर्ण हो जाता है।

मध्य आंत्र में ही पचे हुए भोजन का अवशोषण किया जाता है। अवशोषण, मध्य आंत्र के अलावा यकृत अन्धनालों तथा अन्नपुट की कोशिकाओं द्वारा भी किया जाता है। एबोट (Abbott) नामक वैज्ञानिक का मानना यह है कि अन्नपुट की कोशिकाएँ वसा का अवशोषण करती है। पचे । हुए भोजन का अवशोषण कर उसे विसरण द्वारा वसा कार्यों में भेज दिया जाता है जहाँ उन्हें संग्रहित कर लिया जाता है। बिना पचा भोजन पश्च आंत्र में चला जाता है। मलाशय में उपस्थित मलाशया पेपिला बिना पचे भोजन से जल का अवशोषण कर उसे शुष्क मल में, गोलिकाओं के रूप में बदल देते हैं तथा इन्हें गुदाद्वार द्वारा समय-समय पर शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। गुदाद्वार पर उपस्थित संकोचक पेशी (sphincter musle) मल त्याग की क्रिया का नियंत्रण करती है।

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