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पाचन क्या है , मानव का पाचन तंत्र (human digestive system in hindi) , ग्रसनी , आमाशय , पाचक ग्रंथियाँ
(human digestive system in hindi) मानव का पाचन तंत्र , पाचन क्या है , की परिभाषा किसे कहते है ? ग्रसनी , आमाशय , पाचक ग्रंथियाँ , मनुष्य के पाचन अंग कौन कौन से होते है , चित्र , नाम लिस्ट ?
पाचन (Digestion) : पाचन वह क्रिया है जिसमें भोजन के बड़े एवं जटिल अणुओं को सरल व घुलनशील अणुओं में तोड़ा जाता है जो आंत्र उपकला द्वारा आसानी से अवशोषित हो सके | पाचन मुख्यतः दो प्रकार का होता है –
- बाह्य कोशिकीय पाचन
- अन्त: कोशिकीय पाचन
- बाह्य कोशिकीय पाचन : जब भोजन का पाचन कोशिका के बाहर आहारनाल में होता है तो इसे बाह्यकोशिकीय पाचन कहते है | इसमें आहारनाल पूर्ण या अपूर्ण हो सकती है |
उदाहरण – मनुष्य , मछली , मेंढक आदि |
- अन्त: कोशिकीय पाचन : जब भोजन का पाचन कोशिका के अन्दर होता है तो इसे अन्त: कोशिकीय पाचन कहते है |
उदाहरण – अमीबा , पैरामिशियम आदि |
मनुष्य का पाचन तंत्र (human digestive system in hindi) : मनुष्य का पाचन तंत्र दो प्रमुख घटकों से बना होता है –
- आहारनाल
- पाचक ग्रंथियाँ
- आहारनाल : यह मुख से गुदा तक फैली लम्बी एवं कुंडलित लगभग 4.5m की होती है |
- मुख (mouth) : उपरी व नीचले होंठो से घिरा अर्द्धचन्द्राकार छिद्र मुख कहलाता है | मुख आगे की ओर मुख गुहिका में खुलता है | मुखगुहिका का ऊपरी भाग तालु कहलाता है , तालु के अधर तल पर एक पेशीय जिह्वा (पेशीय जीभ) पायी जाती है | जिस पर स्वाद कलिकाएँ होती है , स्वाद कलिकाओं द्वारा भोजन के स्वाद का ज्ञान होता है | मुख द्वार पर दो जबड़े होते है , ऊपरी जबड़ा अचल व निचला जबड़ा चल होता है | दोनों जबड़ो में दांत पाए जाते है , मनुष्य में दांत गर्तदन्ती , विषमदन्ती व द्विबार दन्ती होते है | व्यस्क मनुष्य में 32 दांत होते है , दांत चार प्रकार के होते है
- कृन्तक (I) = (इनसाइजक)
- रदनक (C) – canine = (क्रनाइन)
- अग्र चवर्णक (Pm) = (प्री मोलर)
- चवर्णक (m) = (मोलर)
प्रत्येक दांत के तीन भाग होते है –
- अस्थि के गर्त में – मूल
- मसूड़ों से घिरा मध्य भाग – ग्रीवा
- ऊपरी भाग – शिखर
मूल गर्त में सीमेंट द्वारा स्थिर रहता है , शिखर इनेमल द्वारा ढका रहता है जो शरीर का सबसे कठोर भाग होता है | दन्त कोशिकाएँ डेंटिन का स्त्राव करती है |
- ग्रसनी (oesphogas) : मुखगुहा के आगे का भाग ग्रसनी कहलाता है , यह मुख व ग्रसिका के मध्य स्थित होती है | इसके पश्च भाग में दो छिद्र घाटी द्वार व निगल द्वार होते है |
- ग्रसिका (phyrinx) : यह लगभग 25cm लम्बी होती है , इसकी भित्ति में निम्न स्तर पाए जाते है –
- बाह्य पेशीय स्तर
- श्लेष्मा स्तर
- अद्धश्लेष्मा स्तर
- सिरोसा
ग्रसिका भोजन को क्रमाकुंचन गति द्वारा ग्रसनी से आमाशय में पहुँचती है , श्वासनली में भोजन के प्रवेश को छांटी द्वार पर ढक्कन लगाकर रोका जाता है |
- आमाशय (stomach) : ग्रसिका के आगे पेशीय थैले के समान संरचना आमाशय कहलाता है | आमाशय के तीन भाग होते है –
- उपरी भाग – फर्डीयक
- निचला भाग – पाइलोरिक
कहलाता है | आमाशय में दो जठर ग्रंथियां पायी जाती है |
- जठर ग्रन्थि : यह जठर रस का स्त्राव करती है
- जठर निर्गम : यह श्लेष्मा का स्त्राव करती है | आमाशय की भित्ति श्लेष्मा उपकला की बनी होती है | जो स्वपाचन से बचाती है , आमाशय के सिरों पर स्थित अवरोधनियां भोजन निकास का नियंत्रण करती है | जठर ग्रंथियों में दो प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती है |
- जाइनोजन कोशिकाएँ : ये पेप्सिनोजन का स्त्राव करती है |
- अम्लजन कोशिकाएँ : ये HCl (हाइड्रो क्लोरिक अम्ल) का स्त्राव करती है | HCl भोजन के साथ प्रवेश करने वाले जीवाणुओं व अन्य रोगाणुओं को नष्ट करता है तथा भोजन को अम्लीय माध्यम प्रदान करता है |
- छोटी आंत्र (small intestine) : आमाशय के एक पाइलोरिक भाग से जुडी नलिका छोटी आंत्र कहलाती है | इसके तीन भाग होते है –
- प्रथम खण्ड U आकार का होता है , इसकी लम्बाई लगभग 25cm होती है , इस भाग को ग्रहणी कहते है |
- द्वितीय खण्ड लगभग 1m लम्बा तथा कुंडलित होता है जिसे सेजुनम कहते है |
- अन्तिम खण्ड 1.7m लम्बा कुंडलित भाग होता है इसे इलियम कहते है |
छोटी आंत्र की भित्ति में चार उत्तकीय स्तर होते है जिसमे अँगुली के समान रसांकुर पाये जाते है , रसाकुरो से पाचन एवं अवशोषण कारी सतह बढ़ जाती है | ग्रहणी की अधर श्लेष्मिका में कुंडलित ग्रंथियाँ पायी जाती है , जिन्हें ब्रुनर ग्रंथियाँ कहते है | रसांकुरो में कलश कोशिकाएँ व पैनेट कोशिकाएँ पायी जाती है |
- बड़ी आंत्र (large intestine) : आहारनाल का अन्तिम भाग बड़ी आंत्र कहलाता है | छोटी आंत्र व बड़ी आंत्र के संधि स्थल पर एक छोटा बंध कोश होता है जिसे कोलन कहते है | मनुष्य में यह अवशेषी अंग होता है | कोलन के सिरे पर अंगुली के समान प्रवर्ध पाया जाता है जिसे क्रामिरुपी परिशेषिका कहते है | बड़ी आंत्र का अन्तिम भाग मलाशय कहलाता है |
- गुदा (anus) : मलाशय गुदा में खुलता है , गुदा के चारो ओर दो प्रकार की अवरोधनियाँ पायी जाती है | बाह्य अवरोधनियाँ चिकनी पेशी से निर्मित होती है जबकि आन्तरिक अवरोधनियाँ रेखित पेशी से निर्मित होती है | आहारनाल की दिवार में ग्रसिका से मलाशय तक चार स्तर होते है –
- सिरोसा
- मस्कुलेरिस
- सबम्यूकोशा
- म्युकोशा
- पाचक ग्रंथियाँ (digestive glands)
- लार ग्रंथियाँ (salivary glands) : मनुष्य में तीन जोड़ी लार ग्रंथियां पायी जाती है –
- पेरोटीड
- सबमैक्सीलरी
- सबलिग्बल
इन लार ग्रंथियों के द्वारा स्त्रवित लार क्षारीय प्रकृति की होती है , लार में जल (H2O) , श्लेष्मा , सोडियम , क्लोरिन , फास्फेट , टायलीन , CO32- , लाइसोजाइम आदि पाये जाते है |
लार भोजन को लसलसा बनाने में सहायक है , लार में उपस्थित लाइसोजाइम भोजन में पाये जाने वाले जीवाणुओं को नष्ट करता है , टायलीन कार्बोहाइड्रेट के पाचन में सहायक है |
- अग्नाशय (pancreas) : यह आमाशय के समीप पत्ती के समान आकृति की ग्रन्थि है | यह अनेक पिण्डको द्वारा निर्मित होती है , यह एंजाइम युक्त अग्नाशयी रस स्त्रवित करती है | अग्नाशयी रस में एन्जाइम , जल , व बाइकार्बोनेट पाया जाता है | जो कार्बोहाइड्रेट , प्रोटीन के पाचन में सहायक अग्नाशय का अन्त: स्त्रावी भाग लैंगर हैन्स के द्वीप कहलाते है जिनमे एल्फा , बीटा , गामा कोशिकाएँ होती है जो हार्मोन स्त्रावित करती है |
- यकृत (liver) : यह शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि होती है , जिसका भार 1.2-1.5 Kg होता है | यकृत दाई व बायीं दो पालियों के रूप में होता है | दाई पाली बड़ी व बायीं पाली छोटी होती है | दायीं पाली के नीचे पित्ताशय स्थित होता है , इसमें पित्त का संचय होता है | पित्तवाहिनी पित्त को ग्रहणी में ले जाती है , यकृत पालियो का निर्माण यकृत कोशिकाओं द्वारा होता है जो पित्त रस स्त्रावित करती है |
यकृत के कार्य
- पित्त का निर्माण : यकृत पित्त का निर्माण करता है जो हल्का क्षारीय तरल होता है , पित्त में जल , पित्त लवण , पित्त वर्णक , वसीय अम्ल , सोडियम , फास्फोरस , क्लोरिन आदि होते है | इसमें कोई एंजाइम नहीं होता है , यह वसा के पायसीकरण एवम अवशोषण में सहायक है |
- उपापचय में महत्व : कार्बोहाइड्रेट , प्रोटीन व वसा के उपापचय में सहायक है | यकृत ग्लाइकोजन का संग्रह करता है | यकृत में ग्लूकोजेनसिस एवं ग्लुकोनियोजिनेसिस की क्रिया होती है | यकृत में प्रोटीन व यूरिया का संश्लेषण भी होता है |
- संचय का कार्य : विटामिन , कॉपर , जिंक , कोबाल्ट , लोहा , फास्फेट आदि का संचय यकृत में होता है |
- अन्य कार्य : यकृत की कोशिकाओं द्वारा भ्रूणीय अवस्था में RBC का निर्माण करती है तथा हीमोग्लोबिन का निर्माण भी किया जाता है |
पाचन तंत्र
हमारे भोजन के मुख्य अवयव कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा हैं। अल्प मात्रा में विटामिन एवं खनिज लवणों की भी आवश्यकता होती है। हमारा शरीर भोजन में उपलब्ध जैव-रसायनों का उनके मूल रूप में उपयोग नहीं कर सकता। अतः पाचन तंत्र में जैव रसायनों को छोटे अणुओं में विभाजित कर साधारण पदार्थों में परिवर्तित किया जाता है। जटिल पोषक पदार्थों को अवशोषण योग्य सरल रूप में परिवर्तित करने की क्रिया को पाचन कहते हैं और पाचन तंत्र इसे यांत्रिक एवं रासायनिक विधियों द्वारा संपन्न करता है।
पाचन की रासायनिक विधि
पाचन की प्रकिया यांत्रिक एवं रासायनिक विधियों द्वारा संपन्न होती है। लार का श्लेष्म भोजन कणों को चिपकाने एवं उन्हें बोलस में रूपांतरित करने में मदद करता है। इसके उपरांत निगलने की क्रिया द्वारा बोलस ग्रसनी से ग्रसिका में चला जाता है। बोलस पेशीय संकुचन के क्रमाकुंचन द्वारा ग्रसिका में आगे बढ़ता है। जठर-ग्रसिका अवरोधिनी भोजन के अमाशय में प्रवेश को नियंत्रित करती है।
ऽ लारः मुखगुहा में विद्युत-अपघट्य (छं ़ए ज्ञ़ए ब्प्ए भ्ब्व्3) और एंजाइम लार एमाइलेज या टायलिन तथा लाइसोजाइम होते हैं।
ऽ पाचन की रासायनिक प्रक्रिया मुखगुहा में कार्बोहाइड्रेट को जल द्वारा अपघटित करने वाली एंजाइम टायलिन या लार एमाइलेज की सक्रियता से प्रारंभ होती है। लगभग 30 प्रतिशत स्टार्च इसी एंजाइम की सक्रियता (चभ् 6.8) से द्विशर्करा माल्टोज में अपघटित होती है।
ऽ लार में उपस्थित लाइसोजाइम जीवाणओं के संक्रमण को रोकता है।
ऽ जठर ग्रंथियांः आमाशय की म्यूकोसा में जठर ग्रंथियां स्थित होती हैं। जठर ग्रंथियों में मुख्य रूप से तीन प्रकार की कोशिकाएं होती हैः
1. म्यूकस का स्त्राव करने वाली श्लेष्मा ग्रीवा कोशिकाएं।
2. पेप्टिक या मुख्य कोशिकाएं जो प्रोएंजाइम पेप्सिनोजेन का स्राव करती हैं।
3. भित्तीय या ऑक्सिन्टिक कोशिकाएं जो हाइड्रोक्लोरिक अम्ल और नैज कारक स्रावित करती हैं। नैज कारक विटामिन ठ12 के अवशोषण के लिए आवश्यक है।
ऽ अमाशय 4-5 घंटे तक भोजन का संग्रहण करता है। आमाशय की पेशीय दीवार के संकुचन द्वारा भोजन अम्लीय जठर रस से पूरी तरह मिल जाता है जिसे काइम कहते हैं।
ऽ प्रोएंजाइम पेप्सिनोजेन हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के संपर्क में आने से सक्रिय एंजाइम पेप्सिन में परिवर्तित हो जाता है जो आमाशय का प्रोटीन अपघटनीय एंजाइम है। पेप्सिन प्रोटीनों को प्रोटियोज तथा पेप्टोंस, पेप्टाइडों में बदल देता है।
ऽ हाइड्रोक्लोरिक अम्ल पेप्सिनों के लिए उचित अम्लीय माध्यम (चभ् 1-8) तैयार करता है।
ऽ नवजातों के जठर रस में रेनिन नामक प्रोटीन अपघटनीय एंजाइम होता है जो दूध के प्रोटीन को पचाने में सहायक होता है। जठर ग्रंथियां थोड़ी मात्रा में लाइपेज भी स्रावित करती हैं।
ऽ छोटी आंत का पेशीय स्तर कई तरह की गतियां उत्पन्न करता है।
ऽ यकृतः अग्नाशयी नलिका द्वारा पित्त, अग्नाशयी रस और आंत्र-रस छोटी आंत में छोड़े जाते हैं।
ऽ अग्नाशयी रस में टिरप्सिनोजन, काइमो ट्रिप्सिनोजन, प्रोकार्बोक्सीपेप्टिडेस, एमाइलेज और न्युक्लिएज एंजाइम निष्क्रिय रूप में होते हैं।
ऽ आंत्र म्यूकोसा द्वारा नावित एंटेरोकाइनेज व ट्रिप्सिनोजन सक्रिय ट्रिप्सिन में बदला जाता है जो अग्नाशयी रस के अन्य एंजाइमों को सक्रिय करता है।
पित्त
ग्रहणी में प्रवेश करने वाले पित्त में पित्त वर्णक, विलिरुबिन, पित्त लवण, कोलेस्टेरॉल आदि होते हैं, लेकिन कोई एंजाइम नहीं होता। पित्त वसा के इमल्सीकरण में मदद करता है और उसे बहुत छोटे मिसेल कणों में तोड़ता है। पित्त लाइपेज एंजाइम को भी सक्रिय करता है।
ऽ आंत में पहुंचने वाले काइम में प्रोटीन, प्रोटियोज और पेप्टोन उपस्थित होते हैं।
ऽ काइम के कार्बोहाइड्रेट अग्नाशयी एमाइलेज द्वारा डायसैकेराइड में जल अपघटित होता है।
ऽ वसा पित्त की मदद से लाइपेजेज द्वारा क्रमशः डाई और मोनोग्लिसेराइड में टूटते हैं।
वसा → डाइग्लिसेराइड → मोनोग्लिसेराइड
न्यूक्लिक अम्ल → न्यूक्लियोटाइड → न्यूक्लियोसाइड
आंत्र रस के एंजाइम उपर्युक्त अभिक्रियाओं के अंतिम उत्पादों को पाचित कर अवशोषण योग्य सरल रूप में बदल देते हैं।
ऽ पाचन का अंतिम चरण आंत के म्यूकोसल उपकला कोशिकाओं के बहुत समीप संपन्न होता है।
ऽ जैव वृहत् अणुओं के पाचन की क्रिया आंत्र के ग्रहणी भाग में संपन्न होती है।
ऽ अपचित तथा अनावशोषित पदार्थ बड़ी आंत में चले जाते हैं।
ऽ बड़ी आंत में कोई महत्वपूर्ण पाचन क्रिया नहीं होती है।
ऽ बड़ी आंत के कार्यः
1. कुल जल, खनिज एवं औषधि का अवशोषण
2. श्लेष्म का स्राव जो अपचित उत्सर्जी पदार्थ कणों को चिपकाने और स्नेहन होने के कारण उनका बाहरी निकास आसान बनाता है। अपचित और अवशोषित पदार्थों को मल कहते हैं।
ऽ जठरांत्रिक पथ की क्रियाएं विभिन्न अंगों के उचित समन्वय के लिए तंत्रिका और हॉर्मोन के नियंत्रण से होती हैं।
ऽ जठर और आंत्रिक स्राव तंत्रिका संकेतों से उद्दीप्त होते हैं।
ऽ हार्मोनल नियंत्रण के अंतर्गत, जठर और यांत्रिक म्यूकोसा से निकलने वाले हार्मोन पाचक रसों के स्राव को नियंत्रित करते हैं।
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