रामायण और महाभारत में अंतर क्या है difference between ramayana and mahabharata in hindi

difference between ramayana and mahabharata in hindi रामायण और महाभारत में अंतर क्या है का समय ? time period ?

‘रामायण‘ (1500 ईसा पूर्व) और ‘महाभारत‘ (1000 ईसा पूर्व) भारतीय जनसाधारण की जातीय स्मरण-शक्ति का भण्डार हैं। रामायण के कवि वाल्मीकि को आदिकवि कहते हैं और राम की कहानी का महाभारत में यदा-यदा वर्णन मिलता है। इन दोनों महाकाव्यों की रचना करने में अत्यधिक लम्बा समय लगा था और गायकों तथा कथावाचकों द्वारा इन्हें मौखिक रूप से सुनाने के प्रयोजनार्थ एक कवि ने नहीं बल्कि कई कवियों ने अपना योगदान दिया था। दोनों ही महाकाव्य जनसाधारण के हैं और इसलिए लोगों के एक समूह के स्वभाव तथा मन का चित्रण करते हैं। ये दोनों ही महाकाव्य लौकिक/सांसारिक सीमित दायरा तय नहीं करते हैं बल्कि इनका एक वैश्विक मानव संबंध होता है। रामायण हमे यह बताती है कि मनुष्य किसी प्रकार से ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है क्योंकि राम ने ईश्वरत्व का सदाचारी कृत्य द्वारा प्राप्त किया है। रामायण हमें यह भी बताती है कि मानव जीवन के चार पुरुषार्थ यथा धर्म (सदाचार या कत्तव्य) अर्थ(सांसारिक उपलब्धि, मुख्य रूप से समृद्ध), काम (सभी इच्छाओं की पूर्ति), और मोक्ष (मुक्ति) को किस प्रकार प्राप्त किया जाए। भीतर ही भीतर, यह स्वयं को जानने की एक तलाश है। रामायण में 24000 श्लोक हैं तथा यह सा पुस्तकों, जिन्हें काण्ड कहते हैं, में विभाजित है तथा इसे काव्य कहते हैं जिसका अर्थ यह हुआ कि यह मनोरंजन के साथ-साथ संवेदन व अनुदेश भी देती है। महाभारत में 1,00,000 श्लोक हैं तथा यह दस पुस्तकों, पर्व में विभाजित हैं, इसमें कई क्षेपक जोड़े गए हैं जिन्हें इतिहास पुराण (पौराणिक इतिहास) कहते हैं। दोनों लम्बे हैं, निरन्तर वर्णनात्मक है। राजा राम का दैत्यराज रावण से युद्ध होता है। रामायण में वाल्मीकि युद्ध का वर्णन करते हैं क्योंकि रावण ने राजा राम की पत्नी सीता का हरण किया था और लंका (अब श्रीलंका) में बन्दी बना कर रखा था। राम ने बानर सेना और हनुमान की सहायता से सीता को बचाया था। रावण पर राम की विजय सत्य की असत्य पर विजय की प्रतीक है। वैयक्तिक स्तर पर यह प्रवृत्ति अपने भीतर असत्य और सत्य के बीच चल रहा एक युद्ध है।
महाभारत के समय में सामाजिक संरचना के परिणामस्वरूप. राज्यसिंहासन के उत्तराधिकारी को ले कर अब मानव के बीच, पाण्डव और कौरवों के बीच, एक ही राजसी कल के परिवार के सदस्यों के बीच युद्ध होता है। व्यास (व्यास का अर्थ है एक समाहता) द्वारा रचित महाभारत एक पौराणिक इतिहास है क्योंकि इतिहास यहां पर किसी घटित घटना मात्र का द्योतक नहीं है, बल्कि उन घटनाओं को द्योतक है जो सदैव घटित होती रहेंगी तथा ये अपनी पुनरावृत्ति करती रहेंगी। यहां भगवान कृष्ण पाण्डवों की सहायता करते हैं, भगवान कष्ण को ईश्वरत्व का रूप दिया गया है और कृष्ण को बुराई की ताकतों के विरुद्ध संघर्ष करने में मनुष्यकी सहायता करने में अंतरिक्षीय इतिहास के चक्रों में अवतरित होत हुए दिखाया गया है। वे युद्ध प्रारम्भ होने से ठीक पूर्व पाण्डव राजकमार अर्जन को भागवत गीता (प्रभु का गीत) सुनाते हैं जो युद्ध करने की इच्छा नहीं रखते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि यद्ध में विजय वांछनीय नहीं है। इस प्रकार से कार्रवाई बनाम अकर्मण्यता की, हिंसा बनाम अहिंसा की समस्याओं और अन्ततः धर्म के बारे में महाकाव्य स्तर पर वाद-विवाद प्रारम्भ होता है। धर्म की एकीकृत झलक को प्राथमिक रुप से दिखाने के लिए गीता को महाभारत में सम्मिलित किया गया है। धर्म का अर्थ है अपने कर्तवय को निस्वार्थ भाव से (निष्काम कर्म) और ईश्वर की इच्छा के प्रति पूर्णतरू समर्पित रहते हुए न्यायसंगत रीति से निष्पादित करना। महाकाव्य के युद्ध के उत्तरजीवी यह पाते है कि लोक सम्मान और शक्ति किसी मायामय संघर्ष में खोखली विषय से अधिक कछ नहीं है। यह कोई बहादरी नहीं है, बल्कि ज्ञान है जो जीवन के रहस्य की कुंजी है। प्राचीन भारत के इन दोनों महाकाव्यों को लगभग सभी भारतीय भाषाओं में व्यावहारिक रूप से तैया किया गया है, और इन्होंने इस उप-महाद्वीप की सीमाओं को भी पार कर लिया है तथा विदेशों में लोकप्रिय हो गए है जहां इन्हें अन्ततः समग्र रूप से अपना लिया गया है, अनुकूल बना लिया है तथा इनका पुनः सृजन कर लिया है। ऐसा इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि ये दोनों महाकाव्य अपने उन मूलभावों में समृद्ध हैं जिनकी एक वैश्विक परिसीमा है।

प्रश्न: मध्यकालीन भाषाओं में उर्दू भाषा के उदभव एवं विकास के बारे में बताइए।
उत्तर: उर्दू का शाब्दिक अर्थ ‘सैनिक शिविर‘ या ‘शाही खेमा‘ होता है। सल्तनत काल में बहुभाषी सैनिकों के मध्य वार्तालाप के रूप में इसका उद्भव 13वीं सदी में उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेशों में हुआ। यह अरबी, तर्की, फारसी खड़ी बोली अवधी आदि का मिश्रित रूप थी। अमीर खुसरों ने इसे साहित्यिक रूप दिया जिसे ‘हिन्दवी‘ या ‘रेखता‘ कहा। साल मे इसे ‘देहली‘ कहा गया। इसकी व्याकरण हिन्दी की एवं शब्द फारसी के हैं तथा इसकी लिपि फारसी है। यह दोनो बाएं ओर लिखी जाती है।
दक्षिण में उर्द के जिस रूप का विकास हुआ उसे ‘दक्कनी‘ कहा जाता है। बहमनी शासकों ने अपनी जनता के साथ सचार साधन के रूप में उर्दू का प्रयोग किया। परिणामस्वरूप उर्दू दक्षिण की अन्य भाषाओं की भांति बोलना बन गई। ‘इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय‘ ने सर्वप्रथम उर्दू को बीजापुर की राजभाषा बनाया। ‘गुलशन-ए-इंसाक, ‘अलानामा‘ और ‘तारिख-ए-सिकन्दरी‘ के लेखक मुहम्मद नूसरत ने सम्पूर्ण दक्षिण भारत में उर्द के रूप में ख्याति प्राप्त की। 15वीं शताब्दी में दक्षिण सूफी सन्त ‘गेसू दराज‘ ने दक्षिणी उर्दू में रहस्यवाद पर गद्य कति ‘मिराज-उल-आशिकिन‘ लिखी। 18वीं सदी में उर्दू का स्वतंत्र विकास हुआ तथा उर्दू ने भाषायी, साहित्यिक विकास का चरमोत्कर्ष पाया।
वली को ‘रेख्ता (उर्दू) का जनक‘ कहा जाता है, क्योंकि उसने दक्ख्निी के स्थान पर दिल्ली में प्रचलित भाषा का प्रयोग कर उर्दू को परिमार्जित किया। मुहम्मदशाह रंगीला (1719-48 ई.) प्रथम मुगल बादशाह था जिसने उर्दू को राजकीय संरक्षण दिया। उर्दू के प्रोत्साहन के लिए उसने दक्षिण के कवियों को बुलाया। दिल्ली के मिर्जा जान-ए-जहान मजहर (सन् 1699-1781 ई.), आगरा के मीर तकी (1720-1808 ई.) और मीर हसन ने अठारहवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में उर्दू को परिष्कृत, परिमार्जित व आकर्षक बनाया। मुहम्मद रफी सौदा ने गजल और गसीदास में उत्कृष्ट काव्य की रचना की। वह व्यंग्य में भी माहिर था। मीरदर्द रहस्यवादी उर्दू कवि थे।
आधुनिक भारतीय साहित्यिक परम्परा
प्राचीन भारतीय साहित्य
भारतीय साहित्य में वह सब शामिल है जो ‘साहित्य‘ शब्द में इसके व्यापकतम भाव में आता हैः धार्मिक और सांसरिक, महाकाव्य तथा गीत, प्रभावशाली एवं शिक्षात्मक, वर्णनात्मक और वैज्ञानिक गद्य, साथ ही साथ मौखिक पद्य एवं गीत। वेदों में में (3000 ईसा पूर्व-1000 ईसा पूर्व) जब हम यह अभिव्यक्ति देखते हैं, ‘मैं जल में खड़ा हूं‘ फिर भी बहुत प्यासा हूॅ, तब हम ऐसी समृद्ध विरासत से आश्चर्यचकित रह जाते हैं जो आधुनिक और परम्परागत दोनों ही है। अतः यह कहना बहुत ठीक नहीं है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में हिन्दू, बौद्ध और जैनमतों का मात्र धार्मिक शास्त्रीय रूप ही सम्मिलित है। जैन वर्णनात्मक साहित्य, जो कि प्राकृत भाषा में हैं, रचनात्मक कहानियों और यथार्थवाद से परिपूर्ण है।
यह कहना भी ठीक नहीं है कि वेद धार्मिक अनुष्ठानों और बलिदानों में प्रयुक्त पवित्र पाठों की एक श्रृंखला हैं। वेद उच्च साहित्यिक मूल्य के तत्त्वतः आदिरूप काव्य हैं। ये पौराणिक स्वरूप के हैं और इनकी भाषा प्रतीकात्मक है। पौराणिक होने के कारण इनके कई-कई अर्थ हैं और इसलिए ब्रह्मज्ञानी अपने अनुष्ठान गढ़ता है, उपदेशक अपना विश्वास तलाशता है, दार्शनिक अपने बौद्धिक चिन्तन के सुराग ढूंढता है और विधि-निर्माता वेदों की आदिरूपी सच्चाइयों के अनुसार सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन-शैली का पूर्वाकलन करते हैं।
वैदिक कवियों को ऋषि कहते हैं, वे मनीषी जिन्होंने अस्तित्व के सभी स्तरों पर ब्रह्माण्ड की कार्यप्रणाली की आदिरूपी सत्यता की कल्पना की थी। वैदिक काव्य के देवता एक परमात्मा की दैवी शक्ति की अभिव्यक्ति का प्रतीक है। वेद यज्ञ को महत्व देते हैं। ऋग्वेद का पुरुष सूक्त (10.90) समग्र दृष्टि का प्रकृति की दैवी शक्तियों द्वारा प्रदत्त यज्ञ के रूप में वर्णन करता है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से, यज्ञ का अर्थ है ईश्वर की आराधना, समन्वय और बलिदान। ईश्वर-दर्शन, समन्वय और बलिदान रूपी ये तीनों तत्व मिल कर किसी भी सृजनात्मक कृत्य के लिए एक मूलभूत आधार उपलब्ध कराते हैं। यजुर्वेद का संबध मात्र यज्ञ से नहीं है। यह मात्र बलिदान नहीं होता है, बल्कि इसका अर्थ सृजनात्मक वास्तविकता भी है। ऋग्वेद के मंत्रों का कुछ रागों के अनुसार अनुकूलन किया गया है और इस संग्रह को सामवेद कहते है और अथर्ववेद मानव समाज की शान्ति तथा समृद्धि के बारे में है तथा मनुष्य के दैनिक जीवन की इसमें चर्चा की गयी है।
वैदिक अनुष्ठान ‘ब्राह्मण‘ नामक साहित्यिक पाठों में संरक्षित है। इन व्यापक पाठों की अन्तर्वस्तु का मुख्य विभाजन दुगुना है-वैदिक अनुष्ठान के अर्थ के बारे में आनुष्ठानिक आदेश तथा चर्चाएं और वह सब कुछ जो इससे संबद्ध है। आरण्यक या वन संबंधी पुस्तकें अनुष्ठान का एक गुप्त स्पष्टीकरण प्रस्तुत करती है, ब्राह्मण की दार्शनिक चर्चाओं में इनका उद्गम निहित है, अपनी पराकाष्ठा उपनिषदों में पाती है और ब्राह्मण के आनुष्ठानिक प्रतीकात्मकता और उपनिषदों के दार्शनिक सिद्धान्तों के बीच संक्रमणकालीन चरण का प्रतिनिधित्व करती हैं। गद्य और पद्य दोनों ही रूपों में लिखे गए उपनिषद दार्शनिक संकल्पनाओं की अभिव्यक्ति मात्र हैं। शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ यह हुआ कि अध्यापक के अधिक निकट बैठे हुए विद्यार्थी तक पहुंचाया गया ज्ञान। वह ज्ञान जिससे समस्त अज्ञान का विनाश होता है। ब्राह्मण के साथ-साथ स्वयं की पहचान करने का ज्ञान, उपनिषद वेदों के अन्त हैं। यह ऐसा साहित्य है जिसमें प्राचीन मनीषियों ने यह महसूस किया था कि अन्तिम विश्लेषण में मनुष्य को स्वयं को पहचानना होता है।