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निहारिका और ग्रहाणु में क्या अंतर है , नीहारिका तथा ग्रहाणु परिकल्पना की तुलना difference between nebula and planetary nebula
difference between nebula and planetary nebula in hindi निहारिका और ग्रहाणु में क्या अंतर है ?
नीहारिका तथा ग्रहाणु परिकल्पना की तुलना
नीहारिका परिकल्पना ग्रहाणु परिकल्पना
(1) इस परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति (1) इसके अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति दो तारों के सहयोग
केवल एक तारे से हुई है। से हुई है।
(2) प्रारम्भिक अवस्था में पृथ्वी तप्त वायव्य (2) आदि अवस्था में पृथ्वी शीतल तथा ठोस थी।
अवस्था (Gaseous Stage) में थी।
(3) पृथ्वी अपने तप्त-वायव्य रूप से क्रमशः (3) इस परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी का तापमान
शीतल होते हुए वर्तमान रूप को प्राप्त हुई। क्रमशः बढ़ता गया।
(4) पृथ्वी का प्रारम्भिक आकार वर्तमान आकार (4) पृथ्वी का प्रारंभिक आकार छोटे से छोटे ग्राणु के
से कई गुना अधिक बड़ा था। रूप् में था तथा वर्तमान आकार असंख्य ग्रहणुओं
के एकत्रीकरण से हुआ है।
(5) पृथ्वी पर प्रारम्भ से ही उसके चारों ओर (5) पृथ्वी जब अपने बड़े आकार में आ गई तो उसकी
वायुमण्डल व्याप्त था। गुरुत्वाकर्षण शक्ति तथा ज्वालामुखी उद्गार आदि
से वायुमण्डल बना।
(6) पृथ्वी का ऊपरी भाग ठोस है परन्तु (6) ग्रहाणुओं के टकराने से भीतरी भाग में सम्पीड़न
आन्तरिक भाग पिघला हुआ है। के फलस्वरूप पृथ्वी में तरल लावा कोशिकार्य बना।
जेम्स जीन्स एवं जेफ्री का ज्वारीय सिद्धान्त
(Tidal Hypothesis of James Jeans – Jffereys)
पृथ्वी और सौरमण्डल की उत्पत्ति के संबंध में एक और द्वितारक सिद्धान्त 1919 में जो ने प्रस्तुत किया। ये ब्रिटिश गणितज्ञ थे तथा आगे चलकर जेफ्री ने इसमें कुछ सुधार किये।
संकल्पना- आदिकाल में सर्य गैस का जलता हुआ विशाल तारा था। सूर्य से कई गमा एक और तारा उसके निकट से गुजरा। इस तारे की आकर्षण शक्ति के कारण सूर्य में ज्वार की उत्पा लगी। इस क्रिया से सूर्य की आकृति विकीर्ण होने लगी और एक भाग खिंचकर तारे की ओर आकर्षित लगा। जैसे-जैसे तारा निकट आता गया सूर्य में उठने वाले ज्वार का आकार बढ़ता गया व एक की आकृति में वह सूर्य से अलग हो गया। यह पदार्थ खिंचकर उस तारे के निकट नहीं जा पाया तारा अपने मार्ग पर चलते हए सर्य से दर जाने लगा था। सूर्य की आकर्षण शक्ति के कारण यह पदार्थ का उसमें मिल नहीं पाया, परन्तु उसके चारों ओर परिक्रमा लगाने लगा।
कालान्तर में यह निकला हुआ ज्वारीय पदार्थ ठंडा होने लगा व जीन्स के अनुसार अत्यधिक लम्बा होने के कारण कई भागों में टूटकर ठंडा हो गया। इस प्रकार ग्रहों का निर्माण हुआ। सूर्य की आकर्षण शक्ति से ग्रहों में उभार आये व उपग्रहों का निर्माण हुआ। बड़े ग्रहों में अधिक बड़ा उभार आया अतःउनके कई उपग्रह बने व छोटे ग्रह शीघ्र ठंडे हो गये अतः उनमें उपग्रह नहीं बन पाये।
1926 में जेफ्री महोदय ने इस सिद्धान्त में कुछ संशोधन किया। उनके अनुसार सूर्य से उस विशालकाय तारे की टक्कर से दोनों का कुछ पदार्थ बाहर निकलकर बिखर गया।
बड़े तारे के दूर चले जाने पर बिखरा हुआ पदार्थ सूर्य के आकर्षण से सूर्य का चक्कर लगाने लगा। सूर्य व तारे की आकर्षण शक्ति के कारण ज्वारीय पदार्थ की आकृति मोटे सिगार के रूप में हो गयी थी। धीरे-धीरे ज्वारीय पदार्थ ठण्डा होने लगा और सिकुड़ने लगा जिससे इसके टुकड़े हो गये व ग्रहों का निर्माण हुआ। जेफ्री ने इससे भिन्न मत रखा। उसके अनुसार ज्वारीय पदार्थ में विभिन्न केन्द्रों पर धनीभवन (aggregation)प्रारंभ हुआ जिससे छोटे नाभि केन्द्रों (Knots)का निर्माण हुआ। इन्हीं केन्द्रो पर निरंतर पदार्थ के संगठित होने से आकार में वृद्धि हुई और कालान्तर में ग्रहों का निर्माण हुआ। जेफ्री के अनुसार गैसीय पदार्थ के विभिन्न केन्द्रों को गति सूर्य से दूर जाते तारे के आकर्षण के कारण प्राप्त हुई, इसीलिये सभा ग्रह अपनी धुरी पर घूमने लगे।
ठीक इसी प्रकार ग्रहों से उपग्रहों की उत्पत्ति हुई। उपग्रहों में वायुमण्डल का निर्माण नहीं हुआ, क्योंकि वे छोटे थे एवं विभिन्न वायुमण्डलीय तत्वों को अपने चारों ओर रखने में असमर्थ हैं। इन उपग्रहों का उत्पात के समय ग्रह ठंडे होकर तरल अवस्था में अवश्य आये होंगे।
पक्ष में प्रमाण
(1) यदि सौरमण्डल के सभी ग्रहों को एक सीध में रखा जाए तो इनकी आकृति सिगार जैसी हो जायेगी। मध्य में बड़े ग्रह और दोनों किनारों पर छोटे ग्रह पड़ते हैं, केवल मंगल ग्रह इस क्रम के विपरीत पड़ता है।
(2) विभिन्न ग्रहों के उपग्रहों की संख्या एवं आकार भी इसी रूप में पाया जाता है। छोटे ग्रहा के उपग्रह नहीं हैं। मध्यम वर्ग के ग्रहों के उपग्रह कम हैं, परन्तु बड़े ग्रहों के उपग्रह अधिक है।
(3) यम (प्लूटो) नामक ग्रह का पता इस परिकल्पना के प्रस्तावित होने के बाद लगा, परन्तु इस ग्रह का आकार भी इसकी पुष्टि में सहायक सिद्ध होता है।
(4) उपग्रहों का आकार क्रम भी सिगार रूप् में पाया जाता है। जिन ग्रहों के कई उपग्रह हैं उनके बीच के उपग्रह बड़े तथा किनारे के उपग्रह छोटे है। इससे इस परिकल्पना की उपयोगिता और बढ़ जाती है।।
(5) इस परिकल्पना के अनुसार बड़े ग्रह अधिक काल तक गैस रूप् में रहे। अतः उसके उपग्रह अधिक संख्या में बने, किन्तु उनका आकार छोटा रहा। बड़े ग्रहों के समीपवर्ती ग्रहों के उपग्रह कम संख्या में बने, परन्तु आकार में बड़े बने। सिरे वाले ग्रह (बुध तथा यम) आकार में छोटे होने के कारण जल्दी ठण्डे हो गये, अतः इनके उपग्रह नहीं बने। शनि, बृहस्पति, अरूण तथा वरूण के क्रमशः 21, 16, 15 तथा 8 उपग्रह है, जबकि मंगल के 2 और पृथ्वी का एक उपग्रह है।
(6) सभी ग्रह सूर्य की आकर्षण-शक्ति के कारण अपनी कीली पर झुके हुए है और इसी झुकाव की दशा में सूर्य की परिक्रमा करते है। सभी ग्रहों का का झुकाव भिन्न है। बुध 7°, शुक्र 3)°, मंगल 2°. बृहस्पति 1°ए शनि 2)°, अरुण 1°, वरुण 2° और यम 7° झुके है।
आपत्तियाँ
(1) ग्रहों की सिगार-आकृति व्यवस्था में मंगल ग्रह तदनुरूप् नहीं है। इसका इस परिकल्पना में कोई समाधान उपलब्ध नहीं है।
(2) जो विशाल तारा ज्वार उदभेदन (Tidal Eruption) का अभिकर्ता था वह कहाँ से आया तथा उसका क्या हुआ? सूर्य के आकर्षण से उस विशाल तारे में ज्वार उत्पन्न क्यों नहीं हुआ? वह विशाल तारा पुनः परिभ्रमण करते हुए सूर्य के निकट क्यों नहीं आया? इस प्रश्नों का उत्तर इस परिकल्पना की व्याख्या से परे है।
(3) वी. लेविन के अनुसार ब्रह्माण्ड में तारे एक-दूसरे से इतने दूर स्थित हैं कि इनके पारस्परिक टकराव की सम्भावना ही नहीं है।
(4) सूर्य के उद्रेक से निर्मित ग्रहों को सूर्य के निकट से ही परिक्रमा करनी चाहिए थी, किन्तु हम जानते हैं कि कई ग्रह सूर्य के व्यास की कई हजार गुनी दूरी पर चक्कर लगाते हैं। बृहस्पति ग्रह सूर्य के व्यास की 500 गुनी दूरी पर उसकी परिक्रमा करता है और वरुण सूर्य के व्यास की 3200 गुनी दूरी पर।
(5) पेरिस्की ने गणितीय आधार यह सिद्ध किया है कि जीन्स का सिद्धान्त सूर्य और ग्रहों के मध्य की दूरी को समझाने में असमर्थ है। अमेरिकी खगोलज्ञ रसेल ने भी सन् 1937 में कुछ इसी प्रकार की आपत्ति प्रकट की है, जिस प्रकार काण्ट और लाप्लास के सिद्धान्त सूर्य के न्यून कोणीय संवेग को स्पष्ट नहीं कर पाते हैं. ठीक इसी प्रकार जीन्स की परिकल्पना भी ग्रहों के अधिक कोणीय सवंग। को पूर्णरूप से समझाने में असमर्थ है।
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