बल्क विधि किसे कहते हैं , वंशावली विधि क्या है अंतर difference between bulk method and pedigree method in hindi

difference between bulk method and pedigree method in hindi बल्क विधि किसे कहते हैं , वंशावली विधि क्या है अंतर ?

बल्क विधि के गुण (Merits of Bulk Method):

(1) यह एक सुविधाजनक, सरल एवं कम खर्चीली प्रक्रिया है ।

(2) इस प्रक्रिया में प्राकृतिक चयन की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, जिससे पादप समूह में श्रेष्ठ पौधों की संख्या में वृद्धि होती है। यहाँ अंतिम पीढ़ी तक श्रेष्ठ पौधों का चयन जारी रहता है।

(3) F1⁄2 पीढ़ी एवं इसके बाद की पीढ़ियों का अधिक ध्यान नहीं रखना पड़ता है।

प्रपुंज या बल्क विधि के दोष (Demerits of Bulk method):

(1) इस विधि में नई पादप किस्म का विकास करने में अधिकतम सोलह वर्ष का समय लगता है, जो कि अधिक है।

(2) इस प्रक्रिया में अंतिम पीढ़ी के पौधों को बहुत अधिक संख्या में छांटना पड़ता है। यह एक कष्टकारी व श्रमसाध्य कार्य है।

प्रपुंज या बल्क विधि की उपलब्धियाँ (Achievements of Bulk method)

अन्य संकरण विधियों की तुलना में इस विधि का उपयोग कृष्य पौधों में कम देखा गया है। कुछ फसल उत्पादक पौधों जैसे जौ (Barley) में जीन प्ररूप (Genotype) के अध्ययन के लिए इस प्रक्रिया की सहायता ली गई है।

बल्क विधि एवं वंशावली विधि का तुलनात्मक अध्ययन निम्न प्रकार से है-

वंशावली विधि बल्क विधि
1.यहाँ F2 व इसके बाद की पीढ़ियों में एकल पौधों की ही संतति उगाई जाती है।

2.इस प्रक्रिया में प्राकृतिक चयन की कोई भूमिका नहीं रहती ।

3. कृत्रिम चयन इस प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग होता है।

4. यहाँ पौधों की संख्या कम होती है।

5. इस विधि का उपयोग बहुत ज्यादा कृष्य पौधों | में किया जाता है।

6. यहाँ पौधों की वंशावली का विवरण या रिकॉर्ड रखा जाता है।

इसमें F, व इसके बाद की पीढ़ियों में पौधों को इकट्ठा लगाते हैं।

प्राकृतिक चयन का सक्रिय योगदान रहता है।

यहाँ कृत्रिम चयन की भूमिका केवल प्राकृतिक चयन के सहायक के रूप में होती है।

पौधों की संख्या वंशावली विधि की तुलना में बहुत ज्यादा होती है।

इस विधि का उपयोग बहुत कम होता है।

इस विधि में कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता।

 

III. प्रतीप संकरण या संकर पूर्वज संकरण विधि (Back-cross method)—

आनुवंशिकी के अंतर्गत प्रतीप संकरण (Back cross) से हमारा तात्पर्य F, पीढ़ी के पौधे एवं एक जनक पौधे (Parent) का क्रास करवाने से है। इस विधि में F2 पीढ़ी व बाद की पीढ़ियों के पौधों का लगातार क्रास जनक पौधों से करवाया जाता है।

प्रतीप संकरण विधि में एक वंशागत ( Inheritable) लक्षण का एक किस्म से दूसरी पादप किस्म में स्थानांतरण किया जाता है। उदाहरणतया अवांछनीय पादप किस्म में उपस्थित सूखा, पाला या रोग प्रतिरोधी गुण प्रतीप संकरण के द्वारा उत्तम गुणवत्ता वाली व्यावसायिक उपयोग की पादप किस्म में स्थानांतरित करवा दिये जाते हैं। लगातार क्रॉस करवाने के परिणामस्वरूप 6-7 पीढ़ियों के बाद संतति पौधे, जनक पौधों के समान हो जाते हैं। अतः अच्छी उत्पादकता वाली पादप किस्म के एक या दो इच्छित लक्षणों में सुधार प्रदर्शित होता है।

प्रतीप संकरण विधि का उपयोग स्थानांतरित की जाने वाली जीन्स के प्रभावी (Dominant) या अप्रभावी (Recessive) अवस्था पर निर्भर करता है।

प्रतीप संकरण को सर्वप्रथम हारलान एवं पोप (1922) ने पादप प्रजनन के लिए प्रस्तावित किया। इसका उपयोग ऐसी पादप किस्म के सुधार हेतु किया जाता है जो कि कुछ हानिकारक या दुर्बल लक्षणों को छोड़ कर उत्तम गुणवत्ता वाली है, जैसे रोग या सूखा प्रतिरोधकता की कमी इत्यादि ।

अतः जिन लक्षणों की इन उत्तम गुणवत्ता वाली किस्म (B) में कमी होती है, उसका क्रास इच्छित लक्षणों वाली एक अन्य किस्म (A) को दाता किस्म (Donor) के रूप में प्रयोग किया जाता है। किस्म (A) व (B) के संकरण से प्राप्त संकर पौधों को बारम्बार श्रेष्ठ पादप किस्म (B) के साथ प्रतीप संकरणों द्वारा इच्छित लक्षण (A से रोग प्रतिरोधी गुण) को उत्तम किस्म (B) में स्थानांतरित कर सकते हैं।

प्रतीप संकरण के लिये आवश्यक सामग्री (Prerequisites for Back cross)

(1) इस प्रक्रिया के लिये उपयुक्त अपुनरावर्ती एवं पुनरावर्ती जनक उपलब्ध होना आवश्यक है।

(2) पुनरावर्ती जनक का जीन प्ररूप (Genotype) पुन: प्राप्त करने के लिये प्रतीप संकरण पर्याप्त संख्या में करवाये जाने चाहिए।

(3) स्थानांतरण हेतु इच्छित जीन की अभिव्यक्ति बहुत अधिक होनी चाहिए जिससे कि विभिन्न प्रतीप संकरणों में विसंयोजन के अंतर्गत उसके चयन में आसानी हो ।

प्रतीप संकरण की क्रियाविधि (Procedure of Back cross hybridization) :

(A) संकरण (Hybridization ) इसमें पादप किस्म ‘अ’ का क्रास ‘ब’ पौधे से करवाया जाता है। किस्म ‘अ’ को पुनरावती जनक (Recurrent parent) कहा जता है, एवं इसका उपयोग मादा जनक के समान करते हैं। पुरावर्ती जनक ‘अ’ किस्म अच्छी गुणवत्ता एवं उत्पादकता वाली होती है, परंतु इसमें रोग प्रतिरोधी गुण नहीं होता। यह गुण एक अन्य पादप किस्म ‘ब’ में पाया जाता है जो कि अपुनरावर्ती जनक (Non recurrent _parent) या नरजनक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इस जनक पौधे से रोग प्रतिरोधी (Disease resistance) क्षमता को नियंत्रित करने वाली प्रभावी जीन का स्थानांतरण पादप किस्म ‘अ’ में किया जाता है।

(B) F1 पीढ़ी – इस पीढ़ी के संतति पौधे (Rr) जीन प्ररूप (Genotype) प्रदर्शित करते हैं तथा ये सभी रोग प्रतिरोधी क्षमता के लिये विषमयुग्मजी (Heterozygous) होते हैं ।

(C) BC1 पीढ़ी – प्रथम प्रतीप संकरण द्वारा प्राप्त संतति पीढ़ी को BC, कहा जाता है। इस पीढ़ी की पादप संख्या के कुल पचास प्रतिशत पौधों में रोग प्रतिरोधी क्षमता पाई जाती है। BC, पीढ़ी के पौधों को जनक ‘अ’ के लक्षणों से युक्त पाये जाने पर, रोग प्रतिरोधी क्षमता के आधार पर छाँटा जाता है। इसके बाद इन पौधों का ‘अ’ किस्म के पौधों से दुबारा प्रतीप क्रास करवाया जाता है।

(D) BC2 से BC5 पीढ़ियां-इन पीढ़ियों में से प्रत्येक रोग प्रतिरोधी क्षमता को प्रदर्शित करने वाले अलग- अलग संतति पौधे प्राप्त होते हैं। इन पौधों का किस्म ‘अ’ से दुबारा क्रास करवाया जाता है।

(E) BC6 पीढ़ी – इच्छित लक्षणों की उपस्थिति के आधार पर इस पीढ़ी के पौधों को छांटा जाता है एवं इनमें रोग प्रतिरोधी क्षमता पाये जाने पर इनमें स्वपरागण करवाया जाता है। इनसे प्राप्त बीजों का अलग-अलग इकट्ठा करते हैं

(F) BC6 F2 पीढ़ी – उपरोक्त पीढ़ी के एकत्र बीजों से एकल पादप संतति प्राप्त की जाती है। इस प्रकार अनेक संतति पौधे प्राप्त किये जाते हैं, जिनमें जनक ‘अ’ के सर्वोत्तम लक्षण एवं रोग प्रतिरोधी क्षमता युक्त श्रेष्ठ पौधों का चुनाव किया जाता है। प्रत्येक चयनित पौधे से अलग-अलग बीजों को एकत्र किया जाता है।

(G) BC.F, पीढ़ी- एकत्रित बीजों को एक पादप के आधार पर अलग-अलग संतति के रूप में उगाया जाता है । उत्तम गुणवत्ता एवं रोग प्रतिरोधी क्षमता के आधार पर इनमें से सर्वश्रेष्ठ पौधों को छाँटा जाता है। आगे चलकर समान गुणों वाले संतति पौधों के बीजों को मिश्रित कर दिया जाता है। इन पौधों को नई पादप किस्म का नाम दिया जाता है। नई पादप किस्म के पौधों का अब जनक पादप किस्म ‘अ’ के साथ पैदावर परीक्षण किया जाता है, इसके साथ ही अन्य गुणों का भी तुलनात्मक परीक्षण किया जाता है। स्वभावकितया नई पादप किस्म गुणवत्ता में जनक पादप किस्म (मानक किस्म) से काफी कुछ समान होती हैं, परंतु नई किस्म में रोग प्रतिरोधी क्षमता का अतिरिक्त गुण भी पाया जाता है, जो जनक किस्म ‘अ’ में उपलब्ध नहीं था। आगे चलकर नई पादप किस्म के बीजों का गुणन करके इसे किसानों के लिये मुक्त कर दिया जाता है।

यदि रोग प्रतिरोधी क्षमता एक अप्रभावी जीन के द्वारा नियंत्रित होती है तो जीन स्थानांतरण की प्रक्रिया में बदलाव लाना पड़ता है । अप्रभावी रोग प्रतिरोधी जीन को किस्म ‘अ’ में निवेशित करने के लिये प्रतीप संकरण की विधि थोड़ी अलग होती है, यहाँ सिर्फ F, पीढ़ी के पौधों पर रोग प्रतिरोधी क्षमता का परीक्षण किया जाता है एवं बार-बार प्रतीप क्रास की आवश्यकता भी नहीं होती । प्रतीप क्रास की प्रक्रिया को पादप प्रजनन विज्ञानी जरूरत के हिसाब से परिवर्तित कर सकते हैं।

प्रतीप संकरण के गुण (Merits of Back cross method)

(1) नई पादप किस्म का जीन प्रारूप, पुनरावर्तीजनक पादप के जीन प्रारूप से काफी कुछ मिलता- जुलता है।

(2) इस प्रक्रिया द्वारा विकसित किस्म का अलग-अलग केन्द्रों पर पैदावार परीक्षण आवश्यक नहीं होता अतः इससे समय एवं खर्च दोनों की ही बचत होती है।

(3) इस विधि में वंशावली विधि की तुलना में अपेक्षाकृत कम संख्या में पौधों की आवश्यकता होती है।

(4) इस प्रक्रिया द्वारा संकरण में वातावरण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।

(5) यह ऐसी एक मात्र संकरण विधि है, जिसमें दो पृथक पादप प्रजातियों के बीच 1 या 2 जीन्स का स्थानांतरण कर सकते हैं

प्रतीप संकरण के दोष (Demerits of Back cross method)

(1) स्थानान्तरित या समावेशित गुण के अतिरिक्त इस प्रक्रिया द्वारा विकसित नई पादप किस्म, जनक पादप किस्म की तुलना में बेहतर नहीं होती।

(2) कुछ अन्य संकरण विधियों की तुलना में यह एक कठिन, ज्यादा समय लेने वाली एवं खर्चीली तथा श्रमसाध्य प्रक्रिया है, क्योंकि इसमें प्रतीप संकरण के बाद सामान्य संकरण करवाना आवश्यक होता है।

(3) इस विधि में जीन विनियम के समय नई जीन के साथ-साथ सहलग्न जीनों (Linked genes) स्थानांतरण की संभावना भी बनी रहती है।

(4) इस प्रक्रिया द्वारा प्राप्त नई किस्म की गुणवत्ता चिरकाल के लिए स्थायी नहीं होती ।

प्रतीप संकरण की उपलब्धियाँ (Achievements of Back cross method)

इस प्रक्रिया का उपयोग प्राय: एक पादप प्रजाति से दूसरी प्रजाति में एक या दो जीन्स के स्थानांतरण के लिये तथा इस प्रकार से फसलों में सुधार या नई किस्मों को बनाने के लिये किया जाता है। इस विधि के द्वारा कोशिका द्रव्य स्थानांतरण भी संभव है। पादप प्रजननविज्ञानियों के द्वारा सर्वप्रथम इस विधि का उपयोग गेहूँ में स्तंभकिट्ट (Stem rust) एवं बाद में पर्णकिट्ट (Leaf rust) इत्यादि रोगों के विरुद्ध प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने के लिये किया गया था। इस विधि को काम में लेकर गेहूं में KML-7405 व कपास में दिग्विजय, BD-8 किस्में बनाई गई हैं। रोग प्रतिरोधी जीन्स का स्थानांतरण गन्ना व चावल जैसी महत्त्वपूर्ण फसलों में इसी विधि के द्वारा किया गया है।

प्रतीप संकरण एवं वंशावली द्वारा संकरण का तुलनात्मक अध्ययन निम्न प्रकार से है :-

वंशावली विधि (Pedigree method) प्रतीप संकरण विधि (Back cross method)
1.इसमें F, एवं इसके बाद की पीढ़ियों में स्वपरागण करवाया जाता है।

2. नई किस्म में बहुत सारे परीक्षण करने पड़ते हैं।

3. अनेक गुणों में नवविकसित पादप किस्म, जनक पौधों की तुलना में अलग होती है।

4. इस प्रक्रिया में एक प्रजाति से दूसरी पादप प्रजाति में जीन स्थानांतरण नहीं होता ।

5. इस संकरण विधि में उत्पादन एवं अन्य इच्छित लक्षणों को सुधारा जाता है।

6. यहाँ F, पीढ़ी को विकसित करने के लिये संकरण की आवश्यकता नहीं होती है।

7. F, एवं बाद की पीढ़ियों में बहुत ज्यादा संख्या संख्या में पौधे प्रयुक्त होते हैं ।

यहाँ पर परागण करवाया जाता है, क्योंकि F तथा बाद की पीढ़ियों में पुनरावर्ती जनक के साथ प्रतीप क्रास करवाते हैं ।

अधिक परीक्षण की आवश्यकता नहीं होती ।

स्थानांतरित लक्षण के अलावा नई किस्म के लक्षण पुनरावर्ती जनक किस्म के समान होते हैं।

संकरण की यह एक मात्र प्रक्रिया है जिसमें एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में जीन का समावेश या स्थानान्तरण करवाया जाता है ।

इस प्रक्रिया में पुनरावर्ती जनक के एक या दो लक्षणों की कमी को पूरा किया जाता है।

प्रतीप क्रॉस विभिन्न पीढ़ियों में करवाने के लिए संकरण की लगातार जरूरत होती है।

इन पीढ़ियों में पौधों की संख्या अपेक्षाकृत काफी कम होती है।