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धूर्जटी प्रसाद मुखर्जी का जीवन परिचय | dhurjati prasad mukerji in hindi विचार सिद्धांत पुस्तकें नाम
dhurjati prasad mukerji in hindi धूर्जटी प्रसाद मुखर्जी का जीवन परिचय विचार सिद्धांत पुस्तकें नाम क्या है ?
धूर्जटी प्रसाद मुकर्जी (1894-1962)
डी.पी. मुकर्जी (1894-1962) मार्क्सवादी थे। उन्होंने भारतीय इतिहास का संवादात्मक प्रक्रिया द्वारा विश्लेषण किया। परंपरा तथा आधुनिकता, उपनिवेशवाद तथा राष्ट्रवाद और व्यक्तिवाद तथा समूहवाद में परस्पर संवादात्मक प्रभाव होता है। उप-भाग 5.4.1 में हमने डी.पी. मुकर्जी का जीवन संबंधी विवरण दिया है। उनके जीवन के बारे में जानने के बाद आपको उनके मुख्य विचारों को समझने में मदद मिलेगी।
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जीवन परिचय
धूर्जटी प्रसाद मुकर्जी को लोग आमतौर पर डी.पी. के नाम से जानते थे। इनका जन्म सन् 1894 में बंगाल के एक मध्यम वर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इसी अवधि में रवीन्द्र नाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र और शरत्चंद्र चटर्जी का साहित्यिक क्षेत्र में सर्वाधिक प्रभाव था। वास्तव में बंगला साहित्य का यह पुनर्जागरण काल था।
डी.पी. मुकर्जी ने बंगाल के बंगवासी कॉलेज से स्नातक परीक्षा पास की। पहले वह इतिहास के छात्र थे जिसमें उस समय अर्थशास्त्र भी सम्मिलित था। इसके बाद इन्होंने अर्थशास्त्र में डिग्री ली।
ये बंगला के साहित्यकार थे और इन्होंने कुछ कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे लेकिन वे अधिक समय तक साहित्य लेखन के क्षेत्र में नहीं रहे। इन्होंने अपने आप को किसी एक विषय तक सीमित नहीं रखा। संभवतः इसीलिए वे समाजशास्त्री बन गए। सामाजिक विज्ञानों में समाजशास्त्र का क्षेत्र सबसे व्यापक है। समाजशास्त्री के रूप में इनकी ख्याति देश में ही नहीं अपितु विदेशों तक फैली।
सन् 1922 में वे लखनऊ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के लेक्चरर के पद पर नियुक्त हुए। वे स्वयं को मार्क्सशास्त्री (Marxologist) मानते थे। मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के कारण उन्होंने स्वाभाविक रूप से मार्क्स के सिद्धांतों को भारतीय परंपरा के साथ जोड़ दिया। डी.पी. मुकर्जी के मत में यदि कार्ल मार्क्स के विचारों को भारतीय इतिहास और परंपरा के अनुरूप अपनाया जाये तो ये विचार भारतीय संदर्भ में उपयुक्त हो जाते हैं। इसीलिए उन्होंने सामाजिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक आंदोलनों के अध्ययन पर विशेष जोर दिया।
उनका जन्म समालोचना के स्वर्णयुग में हुआ था और इस युग की झलक सही अर्थों में उनकी कृतियों में मिलती है। किसी भी विषय पर लिखते समय वे यथासंभव अधिक से अधिक क्षेत्रों के समालोचनात्मक मापदंडों का प्रयोग करते थे। उनके पास प्रत्येक समस्या को नए दृष्टिकोण से देखने की नजर थी। वे कला समालोचक, संगीत समालोचक, नाटक समालोचक और जीवन के समालोचक थे। उनके अंदर हमें एंग्लो-बंगाली संस्कृति का मिश्रण दिखाई देता है जिसके कारण अंग्रेजी साहित्य में गद्य और कविता के क्षेत्र में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया (उन्नीथान एवं अन्य 1065)।
डी.पी. मुकर्जी में सौंदर्यबोधी संवेदनशीलता थी। रहन-सहन के ढंग में उनकी काफी रुचि थी। यहां तक कि वे फैशन के अनुसार कपड़े भी सुरुचिपूर्ण ढंग से पहनते थे। वे दुबले-पतले थे और उन्हें मोटापा बिल्कुल पसंद नहीं था। उन्हें असंगत बातें भी पंसद नहीं थी, इसलिए लेखन में भी वे अप्रासंगिक और बेकार की बातें लिखने को बुरा समझते थे। उनकी लेखन शैली तीखी, संक्षिप्त और प्रभावशाली थी। वे परिष्कृत रुचि के व्यक्ति थे और बहुत कम अवसरों पर अपने मनोभावों को व्यक्त करते थे। उनका विचार था कि मनोभावों को प्रकट नहीं करना चाहिए बल्कि उन्हें बौद्धिक प्रक्रिया द्वारा आत्मसात कर लेना चाहिए।
उन्हें शिक्षक बनना पसंद था और वे अपने विद्यार्थियों में बहत लोकप्रिय थे। वे अपने विद्यार्थियों को बातचीत के लिए प्रोत्साहित करते थे और उनके साथ विचारों के आदान-प्रदान में रुचि लेते थे। इस प्रकार वे सहपाठी, सह-अन्वेषक थे जो हमेशा अपने ज्ञान में वृद्धि करना चाहते थे। उनका अपने विद्यार्थियों पर इतना गहरा प्रभाव था कि वे आज भी अपने विद्यार्थियों के हृदयपटल पर विराजमान हैं।
कांग्रेस सरकार जब उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई तो कुछ समय के लिए वे सूचना निदेशक के पद पर रहे। उनके व्यक्तिगत प्रभाव से जनसंपर्क के क्षेत्र में बौद्धिक दृष्टिकोण की भावना पैदा हुई। वे आर्थिक और सांख्यिकी ब्यूरो के संस्थापकों में से एक थे। सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के आरंभ में युद्ध के मुद्दे पर कांग्रेस के ब्रिटिश सरकार से अलग हो जाने पर वे पुनः लखनऊ विश्वविद्यालय में लौट आए। सन् 1947 में उन्हें उत्तर प्रदेश श्रमिक जाँच समिति का सदस्य नियुक्त किया गया। 1951 में वे प्रोफेसर बने। वस्तुतः उनकी योग्यताओं को बहुत विलंब से मान्यता मिली, लेकिन उन्होंने इस बात पर कभी असंतोष नहीं किया।
लखनऊ से सेवानिवृत्त होने से एक वर्ष पूर्व सन् 1953 में उन्हें अलीगढ़ में अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष के पद के लिए आमंत्रित किया गया। वे अलीगढ़ में पाँच वर्ष तक रहे। वे समाजशास्त्र के विजिटिंग प्रोफेसर बन कर अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक अध्ययन संस्थान (International Instituteof Social Studies), हेग गए। वे भारतीय समाजशास्त्रीय संगठन (Indian Sociological Association) के संस्थापक सदस्य थे और प्रबंध समिति और संपादक मंडल के सदस्यों में से एक थे। उन्होंने भारतीय समाजशास्त्रीय संगठन इंटरनेशनल सोशियोलॉजिकल एसोसिएशन में प्रतिनिधित्व किया, बाद में वे उसके उपाध्यक्ष बने।
उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में कई ग्रंथ और लेख लिखे। भारत की स्वाधीनता के बाद उन्होंने राजनैतिक गतिविधियों को बड़ी दिलचस्पी के साथ देखा, लेकिन उन्हें किसी भी अर्थ में राजनीतिज्ञ नहीं कहा जा सकता। उनके ऊपर रफी अहमद किदवई और जवाहरलाल नेहरू जैसे दो राष्ट्रीय नेताओं का प्रभाव पड़ा। उनका नेहरू से पत्र-व्यवहार भी होता था। एक बुद्धिजीवी के रूप में उनके विचार सब प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त थे। उन्होंने अपने विषय को और परिष्कृत किया। वे बहुत से लोगों से प्रभावित हुए, लेकिन अंत तक वे स्वयं अध्येता विद्वान रहे जिन्होंने बहुत से अन्य लोगों को प्रभावित किया। सन् 1962 में गले के कैंसर से उनकी मृत्यु हुई। परन्तु जैसा कि पूर्व उल्लेख किया जा चुका है कि वे आज भी अपने विद्यार्थियों के माध्यम से जीवित हैं (उन्निथान व अन्य 1965)।
मुख्य विचार
डी.पी. मुकर्जी के विचार में मार्क्सवाद ने ऐतिहासिक विकास की स्थितियों को भलीभांति समझने में हमारी मदद की लेकिन मार्क्सवाद मानवीय समस्याओं का कोई संतोषजनक समाधान प्रस्तुत नहीं कर सका। उनके अनुसार, इसका समाधान तो भारत की राष्ट्रीय संस्कृति के पुनरुद्धार और पुनर्प्रतिपादन के द्वारा ही मिल सकता था। मुकर्जी ने अपने समय में प्रचलित सामाजिक विज्ञानों के प्रत्यक्षवाद का विरोध किया क्योंकि इसमें व्यक्तियों को जैविक या मनोवैज्ञानिक इकाइयों के रूप में देखा जाता था। उनके अनुसार पश्चिम की औद्योगिक संस्कृति ने व्यक्तियों को स्वार्थ परायण बना दिया था इसलिए पश्चिम समाज नृजाति केंद्रित बन गया। वैयक्तिकता (पदकपअपकनंजपवद) पर अधिक ध्यान देकर अर्थात् व्यक्ति की भूमिकाओं और अधिकारों को स्वीकार करके प्रत्यक्षवाद ने मानवता के सामाजिक आधार को उखाड़ दिया है।
भारतीय समाज में परंपरा की भूमिका
मुकर्जी का विचार था कि परंपरा संस्कृति का मुख्य आधार है। व्यक्तियों को परंपरा से पोषण मिलता है। इससे उनका उद्देश्य या दिशा बोध लुप्त नहीं होता। प्रायः परंपरा भार स्वरूप भी बन जाती है जैसा कि भारत के संदर्भ में हुआ। लोग इसको आदर्श मान कर इसकी पूजा करने लग गए। पंरपरा के प्रति लोगों में आलोचनात्मक दृष्टि का अभाव होने के कारण सांस्कृतिक ठहराव आना स्वाभाविक था। इसलिए वैयक्तिकता (individuation) को भी प्रोत्साहित करना चाहिए। व्यक्ति संस्कृति में नई शक्ति का संचार कर इसका पुनर्निर्माण कर सकते हैं। समाज में व्यक्ति को न तो पूर्णरूप से स्वतंत्र होना है और न ही पराधीन, क्योंकि स्वस्थ व्यक्तित्व के विकास के लिए वैयक्तिकता (individuation) और समाजन (sociation) के बीच संतुलन होना आवश्यक होता है। समाजन व्यक्ति को समाज के साथ जोड़ने वाली कड़ी है। व्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब अव्यवस्था नहीं है बल्कि परंपरा की सृजनात्मक अभिव्यक्ति है।
व्यक्तित्व का समन्वित विकास
मुकर्जी ने भारत के लिए व्यक्तित्व के प्रत्यक्षवादी (positivistic) स्वरूप की सिफारिश नहीं की। पश्चिम ने व्यक्तित्व के प्रत्यक्षवादी स्वरूप को आदर्श का स्वरूप प्रदान किया। मनुष्य ने जनसाधारण के जीवन की स्थितियों के सुधार के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी का उपयोग किया। मानव द्वारा प्रकृति पर नियंत्रण की क्षमता तथा उसका अपने लाभ के लिए उपयोग करना ये दोनों ही आधुनिक युग की उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हैं। लेकिन पाश्चात्य पद्धति से मनुष्य का समन्वित विकास संभव नहीं हुआ। व्यक्तित्व के समन्वित विकास के लिए प्रौद्योगिक विकास और मनुष्य की स्वतंत्रता की बीच संतुलन की आवश्यकता है। सोवियत रूस जैसे समाजवादी समाज को भी संतुलित व्यक्तित्व विकसित करने में सफलता नहीं मिली। वहां व्यक्ति पर राज्य का या राजनीतिक दल का दबदबा था।
डी.पी. मुकर्जी के संवादवाद का आधार मानवतावाद था जो संकुचित नृजातीय या राष्ट्रीय विचारों की सीमाओं से परे था। मुकर्जी ने कहा कि पश्चिम में व्यक्ति का रवैया या तो बहुत आक्रामक होता है या एकदम निष्क्रिय। उनके अनुसार पाश्चात्य जगत की प्रगति में मानवतावाद का अभाव है। पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति ने व्यक्तियों को प्रभावहीन मध्यकालीन परंपरा की कैद से तो आजाद कर दिया लेकिन साथ ही प्रगति के मानवतावादी अंश को भी कम कर दिया। भारत का आधुनिक राष्ट्रवाद अनिवार्य रूप से पश्चिम के प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण में पनपा। मुकर्जी के अनुसार, भारत के लिए यह उपयुक्त मॉडल नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त भारत के मध्यम वर्ग का उद्भव भारत पर पाश्चात्य प्रभाव के परिणामस्वरूप हुआ। ये मध्यम वर्ग के लोग अपनी ही मूल स्थानीय परंपरा से उखड़ गए थे। उनका जनसाधारण से संपर्क टूट गया था। भारत एक आधुनिक राष्ट्र बन सकता था यदि मध्यम वर्ग जनसाधारण के साथ फिर से संपर्क बना लेता। ऐसा होने पर ही वास्तविक विकास संभव था। मुकर्जी के विचारों में वृद्धि (growth) केवल परिमाणात्मक (quantitative) उपलब्धि है जबकि विकास का अभिप्राय गुणात्मक (qualitative) वृद्धि से है जो मूल्यों पर आधारित प्रगति का सूचक है।
भारतीय संस्कृति की विविधता में एकता
डी.पी. मुकर्जी की रुचि हिंदू-मुस्लिम संबंधों का वर्णन करने में थी। सत्य की खोज के इस प्रयास में उन्हें भारतीय सांस्कृतिक विविधता में मानवतावादी और आध्यात्मिक एकता के दर्शन हुए। इस संदर्भ में उन्होंने हिंदू-मुस्लिम अंतःक्रिया के व्यापक ढांचे में कई क्षेत्रों की जांच की। इनमें अंतःक्रिया के तीन ऐसे क्षेत्र थे जिनकी ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। राजनैतिक दृष्टि से उत्तर भारत में ग्यारहवीं ईसवी से सत्रहवीं ईसवी तक मुस्लिम बादशाहों ने हिंदू प्रजा पर शासन किया। इस दौरान प्रायरू हिंदू राजाओं और मुस्लिम शासकों के बीच संधियां हुई। इस प्रकार मुस्लिम शासकों और हिंदू प्रजा में साझेदारी और भाईचारे की भावना पैदा हुई। यह बात मुगलों के शासन में और अधिक स्पष्ट हुई। जहां तक आर्थिक संबंधों का प्रश्न है, इस्लामी शासन काल में जागीरदार (सैनिक सरदार) मुसलमान थे और अधिकांश जमींदार हिंदू थे। इन दोनों वर्गों के हितों के बहुत-से मुद्दे समान थे। इस प्रकार दोनों वर्गों के बीच एक प्रकार का समझौता था। सांस्कृतिक दृष्टि से साहित्य, संगीत, वेशभूषा, ललित कलाओं के विकास आदि में दोनों का एक-दूसरे पर प्रभाव था। उत्तर भारत में सूफी संत और भक्ति संप्रदाय ने आपसी अंतरूक्रियाओं को प्रोत्साहित किया। परंतु विश्व की धारणा के संबंध में दोनों वर्गों का दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न था। मुकर्जी ने देखा कि हिंदुओं का चक्र परंपरा में विश्वास है जैसे सुख और दुःख एक दूसरे के बाद आते-जाते रहते हैं। हिंदू भाग्यवादी विचारधारा के समर्थक हैं। हिंदुओं की विश्व दृष्टि के पीछे विशिष्ट क्षेत्र यानी उपमहाद्वीप का प्रभाव रहा। इसके विपरीत इस्लाम बहुजातीय, बहुराष्ट्रीय धर्म की तरह पनपा। हिंदुओं की राष्ट्रीयता की भावना में आदर्शवाद उभरा जबकि इस्लाम की धारणा में व्यावहारिक तत्त्व आगे आए। हिंदुओं की दृष्टि से स्वाधीनता जन्म सिद्ध अधिकार है जबकि मुसलमानों के लिए यह एक अवसर है। इस्लाम को मानने वाले चक्र परंपरा में विश्वास नहीं करते। वे भाग्यवाद को भी नहीं मानते। इसलिए इस्लाम मानने वालों का विश्वास राजनैतिक संकट या अवसर का पूरा फायदा उठाने के लिए सीधी कार्यवाही करने में रहा।
डी.पी. मुकर्जी एक अर्थशास्त्री के रूप में
डी.पी. मुकर्जी प्रशिक्षण द्वारा अर्थशास्त्री थे। अर्थशास्त्र के प्रति उनका दृष्टिकोण दूसरे अर्थशास्त्रियों से भिन्न था। उन्होंने भारत में आर्थिक विकास को ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विशिष्टताओं के संदर्भ में देखा। भारत में आर्थिक शक्तियाँ सामाजिक मूल्यों से प्रभावित रही हैं। पुराने समय में राजा और राज दरबार के सदस्यों को जमीन पर स्वामित्व का अधिकार नहीं था। राजा की शक्तियाँ केवल राजकोषीय दायित्वों तक सीमित थीं, यानी भूमि की जुताई करने वाले कृषकों को राज-संरक्षण के बदले अपनी उपज का एक भाग राजा के खजाने में कर या राजस्व के रूप में देना पड़ता था। जमीन का स्वामित्व ग्राम परिषद के पास था। बौद्ध धर्म के स्वर्ण युग में प्रायरू संघ (मठ-संगठन) विस्तृत भू-भाग की प्रबंध व्यवस्था करते थे। ये भू-भाग राजा द्वारा संघों को दिए जाते थे। यद्यपि व्यक्तिगत रूप में कोई भिक्षु सम्पत्ति का मालिक नहीं हो सकता था, संघ सम्पत्ति के स्वामी होते थे। संघ खेती की उपज का छठा भाग कर के रूप में वसूल करते थे, जिसका उपयोग ज्ञान प्राप्ति के लिए तथा नैतिक और आध्यात्मिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता था।
जैसे भारत में गांवों की भूमि पर स्वजन समूहों और विशिष्ट जाति समूहों का नियंत्रण होता था उसी तरह आधुनिक काल से पूर्व के समय में व्यापार और वाणिज्य का प्रबंध भी नातेदारी और जाति समूहों द्वारा किया जाता था। ये नातेदारी और जाति समूह आंतरिक रूप से स्वायत्त होते थे। जातियों पर आधारित श्रेणियां (guilds) क्षेत्रीय व्यापार करती थीं। वाणिज्यिक महाजनी पर भी जातियों का नियंत्रण था। पश्चिमी तट पर पैसा उधार देने वाले कुछ महत्वपूर्ण हिंदू परिवार थे। मुगलकाल में इन परिवारों का व्यापक प्रभाव था। मुकर्जी के विचार में ये व्यापारी केवल परजीवी नहीं थे, इसके विपरीत, मुकर्जी उन्हें ऐसे महाजन मानते हैं जिन्होंने शहरी केंद्रों और देहाती क्षेत्रों के बीच व्यापार व्यवस्था स्थापित कर रखी थी। लेकिन औपनिवेशिक शासन के दौरान ये परिवार अपने पूर्ववर्ती सांस्कृतिक बंधनों को तोड़कर प्रायः लोगों का शोषण करने लगे। ये भारतीय व्यापारी प्रायः विदेशों में अपने माल का प्रदर्शन करते थे। इस प्रकार उन्होंने भारत का बाहरी दुनिया से संपर्क स्थापित किया। यह संपर्क केवल व्यापार द्वारा ही नहीं अपितु संस्कृति के प्रसार द्वारा भी हुआ।
ब्रिटिश शासन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हुए। ब्रिटिश शासकों द्वारा शुरू की गई शहरी-औद्योगिक अर्थव्यवस्था ने न केवल पुरानी संस्थाओं के जाल को समाप्त किया बल्कि परंपरागत विशिष्ट जातियों को भी उनके व्यवसायिक धंधों से अलग कर दिया। अब नए सामाजिक अनुकूलन की आवश्यकता थी। इस नई व्यवस्था में भारत के शहरी केंद्रों का शिक्षित मध्यम वर्ग समाज का केंद्र बिंदु बन गया। लेकिन इस मध्यम वर्ग पर पाश्चात्य जीवनपद्धति और विचारधारा का प्रभाव था। मुकर्जी के अनुसार यदि ये मध्यम वर्ग के लोग जनसाधारण के संपर्क में आकर राष्ट्र के निर्माण में उनके साथ सक्रिय साझेदारी स्थापित कर लेते तो भारत का भविष्य सुरक्षित रहता।
महत्वपूर्ण रचनाएं
धूर्जटी प्रसाद मुकर्जी की समाजशास्त्र पर कुछ महत्वपूर्ण रचनाएं निम्नलिखित हैं।
प) बेसिक कॉन्सेप्ट्स इन सोशियोलॉजी (1932)
पप) पर्सनैलिटी एंड द सोशल साइन्सेज (1924)
पपप) मॉडर्न इंडियन कल्चर (1942)
पअ) प्रॉब्लम्स ऑफ इंडियन यूथस् (1946)
अ) डाइवर्सिटीज (1958)
इन पुस्तकों में से ‘‘मॉडर्न इंडियन कल्चर‘‘ (1942) और ‘‘डाइवर्सिटीज‘‘, ये दोनों उनकी सबसे प्रसिद्ध रचनाएं हैं। इनकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय इनकी अन्य रचनाओं से भी मिलता है जैसे
प) टैगोरः ए स्टडी (1943)
पप) ऑन इंडियन हिस्ट्री (1945)
पपप) इन्ट्रोडक्शन टु इंडियन म्यूजिक (1945)
बोध प्रश्न 2
प) डी.पी. मुकर्जी के समाजशास्त्र का वर्णन लगभग दस पंक्तियों में कीजिए।
पप) समाजशास्त्र पर डी.पी. मुकर्जी की दो प्रमुख रचनाओं के नाम दीजिए।
पपप) निम्नलिखित वाक्यों में खाली स्थान भरिए।
क) डी.पी. मुकर्जी के अनुसार अपनी सांस्कृतिक विरासत से ……………….भारतीय को संतुलित व्यक्ति नहीं कहा जा सकता।
ख) डी.पी. मुकर्जी………………. थे जिन्होंने भारतीय समाज के बारे में परंपरा और आधुनिकता के बीच संवादात्मक संबंध के संदर्भ में लिखा।
ग) डी.पी. मुकर्जी की सत्य खोज उन्हें भारतीय संस्कृति की विविधता में एकता के मानवतावादी और …………………………. सिद्धांत की ओर ले गई।
बोध प्रश्न 2 उत्तर
प) भारत के तेजी से बदलते हुए समाज की सामाजिक प्रक्रियाओं में डी.पी. मुकर्जी की गहरी दिलचस्पी थी। उन्होंने 1922 में लखनऊ विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के लेक्चरर का पद ग्रहण किया तथा बाद में वे समाजशास्त्र के प्रोफेसर बने। उन्होंने अर्थशास्त्र और इतिहास दोनों में प्रशिक्षण प्राप्त किया था और राधाकमल मुकर्जी की तरह इन्होंने भी समाजशास्त्र को अर्थशास्त्र और इतिहास के साथ समाविष्ट किया। ये अपने आपको मार्क्सशास्त्री कहते थे। इनका विश्वास था कि यदि मार्क्स के विचारों को भारतीय इतिहास और सभ्यता के अनुकूल ढाला जा सके तो ये उतने ही अधिक उचित होंगे।
पप) इनकी दो महत्वपूर्ण रचनाएं हैं।
क) मॉडर्न इंडियन कल्चर (1942), और
ख) डाइवर्सिटीज (1958)
पपप) क) उखड़े हुए
ख) मार्क्सशास्त्री
ग) आध्यात्मिक
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