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पादपकाय का परिवर्धन (development of plant body in hindi) पादप काय में वृद्धि प्ररोह तंत्र में मॉड्यूली

(development of plant body in hindi) पादपकाय का परिवर्धन  पादप काय में वृद्धि प्ररोह तंत्र में मॉड्यूली types of growth in plants in hindi ?

पादपकाय का परिवर्धन (development of plant body) : सभी संवहनी पादपों का विकास और वृद्धि एक द्विगुणित युग्मनज से प्रारंभ होती है। यहाँ युग्मनज के विभाजन और पर्याप्त विभेदन के परिणामस्वरूप भ्रूण बनता है , इसके साथ ही बीजाण्ड विकास करके बीज का निर्माण करता है।

इस प्रकार हम यह कह सकते है कि बीज में अल्पविकसित शिशु पादप भ्रूण के रूप में सुरक्षित रहता है। भ्रूण की मुख्य संरचना में एक मुख्य अक्ष उपस्थित होता है , जिसके ऊपरी सिरे पर एक अथवा दो पर्ण समान उपांग पाए जाते है , जिनको बीजपत्र कहते है। यह हम जानते है कि एकबीजपत्री पौधों में एक बीजपत्र और द्विबीजपत्री पौधों में दो बीजपत्र पाए जाते है। पौधे का भ्रूणीय अक्ष बीजपत्र के आधार पर अवस्थित होता है और इसे बीजपत्राधार कहते है। इस बीजापत्राधार के निचले सिरे पर प्रारंभीय मूल उपस्थित होती है और इसके ऊपरी सिरे पर प्ररोह आद्यक पाया जाता है। इस प्रकार भ्रूण का ऊपरी सिरा प्ररोह सिरा और आधारीय भाग मूल सिरा कहा जा सकता है। भ्रूण में मूल आद्यक मुलान्कुर के रूप में पाया जाता है। जिसमें मूल शीर्ष , मूल गोप और मूल विभाज्योतक आदि उपस्थित होते है , वही दूसरी तथा पौधे के प्ररोह का विकास प्रांकुर से होता है। बीज में उपस्थित सभी संरचनायें एक सुरक्षात्मक परत बीज चोल द्वारा सुरक्षित और ढकी हुई होती है।

बिजांकुरण के समय जब बीज को उपयुक्त वातावरण अर्थात ताप , वायु और नमी की उपयुक्त परिस्थितियां उपलब्ध होती है , तो भ्रूण से सूक्ष्म पादप का विकास प्रारंभ होता है , और यह भ्रूण बीज चोल को भेदकर बाहर निकल आता है। इस प्रकार भ्रूण से पादप विकास की यह प्रक्रिया बीज का अंकुरण कहलाती है।

इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप भ्रूण बीज चोल को भेद कर बाहरी वातावरण में एक शिशु पादप अथवा नवोद्भिद के रूप में स्थापित हो जाता है। बीज के अंकुरण के दौरान पहले मुलांकुर बाहर निकलता है और निचे की ओर वृद्धि करने लगता है। इससे पौधे की प्राथमिक मूल उत्पन्न होती है और मृदा में भीतर तक फ़ैल जाती है। इस प्रकार पौधे के मूल तंत्र का विकास होता है। यह मूल तंत्र पौधे को भूमि में स्थापित करने का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त मूल तंत्र की महीन और तरुण शाखाओं की मूलीय त्वचा से मूल रोम उत्पन्न होते है जो पौधे के लिए जल और खनिज पदार्थों के अवशोषण का कार्य करते है। जैसा कि हम जानते है , द्विबीजपत्री पौधों की प्राथमिक मूल अनेक बार शाखित होकर क्रमशः द्वितीयक और तृतीयक जड़ों का निर्माण करती है लेकिन इसके विपरीत एकबीजपत्री पौधे की प्राथमिक जड़ अल्पजीवी होती है। इसके स्थान पर तने के आधारीय भाग की पर्वसंधियों से अनेक रेशेदार अपस्थानिक जड़े परिपक्व पौधे में उत्पन्न होती है। अपस्थानिक जड़े लगभग समान लम्बाई , मोटाई और आयु की होती है , उनकी संरचना एक ब्रश के समान दिखाई पड़ती है।

बीजपत्राधार का ऊपरी सिरा इपीकोटाइल नावोद्भिद पौधे के प्ररोह शीर्ष के रूप में विकसित होता है। प्ररोह शीर्ष की कोशिकाओं के विभाजन और विभेदन के परिणामस्वरूप पौधे का प्रथम अथवा प्राथमिक तना निर्मित होता है। कुछ समय बाद तने से शाखाएं उत्पन्न होना प्रारम्भ होती है। इसके साथ ही शाखाओं की पर्व संधियों पर पत्तियाँ उत्पन्न होती है। तने में शाखा का क्रम मुख्य तने पर उत्पन्न पत्तियों के कक्ष में विकसित कक्षस्थ कलिकाओं से होता है। तने का दो पर्वसंधियों के बीच वाला हिस्सा पर्व कहलाता है। इस प्रकार तने का वह क्षेत्र जिस पर पत्तियां उत्पन्न होती है। पर्व संधि कहलाता है। प्रत्येक पर्व संधि पर विभिन्न पौधों में दो या दो से अधिक विविध प्रकार के पर्ण विन्यासों में पत्तियाँ व्यवस्थित पायी जाती है।

अंकुरण के पश्चात् एक निश्चित समय तक पौधे की कायिक संरचनाओं का विकास जारी रहता है। इस अवस्था को पौधे की कायिक अवस्था कहते है , परन्तु कुछ समय बाद प्रकाश की मात्रा और अंतराल , हार्मोन्स की मात्रा में बदलाव और उपयुक्त तापमान के कारण कायिक अवस्था का रूपांतरण पौधे की जनन अवस्था में हो जाता है। इसके साथ ही पौधे में उपस्थित कायिक शीर्षस्थ विभाज्योतकों का पुष्पीय शीर्ष विभाज्योतकों में रूपान्तरण हो जाता है , जिसके परिणामस्वरूप पुष्पक्रम और पुष्पों का परिवर्धन होता है। पुष्प के विभिन्न भाग जैसे – बाह्यदल पुंज , दलपुंज , पुमंग और जायांग चपटे अथवा उत्तल पुष्पासन या टोरस पर चक्रिक अथवा सर्पिलाकार क्रम में उत्पन्न होते है। बाह्यदलपुंज और दलपुंज पुष्प के सहायक अंग होते है , जो पुष्प के आवश्यक भागों की सुरक्षा और परागण में सहायता प्रदान करने का कार्य करते है। इसके विपरीत पुमंग और जायांग पुष्प के आवश्यक अंग होते है जो पौधे के लैंगिक जनन को सम्पादित करते है। इनमें क्रमश: परागणों और बीजाण्ड का निर्माण होता है। विभिन्न प्रकार की परागण क्रियाओं (जल , वायु , कीट , पक्षी और प्राणी परागण) के परिणामस्वरूप पौधे के पीले रंग के चूर्ण समान परागकण , जायांग के वर्तिकाग्र पर पहुँच जाते है। अनुकूल परिस्थितियों में परागकण अंकुरित होकर एक पराग नलिका उत्पन्न करते है , जिसमें उपस्थित जनन केन्द्रक (या नर युग्मक) परागनलिका के साथ ही वर्तिका में होते हुए बीजाण्ड के भ्रूणकोष तक पहुँच जाते है , बीजांड में अर्धसूत्री विभाजन के परिणामस्वरूप उत्पन्न भ्रूण कोष की अंड कोशिका (मादा युग्मक) से एक नरयुग्मक सायुज्मित होकर निषेचन क्रिया संपन्न करता है और द्विगुणित युग्मनज का निर्माण करता है। युग्मनज के विभाजन के परिणामस्वरूप भ्रूण बनता है। आगे चलकर बीजाण्ड बीज में और अण्डाशय फल में विकसित हो जाता है। इसके अतिरिक्त भ्रूणकोष में उपस्थित द्विगुणित केन्द्रक दुसरे नर युग्मक अथवा जनन केन्द्रक से सायुज्यित होकर एक त्रिगुणित प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक का निर्माण करता है। यह आगे चलकर एक प्रारुपिक त्रिगुणित भ्रूणपोष के रूप में विकसित होता है और अंकुरण से पूर्व अथवा अंकुरण के समय विकासशील भ्रूण को पोषण प्रदान करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रारुपिक त्रिगुणित भ्रूणपोष की उपस्थिति आवृतबीजी पौधों का एक विशिष्ट लक्षण है , जो अन्य संवहनी पौधों जैसे टेरिडोफाइट और अनावृतबिजियों में नहीं पाया जाता है।

प्राथमिक और द्वितीयक वृद्धि (primary and secondary growth)

पादपकाय परिवर्धन अथवा वृद्धि की वे अवस्थाएँ जिनमें पादप के शीर्षस्थ विभाज्योतिकों से व्युत्पन्न कोशिकाएँ , स्थायी उत्तक के रूप में विभेदित होती है , प्राथमिक वृद्धि कहलाती है। इस प्रकार प्ररोह शीर्ष से तने , शाखाओं , पत्तियों और पुष्पों का निर्माण और मूल शीर्ष से प्राथमिक जड़ की वृद्धि और इसकी विभिन्न शाखाओं का निर्माण प्राथमिक वृद्धि के अंतर्गत ही आता है। इन भागों के सभी उत्तक तंत्र जैसे बाह्यत्वचा , भरण उत्तक तंत्र और संवहन उत्तक तंत्र आदि , प्ररोह और मूल शीर्ष पर उपस्थित प्राथमिक विभाज्योतकी कोशिकाओं से ही बनते है। यही नहीं कुछ अपवादों को छोड़कर एकबीजपत्री पौधों और कुछ एकवर्षीय शाकीय द्विबीजपत्री पौधों में केवल प्राथमिक वृद्धि ही होती है , द्वितीयक वृद्धि नहीं पायी जाती। इसके विपरीत अधिकांश द्विबीजपत्री पौधों में द्वितीयक वृद्धि होती है। यहाँ विशेष तथ्य यह है कि प्राथमिक वृद्धि के परिणामस्वरूप पौधे की लम्बाई में वृद्धि होती है जबकि द्वितीयक वृद्धि के परिणामस्वरूप तने अथवा अन्य पादप भागों की मोटाई में वृद्धि होती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि द्वितीयक वृद्धि का सञ्चालन संवहन केम्बियम की सक्रियता के कारण होता है , परिणामस्वरूप संवहन उत्तकों की मात्रा बढ़ जाती तथा तने की मोटाई में बढ़ोत्तरी होती है। द्वितीयक वृद्धि प्रदर्शित करने वाले अनेक पौधों विशेषकर झाड़ियों और वृक्षों में संवहन केम्बियम के अतिरिक्त कार्क केम्बियम का निर्माण भी होता है। यह कार्क केम्बियम संवहन उत्तकों के बाहर बाह्यत्वचा से लेकर परिरंभ तक की किसी भी परत से बन सकती है। कार्क केम्बियम द्वारा पौधे के कोमल उत्तकों की सुरक्षा के लिए कार्क अथवा परित्वक का निर्माण किया जाता है।
एक परिपक्व आवृतबीजी पादप जिसमें विभिन्न प्रकार के जटिल उत्तक पाए जाते है , उनमें प्राथमिक और द्वितीयक विभाज्योतकी कोशिकाओं के कारण लगातार नये उत्तकों को जोड़ने की क्षमता यथावत बनी रहती है। इसकी वजह से परिपक्व पौधे में भी संतुलित प्रकार से वृद्धि होती रहती है।

प्रतिरूपिक वृद्धि अथवा मोड्यूली वृद्धि (modular growth)

संवहनी पादपों में वृद्धि चार प्रकार के विभाज्योतकों द्वारा होती है। ये क्रमशः शीर्षस्थ विभज्योतक , अंतर्वेशी विभज्योत्तक , पाशर्व विभज्योत्तक और विसरित विभज्योत्तक कहलाते है।
शीर्षस्थ विभज्योत्तक की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है , क्योंकि पौधों के विभिन्न अंगों के निर्माण में सबसे अधिक योगदान इनका ही होता है। शीर्षस्थ विभज्योतक की सक्रियता के फलस्वरूप पादप शरीर की संरचना की तीन आधारभूत इकाइयों का निर्माण होता है। शरीर संरचना की ये तीन इकाइयाँ है – कोशिका म मेटामर और मोड्यूल कोशिका दूसरी अन्य कोशिकाओं का स्रोत होती है , अर्थात इनके विभाजन से विभज्योतक की स्वत:पूर्ति होती है जिससे दूसरी संरचनात्मक इकाई मेटामर का विकास होता है। कई मेटामर इकाइयाँ मिलकर तीसरी जटिल इकाई बनाती है जिसे मोड्यूल कहते है। ये तीनों आधारभूत इकाइयाँ (कोशिका , मेटामर और मोड्यूल) एक श्रेणीबद्ध क्रम में सम्बद्ध होती है।

प्ररोह तंत्र में मॉड्यूली वृद्धि (modular growth in shoot system)

आवृतबीजी पादपों में प्ररोह शीर्ष पर विभज्योत्तक क्षेत्र होता है , जिससे पर्ण आद्यको की उत्पत्ति होती है। पर्ण आद्यकों के मध्य का अंतराल पर्व और पर्व संधियों के मध्य की दूरी और पर्णविन्यास पर निर्भर करता है। पर्वसंधियों पर उपस्थित पत्तियों की कक्ष में प्राय: कलिकाएँ विकसित होती है जो वृद्धि करके शाखा या पुष्प का निर्माण करती है। इस प्रकार प्ररोह शीर्ष पत्तियों के अतिरिक्त पर्व , पर्वसन्धियों , कक्षीय कलिकाओं आदि पुनरावृत अंगो का निर्माण भी करता है जो अन्तत: पादप का प्ररोह तंत्र बनाते है। प्ररोह में उपस्थित पत्तियाँ , पर्व , पर्व सन्धियाँ और कलिकाएँ मेटामर कहलाती है। इस प्रकार मेटामर प्ररोह संरचना की एक इकाई है और प्ररोह तन्त्र अनेक पुनरावृत मेटामर इकाइयों से मिलकर बनता है। अत: हम कह सकते है कि प्ररोह वास्तव में एक मेटामरीकृत अक्ष है जिसे मॉड्यूल कहते है।
शीतोष्ण क्षेत्र के वृक्षों में विभिन्न ऋतुओं में विविध आकृतिक मेटामरों की उत्पत्ति (शीर्षस्थ विभज्योत्तकी की सक्रियता अनुसार) देखी गयी है। विभिन्न ऋतुओं में बनी ये वृद्धि इकाइयां उपमोड्यूल कहलाती है। इसके विपरीत उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के अनेक वृक्षों में प्ररोह शीर्ष विभज्योत्तक की निरंतर समान वृद्धि के कारण मेटामर एक निश्चित क्रम में पुनरावृत होते है। इस प्रकार सम्पूर्ण प्ररोह तंत्र अनेक मेटामरी मॉड्यूलों का संग्रह है जिसमें विभिन्न सक्रियता और आयु के अनेक प्ररोह शीर्ष होते है। जनन प्रावस्था में शीर्षस्थ विभज्योत्तक पुष्पक्रम अथवा पुष्प का निर्माण करता है तथा पत्तियों के स्थान पर पुष्प के विभिन्न भाग मेटामर को निरुपित करते है। शीर्षस्थ विभज्योत्तक पुष्पक्रम अथवा पुष्प से सम्बन्धी मेटामरों की उत्पत्ति से पहले एक निश्चित संख्या में मेटामर उत्पन्न करता है।
प्ररोह में उपस्थित कक्षीय कलिकाओं या अपस्थानिक कलिकाओं से विकसित होने वाली शाखाएँ भी एक मॉड्यूल को निरुपित करती है। किसी भी वृद्धि मॉड्यूल में उपस्थित सभी कलिकाएँ समान न होकर आमाप और क्षमता में विभिन्नता प्रदर्शित करती है और इनकी असमान क्षमताओं के कारण ही प्ररोह तंत्र के शाखन में असमानता होती है। कोई कक्षीय कलिका वृद्धि कर एक निश्चित प्रमुख शाखा बना सकती है या इसका विकास एक छोटी अस्पष्ट शाखा में हो सकता है। इसके अतिरिक्त कक्षीय कलिका एक पुष्प में विकसित हो सकती है और अन्य परिस्थितियों में यह प्रसुप्त अवस्था में रह सकती है।

मूल तन्त्र में मॉड्यूली वृद्धि (modular growth in root system)

मूल शीर्ष विभज्योत्तक मूल तंत्र की उत्पत्ति करता है। मूलतंत्र का मॉड्यूली लक्षण इसकी शाखन पद्धति से स्पष्ट होता है। प्राथमिक द्वितीयक और उच्च श्रेणी की अन्य पाशर्व जड़े सभी अलग अलग मॉड्यूल दर्शाती है और सामूहिक रूप से मूलतन्त्र का निर्माण करती है। इसके अतिरिक्त संचयी जड़े , वायवीय जड़े और वातरन्ध्र मूल आदि विभिन्न प्रकार के मूल मॉड्यूल के उदाहरण है।
सभी श्रेणी की पाशर्व मूलों की उत्पत्ति मुख्य मूल से ही होती है। मुख्य मूल से पाशर्व जड़ें सूक्ष्म आद्यक के रूप में विकसित होती है और इन आद्यकों की सक्रियता मूल शीर्ष पर उपस्थित शीर्षस्थ विभज्योत्तक द्वारा प्रभावित होती है। यह सक्रियता इस बात पर निर्भर होती है कि , पाशर्व मूल का आद्यक मुख्य मूल के शीर्षस्थ विभज्योत्तक से कितनी दूरी पर स्थित है और इस पाशर्वमूल की स्थिति क्या है ? अत: विभिन्न श्रेणियां (प्राथमिक , द्वितीयक , तृतीयक।  . . . . . . ) की मूलों की सापेक्ष वृद्धि उनके शीर्षस्थ विभज्योत्तक की शीर्ष प्रभाविता पर निर्भर करती है। अत: प्राथमिक मूल की शीर्ष प्रभाविता प्रथम श्रेणी की पाशर्वमूलों के प्रतिरूप को और प्रथम श्रेणी की पाशर्व मूलों की शीर्ष प्रभाविता द्वितीयक श्रेणी की पाशर्वमूलों के प्रतिरूप को निर्धारित करती है। इसी क्रम में अन्य उच्च श्रेणी की मूलों के प्रतिरूप भी निर्धारित होते है। इस प्रकार विभिन्न श्रेणी की पाशर्व मूलों की वृद्धि में एक पारस्परिक सम्बन्ध रहता है। प्राथमिक मूल और उससे विकसित होने वाली विभिन्न श्रेणी की पाशर्व मूलों के व्यास में भी घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। सामान्यतया पाशर्व मूलों की प्रत्येक उत्तरोत्तर श्रेणी में उनका व्यास लगभग आधा हो जाता है और इनकी प्रसार दर और शाखन भी अपेक्षाकृत कम होती जाती है।
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