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Categories: BiologyBiology

पक्षियों का जनन और परिवर्द्धन कैसे होता है ? पक्षी के अंडों की संरचना क्या है ? fertilization in birds

development and fertilization in birds in hindi पक्षियों का जनन और परिवर्द्धन कैसे होता है ? पक्षी के अंडों की संरचना क्या है ?

रूक की शरीर-गुहा की इंद्रियां
पचनेंद्रियां रूक द्वारा पकड़ा गया भोजन लंबी ग्रसिका के जरिये जठर में पहुंचता है (प्राकृति ११६)।
अनाज के दाने खानेवाले पक्षियों ( मुर्गियों , कबूतरों) की ग्रसिका अन्नग्रह में खुलती है जहां दाना जठर में प्रवेश करने से पहले नरम हो जाता है। रूक अनाज के अलावा कई अन्य चीजें खाता है और उसके अन्नग्रह नहीं होता।
रूक के जठर के दो विभाग होते हैं – ग्रंथिमय और पेशीमय । ग्रंथिमय विभाग को दीवारों में बहुत-सी ग्रंथियां होती हैं जिनमें से पाचक रस रसता है। आगे चलकर भोजन अगले विभाग में प्रवेश करता है। इस विभाग की दीवारें मोटी होती हैं। मुर्गी जैसे अनाजभक्षी पक्षियों में यह विभाग विशेष विकसित रहता है। इसमें पक्षियों द्वारा निगले गये रेत और कंकड़ियों के कण हमेशा मिलते हैं। जब मोटी पेशीमय दीवारें संकुचित हो जाती हैं तो कंकड़ियों के कण अनाज के दानों और बीजों को चक्की की तरह पीस डालते हैं।
जठर के बाद आती है लंबी और पतली प्रांत। अन्य कशेरुक दंडियों की तरह इस प्रांत के आरंभ में यकृत् और अग्न्याशयों की वाहिनियां खुलती हैं। इन दोनों के रस भोजन के पाचन में सहायक होते हैं । पचे हुए पदार्थ छोटी आंत में रक्त में अवशोषित होते हैं। पक्षियों में मोटी आंत कम लंबी होती है। इसके अवस्कर नामक पिछले हिस्से में जल-स्थलचर प्राणियों और उरगों की ही तरह मूत्र-मार्ग और लिंग-ग्रंथियों की वाहिनियां खुलती हैं।
अन्य पक्षियों की तरह रूक भी अपना भोजन जल्दी पचा लेता है। अनपचे अवशेष मोटी प्रांत में रुकते नहीं बल्कि फौरन शरीर से बाहर निकल जाते हैं।
मोटी प्रांत की कम लंबाई , वार वार प्रांत का खाली होना और दांतों का काम देनेवाले जठर के पेशीमय विभाग का विकास – ये सब उड़ान से मंबंधित विशेष अनुकूलताएं हैं।
श्वसनेंद्रियां रूक के फुफ्फुस वक्ष-गुहा में होते हैं। ये मोटे और हल्के गुलाबी रंग के स्पंज के से एक जोड़े के रूप में होते हैं। (आकृति ११६)।
मुख-गुहा से निकलकर पूरी गर्दन में एक लंबी श्वास-नली फैली रहती है जो आगे दो शाखाओं में विभक्त होती है। ये शाखाएं श्वास-नलिकाएं कहलाती हैं। श्वाम-नलिकाएं फुफ्फुसों में पहुंचती हैं। यहां उनसे और शाखाएं निकलती हैं। श्वासनली और श्वास-नलिकाओं में उपास्थीय छल्ले होते हैं जिनके कारण उक्त नली और नलिकाओं की दीवारें धंसती नहीं और इससे हवा का मुक्त परिवहन सुनिश्चित होता है। पक्षियों के फुफ्फुस इंद्रियगत वायवाशयों से संबद्ध रहते हैं।
आराम करते समय पक्षी छाती की हड्डी को उठाकर और गिराकर सांस लेता है। जब छाती की हड्डी गिरती है तो वक्षीय गुहा फैलती है और नासा-द्वारों, मुखगुहा , श्वास-नली और श्वास-नलिकाओं से हवा फुफ्फुसों में ली जाती है। जब छाती श् की हड्डी उठती है तो वक्ष संकुचित होता है और हवा बाहर लौटती है।
उड़ान के समय वक्ष स्थिर होता है और उस समय उक्त जैसा श्वसन असंभव होता है। उस समय पक्षी हवाई थैलियों के सहारे श्वसन करता है। जब पक्षी डैने फैलाता है तो हवाई थैलियां फैलकर हवा अंदर लेती हैं। जब डैने समेटे जाते हैं तो हवा शरीर से बाहर फेंकी जाती है। हवाई थैलियों में पहुंचते और वहां से बाहर आते समय हवा दो बार फुफ्फुसों में से होकर गुजरती है। दोनों मामलों में ऑक्सीजन का अवशोषण होता है। इस प्रकार दोहरी श्वसन-क्रिया होती है। जितनी अधिक तेजी के साथ पक्षी उड़ता है उतना ही अधिक वह डैने मारता है। इससे उतनी ही अधिक हवा उसके फुफ्फुसों में से होकर गुजरती है। गरज यह कि कितनी भी तेज उड़ान के दौरान पक्षी श्वासोच्छ्वास कर सकते हैं।
हवाई थैलियां इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि वे शरीर का विशिष्ट गुरुत्व घटाती हैं।
श्वास-नली के नीचे की ओर , जहां वह श्वास-नलिकाओं में विभक्त होती है , ध्वनि उपकरण सहित स्वर-यंत्र होता है। इसी के सहारे पक्षी जोर से चिल्ला सकता है।
रक्त-परिवहन इंद्रियां पक्षी का हृदय जल स्थलचरों या उरगों की तरह तीन कक्षों वाला नहीं बल्कि चार कक्षों वाला (आकृति ११६) होता है। लंबाई के वल एक विभाजक उसे दाहिने और बायें अद्र्वों में बांट देता है। हर अर्द्ध में एक अलिंद और एक निलय होता है। रक्त हृदय में मिश्रित नहीं होता और शरीर को मिलनेवाला रक्त प्रॉक्सीजन से समृद्ध रहता है। अन्य स्थलचर कशेरुक दंडियों की तरह यहां भी रक्त शरीर में दो वृत्तों में बहता है।
अप्रधान अथवा फुफ्फुस वृत्त में कार्बन डाइ-आक्साइड से भरपूर रक्त दाहिने निलय से फुफ्फुसों की ओर बहता है। वहां वह कार्बन डाइ-आक्साइड छोड़ देता है और ऑक्सीजन से समृद्ध हो जाता है। फुफ्फुसों में से रक्त हृदय के वायें अलिंद को लौट आता है।
बायें अलिंद से रक्त बायें निलय में ठेला जाता है और यहीं प्रधान वृत्त प्रारंभ होता है। इस वृत्त की धमनियों के जरिये रक्त सभी इंद्रियों की केशिकाओं में पहुंचता है। यहां वह अपना ऑक्सीजन छोड़ देता है, कार्बन डाइ-आक्साइड ले लेता है और शिराओं के द्वारा दाहिने अलिंद को लौट आता है।
उत्सर्जन इंद्रियां पक्षियों में गुरदे श्रोणि-अस्थियों के नीचे होते हैं। ये दो बड़े से गहरे लाल रंग के पिंड होते हैं। गुरदों से मूत्र-मार्ग निकलता है जो अवस्कर में खुलता है। पक्षियों के मूत्राशय नहीं होता य अवस्कर से विष्ठा के साथ मूत्र का उत्सर्जन होता है।
उपापचय उड़ान की सामर्थ्य के फलस्वरूप अन्य पक्षियों की तरह रूक का जीवन भी उरगों की अपेक्षा अधिक चल होता है। अतएव उसकी सभी इंद्रियां अधिक गहनता से काम करती हैं- हृदय का संकुचन अधिक बार होता है, रक्त-वाहिनियों में रक्त अधिक शीघ्रता से बहता है, फुफ्फुसों में से होकर अधिक हवा गुजरती है, शरीर में अधिक उष्णता उत्पन्न होती है और पोषण तथा उत्सर्जन की इंद्रियां अधिक तेजी से काम करती हैं। आम तौर पर पक्षियों में सभी महत्त्वपूर्ण प्रक्रियाएं, पूरा उपापचय-चक्र उरगों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होता है। इस कारण पक्षियों के शरीर का तापमान स्थायी होता है और यहां तक कि स्तनधारी प्राणियों और मनुप्य के शारीरिक तापमान से ऊंचा भी होता है (४२-४३ सेंटीग्रेड)।
प्रश्न-१. पक्षी की पचनेंद्रियों की कौनसी विशेषताएं उसकी उडान संबंधी अनुकूलताओं से संबंध रखती हैं ? २. पक्षी की श्वसनेंद्रियों की संरचना कैसी होती है? ३. उड़ान के समय पक्षी किस प्रकार श्वसन करता है ? ४. पक्षियों और जल-स्थलचरों के रक्त-परिवहन तंत्रों के बीच कौनसा संरचनात्मक भेद है ? ५. उत्सर्जन इंद्रियों की संरचना कैसी होती है ? ६. पक्षियों में क्यों स्थायी शारीरिक तापमान होता है ?
व्यावहारिक अभ्यास – जब डिनर के लिए मुर्गी बनायी जायेगी तो उसकी अंदरूनी इंद्रियों की जांच करो।
पक्षियों का जनन और परिवर्द्धन
जननेंद्रियां नर और मादा रूक एक-से दिखाई देते हैं। शरीर-गुहा वे अंदर स्थित जननेंद्रियों के द्वारा ही उनकी भिन्नता स्पष्ट होती है। नर में सेम के आकार के एक जोड़ा वृषण होते हैं और मादा में अकेल अंडाशय।
वसंत ऋतु में पक्षिणी के अंडाशय में कई छोटे-बड़े अंडे नजर आते हैं। परिवर्द्धन की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में होते हैं। परिपक्व अंडे चैड़ी अंड-वाहिनी वे जरिये बाहर निकलते हैं। अंड-वाहिनी अवस्कर में खुलती है।
पक्षियों में एक अंडाशय के विकास के कारण उनके शरीर का वजन घटता है इसके अलावा उरगों की तरह सभी अंडे. एकसाथ नहीं बल्कि एक एक करके परिपक्व होते हैं य इससे भी पक्षी को उड़ान के समय अतिरिक्त भार से मुक्ति मिलती है।
रूकों का जनन देशांतर से लौट आते ही रूक फौरन पुराने घोंसलों की मरम्मर या नये घोंसलों के निर्माण में लग जाते हैं। रूक अपनी एक बस्ती ही बना लेते हैं। हर बस्ती में सौ अधिक घोंसले होते हैं जो एक दूस से सटे रहते हैं। रूक अपने घोंसले मनुष्यों की बस्ती के पासवाले लंबे लंबे वृक्षों पर य खेतों में बिखरे हुए कुंजों में बना लेते हैं। स्पष्ट है कि इन स्थानों में भोजन की कार्फ सपलाई होती है।
घोंसले का आकार चैड़ी टोकरी का सा होता है। यह वसंत के प्रारंभ में बनाया जाता है। निर्माण सामग्री होती है टहनियां और छड़ियां जो रुक अपनी मजबूत चोंच से काट लेते हैं। घोंसले बनाये जाने के समय स्कों की बस्तियां उनकी चीख-चिल्लाहट से गूंज उठती हैं।
अप्रैल में अंडे देना शुरू होता है। अंडे हल्के हरे रंग के होते हैं और उनपर गहरे भूरे रंग के ठप्पों का छिड़काव होता है। इससे , मादा जब घोंसले को खुला रखकर बाहर उड़ जाती है तो उसमें अंडों को पहचान लेना मुश्किल होता है।
चार-पांच अंडे देने के बाद पक्षिणी उनपर बैठती है। उनकी उप्णता के प्रभाव से अंडों में भ्रूण परिवर्दि्धत होने लगते हैं। १७-१८ दिन में अंडों से परदार बच्चे निकलते हैं जो शुरू शुरू में उड़ नहीं पाते। उनके लिए मां-बाप भोजन ले पाते हैं। भोजन में मुख्यतया कीड़े और उनके डिंभ शामिल हैं।
पक्षी के अंडों की संरचना पक्षियों के अंडे उरगों के अंडों की ही तरह पोपक पदार्थों से समृद्ध रहते हैं और आकार में मछलियों और जल-स्थलचरों के अंड-समूहों से बड़े होते हैं। बाहर की ओर अंडों पर एक सख्त कवच होता है। चूंकि सभी पक्षियों के अंडों की संरचना प्राम तौर पर एक-सी होती है, इसलिए – हम मुर्गी के अंडे की ही जांच करेंगे।
अंडे के बीचोंबीच गेंद के आकार का बड़ा-सा पीला द्रव्य या योक (आकृति ११७) होता है। यदि हम अंडे को तोड़कर तश्तरी में उंडेल दें तो योक के ऊपर की ओर एक छोटा , गोल और सफेद-सा धब्बा साफ दिखाई देगा। यह है भ्रूणीय टिकली। योक का बाकी हिस्सा पोषक पदार्थों से भरा रहता है।
अंडों का योक सफेदी से घिरा रहता है और एक पतला-सा परदा उसे सफेदी से अलग किये रहता है। परदे के फट जाने से योक फैल जाता है। अंडे की अर्द्धतरल सफेदी में हम ऐंठनदार धागों जैसा एक घना हिस्सा देख सकते हैं। ये हैं लचीली स्नायुएं जो अंडे के बीच की भ्रूणीय टिकली के साथ योक को आधार देती हैं। अंडे के खोटे हिस्से की ओर सफेदी कवच तक नहीं पहुंचती और वहां थोड़ी-सी खाली जगह रहती है। इसे हवाई गुहा कहते हैं। हवाई गुहा के कारण अंडे के सेये जाते समय सफेदी आजादी से फैल सकती है।
सख्त चूने के कवच में अनगिनत रंध्र होते हैं। भ्रूण के लिए आवश्यक हवा इनके जरिये अंडे में पैठती है। कवच के नीचे एक परदा होता है। एक और बहुत ही पतला परदा कवच को बाहर से ढंके रहता है। इस परदे से हवा तो अंदर जा सकती है पर वह रोगाणुओं को अंडे में घुसने से रोकता है। यह परदा सहज ही हट सकता है, अतएव जो अंडे देर तक रखने हैं उन्हें कभी न धोना चाहिए।
भूण का परिवर्द्धन अंडे दिये जाने के समय परिपक्व अंडे अंड-वाहिनी में पहुंचते हैं। यहां उनका संसेचन होता है। संसेचित अंडे पर सफेदी और परदों का आवरण चढ़ता है। यहीं रहते हुए उष्णता के प्रभाव से भू्रणीय टिकली में भू्रण परिवर्दि्धत होने लगता है। अतः पक्षी के दिये गये अंडे मछलियों या जल-स्थलचरों के नये से दिये गये अंड-समूहों की तरह अंड-कोशिका मात्र नहीं होते। जब अंडा दिया जाता है और वह शीतल वातावरण में प्रवेश करता है तो उसका परिवर्द्धन अस्थायी रूप से रुक जाता है। जब पक्षिणी उसपर बैठकर उसे अपने शरीर से गरमी पहुंचाने लगती है तो वह फिर से शुरू होता है। भ्रूण के परिवर्द्धन के लिए उष्णता अनिवार्य है।
प्रारंभ में भ्रूण पक्षी जैसा नहीं लगता। उसके जीवन के विल्कुल शुरू में उसकी शकल-सूरत उरग की सी होती है (आकृति ११८)। उसके कशेरुक दंड सहित लंबी पूंछ होती है, जबड़े चोंच में फैले हुए नहीं होते , अग्रांग उरग के पैरे जैसे दिखाई देते हैं। जिस प्रकार वेंगची मछली जैसी दिखाई देती है, पक्षी का भ्रूण उसी प्रकार उरग के भ्रूण जैसा दीखता है।
परिवर्द्धन की प्राथमिक अवस्थाओं में पक्षी के भ्रूण के जल-श्वसनिका-छिद्र होते हैं। इससे जाना जा सकता है कि पक्षियों के प्राचीन पूर्वज पानी में रहते थे।
प्रश्न – १. पक्षी की जननेंद्रियां कौनसी हैं ? २. पक्षियों और उरगों की जनन-क्रियाओं में कौनसे साम्य-भेद हैं ? ३. नये से दिये गये अंडे को अंडकोशिका क्यों नहीं कहा जा सकता? ४. पक्षी के भ्रू्रण का परिवर्द्धन कैसे होता है ? ५. पक्षियों और उरगों के भ्रूणों में कौनसी समानताएं हैं ?
व्यावहारिक अभ्यास – मुर्गी का ताजा अंडा तश्तरी में तोड़ दो, उसकी संरचना की जांच करो और उसका चित्र बनाओ।

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