देव समाज की स्थापना किसने की थी , देव समाज के संस्थापक कौन थे कब हुई , dev samaj was founded by in hindi

dev samaj was founded by in hindi देव समाज की स्थापना किसने की थी , देव समाज के संस्थापक कौन थे कब हुई ?

प्रश्न: देव समाज
उत्तर: शिव नारायण अग्निहोत्री ने 1887 में लाहौर में देव समाज की स्थापना की जो एक हिन्दू धर्म एवं समाज सुधार आंदोलन था।

प्रश्न: स्वामी नारायण संप्रदाय
उत्तर: स्वामी सहजानन्द द्वारा 19वीं शताब्दी में गुजरात में स्वामी नारायण संप्रदाय की स्थापना कर सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भाषा एवं साहित्य
हिंदी
हिंदी शब्द का प्रयोग कुछ ऐसी बोलियों के लिए किया जाता है, जिन्होंने पिछली पांच शताब्दियों में अपने भिन्न साहित्यिक रूपों को विकसित किया है। पहले भी और आज भी ब्रज भाषा है, जिसमें सूरदास ने गाया, अवधी है जिसमें तुलसीदास ने लिखा, राजस्थानी है जिसमें मीराबाई ने गाया, भोजपुरी है जो कबीर की मातृभाषा रही, मैथिली है जिसमें विद्यापति ने काव्य को ऊंचाई प्रदान की। जिसे आज हम हिंदी कहते हैं, उसके पीछे विशाल विरासत है। लेकिन अपने वर्तमान मानक साहित्यिक रूप में यह अपेक्षाकृत हाल की है उन्नीसवीं शताब्दी के पहले दशक के आसपास की। यह दिल्ली और इसके आसपास बोली जागे वाली पश्चिमी भारतीय-आर्य बोली, खड़ी बोली, पर आधारित है।
हिंदी साहित्य का प्रारंभिक काल ‘आदिकाल’ कहलाता है। चैदहवीं शताब्दी के मध्य तक इसका समय रहा। ध्यातव्य है कि विद्वानों ने 7वीं और 10वीं शताब्दी के बीच हिंदी की उत्पत्ति मानी, लेकिन 12वीं शताब्दी के अंत में और 13 शताब्दी के प्रारंभ में ही हिंदी साहित्य अपने शैशव काल को पार कर सका। आदिकाल के कवियों में सिद्ध, जैन कवि, नाथपंथी और वीर रस के कवि थे। चंदबरदाई के पृथ्वीराज रासो को इस काल की प्रथम प्रस्तुति माना जाता है (राजस्थानी बोली की हिंदी में)। हिंदी के प्रयोगधर्मी अग्रदूतों में अमीर खुसरो का नाम आता है।
चैदहवीं शताब्दी के मध्य से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक भक्ति काव्य हिंदी साहित्य में छाया रहा। निर्गुण पंथियों के बेमिसाल कवि कबीर थे, जिन्होंने ईश्वर को निराकार माना। इसी पंथ के ही गुरु नानक थे। सगुण पंथियों ने ईश्वर के अवतार की बात कही और वैष्णववाद के कवियों ने राम और कृष्ण की स्तुति में गीत गाए। सूरदास और विद्यापति ने कृष्ण की महिमा गाई तो तुलसीदास ने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाया। इसके बाद रीति काल काव्य आया। इसमें सौंदर्य को प्रधानता दी गई। इस काल में ऐतिहासिक कविता व महाकाव्य की भी रचना हुई। मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत लिखा। भाषा तो इसकी हिंदी थी, लेकिन शैली इसकी फारसी मसनवी रही। इसके पात्र भी फारसी थे।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्र्ध में हिंदी ने आधुनिक काल में प्रवेश किया। हिंदी को अब अपना फैलाव बढ़ाना था, जिसमें कई धाराओं का समावेश हो सके और संस्कृत के अगाध सरोवर से निरंतर सहायता मिलती रहे। भारतेंदु को आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक माना जाता है। उन्होंने अपनी स्वेच्छा से अपने गद्य लेखन और नाटकों के लिए खड़ी बोली को चुना, जबकि अपनी कविता के लिए ब्रजभाषा को वरीयता दी। उनके लेखन में परंपरा और नूतनता का अद्भुत समन्वय दिखता है। उनका लेखन उन लेखकों के लिए माग्रदर्शक बना, जिन्होंने हिंदी को समृद्ध और आधुनिक बनाया।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्यिक गतिविधियों को नया ओज प्रदान किया और गद्य लेखन में नए प्राण फूंके। मैथिलीशरण गुप्त ने भी समन्वय की परंपरा बना, रखी। उन्होंने महाकाव्य परंपरा को पुगजीर्वित किया। यह ऐसा काल था, जब सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याएं लेखन का आधार बनती थीं। इस शैली के लेखक थे माखन लाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर।
इसके बाद छायावाद आया। छायावाद की वृहत्रयी जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और सुमित्रानंदन पंत ने नए युग का प्रादुर्भाव किया। जयशंकर प्रसाद की कामायनी 1936 में प्रकाशित हुई। इसमें उन्होंने समय के थपेड़े से जूझते मनुष्य की मनोदशा और उसकी जीवन यात्रा का वर्णन किया है। छायावाद की एक अन्य प्रमुख लेखिका थीं महादेवी वर्मा। इन लेखकों ने प्रकृति को काफी महत्व दिया।
छायावाद के बाद दो प्रतिस्पर्धी ‘वाद’ आए प्रगतिवाद और प्रयोगवाद। प्रगतिवादियों की प्रेरणा का सोत था माक्र्सवाद। यशपाल, नागार्जुन, रामेश्वर शुक्ल और नरेश मेहता इस शैली के पुरोधा थे। प्रयोगवाद का बीड़ा उठाया सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने। शेखर एक जीवनी उनकी चर्चित कृति है। अन्य लेखक थे धर्मवीर भारती, गिरिजा कुमार माथुर, लक्ष्मीकांत वर्मा। कहानी लेखन में प्रेमचंद का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है। उन्होंने समकालीन जीवन की सच्चाइयों को हिंदी कहानियों और उपन्यासों में बखूबी उतारा। ग्रामीण परिवेश का सजीव चित्रण करने में उनका कोई सानी नहीं था। प्रगतिवाद में प्रेमचंद का बहुमूल्य योगदान रहा है। इनके बाद कहानी उस ऊंचाई को न छू पाई।
निर्मल वर्मा एक हिंदी लेखक, उपन्यासकार, कार्यकर्ता एवं अनुवादक थे। उन्हें हिंदी साहित्य में ‘नयी कहानी’ साहित्यिक आंदोलन के प्रणेता में से एक माना जाता है जो उनके प्रथम कहानी संग्रह परिन्दे में पहली बार प्रतिबिम्बित हुआ। श्रीलाल शुक्ल ने 25 से अधिक पुस्तकें लिखीं जैसे मकान, सूनी घाटी का सूरज, पहला पड़ाव और बिसरामपुर का संत। उनके उपन्यास ने भारतीय समाज में नैतिक मूल्यों के पतन पर ध्यान दिया। उनके लेखों ने व्यंगयात्मक शैली में भारत में ग्रामीण एवं शहरी जीवन के नकारात्मक पहलुओं को उद्घाटित किया। उनके सर्वोत्तम कार्य राग दरबारी को अंग्रेजी एवं 15 भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया।
नाटक के क्षेत्र में, वास्तव में प्रथम मौलिक नाटक गोपाल चंद्र का नहुसा नाटक था। लेकिन यह गोपाल चंद्र का बेटा था ‘भारतेन्दु’ जिन्होंने सही अर्थों में संस्कृत तकनीक एवं पश्चिमी नाटक के बीच हिंदी गद्यांश-नाटक को शामिल करने के समझौते को प्रभावित किया।
भारतेंदु हरीशचंद्र, हिंदी थिएटर और नाटक लेखन के पथ-प्रदर्शक, ने सत्य हरीशचंद्र (1875), भारत दुर्दशा (1876) और अंधेर नगरी (1878) लिखा। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, जयशंकर प्रसाद ने स्कंदगुप्त (1928), चंद्रगुप्त (1931) और ध्रुवस्वामिनी (1933) जैसे अपने नाटकों के लिए मान्यता प्राप्त की।
औपनिवेशिक प्रतिबंध की परवाह न करते हुए, लेखकों ने धर्ममीमांसा, इतिहास, और महान नायकों से विषय अपना, और उन्हें राजनीतिक संदेश पहुंचाने का वाहक बनाया। बाद में स्ट्रीट थिएटर ने इस ट्रेंड को समाप्त किया। आईपीटी, से प्रेरित हबीब तनवीर के नये थिएटर ने यह 1950-90 के दशकों में यह किया और सफदर हाश्मी के जन नाट्य मंच ने ऐसा 1970-80 के दशकों में किया। यद्यपि स्वतंत्रता पश्चात् के समय में, हिंदी नाटक लेखन ने बेहद संक्षिप्तता ,वं प्रतीकात्मकता का प्रदर्शन किया। इस समय के मुख्य नाटककारों में जगदीश चंद्र माथुर (कोणार्क)ए उपेन्द्रनाथ अश्क (अंजो दीदी), मोहन राकेश ख्अषाढ़ का एक दिन (1958), आधे अधूरे, और लहरों के राजहंस एए धर्मवीर भारती (अंधा युग), सुरेंद्र वर्मा और भीष्म साहनी शामिल हैं।
साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने प्राचीन संस्कृत कवित्त एवं आधुनिक पश्चिमी आलोचना का संश्लेषण किया। अमरकांत हिंदी साहित्य के एक प्रमुख लेखक हैं। उनके उपन्यास इन्हीं हथियारों से को 2007 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।