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प्रथम विश्व युद्ध के दौरान शामिल न होने वाले देश कौनसे थे , countries in first world war not joined in hindi

countries in first world war not joined in hindi प्रथम विश्व युद्ध के दौरान शामिल न होने वाले देश कौनसे थे ?

प्रश्न: प्रथम विश्व युद्ध के समय धुरी राष्ट्र कौन-कौन थे?
उत्तर: प्रथम विश्व युद्ध के समय जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी, टर्की तथा बल्गेरिया धुरी राष्ट्र थे।
प्रश्न: प्रथम विश्व युद्ध के दौरान शामिल न होने वाले प्रमुख देशों के नाम बताइए।
उत्तर: प्रथम विश्वयुद्ध में कुछ देश शामिल नहीं हुए रू यूरोप में हॉलैण्ड, डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, स्वीट्जरलैण्ड व स्पेन। द, अमेरिका में मैक्सिको व चिली।
प्रश्न: प्रथम विश्व युद्ध का उत्तरदायित्व के लिए विभिन्न देशों द्वारा कौन-कौनसी पुस्तकें प्रकाशित की गई ?
उत्तर: प्रथम विश्वयुद्ध का उत्तरदायित्व एक-दूसरे पर डालने के लिए मुख्य देशों ने अपने अपने सरकारी दस्तावेज निकाले, जो थे – जर्मनी द्वारा  हांइट बुक, ब्रिटेन द्वारा ब्ल्यू बुक, रूस द्वारा औरेंज बुक, फ्रांस द्वारा यलो बुक बेल्जियम द्वारा ब्राउन बुक तथा आस्ट्रिया द्वारा श्रेड बुक।

भाषा एवं साहित्य

पंजाबी
विद्वानों के अनुसार पंजाबी सौरसेनी अपभ्रंश से निकली है। इसकी उत्पत्ति 11वीं शताब्दी की बताई जाती है। कुछ विद्वान इसके विकास में पैशाची प्रभाव देखते हैं। आधुनिक पंजाबी के विकास को सिख गुरुओं द्वारा बनाई गई गुरुमुखी लिपि के समानांतर रखा गया है। साहित्यिक पंजाबी 15वीं शताब्दी में बन पाई गुरु नानक के समय से लेकर गुरु गोविंद सिंह के काल तक। धार्मिक काव्य बहुतायत में लिखा गया। इसका अधिकांश आदि ग्रंथ में देखा जा सकता है। पंजाबी कविता पर सूफी और किस्सा का प्रभाव था। बुल्ले शाह और वारिस शाह ने खूबसूरत गीत लिखे। वारिस शाह की हीर रांझा (1766) को क्लासिकल दर्जा प्राप्त है।
पंजाबी के प्रारंभिक गद्य को जनम साखी (गुरुओं का आत्मचरित), परमारथ और गुरुओं की वाणी में देखा जा सकता है। प्रेम सुमाग्र गुरु गोविंद सिंह ने लिखा। पारस भाग अद्दनशाह द्वारा और ज्ञान रत्नावली भाई मनी सिंह द्वारा लिखा गया। जब ईसाई मिशनरियों ने लुधियाना में पहला छापाखाना लगाया, तब से ही आधुनिक पंजाबी साहित्य प्रारंभ हुआ। ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान ब्रिटिश शिक्षा के माध्यम से पंजाबी साहित्य में विक्टोरियन उपन्यास,एलिजाबेथ नाटक, मुक्त पदबंध और आधुनिकीकरण का प्रवेश हुआ। प्रथम पंजाबी छापाखाना (गुरुमुखी लिपि का प्रयोग करने वाला) की स्थापना 1835 में लुधियाना में ईसाई मिशन द्वारा की गई, और प्रथम पंजाबी शब्दकोश का प्रकाशन रेवरेंड जे- न्यूटन द्वारा 1854 में किया गया।
पंजाबी कविता में आधुनिकीकरण का पर्दापण प्रोफेसर मोहन सिंह एवं शरीफ कुंजही द्वारा किया गया। ब्रिटिश शासन के दौरान पंजाबी देशभक्ति का जन्म भी हुआ और कविता लिखी गई जिसका विषय ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह था। पंजाबी उपन्यास का विकास नानक सिंह (1897-1971) द्वारा किया गया जिन्होंने उपन्यास को कहानी-वाचन की परम्परा किस्सा से जोड़ने में मदद की। भाई वीर सिंह ऐतिहासिक रोमांस (सुंदरी, सतवंत कौर, और बाबा नौध सिंह) पर लिखा। वीर सिंह (1872-1957) को आधुनिक पंजाबी साहित्य का पिता माना जाता है। गुरुमुख सिंह मुसाफिर जैसे लेखकों ने राष्ट्रवादी भावना को बढ़ावा दिया। मोहन सिंह और अमृता प्रीतम कविता में प्रगतिशील तत्व लेकर आए। अमृता प्रीतम (1919-2005) के उपन्यास, लघु कथाएं, और कविताएं, अन्य विषयों के अलावा, ने महिला अनुभवों और भारत के विभाजन को प्रमुखता से चित्रित किया। धनीराम चातरिक, दीवान सिंह और उस्ताद दमन ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एवं बाद में अपनी कविताओं द्वारा राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति की।
आधुनिक समय में पंजाबी फिक्शन ने आधुनिकतावादी एवं उत्तरोगार-आधुनिकतावादी साहित्य में विषयों का विस्तार किया। अजित कौर और दिलीप कौर तिवाना जैसी महिला लेखिकाओं ने अपने कार्य में सांस्कृतिक पितृसत्ता और महिला की दुर्दशा पर प्रश्न खड़ा किया।
आधुनिक पंजाबी नाटक का विकास ईश्वर नंदा के 1913 में सुहाग के माध्यम से हुआ। गुरशरण सिंह ने इस शैली को पंजाबी गांवों में साक्षात् प्रस्तुति के माध्यम से लोकप्रिय बनाया। संत सिंह सेखोन, करतार सिंह दुग्गल, और बलवंत गर्गी ने नाटकों का लेखन किया।
संथाली
संथाली, भारत, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान में लगभग 6 मिलियन लोगों द्वारा बोली जाती है, आॅस्ट्रो-एशियाटिक भाषाओं के संथाली उप-परिवार में एक भाषा है। यह हो एवं मुंडारी से सम्बद्ध है। झारखंड, असम, बिहार, ओडिशा, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में संथाली भाषी लोग हैं।
ब्रिटिश शासन के दौरान संथाली भाषा रोमन लिपि में लिखी जाती थी। अब, संथाली देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। संथाल लिपि पारस्परिक रूप से वर्तमान विकास की है। बीसवीं शताब्दी तक, संथाली की लिखित भाषा नहीं थी, और यह लेटिन या रोमन, देवनागरी और बांग्ला लेखन तंत्र का प्रयोग करती थी। बंगाली भाषा के साथ इसकी समानता के कारण अधिकतर शिक्षित संथाली लेखकों ने इसे बंगाली में लिखने पर तवज्जो दी।
कुछ लोगों द्वारा संथाली की एक पृथक् लिपि की आवश्यकता महसूस की गई। इसके परिणामस्वरूप 01 चिकी लिपि का आविष्कार हुआ। इस लिपि की खोज पंडित रघुनाथ मरमु, जो गुरु गोमके के तौर पर जागे जाते हैं, ने 1925 में की। उन्होंने 150 से अधिक पुस्तकें लिखीं जिनमें विभिन्न विषयों की व्यापक शृंखला का समावेश था। इनके कामों में संथाली में व्याकरण, उपन्यास, नाटक, कविता और लघु कथा,ं शामिल हैं। उनके कार्यों में सर्वाधिक प्रशंसनीय कार्य डेरगे धान, सिद्धू-कानहू, बिडू चंदन और खेरवाल बीर पंडित शामिल हैं।
सिंधी
इस बात पर विवाद है कि सिंधी भाषा कितनी पुरानी है और किस भाषा समूह से संबंधित है। कई विद्वान इसे भारतीय-आर्य भाषा मानते हैं तो कुछ इसे सिंधु घाटी सभ्यता की भाषाओं में से एक मानते हैं यानी संस्कृत से भी पहले की। सिंधी के पास 1853 तक अपनी लिपि नहीं थी। बाद में इसने अरबी अक्षर अपना,। सिंधी की प्रारंभिक कविता 14वीं शताब्दी की मानी गई है, जिसमें ममोई संतों द्वारा लिखित बयत है। कादी कदान पहले उल्लेखनीय कवि थे। शाह करीम सूफी कवि थे। सिंधी के सबसे महान कवि हुए हैं शाह अब्दुल लतीफ (17वीं श्तााब्दी के अंत में), जिनके कविता संग्रह रसालो में गूढ़ विचारों और भाषाई चमत्कार का समन्वय मिलता है। इनके अलावा अब्दुल वहाब (सचल) और भाई चैनराय (सामी) हुए, जिनमें चैनराय वेदांती थे। फारसी कविताओं का प्रभाव अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ से देखा जा सकता है, जब गजल, कसीदा, रूबाई, और मतनवी ने सिंधी साहित्य में स्थान पाया। विषय वस्तु भी बदली और अब रूमानियत को प्रमुखता दी जागे लगी। खलीफो गुल मुहम्मद ‘गुल’ पहले सिंधी कवि थे, जिन्होंने ‘दीवान’ की रचना की। किशनचंद्र ‘बेबस’ ने पारंपरिक प्रेम गीतों की बजाय प्रकृति पर कविताएं लिखीं।
सिंध पर अंग्रेजों के अधिकार के बाद सिंधी गद्य लेखन को प्रोत्साहन मिला। कई व्याकरण और शब्दकोश प्रकाशित हुए। इसके अलावा धर्म, कला और विज्ञान पर भी पुस्तकें छपीं। सिंधी के प्रबुद्ध गद्य लेखकों में है मुंशी ऊधोराम, दीवान लीलाराम सिंह, दयाराम गिदुमल और मिर्जा कलीच बेग। मिर्जा बेग उपन्यासकार भी थे (दिलाराम, जीनत)। अन्य उपन्यासकारों में लालचंद्र अमरदीनोमल (चैथ जो चांद), अब्दुल रज्जाक (जहांआरा), भेरूमल (आनंद सुंद्रिका), निर्मलदास फतेहचंद (दलुराई जी नगरी), गुली कृपलानी (ईथाउद्ध, राम पंजवानी (कैरी) और नारायण दास भंनानी (मल्हिन) हैं।
जहां तक नाटकों की बात है, मिर्जा बेग ने लैला मजनूं (1880) से शुरूआत की थी। खानचंद दरयानी ने कई मौलिक नाटक लिखे। अहमद चागला और लेखराज अजीज ने भी सिंधी नाटकों को काफी समृद्ध किया।
मीर हसन अली और मीर अब्दुल हुसैन सांगी, खेलीफो गुल, फाजिल शाह, कासिम, हाफिज हमीद, मोहम्मद हाशिम, मुखलिस, अबोजहो, सूरत सिंह, खाकी, मिर्जा कालिच बेग, जिया एवं अजीज पारसी में कविता के प्रमुख उन्नायक थे। लेकिन ‘बेवास’ हैदर बक्स जटोई एवं दुखयाल द्वारा आधुनिक रूप एवं सिंधी कविता सामाग्री को नई बुलंदी दी गई। उपन्यास एवं लघु कथा,ं गद्य का मुख्य रूप बन गए। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नरेन दास भम्भानी, गोविंद मालही, सुशीला जे. लालवानी, सुंदरी उत्तमचंदानी, पोपती हीरानंदानी, उस्मान देपलई, जमाल अब्रो,शेख अयाज, राशिद भट्टी, हाफिज अखुं.ड, तारिक आलम अब्रो, ईश्वर चंदर, मानक, इश्तियाक अंसारी, केहर शौकत, मुश्ताक शोरो,शौकत शोरो, आदिल अब्बासी, राजा अब्बासी रहमतुल्लाह मगजोथी, बादल जमाली, इशाक अंसारी, मुनावर सिराज, इस्माइल मैंगियो, फयाज चंद कालेरी और अयाज अली रिंड जैसे उपन्यासकारों एवं लघु कथा लेखकों का अभ्युद्य हुआ।
विगत् कई दशकों के लिए, कैफी, वेई, बेत, गीत और दोहिरा जैसे कविता के शास्त्रीय रूपों के साथ-साथ मुक्त छंद, अलंकारों की भी रचना की गई। आज के सिंध के प्रसिद्ध कवियों में मख्दूम तालिबुल मोला, उस्ताद बुखारी,शेख अयाज, दरिया खान रिंड, मख्दूम अमीन फाहिम और इमदाद हुसैनी शामिल हैं।
1952 में, नूर-उद-छीन सरकी और अब्दुल गुूर अंसारी ने सिंधी भाषा के साहित्यिक मंच का पुनर्निर्माण किया और इसका नाम सिंधी भाषा के साहित्यिक मंच का पुनर्निर्माण किया और इसका नाम सिंधी अदबी संगत रखा गया। इसने पूरे विश्व में अधिकतर सिंधी साहित्यिक व्यक्तित्वों को आकर्षित किया है। पाकिस्तान में इसकी शाखाओं के अतिरिक्त भी अब विश्व में कई जगह इसकी शाखाएं खुल रही हैं।
बंटवारे के बाद सिंध का प्रांत पाकिस्तान को मिला, लेकिन हमारे देश के हर कोने में सिंधी मौजूद हैं। भारत में सिंधी साहित्य काफी प्रगति कर रहा है।