ऋणात्मक पुनर्भरण का सिद्धांत क्या है , Concept of negative feed mechanism in hindi feedback

जानें ऋणात्मक पुनर्भरण का सिद्धांत क्या है , Concept of negative feed mechanism in hindi feedback ?

अन्तः स्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands)

जंतुओं की देह में सदैव “समस्थापन’ (homeostasis) की स्थिति पायी जाती है, जिसके अंतर्गत प्रत्येक यंत्र एक निश्चित कार्यिकीय सीमा के भीतर क्रियात्मक स्वतंत्रता रखता हुआ गतिक साम्य (dynamic equilibrium) बनाये रखने में सहयोग करता है। वास्तव में समस्थापन की यह अवस्था दो समाकलनी तंत्रों (integrating systems) अन्त:स्रावी एवं परिधीय तंत्रिका तंत्र के द्वारा प्राप्त की जाती है जो परोक्ष अथवा अवरोध रूप से केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र द्वारा नियंत्रित एवं संचालित रहते हैं।

सामान्यतः तंत्रिका तंत्र द्वारा प्रदर्शित अनुक्रिया ( response) स्थानीकृत, क्षणिक एवं तीव्र होती है जो तंत्रिकीय आवेग द्वारा जलकर स्थानीय प्रेषित्र (transmitter) “न्यूरोह्यूमर (neurohumor) का स्रावण कर उत्पन्न की जाती है। अन्तःस्रावी तंत्र इसको विपरीत रासायनिक पदार्थों “हामोन्स” (hormones) का स्रवण सीधे रक्त परिवहन में करके, क्रियाओं को अपेक्षाकृत अधिक समय हेतु संचालित करता है जो केवल लक्ष्य अंगों (target organs) को ही प्रभावित करते हैं। यद्यपि दोनों तंत्र रसायनिक पदार्थों का स्रवण करके ही प्रतिक्रिया दर्शाते हैं, किन्तु न्यूरोह्यूमर का प्रभाव तीव्र सूक्ष्म, क्षेत्रीय एवं अल्पकालिक होता है, जबकि हारमोन का प्रभाव रक्त परिवहन तंत्र द्वारा ले जाये जाने के कारण दीर्घकालिक व धीमा, लक्ष्य अंगों को प्रभावित कर प्रतिक्रिया दर्शाता है।

अन्तःस्रावी तंत्र (endocrines system) की परिधी में दैहिक तंत्र सम्मिलित किये जाते हैं। जो लक्ष्य अंगों की लम्बी अवधि की क्रियाओं एवं पाचन, श्वसन, उत्सर्जन, उपापचय, वृद्धि, जनन आदि कार्यिकीय क्रियाओं का संचालन करते हैं। इस तंत्र के अंतर्गत कुछ विशिष्ट ग्रन्थियाँ आती है जिन्हे “अन्त: स्रावी ग्रन्थियाँ ” (endocring glands) कहते हैं। ये ग्रन्थियाँ जंतुओं की देह के विभिन्न भागों में स्थित होती है तथा अपने स्रवण सीधे रक्त के द्वारा परिसंचरण तंत्र में स्रवित करती है अर्थात् नलिका विहीन होती है, अतः “नलिका विहीन ग्रन्थियाँ ” (ductles glands) भी कहलाती है। कशेरुकियों की देह में पीयूष (pituitary), अक्टु अथवा थायरॉइड (thyroid), परावटु अर्थात् पेराथायरॉइड (parathyroid), थाइमस ( thymus), अग्नाशय (pancreas), अधिवृक्क या एडरीनल (adrenal) आदि रचनाएँ इस प्रकार है। देह के कुछ अंगों में भी अन्तः नावी कार्य भी करते हैं। इनमें वृषण (testis), अण्डाशय (ovary), वृक्क (kidney), आमाशय (stomach), आन्त्र (intestine), त्वचा (skin), हृदय (heart) अपरा अथवा प्लैसेन्टा (placenta) आदि प्रमुख हैं (चित्र 8.6)। इन ग्रन्थियों एवं ऊत्तकों के विशिष्ट रसायनिक स्रावणों को ही “हारमोन्स” (hormones) कहते हैं। इन्हें रसायनिक प्रेक्षक (chemical messenger) भी कहा जाता है। “जंतुओं की देह में उपस्थित अन्तः स्रावकी तंत्रों के अध्ययन से सम्बन्धित शाखा को अन्तः स्राविकी (endocrinolgy) कहते हैं”।

इतिहास (History)

हारमोन्स के बारे में उपलब्ध ज्ञान 19वीं सदी की ही देन है। बर्थोल्ड (Berthold; 1849) ने अपने अध्ययनों के दौरान पाया कि पक्षियों में जनदों (gonads) को हटा देने एवं प्रत्यारोपण करने से जंतुओं के द्वितीयक लैंगिक लक्षणों पर प्रभाव पड़ता है। जनदनाशन (castration) के परिणामां से सभी परिचित हैं एवं यह ज्ञान मानव को आदिकाल से रहा है, किन्तु वास्तविक कारणों का ज्ञान बाद में ही प्रकाश में आया है।

क्लॉड बरनार्ड (Claude Bernard; 1885) ने सर्वप्रथम अन्तः स्रवण (internal secretion) शब्द का उपयोग अपने अध्ययन के परिणामों को समझाने हेतु किया। थॉमस एडीसन (Thomas Addison; 1855) ने अपने प्रयोगों द्वारा पाया कि अधिवृक्क (adreanal) ग्रन्थि को जन्तुओं में से शल्य क्रिया द्वारा निष्क्रिय करने पर इनमें एक विशेष प्रकार का रोग उत्पन्न होता है जिसे “एडिस का रोग” (Addison’s disease) का नाम दिया गया। थॉमस एडिसन को ही अन्तः स्राविकी का जनक (father of endocrinology) कहा जाता है। बेनिस एवं स्टालिंग (Bayliss and Starling; 1902) ने अपने प्रयोगों के दौरान पाया कि क्षुद्रान्त्र भित्ति (intestinal wall) से स्रवित पदार्थ जो आंत्र की अवकोशिका में छोड़ा जाता है, हारमोन क्रिया का प्रदर्शन करता है, इसे सिक्रिटिन (secretin) का नाम दिया गया। स्टारलिंग (Starling; 1902) ने सर्वप्रथम ” हारमोन” (hormone) शब्द का प्रयोग किया।

अन्तः स्रावी तंत्र का उद्भव ( Origin of endocrine system)

देह के भीतर सम्पन्न होने वाली विभिन्न क्रियाओं में समन्वय (co-ordination) एवं समाकलन (integration) करने का प्रमुख दायित्व तंत्रिका तंत्र की ही है, किन्तु उद्विकास के दौरान कुछ तंत्रिका कोशिकाएँ (neurons) सामान्य तंत्रिका कोशिकाओं से भिन्न प्रकार स्रावी कोशिकाओं से भिन्न होकर स्रावी कोशिकाओं के समान कुछ विशिष्ट उत्पन्न करने लगी। इस प्रकार के हाममोन्स न्यूरोहारमोन्स (neurohormones) कहलाते हैं। अनेक जन्तुओं के तंत्रिका तंत्र में तंत्रिका स्रावी नाभिकाएँ सामान्यः पायी जाती है। आगे चलकर उद्विकास के इस क्रम में ही दैहिक उत्तकों के कुछ विशिष्ट भाग भी इसी प्रकार स्रावी कार्य करने में सक्षम हो गये जिन्हें अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ या नलिका विहीन ग्रन्थियाँ अकशेरुकी तथा कशेरुकी दोनों की प्रकार के जन्तुओं में मिलती है। इन दोनों प्रकार के तंत्रों का विकास लम्बी अवधि के लिये चक्रिय क्रियाओं पर नियंत्रण हेतु हैं जो सामान्यतः केवल मात्र तंत्रिका तंत्र द्वारा संचालित नहीं की जा सकती है।

अन्तः स्रावी ग्रन्थियों का उद्भव कुछ स्थानों पर बाह्य जनन स्तर अर्थात् एक्टोडर्म (ectoderm), माध्यजनिक स्तर अर्थात् मीजोडर्म (mesoderm) व कुछ में अन्तः जनिक स्तर अर्थात् एण्डोडर्म (endoderm) से जुड़ा हुआ है। क्रस्टेशिया के Y अंग, कीटों की प्रोथोरेसिक ग्रन्थियाँ (prothoracic glands) व कॉरपोरा पलेटा एक्टोडर्म से विकसित होते हैं। कशेरुकी जंतुओं में एड्रिनल मेड्यूला व पीयूष ग्रन्थि एक्टोडर्म से एड्रीनल कॉर्टेक्स, एण्डाशय व वृषण मोडर्म थायरॉयड, पेराथॉइशड, एवं लैंगरहेन्स के द्वीप समूह एन्डोडर्म से विकसित होते हैं। जेनकिन (Jenkin; 1962) के अनुसार अकशेरुकी जंतुओं में अन्त:जनिक स्तर से विकसित अन्तःस्रावी ग्रन्थि नहीं पायी जाती है। यह भी माना गया है कि उद्विकास के दौरान हारमोन भी सर्वप्रथम अकशेरूकी जन्तुओं में प्रकट हुए है।

हारमोन्स (Hormones)

स्टारलिंग (Starlin; 1905) द्वारा प्रदत्त यह नाम भ्रामक है, ग्रीक भाषा से लिये इस शब्द का अर्थ उत्तेजित करना (to exite)। शेरर एवं शेरर ( Scharrer and Scharrer; 1963) के अनुसार हारमोन सामान्यतः निम्न प्रकार की क्रियाओं से संचलान में भूमिका रखते हैं –

  1. जननिक क्रियाएँ (Reproductive activities): युग्मकों के निर्माण पर नियंत्रण, जनन नलिकाओं एवं सहायक जननागों का परिवर्धन एवं रख-रखाव, द्वितीयक लैंगिक लक्षणों का निर्धारण आचरण हेतु फिरोमोन्स का स्रवण, युग्मकों का देह से बाहर विसर्जिन किया जाना।
  2. वृद्धि परिपक्वता एवं पुनरुद्भवन (Growth, maturation and regeneration) : जन्तुओं की देह के आमाप में वृद्धि, निर्मोचन एवं परिवर्धन, पुनरूद्भवन से सम्बन्धित क्रियाएँ तथा उपरति (diapause)।
  3. उपापचय एवं समस्थापन (Metabolism and homeostasis) : उपापचयी क्रियाओं का संचालन देह में आन्तरिक कारणों तथा ताप, जल, ग्लूकोज व विभिन्न खजिन लवणों का आयनिक संतुलन बनाने से सम्बन्धित क्रियाएँ ।

चित्र 8.2-तंत्रिका तंत्र, हाइपोथैलेमस एवं पीयूष ग्रन्थि का संबंध

  1. अनुकूलता से सम्बन्धित क्रियाएँ (Activites regarding adaptation) : जंतुओं का बाह्य कारकों जैसे प्रकाश की मात्रा, ताप, वायु धाराओं के प्रवाह एवं अन्य जंतुओं से उत्पन्न प्रभाव हेतु. कार्यिकीय वर्ण परिवर्तन (physiologcal colour change) आदि से सम्बन्धित क्रियाएँ।

हारमोन उपरोक्त सभी क्रियाएँ उत्प्रेरक के रूप में सूक्ष्म मात्रा से उपस्थित होकर संचालित कराने का कार्य करते हैं। ये जिन अंगों पर अपना प्रभाव दर्शाते हैं, इन्हें लक्ष्य अंग कहते हैं एवं इनसे दूर भिन्न अंग में उत्पन्न होते हैं। अधिकतर हार्मोन प्रोटीन प्रकृति के होते हैं किन्तु ऐमीन, पॉलीपेप्टाइड व स्टीरॉयड प्रकृति के भी अनेक हारमोन देह में स्रावित किये जाते हैं।

हारमोन की एक निश्चित मात्रा का रक्त प्रवाह में उपस्थित होकर लक्ष्य अंग द्वारा किसी क्रिया को संचालित करने हेतु आवश्यक होता है। हारमोन की यह मात्रा कम या अधिक होने पर अनेक प्रकार के रोगों को जन्म देती है, अतः देह में इनकी निश्चित मात्रा के स्रावित किये जाने पर अन्य अन्तःस्रावी ग्रन्थि द्वारा या लक्ष्य अंगों द्वारा प्राप्त संवेदी व संकेत तंत्र द्वारा नियंत्रण किया जाता है। ऋणात्मक पुनर्भरण नियंत्रण (negative feed back control) क्रिया द्वारा लक्ष्य अंग हारमोन स्तर या प्रभाव की सूचना आपस अन्तःस्रावी ग्रंथि को देकर करते हैं।

ऋणात्मक पुनर्भरण का सिद्धान्त (Concept of negative feed machanism)

अतःस्रावी ग्रन्थि द्वारा स्रासित हारमोन की मात्रा का नियमन इस हारमोन की रक्त में प्रवाहित मात्रा द्वारा अन्तःस्रावी ग्रन्थि की हारमोन उत्पन्न करने की क्षमता पर नियंत्रण लगाकर किया जाता हैं एक सरल अवस्था में यदि दो परिवर्ती पदार्थ A व B लिये जाये तो निम्न प्रकार परिवर्तनशील हो सकते हैं।

(i) यदि A की सान्द्रता बढ़ाई जाये तो B की सांद्रता भी बढ़ती हो, यह धनात्मक पुनर्भरण सिद्धान्त (positive feed back mechanism) कहलाता है।

(ii) यदि A की सान्द्रता घटाई जाये तो B की सांद्रता बढ़त है यह ऋणात्मक पुनर्भरण सिद्धान्त (negative feed back mechanism) कहलाता है।

स्तनियों की अधिकतर अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ ऋणात्मक पुनर्भरण सिद्धान्त पर ही कार्य करती है। उदाहरण के लिए रक्त में इन्सुलिन हारमोन की निश्चित मात्रा रक्त में प्रवहित होती है, यदि यह मात्रा बढ़ जाती है तो बढ़ती मात्रा स्वयंमेव अग्नाशय की कोशिकाओं की संश्लेषण क्रिया को B संदमित कर देती है। यदि इन्सुलित की रक्त प्रवाह में कमी हो जाती है तो अग्नाशय की कोशिकाएँ प्रतिवर्ती क्रिया के रूप में अधिक इन्सुलिन का स्रवण आरम्भ कर देती है।

सरलतम प्रकार के ऋणात्मक पुनर्भरण को निम्न प्रकार से प्रदर्शित किया जा सकता है-

EG एक अन्त:स्रावी ग्रंथि है। इसके द्वारा हारमोन H स्रावित किया जाता है। जो लक्ष्य अंग (target organ) TG को प्रभावित करता है। लक्ष्य अंग TG एक पदार्थ R मुक्त (release) करता है जो EG को प्रभावित कर H के स्रवण को घटा देता है। इस प्रकार का नियंत्रण निम्न हार्मोनों के लिये उपयोग में लाया जाता है-

(i) इन्सुलिन एवं रक्त में ग्लूकोस की मात्रा (ii) ग्लूकागोन एवं रक्त में ग्लूकोस की मात्रा

(iii) पेराथोरमोन एवं प्लाज्मा में कैल्शियम आयन

(iv) थायरो-कैल्सिटोनिन एवं प्लाज्मा में कैल्शियम आयन

(v) एल्डोस्टिरॉन एवं प्लाज्मा में सोडियम आयन