kelvin planck statement of second law of thermodynamics in hindi Clausius statement in Hindi क्लॉसियस का कथन क्या है ?
ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम (Second Law of Thermodynamics)
ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम मूल रूप से ऊर्जा संरक्षण का नियम है तथा यह कार्य और ऊष्मा की तुल्यता को व्यक्त करता है। इस नियम के अनुसार नियत कार्य से ऊष्मा की एक नियत मात्रा या नियत ऊष्मा से कार्य की नियत मात्रा प्राप्त होती है। परन्तु इस नियम से यह अभिव्यक्ति नहीं होती है कि ऊष्मा को सदैव पूर्णत: कार्य में परिणित किया जा सकता है या नहीं। इसके अतिरिक्त यह नियम यह भी अभिव्यक्त नहीं करता है कि ऊष्मा प्रवाह की दिशा क्या होगी। उदाहरणस्वरूप माना दो निकायों A व B के ताप क्रमश: 100°C तथा 50°C है और वे परस्पर ऊष्मा विनियम करते हैं। ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम के अनुसार एक निकाय द्वारा दी गई नेट ऊष्मा दूसरे द्वारा दी गई नेट ऊष्मा के बराबर होती है परन्तु इस नियम से यह ज्ञात नहीं होता है कि A व B निकाय में से किसके द्वारा ऊष्मा दी जायेगी तथा किसके द्वारा ली जायेगी। अनुभव के आधार पर तो हम कह सकते हैं कि उच्च ताप (निकाय A) से ऊष्मा का स्थानान्तरण निम्न ताप ( निकाय B) की ओर होता है परन्तु निकाय B से निकाय A की ओर नहीं ।
इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण लेते हैं। यदि घूर्णन करते हुए एक पहिये को घर्षण द्वारा रोकें तो इससे ऊष्मा उत्पन्न होती है अर्थात् घूर्णन गतिज ऊर्जा ऊष्मीय ऊर्जा में परिवर्तित होती है । परन्तु यह कभी नहीं पाया गया कि पहिया स्वयं परिवेश से ऊष्मा लेकर घूर्णन प्रारम्भ कर दे और ग्राह्य ऊष्मा को घूर्णन गतिज में रूपान्तरित कर दे।
इन दोनों उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि यद्यपि इनमें ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का उल्लंघन नहीं होता है परन्तु प्रकृति में ऐसे प्रक्रम नहीं पाये जाते हैं जिनमें स्वतः ऊष्मा प्रवाह की दिशा का निर्धारण हो सके। अतः ऐसा अन्य नियम भी होना चाहिए जो प्रक्रमों की दिशा का निर्धारण कर सके। ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम की उपरोक्त कमी का ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम से निराकरण होता है।
ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम के लिए अनेक कथन दिये गये हैं परन्तु इन सबका तात्पर्य समान है। इन कथनों में दो कथन विशेषतः महत्त्वपूर्ण हैं। प्रथम कथन केल्विन तथा प्लांक का ऊष्मा इंजन के सिद्धान्त पर आधारित होता है तथा दूसरा क्लॉसियस का कथन रेफ्रिजरेटर के सिद्धान्त पर आधारित है।
(i) केल्विन एवं प्लांक का कथन
कोई भी ऐसा इंजन बनाना सम्भव नहीं है जो चक्रीय प्रक्रम में कार्य करते हुए केवल एक स्रोत से ऊष्मा प्राप्त करके उसे पूर्णतः कार्य में परिवर्तित कर सके तथा कार्यकारी पदार्थ अप्रभावित रहे । अन्य रूप में कार्य की सतत् प्राप्ति के लिए ऊष्मा स्रोत के साथ सिंक का होना आवश्यक है । केल्विन के मूल कथन के अनुसार किसी निकाय से निरंतर ऊष्मा प्राप्त कर उसके ताप को परिवेश के ताप से कम करके कार्य की सतत् प्राप्ति असम्भव है।
उपर्युक्त कथन को कार्नो इंजन के इस तथ्य से समझाया जा सकता है कि जब कार्नो इंजन में ऊष्मा स्रोत एवं ऊष्मा सिंक के ताप बराबर होते हैं तो इंजन की दक्षता शून्य होती है अर्थात् उससे कार्य प्राप्त करना सम्भव नहीं होता है। स्रोत से ली गई ऊष्मा को पूर्ण रूप से कार्य में परिवर्तित करने का तात्पर्य है कि सिंक को कोई ऊष्मा निष्कासित न की जाय। यह अवस्था सिंक का ताप OK रख कर ही प्राप्त हो सकती है जो असम्भव है।
इसी प्रकार इंजन में केवल एक ही ऊष्मा स्रोत से कार्य की सतत् प्राप्ति भी असम्भव होती है। अतः ऊष्मा सिंक का होना तथा कुछ ऊष्मा सिंक को निष्कासित करना अनिवार्य होता है।
(ii) क्लॉसियस का कथन
कोई भी ऐसी युक्ति सम्भव नहीं है जो चक्रीय प्रक्रम में कार्य करते हुए बिना किसी बाह्य कर्मक (एजेन्सी) की सहायता के निम्न ताप पर (ठण्डे ) निकाय से ऊष्मा ग्रहण करके अपेक्षाकृत अधिक ताप पर किसी अन्य निकाय को ऊष्पा स्थानान्तरित कर सके अर्थात् ऊष्मा का स्वतः निम्न ताप वाले निकाय से उच्च ताप वाले निकाय की ओर प्रवाहित होना असम्भव होता है।
उपर्युक्त कथन रेफ्रिजरेटर के सिद्धान्त पर आधारित है जिसमें कार्यकारी द्रव्य ठण्डे निकाय से ऊष्मा लेता है और गर्म निकाय को ऊष्मा निष्कासित करता है। ऐसा करने के लिए कार्यकारी पदार्थ पर बाह्य कर्मक द्वारा कुछ कार्य करना आवश्यक होता है।
(iii) उपर्युक्त कथनों की समतुल्यता
ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम के केल्विन प्लांक एवं क्लॉसियस कथन एक दूसरे के लिए तुल्य हैं। इस तथ्य को निम्न प्रकार से प्रमाणित किया जा सकता है। इस उपपत्ति में यह सिद्ध किया गया है कि यदि एक कथन का उल्लंघन सम्भव होता है तो दूसरे कथन का भी उल्लंघन होगा ।
कल्पना कीजिये कि एक कार्नो इंजन केल्विन के कथन का उल्लंघन करता है अर्थात् यह नियत ताप पर स्रोत से ऊष्मा ग्रहण करता है इसको पूर्णत: कार्य में परिवर्तित कर देता है।
माना इंजन ऊष्मा स्रोत से उच्च ताप T1K पर ऊष्मा Q1 ग्रहण करता है और सम्पूर्ण ऊष्मा को कार्य W = Q1 में परिणित कर देता है। इस इंजन के साथ एक आदर्श रेफ्रिजरेटर को युग्मित करते हैं जो सिंक से निम्न ताप T2K पर कुछ ऊष्मा Q2 अवशोषित करता है और प्रथम इंजन द्वारा किये गये कार्य W को प्रयुक्त कर ऊष्मा स्रोत में (W + Q2) = (Q1 + Q2 ) ऊष्मा विसर्जित कर देता है। इस प्रकार ऊष्मा इंजन व रेफ्रिजरेटर का युग्मित निकाय पूर्ण चक्र में ऊष्मा स्रोत से ऊष्मा Q1 प्राप्त करेगा व ऊष्मा ( Q1 + Q2) उसे प्रदान करेगा, साथ ही सिंक को बिना कोई ऊष्मा दिये हुए उससे ऊष्मा Q2 प्राप्त करेगा। पूर्ण चक्र में बाह्य कर्मक द्वारा कार्यकारी पदार्थ पर कार्य शून्य होगा क्योंकि ऊष्मा इंजन द्वारा उत्पन्न कार्य W रेफ्रिजरेटर में प्रयुक्त हो जायेगा । परिणामस्वरूप यह युग्मित युक्ति निम्न ताप T2K से ऊष्मा Q2 का स्थानान्तरण उच्च ताप T1K की ओर बाह्य ऐजेन्सी द्वारा कार्य किये बिना करेगी।
यह निष्कर्ष क्लॉसियस के कथन का उल्लंघन है अतः केल्विन के कथन के उल्लंघन से क्लॉसियस के कथन का उल्लंघन भी होगा ।
अब पुनः कल्पना करते हैं कि क्लॉसियस का कथन गलत है अर्थात् निम्न ताप T2K से उच्च ताप T1K की ओर ऊष्मा का सतत् प्रवाह सम्भव है। अब हम दोनों ऊष्मा भण्डारों के बीच एक इंजन का संचालन करते हैं। माना रेफ्रिजरेटर निम्न ताप T2K के भंडार से Q2 ऊष्मा ग्रहण करता है और क्लॉसियस के कथन का उल्लंघन करते हुए सम्पूर्ण ऊष्मा को उच्च ताप T1K के भण्डार में स्थानान्तरित कर देता है। अब ऊष्मा इंजन ताप T1K के भण्डार से (Q1 + Q2) ग्रहण कर Q1 ऊष्मा को कार्य में परिवर्तित कर देता है और Q2 ऊष्मा को निम्न ताप के भण्डार में निष्कासित कर देता है। इस प्रकार रेफ्रिजरेटर एवं ऊष्मा इंजन युग्मित होकर अविरल रूप से कार्य करते रहेंगे और प्रत्येक बार सम्पूर्ण ऊष्मा Q1 कार्य में परिवर्तित होती रहेगी अर्थात् केल्विन के कथन का भी उल्लंघन होगा। अतः दोनों कथन परस्पर तुल्य हैं।
व्यावहारिक ऊष्मा इंजन (Practical Heat-Engine)
प्रायः ऊष्मा इंजन दो प्रकार के होते हैं ।
(i) बाह्य दहन इंजन (External combustion engine)
बाह्य दहन इंजन में जल को कार्यकारी पदार्थ के रूप में प्रयुक्त करते हैं। इसमें इंजन के बाहर एक अलग बायलर में ऊष्मा उत्पन्न की जाती है और जल को ऊष्मा देकर भाप में परिवर्तित किया जाता है। इसलिये इसे बाह्य दहन इंजन कहते हैं। भाप इंजन (steam engine) बाह्य दहन इंजन होता है।
(ii) अर्न्तदहन इंजन (Internal combustion engine)
इस प्रकार के इंजन में वायु तथा पेट्रोल या डीजल के मिश्रण को कार्यकारी पदार्थ के रूप प्रयुक्त करते हैं। अन्तर्दहन इंजन में पृथक रूप से ऊष्मा स्रोत की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि यान्त्रिक व्यवस्था सिलिंडर के अन्दर ही द्रव्य को दहन करके ऊष्मा उत्पन्न की जाती है। इसलिए इस प्रकार के इंजनों को अन्तर्दहन इंजन कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं। (a) ऑटो या पेट्रोल इंजन, जिसमें कार्यकारी पदार्थ के रूप में वायु व पेट्रोल का मिश्रण का उपयोग किया जाता है। (b) डीजल इंजन, जिसमें कार्यकारी पदार्थ के रूप में वायु व डीजल का मिश्रण का उपयोग किया जाता है।
(a) भाप इंजन (Steam engine)
यह एक बाह्य दहन इंजन है जिसमें कार्यकारी पदार्थ जल (water) होता है। इसमें इंजन के बाहर बॉयलर (boiler) में जल को ऊष्मा प्रदान की जाती है। जिससे वह भाप में रूपान्तरित हो जाता है। उच्च दाब पर भाप द्वारा उपयोगी कार्य किया जाता है। अन्त में अनुपयोगी भाप निकास द्वार से निष्कासित हो जाती है। भाप इंजन के मुख्य भाग निम्न हैं:
(i) बॉयलर ( ऊष्मा स्रोत )
(ii) पिस्टन युक्त सिलिंडर (iii) संघनित्र (सिंक )
भाप इंजन की क्रिया विधि चित्र के द्वारा स्पष्ट की जा सकती है। बॉयलर से उच्च दाब व ताप पर अति ऊष्मीय भाप भाप कक्ष (steam chest) S में प्रवेश करती है। यह कक्ष सिलिंडर C से दो द्वारों P1 व P2 से जुड़ा होता है तथा इसमें एक निकास वाल्व E भी लगा होता है। एक सर्पी वाल्व (slide valve) V इस कक्ष में पिस्टन की गति की विपरीत दिशा में इस प्रकार विस्थापित होता है कि एक समय पर एक निवेश द्वारा (P1 या P2) तथा निकास वाल्व E परस्पर संबंधित हों। सिलिंडर C को पिस्टन दो भागों में विभाजित करता है ।
जब एक भाग भाप-कक्ष से निवेश द्वार (चित्र में P1) द्वारा जुड़ा होता है तो दूसरा भाग दूसरे द्वार (चित्र P2 ) से निकास वाल्व से संबंधित हो जाता है। अनुपयोगी भाप निकास द्वार के द्वारा वायुमण्डल में चली जाती है। यदि भाप का पुनः उपयोग करना हो तो एक संघनित्र में भाप द्रवित होकर जल में परिवर्तित हो जाती है जहाँ से पंप द्वारा इस जल को बॉयलर में स्थानान्तरित कर दिया जाता है। पिस्टन P तथा सर्पी वाल्व V मुख्य शैफ्ट (main shaft) से इस प्रकार जुड़े रहते हैं कि जब शैफ्ट घूर्णन करता है तो पिस्टन P तथा वाल्व V विपरीत दिशा में गति करते हैं। पिस्टन P का शैफ्ट के साथ युग्मन (coupling) इस प्रकार होता है कि पिस्टन की रेखीय गति वृत्ताकार गति में बदल जाती है।
कार्य विधि
बॉयलर (boiler) से भाप उच्च दाब पर भाप के कक्ष में प्रवेश करती है इसी समय द्वार P1 से भाप बेलन में भी प्रवेश करती है। पिस्टन P भाप के उच्च दाब के कारण आगे की ओर खिसकता है ओर स्लाइड वाल्व V विपरीत दिशा में गति करता है। अब भाप कक्ष के दोनों द्वार P1 व P2 बन्द हो जाते हैं तथा बेलन के अन्दर उच्च दाब की भाप का रूद्धोष्म प्रसार होता है जिससे पिस्टन पर कार्य किया जाता है। जब पिस्टन द्वार P2 के निकट आ जाता है तो द्वार P2 खुल जाता है और द्वार P, निकास द्वार E से सम्बन्धित हो जाता है। अनुपयोगी भाप निकास E से बाहर निकल जाती है।
अब भाप उच्च दाब पर द्वार P2 से बेलन में प्रवेश करती है इससे पिस्टन पीछे की ओर खिसकना शुरू कर देता है और स्लाइड वाल्व आगे की ओर गति करता है। एक स्थिति में दोनों द्वार P व P2 बन्द हो जाते हैं तथा उच्च दा के कारण भाप का रूद्धोष्म प्रसार होता है। इससे पिस्टन खिसक कर द्वार P के निकट आ जाता है । अन्त में द्वारा P1 खुल जाता है और द्वार P2 बन्द ही रहता है। इस प्रकार एक चक्र पूरा होता है। पिस्टन की आगे-पीछे गति के कारण इससे जुड़ा मुख्य शैफ्ट घूर्णन गति करता है। एक समान गति प्राप्त करने के लिए तथा निष्क्रिय केन्द्रों (dead centres) के व्यवधान को दूर करने के लिए शैफ्ट के साथ गतिपालक चक्र (fly wheel) लगा होता है ।
भाप इंजन में ऊष्मीय ऊर्जा की हानि अत्यधिक होने से इसकी दक्षता बहुत कम लगभग 8 से 10% होती है। आदर्श भाप इंजन के चक्र को रेन्किन चक्र (Rankine cycle) कहते हैं। यह चक्र चित्र (2.7-2) में प्रदर्शित है।
प्रक्रम AB, नियत उच्च दाब व क्वथनांक T1 पर वाष्पन से जल के में रूपान्तरण को निरूपित करता है। प्रक्रम BC सिलिंडर में भाप के रूद्धोष्म प्रसार को निरूपित करता है। इस प्रक्रिया में भाप का दाब व ताप यथेष्ट रूप से कम हो जाता है। प्रक्रम CD अनुपयोगी भाप के निम्प ताप T2 पर पुनः जल में रूपान्तरण को निरूपित करता है। अंतिम चरण DA में द्रवित जल को पंप द्वारा बॉयलर में स्थानान्तरित कर दिया जाता है।
(b) ऑटो या पैट्रोल इंजन (Otto or Petrol engine)
पेट्रोल इंजन में एक गतिशील वायुरोधी (air tight) पिस्टन युक्त एक सिलिंडर ( cylinder) होता है तथा I O क्रमशः प्रवेश (inlet) तथा निकास ( outlet) द्वार होते हैं। इन द्वारों का खुलना व बन्द होना पिस्टन की गति पर निर्भर करता है। सिलिंडर के बाहर स्थित कार्बुरेटर (carburetter) से वायु तथा उचित मात्रा में पेट्रोल वाष्प के मिश्रण को द्वार I से प्रविष्ट कराया जाता है। सिलिंडर में एक स्फुलिंग प्लग (spark plug) लगा होता है जो वायु तथा पेट्रोल वाष्प के मिश्रण में उचित क्षण पर चिंगारी उत्पन्न करता है। यह इंजन चार स्ट्रोक (four stroke) में एक चक्र पूर्ण करता है इसलिए इसे चार स्ट्रोक इंजन (four stroke engine) भी कहते हैं।
कार्य विधि
पेट्रोल इंजन की कार्यविधि को चित्र में समझाया गया है।
(i) भरण स्ट्रोक ( Charging Stroke)
इस स्ट्रोक में कार्बुरेटर से वायु 98% तथा पेट्रोल वाष्प का 2% का उचित मिश्रण पिस्टन की बाहर की ओर गति के द्वारा वातावरण के दाब पर सिलिंडर में प्रवेश करता है। इस स्ट्रोक को चित्र में तथा सूचक आरेख चित्र में AB द्वारा दिखाया गया है।
(ii) संपीडन स्ट्रोक (Compression stroke)
इस स्ट्रोक में सभी द्वारं I तथा O बन्द हो जाते हैं और पिस्टन की अन्दर की ओर गति के कारण वायु तथा पेट्रोल वाष्प मिश्रण का अतिशीघ्रता से संपीड़न होता है जिससे इसका ताप लगभग 600°C हो जाता है। चित्र में यह प्रक्रम BC द्वारा दर्शाया गया है। इसी क्षण स्पार्क प्लग s पर चिंगारी उत्पन्न होती है और वायु तथा पेट्रोल वाष्प का मिश्रण प्रज्वलित हो जाता है जिससे वायु का ताप लगभग 2000°C तथा दाब 15 वायुमण्डलीय दाब के बराबर उत्पन्न हो जाता है। इस स्ट्रोक को चित्र में तथा प्रज्वलन की इस प्रक्रिया को सूचक आरेख वक्र (CD) द्वारा दर्शाया गया है।
(iii) कार्य-स्ट्रोक (Working stroke)
इस स्ट्रोक में उच्च ताप एवं दाब पर संपीडित कार्यकारी पदार्थ का रूद्धोष्म प्रसार होता है जिससे पिस्टन द्रुत गति से बाहर की ओर गति करता है। इस प्रक्रम से पदार्थ के दाब एवं ताप में कमी आ जाती है। इसे चित्र (iii) में तथा कार्य स्ट्रोक की इस प्रक्रिया को सूचक आरेख में वक्र DE द्वारा दिखाया गया है। इस स्ट्रोक में ही इंजन द्वारा कार्य किया जाता है। (iv) रेचन स्ट्रोक (Exhaust stroke) अन्त में निकास वाल्व O खुल जाता है जिससे अनुपयुक्त कम ताप एवं दाब पर गैस का मिश्रण, पिस्टन की अन्दर की ओर गति के कारण, बाहर निकल जाता है। नये चक्र को प्रारम्भ करने के लिए फिर से सिलिंडर खाली हो जाता है। इस प्रकार ये चार स्ट्रोक प्रक्रम मिलकर एक चक्र पूरा करते हैं।
इंजन द्वारा कार्य केवल एक चरण (स्ट्रोक) में किया जाता है अतः अन्य तीन चरणों में पिस्टन की गतिशीलता बनाये रखने के लिए क्रैंक व शैफ्ट को एक भारी गतिपालक चक्र (flywheel) से जोड़ दिया जाता है। जिन इंजनों में गतिपालक चक्र लगाना सुविधाजनक नहीं होता वहाँ एक से अधिक ( पिस्टन युक्त) सिलिंडर प्रयुक्त किये जाते हैं और उनके कार्य – स्ट्रोक चक्र में भिन्न समयों पर सम्पन्न होते हैं।
इंजन की दक्षता रूद्धोष्म संपीडन अनुपात पर निर्भर होती है। ऑटो चक्र में संपीडन 1 वायुमण्डलीय दाब से 27 वायुमण्डलीय दाब तक संभव होता है। अधिक संपीडन से वायु-पेट्रोल वाष्प मिश्रण का चिंगारी के बिना ही प्रज्वलन हो जाता है। अतः ऑटो इंजन की दक्षता लगभग 45% तक प्राप्त होती है।
(c) डीजल इंजन (Diesel engine)
डीजल इंजन का आविष्कार जर्मन इंजीनियर डीजल ने किया था। पेट्रोल इंजन में वायु तथा पेट्रोल वाष्प का मिश्रण अधिक संपीडन से स्पार्क प्लग से चिंगारी उत्पन्न होने से पहले ही जल उठता है इस कारण से पेट्रोल इंजन की दक्षता एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती है। डीजल इंजन में संपीडन पूरा करने के पश्चात् ही डीजल ईंधन अलग से प्रवेश कराया जाता है जिसके कारण इसकी दक्षता में वृद्धि हो जाती है ।
इसमें एक सिलिंडर तथा उसमें गतिशील वायुरोधी पिस्टन होता है। इसमें तीन द्वार, एक वायु के प्रवेश के लिए (I), दूसरा डीजल के प्रवेश के लिए (F) तथा तीसरा अनपयुक्त ईंधन- गैस के निकास के लिए (O) होते हैं। इन द्वारों का खुलना व बन्द होना पिस्टन की गति पर निर्भर करता है।
डीजल इंजन की कार्यविधि को चित्र (2.7-5) में पाँच स्ट्रोक (strokes) प्रक्रिया द्वारा समझाया गया है।
(i) चूषण स्ट्रोक (Suction stroke)
इस चरण में पिस्टन बाहर की ओर गति करता है और साथ ही प्रवेश द्वारा (I) खुल जाता है जिससे वायुमण्डलीय दाब पर वायु बेलन में भर जाती है । इस स्ट्रोक को चित्र (2.7-5- i) में तथा इस प्रक्रिया को सूचक आरेख चित्र (2.7-6) में वक्र AB द्वारा दिखाया गया है।
(ii) संपीडन स्ट्रोक (Compression stroke)
इस स्ट्रोक में सभी द्वार बन्द हो जाते हैं और पिस्टन अन्दर की ओर गति करता है जिसके कारण वायु का आयतन प्रारम्भिक आयतन का लगभग वाँ भाग, ताप लगभग 1000°C तथा दाब लगभग 35 वायुमण्डलीय दाब के बराबर हो जाता है। इस चरण को चित्र (2.7-5- ii) में तथा इसकी प्रक्रिया को चित्र (2.7-6) में वक्र BC द्वारा दिखाया गया
है।
(iii) तेल का अन्तःक्षेपण (The injection of oil)
संपीडन स्ट्रोक के अन्त में जब वायु का आयतन न्यूनतम तथा ताप लगभग 1000°C हो जाता है तो ईंधन द्वार खुल जाता है जिससे बेलन में डीजल की धार प्रवेश करती है। वायु का ताप बहुत अधिक होने के कारण डीजल तुरन्त प्रज्वलित हो उठता है और वायु का ताप बढ़कर लगभग 2000°C तक पहुंच जाता है। डीजल का अन्त:क्षेपण स्थिर दाब पर किया जाता है। इस चरण को चित्र (2.7 – 5 – iii) में तथा सूचक आरेख (2.7-6 ) में CD वक्र द्वारा दर्शाया गया है।
(iv) कार्य-स्ट्रोक (Working stroke)
अब तीनों द्वारा बन्द हो जाते हैं और उच्च ताप एवं दाब वाले मिश्रण का रूद्धोष्म प्रसार होता है जिससे पिस्टन द्रुत गति से आगे की ओर बढ़ता है। कार्य चरण से कार्यकारी पदार्थ के दाब एवं ताप दोनों में कमी आ जाती है। इस चरण को चित्र (2.7-5-iv) में तथा प्रक्रिया को सूचक आरेख (2.7-6 ) में वक्र DE द्वारा व्यक्त किया गया है।
(v) रेचन-स्ट्रोक (Exhaust stroke)
अन्त में सिलिंडर में अनुपयोगी गैस बच जाती है जिसका ताप व दाब इतना कम हो जाता है कि और अधिक कार्य नहीं करवाया जा सकता है। इस अवस्था में निकास द्वार O खुल जाता है और पिस्टन के अन्दर की ओर गति के कारण यह गैस बाहर निकल जाती है। इस प्रकार पांचों स्ट्रोक से इंजन का एक चक्र पूरा हो जाता है और इंजन पुनः अगले चक्र के लिए तैयार हो जाता है।
डीजल इंजन की दक्षता आदर्श अवस्था में लगभग 65% व व्यवहार में 55% होती है। इसके अतिरिक्त इसमें प्रयुक्त ईंधन सस्ता होता है। डीजल इंजन की दाब सहनशीलता अधिक होनी आवश्यक है अतः ये अपेक्षाकृत भारी होते
हैं।