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टिड्डे का परिसंचरण तंत्र और श्वसन तंत्र circulatory system of Locust in hindi and Respiratory System
जीवों में टिड्डे का परिसंचरण तंत्र और श्वसन तंत्र circulatory system of Locust in hindi and Respiratory System ?
परिसंचरण तंत्र (Circulatory system)
टिड्डे का परिसंचरण तन्त्र अन्य कीटों की तरह खुले प्रकार का व अवकाशिका (lacunar) प्रकार का होता है। इस प्रकार के परिसंचरण तन्त्र में केशिकाओं (capillaries) तथा शिराओं (veins) का अभाव होता है। इसमें रक्त महाधमनी एवं हृदय द्वारा रक्त कोटरों शिरापात्रों (sinuses) व हीमोसील (haemocoel) में परिसंचरित होता है। टिड्डे के रक्त में कोई श्वसन वर्णक नहीं पाया जाता है अतः श्वसन कार्य में रक्त की भूमिका कम होती है अत: इसका परिसंचरी तन्त्र प्रॉन की तुलना में अल्प विकसित होता है।
हृदय एवं महाधमनी (Heart and aorta) : टिड्डे का हृदय पतला नलिकाकार और स्पन्दन शील होता है जो उदर के मध्य पृष्ठ भाग में स्थित होता है। हृदय एक उथली पेरिकार्डियल कोटर (pericardial sinus) में निलम्बित रहता है। हृदय पंक्तिबद्ध प्रकोष्ठों में विभक्त रहता है। एक-एक प्रकोष्ठ उदर के प्रत्येक खण्ड में उपस्थित रहता है। प्रत्येक प्रकोष्ठ के पार्श्व में दरारनुमा एक जोड़ी छोटे छिद्र पाये जाते हैं जिन्हें ऑस्टिया ( ostia) कहते हैं। ये छिद्र हृदय के सिकुड़ने पर कपाटों द्वारा बन्द हो जाते हैं। हृदय युग्मित, त्रिभुजाकार एलेरी पेशियों (alary muscles) की एक श्रेणी द्वारा अवलंबित रहता है। ये पेशियाँ पृष्ठकों और पृष्ठ तनुपट के बीच फैली रहती है। एलेरी पेशियों के सिकुड़ने से हृदय के प्रकोष्ठ फैल जाते हैं व ऑस्टिया खुल जाते हैं जिससे प्रकोष्ठों में रक्त भर जाता है। परिहृदय कोटर या पेरिकार्डियल कोटर (pericardial sinus) जिसमें हृदय उपस्थित रहता है. एक कोमल और छिद्रित पृष्ठ पट (dorsal septum) या पृष्ठ तनुपट (dosal diaphragm ) द्वारा मुख्य देहगुहा या परिआन्तरांगी कोटर (perivisceral sinus) से पृथक रहती है। इसी प्रकार का एक अधर तनुपट (ventral diaphragm ) एक संकरे अधर कोटर (ventral sinus) या परितंत्रिकीय कोटर (perineural sinus) को परिआन्तरांगी गुहा से पृथक करता है। इस प्रकार दो तनुपटों की उपस्थिति से मुख्य देह गुहा तीन कोटरों में विभक्त रहती है। (i) परिहृदयी कोटर (pericardial sinus) (ii) परिआन्तरागी कोटर (perivisceral sinus) तथा (iii) परितन्त्रकीय कोटर (perincural sinus) ।
रक्त परिसंचरण (Blood circulation) : हृदयी प्रकोष्ठों के लयबद्ध संकुचन के कारण रक्त ऑस्टिया से होकर हृदय में प्रवेश करता है और आगे की ओर उपस्थित अग्र महाधमनी में भेज दिया जाता है। अग्रमहाधमनी से रक्त सिर परिआन्तरांग कोटर तथा परितंत्रिकीय कोटर में जाता है। परितंत्रिकीय कोटर से रक्त टांगों में जाता है व वहाँ से लौट कर पुनः परिआन्तरांग कोटर में आ जाता है। परिआन्तरांगी कोटर से रक्त पृष्ठ तनुपट में उपथित छिद्रों द्वारा परिहृदयी कोटर में आ जाता है। इस प्रकार रक्त शरीर में निरन्तर परिसंचरित होता रहता है। रक्त परिसंचरण को निम्न आरेख द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है।
टिडडे का रक्त हीमोलिम्फ (haemolymph) कहलाता है। हीमोलिम्फ, स्वच्छ तरल, जिसे plasma) कहते हैं, तथा श्वेत रक्त कणिकाओं, जिन्हें हीमोसाइट्स (haemocytes) कहत का बना होता है। ये श्वेत रक्त कणिकाएँ भक्षाण कोशिका की तरह कार्य करती है जो बाहरी बालों को अलग करते हैं। इसके रक्त में श्वसन वर्णक नहीं पया जाता है अतः यह श्वसन क्रिया में भाग नहीं लेता है। यह भोजन, हार्मोन्स उत्सर्जी पदार्थों के वहन का कार्य करता है इसके रक्त में ऊतक के ढीले जाल की भाति वसा काय पाये जाते हैं, जो भोजन संचय का कार्य करती है। इसके अतिरिक्त जब दाब की स्थिति होती है तो रक्त, अण्डजोत्पत्ति (hatching), निर्माचन Imoulting) पंखों के प्रसार ओर श्वसन गतियों में भी सहायक होता है।
श्वसन तन्त्र (Respiratory System):
टिड्डे में वायुवीय श्वसन पाया जाता है जिसके लिए बाह्य वातावरण से वायु को शरीर के भीतर लिया जाता है। इस हेतु टिड्डे के वक्ष पर दो जोड़ी व उदर पर आठ जोड़ी श्वसन रन्ध्र (spiracles) पाये जाते जिनके द्वारा बाहर से वाय शरीर के भीतर प्रवेश करती है व श्वसन के बाद पुनः बाहर निकाली जाती है।
श्वास रन्ध्र रोमों द्वारा सुरक्षित रहते हैं, जिससे इनमें धूल व बाहरी पदार्थ प्रवेश न कर सकें। इन छिद्रों पर छोटे-छोटे दो कपाट भी पाये जाते हैं जो जन्तु की इच्छानुसार इन श्वसन रन्ध्रों को खोल व बन्द कर सके।
प्रत्येक श्वसन रन्ध्र भीतर की ओर एक छोटे से प्रकोष्ठ में खुलता है जिसे परिकोष्ठ (atrium) कहते हैं। यह परिकोष्ठ महीन, लचीली एक्टोडर्मी श्वास नलियों (tracheae) के जाल में खुलता है। श्वास नलियों के जाल की शाखाएँ शरीर के समस्त भागों में फैली रहती है। प्रत्येक श्वास नली पतली कोशिकाओं से निर्मित एकल स्तर की बनी होती है जो क्यूटिकल के आस्तर का प्रावण करती है। बड़ी श्वास नलियों की भित्ती सर्पिलाकार क्यूटिकल द्वारा सशक्त रहती है जो उन्हें पिचकने से रोकती है। श्वास नलियों की महीन शाखाएँ वायु केशिकाएँ या श्वास नलिकाएँ (tracheoles) कहलाती है। ये केवल 1 माइक्रोन (u) व्यास की होती है। प्रत्येक श्वास नलिका एक कोशिका की बनी होत है। इनमें सर्पिल क्यूटिकल का होता है। इनमें प्रायः ऊत्तक तरल (tissue fluid) भरा रहता है। यह तरल अन्य जन्तुओं की तरह। के आदान-प्रदान में सहायक होता है। बाहर से आने वाली ऑक्सीजन इस तरल में धुल का कि विधि द्वारा शरीर के विभिन्न ऊत्तकों में चली जाती है व बदले में ऊत्तकों से कार्बन डाइ ऑकया बाहर आ जाती है।
टिड्डे व कुछ अन्य कीटों में (जैसे मधुमक्खी) कुछ श्वास नलियाँ फूल कर वायुकोष sacs) का निर्माण करती है जो वायु के संचयन तथा अच्छे वायु-परिसंचरण का कार्य करते हैं।
टिडडे में वायु को शरीर के भीतर लेने व बाहर निकालने का कार्य उदर के लयबद्ध संकचन व प्रसरण से होता है यह क्रिया पेशीय क्रियाशीलता के कारण होती है। उदर के लयबद्ध संकोचन से वायु श्वासनली तन्त्र के अन्दर व बाहर पम्प किया जाता है। श्वास नली तन्त्रता निश्चित परिभ्रमण बना रहता है। अन्त: श्वसन (inspiration) के समय प्रथम चार जोडी श्वसन रन्ध खुले रहते हैं जिनसे वायु भीतर आती है। इन श्वसन रन्ध्रों को अन्तः श्वसनी शवास रन्र्ध (inspiratory spiracles) कहते हैं। शेष बचे छः जोड़ी श्वसन रन्ध्री द्वारा वायु को बाहर निकाला जाता है बँकि ये श्वास रन्ध्र केवल बहिश्वसन के समय ही खलते है अतः इन्हें बहिण्वतीय रन्ध्र (expiratory spiracles) कहते हैं।
शरीर में सुनिर्मित श्वसन नलिका तन्त्र (tracheal system) पाये जाने के कारण ऑक्सीजन सीधी शरीर के विभिन्न ऊत्तकों में वितरित की जाती है।
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