chiang kai shek in hindi | चियोंन्ग काई शेक या चियांग काई शेक कौन थे ? चीन में लाल क्रांति कब हुई?
चियोंन्ग काई शेक का उदय
सनु-यात-सैन की मृत्यु हो जाने के बाद से कुआमिन्टोन्ग में अन्तर दलीय कलह होने प्रारंम्भ हो गये थे, जिसके फलस्वरूप यह दल दो विरोधी उपदलों में विभाजित हो गया जिन्हें वामपंथी एवं दक्षिणपंथी उपदलों के रूप में जाना जाने लगा। साम्यवादियों के साथ वामपंथियों ने सुन-यात-सैन के तीन सैद्धान्तिक नियमों का प्रचार करना निरंतर रूप से जारी रखा। दक्षिणपंथी, जिनको बड़े भू-स्वामियों के हितों की रक्षा करने वाले एवं अन्य देशों के साथ चीन के व्यापार के मध्यमवर्गीय बिचैलियों के प्रतिनिधि के रूप में माना जाता था, सदैव आदर्शवाद की बातें करते थे परन्तु सुन-यात-सैन के राष्ट्रवादी नियमों को कार्य रूप देने में इनकी बहुत कम रुचि दिखाई देती थी। दक्षिणपंथियों ने, फिर भी, दल के नेतृत्व पर अपना अधिकार कर लिया था। चियाँग-काई-शेक इस वर्ग का नेता था। तद्नुसार, वह राष्ट्रीय सरकार का अध्यक्ष बन गया एवं राष्ट्रीय क्रॉन्तिकारी सेना का कमान्डर-इन-चीफ बन गया।
उत्तरी अभियान
राष्ट्रीय सरकार ने उत्तर क्षेत्र के युद्ध सामन्तों पर हमला करने की योजना बनाई हुई थी। इसलिए जुलाई, 1926 से सरकार ने उनके विरुद्ध अभियान जारी कर दिया। यथार्थ रूप में, साम्यवादियों द्वारा यह अभियान काफी पहले शुरू किया जा चुका था। उनके करीब 1,00,000 सैनिक जवान गुआंगजाऊ से तीन विभिन्न मार्गों से रवाना हुए एवं कुछ महीनों के अन्तराल में उन्होंने उत्तर के सबसे बड़े युद्ध सामन्तों का सफाया कर दिया और चीन के करीब आधे भाग पर अपना अधिकार कर लिया। राष्ट्रीय सरकार एवं कुआमीटाँग के मुख्यालयों को गुआँनाजाऊ से हटा कर वूहान ले जाया गया।
उत्तरी अभियान की विजय से किसान आन्दोलन और अधिक शक्तिशाली हो गया। हूनान में संघर्ष को नेतृत्व माओ-जीडांग ने किया था। अन्ततः हुनान, सारे चीन के किसान आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र बन गया। किसान आन्दोलन, शीघ्र ही, सारे चीन में फैल गया। किसान संगठनों के सदस्यों की संख्या । करोड़ से भी अधिक हो गई। उत्तरी अभियान की विजय के फलस्वरूप मजदूरों के आन्दोलन का भी तेजी से विकास हुआ था।
लियू-शाप्रोर्चा के नेतृत्व में मजदूरों ने वुहाम में अंग्रेजों को इस शहर में अपने विशेष अधिकारों को वापस लेने हेतु बाध्य कर दिया था। जाऊ-एन-लाई के नेतृत्व के अधीन करीब 30 घन्टे के घमासान युद्ध लड़ने के पश्चात् मजदूरों ने मार्च, 1927 में शन्धाई को स्वतंत्र करवाया था।
सी.पी.सी. के खिलाफ चियाँन्ग-काई-शेक की कार्यवाही
उत्तरी अभियान की विजय एवं किसानों और मजदूरों के आन्दोलनों द्वारा की गई प्रगति से साम्राज्यवादी ताकतें आतंकित हो गई थी। फ्रांस, जापान एवं इटली ने चीन के विभिन्न बन्दरगाहों पर अपने सैनिक जहाजों को लगा दिया, गोलाबारी करके नानजिंग, शन्घाई इत्यादि मुक्त किये गये शहरों में अनेक चीनियों को मार डाला एवं घायल कर दिया। उन्होने चियाँग-काई-शेक से भी सम्पर्क स्थापित कर लिया। शेक ने साम्राज्यवादियों के साथ सहानुभूति व्यक्त करते हुए लड़ाई की भर्त्सना की एवं साम्यवादियों को इसके लिये दोषी ठहराया। शन्धाई में सी.पी.सी के नेतृत्व वाली ट्रेड यूनियनों पर चियाँग काई शेक द्वारा किये गये हमलों से उसके शासन में सी.पी.सी. की भागीदारी प्रायः समाप्त कर दी गई।
जब साम्पवादियों पर दोषारोपण करके उनका दमन किया जा रहा था, तब साम्यवादी दल के अन्दर एक विरोधाभास उत्पन्न हो गया। सी.पी.सी के नेता, चैन डुकियू (जिसको बाद में दक्षिणपंथी के रूप में बहिष्कृत कर दिया गया था) ने दल की संयुक्त मोर्चे की नीति के आधार पर वुहान के कुआमिन्टाँना की वॉन्ग जिन्गवी शाखा के साथ गठबन्धन बनाये रखा था। चैन-डुकियू की नीतियों की सी.पी.सी. के एक काफी वर्ग द्वारा आलोचना की गई थी एवं इस मुद्दे को लेकर उनमें आपसी मतभेद हो गया। सी.पी.सी की आन्तरिक समस्याओं का लाभ उठा कर बाँन्ग ने जुलाई, 1927 में बुहान में कुओमिन्टाँग के एक सम्मेलन का आयोजन किया एवं इस दल को साम्यवादियों से मुक्त कराने में सफलता प्राप्त की। अनेक साम्यवादियों एवं अन्य आदर्शवादियों पर नाना प्रकार के अत्याचार किये गये एवं कुछ की हत्या भी कर दी गई। इस सम्मेलन के पश्चात कुओमिन्टाँग के दोनों वर्गों (बाँन्ग वर्ग एवं चियाँन्ग वर्ग) में एका हो गया। उत्तरी अभियान का अन्त साम्यवादियों की करारी हार एवं चियाँन्ग काई शेक, के अधीन की गई चीन की संधि युक्त एकसूत्रता के साथ हुआ। चियाँन्ग काई शेक दृढ़तापूर्वक सत्ता पर अपना अधिकार जमा चुका था।
दूसरा क्रान्तिकारी गृह-युद्ध रू साम्यवादी (लाल) सेना की स्थापना
उत्तरी अभियान, जो युद्ध सामन्तों को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, उसका अन्त चियाँन्ग-काई-शेक के शासन की स्थापना के साथ हो गया था। चियाँन्ग-काई-शेक को भू-स्वामियों एवं विदेशों के साथ चीन के व्यापार के बिचोलियों का समर्थन प्राप्त था। उसने साम्यवादियों को पराजित कर दिया था परन्तु उनका सफाया नहीं कर पाया था। साम्यवादियों ने शीघ्र ही अपने आप को एकजुट कर के अगस्त, सन् 1927 में नानचेंन्ग में एक सैनिक विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का नेतृत्व जाऊ-एन-लाई जू. डे. ही लोन्ग एवं अन्य नेताओं द्वारा किया गया था। नानन्ग का विद्रोह पहला ऐसा सैनिक संघर्ष था, जिसका नेतृत्व योजना एवं संचालन साम्यवादियों द्वारा अकले किया गया या। इस विद्रोह के फलस्वरूप जू. ड़े एवं माओ-जीड़ाग के नेतृत्व में साम्यवादी (लाल) सेना का जन्म हुआ था।
शरदकालीन फसल की कटाई के समय का विद्रोह
चीन के साम्यवादी दल की केन्द्रीय समिति ने सन् 1927 में चैन डुकियू को दल के नेता पर से हटा दिया। एक नये पोलितब्यूरो का चुनाव किया गया। इस गोष्टी ने ग्रामीण क्रॉन्ति एवं कुओमिन्टाँग शासन के विरुद्ध संघर्ष करने की नीति को सूत्रित किया। इसने हुनान, हुबेई, जियाँन्गसी एवं गुआँन्गडोन्ग प्रान्तों में शरदकालीन फसल की कटाई के समय एक युद्ध की योजना भी तैयार की। दल की नई केन्द्रीय समिति ने माओ-जीडांग को इस शरदकालीन फसल की कटाई के समय होने वाले युद्ध का नेतृत्व करने का अधिकार प्रदान किया। 9 सितम्बर को युद्ध शुरू हो गया। किसानों एवं मजदूरों को मिला कर बनाई गई जनता की मुक्ति सेना को उन शहरी क्षेत्रों में, पराजय का सामना करना पड़ा, जहाँ कुआमिन्आँग द्वारा अधिक अच्छी किस्त के बलों को एकत्रित किया गया था। क्रमानुगत रूप की अपनी रणनीतियों में परिवर्तन करना पड़ा। उसने ग्रामीण क्षेत्रों की तरफ अपना ध्यान केन्द्रित करना शुरू कर दिया, जहाँ पर चियाँन्ग-काई-शेक की स्थिति कमजोर थी।
दिसम्बर, सन् 1927 में साम्यवादियों ने गुआन्गजाऊ में एक अन्य विद्रोह का प्रदर्शन किया। शुरू में कुछ विजय प्राप्त करने के पश्चात, सरकारी दलों द्वारा इस विद्रोह को कुचल दिया गया। हालाँकि नानचेन्ग विद्रोह, शरद-कालीन कटाई के समय का युद्ध एवं गुआँन्गजु विद्रोह कुचल दिये गये थे परन्तु उनके कारण कुओमिन्टाँग के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सरकार को एक गम्भीर झटका लगा था। इसके बाद चीन के साम्यवादी दल ने एक ऐसे नये काल में प्रवेश किया था जिस काल में लाल सेना का निर्माण किया गया था।
ग्रामीण क्रॉन्तिकारी आधार
मजदूरों एवं किसानों को मिलाकर बनाये गये अपने अनुयायियों सहित माओ-जीडांग, दिसम्बर सन् 1937 में जिन्गान्ग पर्वती क्षेत्र में पहुँचा जहाँ उसने मजदूरों एवं किसानों की शासन प्रणाली की स्थापनी की, स्थानीय व्यक्तियों के सैनिक दस्तों का विकास किया, दलीय इकाइयों को संगठित किया, ग्रामीण सुधारों की योजनाओं को लागू किया एवं वहाँ के जनसमूहों को छापामार युद्ध की रणनीतियों का भी प्रशक्षिण प्रदान किया था। इस तरीके से माओ-जीडांग ने जिन्गॉन्ग पर्वती क्षेत्र में अपने प्रथम ग्रामीण आधार क्षेत्र का विकास किया था। अप्रैल सन् 1928 में नानचेन्ग एवं हुनान के विद्रोहों में भाग लेने वाले जीवित बचे समर्थकों समेत जू. डे. एवं चैन व्ही जिन्गॉन्ग पर्वती क्षेत्रों में आ पहुँचे। अब इन तीनों सशक्त दलों को मिलाकर चीनी मजदूरों एवं किसानों की सेना को एक नई चैथी सेना के रूप में पुनर्गठित किया गया। जू. डे. इस सेना का कमांडर बनाया गया एवं माओ और चैन व्ही को क्रमशरू दल अध्यक्ष एवं सेना का संचालक नियुक्त किया गया। अपने आधार क्षेत्रों की सुरक्षा करने हेतु माओ ने अपनी छापामार युद्ध की रणनीतियों में विकास किया, जिसका सारांश इस प्रकार थाः ‘‘दुश्मन आगे बढ़ता है, हम पीछे हट जाते हैं रू दुश्मन अपना ठिकाना बनाता है, हम उसको परेशान करते हैं: दुश्मन थक जाता है, हम आक्रमण करते हैं: दुश्मन पीछे हटता है, हम उसका पीछा करते हैं’’।
माओ एवं जू. डे. के नेतृत्व में सेना ने जिन्गॉन्ग पर्वत के आधार क्षेत्र से बढ़ा कर ग्रामीण साम्यवादी आधार क्षेत्रों का विस्तार चीन के विभिन्न क्षेत्रों में कर लिया था। कुछ ही वर्षों के अन्तराल में सी. पी. सी. ने दक्षिणी जियाँन्गी, पश्चिमी फूजियान, रूईजिन एवं अन्य अनेक स्थानों के ऊपर अपना नियंत्रण स्थापति कर लिया। सेना की शक्ति सन् 1927 में केवल 10,000 से बढ़ कर सन 1930 में 60,000 हो गई थी। जहाँ कहीं भी सी.पी.सी द्वारा अपने ग्रामीण आधार क्षेत्रों की स्थापना की गई थी. वहाँ की ग्रामीण व्यवस्था की पुनरू संरचना की गई थी। सदियों से चली आ रहे भू-स्वामित्व को समाप्त कर दिया गया था एवं किसानों के मध्य भूमि का वितरण कर दिया गया था। इन कार्यों द्वारा दल की प्रतिष्ठा बढ़ी थी एवं जनता में सी. पी. सी. में शामिल होने हेतु उत्साह बढ़ा था। ग्रामीण क्षेत्रों में साम्यवादियों के आधार क्षेत्रों के विस्तार से चियाँन्ग-काई-शेक आतंकित हो गया था एवं उसने विकासशील साम्यवादी आधार क्षेत्रों की घेराबन्दी करने एवं दमन करने की नीति को अपनाया था। परन्तु सन् 1930-31 के काल में उसके द्वारा क्रमानुगत रूप में किये गये हमले साम्यवादी सत्ता को कुचलने में असफल रहे थे। इसके विपरीत साम्यवादियों ने अपने आधार क्षेत्रों को और अधिक विस्तार किया एवं सेना ने सब स्तरों पर अपनी शक्ति में वृद्धि की थी।
सन् 1927 में सन् 1930 के काल में माओ जीडांग ने शहरों की घेराबन्दी करने की रणनीति का विकास किया था। सन् 1920 के ‘‘ऐसा क्यों है कि लाल राजनीतिक सत्ता का आस्तित्व चीन में हो सकता है’’ नामक एवं सन् 1930 के “एक छोटी-सी चिनगारी द्वारा एक भीषण अग्निकाँड की शुरुआत हो सकती है’’ नामक दो आलेखों में माओ ने अपनी घेराबन्दी करने की अभिधारणा का। विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया था। उसने बताया था कि चीन, जो कि एक अर्द्ध उपनिवेशिक देश है एवं अप्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवादियों के नियंत्रण में है, वहाँ के राजनीतिक एवं आर्थिक विकासों की गति बहुत ही असमान रूप की है। ‘‘एक स्थायी रूप की कृषि अर्थव्यवस्था (एक सूत्रित की गई पूँजीपतियों की अर्थव्यवस्था नहीं) एवं विभाजन करके शोषण करने हेतु प्रभाव क्षेत्रों को अलग करने की समाज्यवादियों की नीति’’ के फलस्वरूप होने वाली “गौरो के साम्राज्य के अन्तर्गत बहुत दिनों से चले आ रहे अलगाववादों एवं युद्धों‘‘ ने मिलकर प्रतिक्रियावादी शासन को सुदूर के ग्रामीण क्षेत्रों में दुर्बल कर दिया है एवं “गोरी साम्राज्य’’ के अन्तर्गत आधार क्षेत्रों को उभर कर आने, बने रहने एवं विकसित होने हा अवसर प्रदान किया है। माओ ने यह भी बताया था कि ग्रामीण क्षेत्रों में क्रॉन्तिकारी आधार क्षेत्रों एवं राजनीतिक सत्ता की स्थापना करना, ग्रामीण क्रांति को पूर्ण रूप से कार्यरूप देना एवं सैनिक संघर्ष का विकास करना – ये सब ग्रामीण क्षेत्रों में प्रवेश करने वहाँ की क्रांतिकारी शक्तियों को विकसित करने एवं क्रान्तिकारी उद्देश्यों को राष्ट्रीय स्तर पर विजय दिलवाने हेतु गाँवों से शहरों की घेराबन्दी करने युद्ध रणनीति की पूर्वआपेक्षाएं होती हैं।
जापानी आक्रमण
सितम्बर सन् 1931 में जापान ने चीन के विरुद्ध अपने आक्रमण को प्रबल कर दिया था। जापान ने शेनयाँन्ग पर अपना अधिकार करके बाद में सन् 1932 में शैंघाई पर अधिकार कर लिया था। सुँघाई में स्थित चियाँन्ग काई शेक की सेना ने जापान के साथ डट कर संघर्ष किया था परन्तु कओमिन्टाँग सरकार से समुचित समर्थन न मिलने के कारण यह प्रतिरोध शीघ्र समाप्त हो गया था। इसी समय । पर सी.पी.सी. के नेतृत्व में जापान विरोधी लोकतांत्रिक आन्दोलन देश के विभिन्न भागों में विस्तृत रूप से फैल गया था। कालान्तर में साम्यवादियों के नेतृत्व में एक बहुत बड़े सैनिक दल का विकास किया गया था। इस सेना का नाम, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की संगठित जापान विरोधी सेना रखा गया था। सन् 1931 में इस संगठित सेना ने उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के करीब आधे भाग पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया एवं जापानियों को मुख्य चीन पर हमला करने की अपनी योजना का त्याग करने हेतु विवश कर दिया। साम्यवादियों के नेतृत्व वाली संगठित सेना ने जापानी दलों के ऊपर लगातार अनेक भीषण प्रहार किये।
चियॉन्ग-काई-शेक द्वारा कम्युनिस्टों पर हमला
चियाँन्ग-काई-शेक शुरू से ही साम्यवादियों के विरुद्ध था। राष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में सी.पी.सी. के जन-समर्थन आधार क्षेत्रों का सफाया करने की उसकी बहुत इच्छा थी। सन् 1930-31 के काल में उसने सी.पी.सी. के आधार क्षेत्रों के विरुद्ध तीन अभियान किये थे परन्तु उसको सफलता प्राप्त नहीं हुई थी। चीन पर जापानी आक्रमण के प्रति कोई ध्यान न देते हुए, उसने फरवरी सन् 1933 में साम्यवादियों के विरुद्ध एक बहुत विशाल सेना एकत्रित की थी। परन्तु इस बार भी उसको करारी पराजय का सामना करना पड़ा था।
लम्बी यात्रा अभियान
सन् 1931 में चियाँन्ग-काई-शेक की बार-बार पराजयों के फलस्वरूप सारे चीन में साम्यवादियों की सत्ता एवं उनके समर्थन आधारों में काफी वृद्धि हुई थी। 300 से अधिक काऊन्टियों में (एक काउन्टी भारत के एक जिले के बराबर होती है) सी.पी.सी. ने जनता की सरकार स्थापित कर ली थी। साम्यवादियों के मुख्यालय के रूप में रूईजिन का चयन किया गया था। फिर भी चीन का साम्यवादी दल चियाँन्ग काई-शेक द्वारा किये जाने वाले बार-बार के हमलों का सामना करने में असफल रहा था। माओ-जीडांग एवं जू. डे. द्वारा विकसित सेना के प्रमुख भागों ने अक्टूबर सन् 1934 में ग्रामीण क्षेत्रों को छोड़ कर उत्तर की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया। इस यात्रा में सेना की भारी क्षति हुई थी एवं उसकी संख्या घट कर आधी रह गई थी। इस लम्बी यात्रा से साम्यवादियों की महान ख्याति प्राप्त हुई थी।
इससे पहले जनवरी सन 1931 में साम्यवादी दल के नेतृत्व में परिवर्तन हो गया था। बाँन्ग मिन्ग का उद्गमन नेता के रूप में हुआ था। वह माओ की रणनीति के बिल्कुल विपरीत राजनीतिक रणनीति का समर्थक था। वॉन्ग ने बड़े शहरों पर कब्जा करने एवं सैनिक दलों द्वारा सत्ता हतियाये जाने पर जोर दिया। उसने सेना, द्वारा बड़े शहरी केन्द्रों पर कब्जा करना, उसके लिये प्रथम प्रकार्य के रूप में निर्धारित किया एवं कुओमिन्टाँग के सशस्त्र क्षेत्रों में विद्यार्थियों एवं मजदूरों की, हड़तालों का आयोजन करके सरकारी व्यवस्था को ठप्प करने का आदेश दिया। इन रणनीतियों के प्रतिक्रियास्वरूप कुओमिन्टाँग क्षेत्रों की दलीय इकाइयों का सफाया कर दिया गया। बाँन्ग ने दल के उन सदस्यों को भी उत्पीडित किया, जिन्होंने उसकी नीतियों के विरुद्ध अपने विचार व्यक्त किये थे। माओ जीडांग को सेना के नेतृत्व पद से हटा दिया गया था। जब चियाँन्ग काई शेक की सेना के विरुद्ध साम्यवादी सेना को भारी क्षति उठानी पड़ी, तो सी.पी.सी की केन्द्रीय समिति ने जनवरी सन् 1935 में अपने पौलित-ब्यूरो की एक गोष्ठी का आयोजन किया। पौलित-ब्यूरो ने वॉन्ग की नीतियों की बहुत कटु आलोचना की, माओ की ‘‘घेराबन्दी की नीति’’ को पुनः स्थापित किया एवं सी.पी.सी के नेतृत्व का भी पुनर्गठन किया गया। सी.पी.सी के संचालन कार्यों हेतु माओ को प्रमुख स्थान प्रदान किया गया। इस निर्णय ने शायद सेना में फिर से जान डाल दी, जिसके फलस्वरूप उसने तेजी से पश्चिमी सिचुआन में प्रवेश कर लिया। माओ जीडांग ने लाल सेना को उत्तर की तरफ बढ़ने का आदेश दिया। भारी संख्या में लोगों के हताहत हो जाने एवं काफी क्षति हो जाने के पश्चात अक्टूबर सन् 1935 में लाल सेना उत्तरी शॉन्स्की पहुँची एवं वहाँ स्थित साम्यवादी सैनिकों के साथ मिल गई। इस प्रकार 12,500 कि.मी. की एक अभूतपूर्व लम्बी यात्रा अभियान का समापन हुआ। अक्टूबर सन् 1936 में ही लोन्ग एवं रेन बिशी एवं अन व्यक्तियों के नेतृत्व में साम्यवादी सेना के अन्य दल भी वहाँ आ पहुंचे और मुख्य सेना में आफर मिल गये।
चियाँन्ग-काई-शेक की पराजय
सी.पी.सी का अपेक्षा कुओमिन्टाँग बहुत अधिक शक्तिशाली प्रतीत होता था। कुओमिन्टॉन्ग की सेना में 40 लाख से भी अधिक सैनिक थे। विशाल क्षेत्रों पर, अधिकांश बड़े शहरों पर, औद्योगिक क्षेत्रों पर, रेल मार्गों एवं संचार और यातायात सम्बन्धी अन्य साधन प्रशासनिक रूप से इसके अधिकार क्षेत्र में थे। कुओमिन्टाँग नियंत्रित क्षेत्रों में तीस करोड़ से भी अधिक व्यक्ति थे। जापान के सैनिक दलों द्वारा समर्पित किये गये हथियारों पर कुओमिन्टाँग ने अपना कब्जा कर लिया था। कुओमिन्टाँग को यू. एस. ए. द्वारा भी सैनिक एवं आर्थिक समर्थन प्राप्त था। इसके विपरित सी.पी.सी. के पास केवल दस लाख व्यक्तियों की सेना थी जिसके पास केवल. “ज्वार बाजरा इत्यादि एवं राइफिले’’ मात्र थी। युद्ध त्रस्त पूर्व के सोवियत यूनियन से इसको केवल नाममात्र की सहायता प्राप्त थी। इसके नियंत्रण में अधिकांश रूप से वे गाँव थे जिनकी जनसंख्या चीन की कुल जनसंख्या का चैथाई भाग थी। इसलिये, तुलनात्मक रूप से सी.पी.सी. की अपेक्षा कुओमिन्टाँग बहुत अधिक श्रेष्ठ एवं शक्तिशाली था। हो सकता है कि अपनी श्रेष्ठ शक्ति के कारण ही कुओमिन्टाँग ने सी.पी.सी. नियंत्रित मुक्त किये क्षेत्रों के विरुद्ध सम्पूर्ण स्तर के युद्ध को छेड़ा था।
शहरों की घेराबन्दी करने एवं मुक्त किये गये क्षेत्रों में अपना नियंत्रण बनाये रखने के मुख्य उद्देश्य में किसी प्रकार का विघन डाले बिना उपने से श्रेष्ठ सैनिक दल का समाना करने के लिये सी.पी.सी. ने यू.एस. साम्राज्यवाद एवं चियांन्ग-काई-शेक के कुशासन के विरुद्ध जनता के संयुक्त मोर्चे गठित करने का प्रयास करने का निर्णय किया। यह योजना कारगर साबित हुई। लोकप्रियता में वृद्धि हुई। साम्यवादी सेना ने जहाँ भी प्रवेश किया वहाँ उसका स्वागत किया गया। आठवें मार्ग की सेना, नई चैथी सेना एवं सी.पी.सी. नेतृत्व वाली अन्य सैनिक इकाइयों को मिलाकर बनी इस सेना को, इसके बाद से, जनता मुक्त वाहिनी सेना (पी.एल.ए.) का नाम दे दिया गया था। सी.पी.सी. एवं कुओमिन्टाँग के मध्य युद्ध शुरू होने के कुछ ही महीनों के अन्तराल में पी.एल.ए. द्वारा शत्रु को अनेकों बार पराजित किया गया और उसकी करीब सात लाख सैनिक टुकड़ियों का सफाया हो गया। मार्च सन् 1947 में कुओमिन्टाँग ने अपने आक्रमण को शान्डोन्ग एवं उत्तरी शान्कजी के मुक्त क्षेत्रों पर केन्द्रित किया था। पी.एल.ए. ने इन आक्रमणों को पराभूत कर दिया था।
सन् 1945-47 के दौरान चीन के अनेक भागों में विरोध आन्दोलनों का प्रायोजन किया गया था। दिसम्बर सन् 1946 में सारे देश में लाखों विद्यार्थियों ने हड़ताल की थी एवं सामान्य रूप में चीनी व्यक्तियों और विशेषरूप में चीनी महिलाओं के साथ अमरीकनों के दुराचरण के विरुद्ध प्रदर्शन किये थे। युद्ध से उत्पन्न आर्थिक रूप की कठिनाइयों के विरुद्ध साठ शहरों के विद्यार्थीगण उठ खड़े हुए। औद्योगिक शहरों के मजदूरों ने अपनी मांगों को लेकर एवं विद्यार्थियों के आन्दोलन के समर्थन में हड़तालें की। सन् 1947 में किसान आन्दोलन अनेक नये क्षेत्रों में फैल गया। अनेक स्थानों पर कुओमिन्टाँग के विरुद्ध किसानों ने हथियार उठा लिये थे। फरवरी सन् 1947 में ताईवान में एक बहुत बड़ा सशस्त्र विद्रोह हुआ था। इस प्रकार कुओमिन्टाँना अधिकृत क्षेत्रों में गैर-साम्यवादी लोकतांत्रिक आन्दोलनों ने चियाँन्ग-काई-शेक के सैनिक दलों के लिये दूसरे युद्ध की स्थिति उत्पन्न कर दी थी।
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