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चंडी देवी मंदिर का निर्माण किसने करवाया था , chandi devi temple haridwar built by hindi , कब हुआ

पढ़िए चंडी देवी मंदिर का निर्माण किसने करवाया था , chandi devi temple haridwar built by hindi , कब हुआ ?

हरिद्वार (29.95° उत्तर, 78.17° पूर्व)
उत्तराखंड में तीर्थयात्रा के चार स्थानों के लिए प्रवेश का स्थल हरिद्वार शिवालिक पहाड़ियों के निचले भाग में स्थित है। यह गंगा नदी के तट पर बसी हुई नगरी है। जैसे ही गंगा पर्वतों को छोड़ती है तथा मैदानों में प्रवेश करती है, इससे गुजरने वाले शहरों में हरिद्वार पहला प्रमुख शहर है।
हरिद्वार को हिन्दू देवताओं के देवों-ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश-का स्थान माना जाता है, क्योंकि इसे इन तीनों देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त है। यह शक्ति पीठों में से एक है।
हरिद्वार आध्यात्मिक एवं धार्मिक दृष्टि से ही एक प्रमुख केंद्र नहीं है बल्कि यह कला, संस्कृति एवं विज्ञान का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र है। यहां आज भी शिक्षा की गुरुकुल परंपरा ही कायम है।
रात्रि के समय जब गंगा में हजारों दिए एवं गेंदे के पुष्प तैरते हैं तब इस स्थान की सुंदरता देखते ही बनती है।
हरिद्वार में कई प्रसिद्ध एवं आकर्षक मंदिर भी हैं। यहां कश्मीर के शासक राजा सुचत सिंह द्वारा 1929 में बनवाया गया चंडी देवी मंदिर भी है। यहां का एक अन्य प्रसिद्ध मंदिर मनसा देवी मंदिर है, जहां केवल रोप वे या ट्रेकिंग द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। यह मंदिर भीलवा पर्वत के शिखर पर स्थित है। मायादेवी का प्राचीन मंदिर भी अधिष्ठात्री देवी की उपासना का एक प्रमुख स्थल है। यहां सती (भगवान शिव की प्रथम पत्नी) का सिर धड़ से अलग हुआ था।

हरवान (34°5‘ उत्तर, 74°47‘ पूर्व)
हरवान कश्मीर के श्रीनगर जिले में है। यह स्थान एक स्तूप, टेराकोटा की बनी विभिन्न वस्तुओं एवं 200 से 500 ई. की बनी ईंटों की प्राप्ति के लिए प्रसिद्ध है। यहां से एक ऐसा फर्श प्राप्त हुआ है, जो टेराकोटा की बनी चैकोर ईंटों से अलंकृत है। इस फर्श में विभिन्न प्रकार की सुंदर आकृतियां बनी हुई हैं, जैसे-लड़ते हुए हाथी, घोड़ों पर सवार धनुर्धारी, नृत्य करती या ढोल बजाती महिलाएं एवं बालकनी में बैठा हुआ युगल। चेहरे की बनावट, केश विन्यास, आभूषणों एवं वस्त्र सज्जा में ये आकृतियां गंधार-यूनानी कला से प्रभावित महसूस होती हैं। ऐसा अनुमान है कि कश्मीर क्षेत्र में जब मध्य एशिया के शक एवं कुषाण आए, उसी समय इस क्षेत्र में यूनानी कला को प्रवेश मिला।

हस्तिनापुर (29.17° उत्तर, 78.02° पूर्व)
हस्तिनापुर वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित है। महाभारत एवं पुराणों में इस स्थान का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। महाभारत के अनुसार हस्तिनापुर कुरु वंश की राजधानी थी तथा पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर में बाढ़ की समस्या के कारण राजा निचक्क्षु ने अपनी राजधानी यहां से कौशाम्बी स्थानांतरित कर दी थी। पुरातात्विक उत्खननों से भी यहां बाढ़ के प्रमाण पाए हैं। जैन परम्पराओं के अनुसार, उसके 24 तीर्थंकरों में से 3 इसी स्थान से संबंधित हैं।
पुरातात्विक दृष्टिकोण से हस्तिनापुर को पांच भागों में विभक्त कर दिया गया था। यह चित्रित धूसर मृदभाण्डों की प्राप्ति का एक प्रमुख स्थल है। यद्यपि यहां से ओसीपी संस्कृति के प्रमाण भी पाए गए हैं। (यहां से तत्कालीन समय की तांबे एवं लोहे से बनी वस्तुओं, चावल एवं गेहूं के प्रमाण पाए गए हैं।) यहां से उत्तरी काले ओपदार मृदभाण्ड संस्कृति के भी अवशेष मिले हैं। इसके अलावा आहत सिक्कों, लोहे की वस्तुओं, अंगूठियों एवं बहुमूल्य धातुओं की प्राप्ति इसकी समृद्धि का परिचय देती हैं। यह काल 200 ई.पूर्व तथा 300 ईस्वी के मध्य का काल था, जब लाल मृदभाण्डों का उपयोग किया जाता था। पकी हुई ईंटों एवं सुनियोजित आवासों के साक्ष्यों की प्राप्ति से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। यद्यपि गुप्त काल से संबंधित कोई भी प्रमाण यहां से नहीं मिले हैं। इससे प्रतीत होता है कि मध्यकाल तक आते-आते इस स्थान को लोगों ने छोड़ दिया था, जब हमें बलबन का एक सिक्का प्राप्त हुआ।

हिरेबेंकल (15°26‘ उत्तर, 76°27‘ पूर्व)
हिरेबेंकल एक महापाषाण स्थल है जो कर्नाटक में होसपेट से लगभग 35 कि.मी. दूर स्थित है। यह उन थोड़े से भारतीय महापाषाण स्थलों में से एक है, जो 800 ई.पू. से 200 ई.पू. के बीच के हैं और कोपल जिले में गंगावती शहर के पश्चिम में 10 कि.मी. के दायरे में स्थित हैं। 1955 से यह भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (एएसआई) के प्रबंधन के अधीन है।
हिरेबेंकल में, सांस्कृतिक सामग्री जैसे कि नवपाषाण काल के औजारों तथा नवपाषाण व महापाषाण काल के मृदभांडों के अतिरिक्त पुरातत्वविदों को यहां लौह तलछट भी मिला है। महापाषाण काल में कृषि औजारों तथा हथियारों हेतु लौह के उपयोग में आकस्मिक वृद्धि हुई। वास्तव में दक्षिण भारत में महापाषाण काल लौह युग के साथ-साथ आया। इस स्थल के ऊपरी भाग में एक बारहमासी जल स्रोत भी उत्खनन में मिला है। इस जल स्रोत के निकट ही एक खदान भी मिली है जहां से महापाषाण कालीन लोग भवन निर्माण हेतु पत्थर प्राप्त करते थे।
दक्षिण भारत में लगभग 2000 महापाषाण स्थलों में से, हिरेबेंकल में सबसे बड़ा कब्रिस्तान मिला है। यहां नवपाषाण काल से लेकर लौह युग तक के लगभग 400 महापाषाण कब्रगाह मिले हैं। इन्हें स्थानीय कन्नड़ भाषा में ‘ऐलु गुड्डागल‘ अथवा ‘मोरयर गुड्ड‘ के नाम से जाना जाता है। हिरेबेंकल अपने तीन पाश्र्व वाले प्रकोष्ठों, जो 8-10 फुट ऊंचे हैं, के लिए प्रसिद्ध है। इनमें छतों को बड़े पाषाण खंडों द्वारा बनाया गया है। इन प्रकोष्ठों को डौलमैन कहा गया है, जो सामान्यतः कब्रगाहों के भाग हैं। कुछ डौलमैन के गोलाकार छिद्रों वाले द्वार हैं जो खिड़कियों वाले घर जैसे प्रतीत होते हैं। कुछ पुरातत्वविद् यहां पाए गए डौलमैनों को काफी विशिष्ट मानते हैं एवं उन्होंने इस प्रकार के डौलमैनों को श्हिरेबेंकल टाइपश् डौलमैन नाम दिया है। हिरेबेंकल में कुछ अनियमित आकार वाले प्रकोष्ठ शिला आश्रय स्थल तथा समाधि स्थल मिले हैं, इनमें से कुछ को घेरे के रूप में व्यवस्थित किया गया है।

हुनसागी/हुनासगी/हुनसगी
(16°27‘ उत्तर, 76°31‘ पूर्व)
हुनसागी, कर्नाटक के यदगीर जिले में एक गांव है। यहां पर आरम्भिक पुरापाषाण काल के काफी स्थल मिले हैं। एक स्थल परवर्ती पाषाण काल से संबंधित है, जहां लाल रंग लिए हुए भूरे चकमक के औजार तथा हथियार प्राप्त हुए हैं। इन औजारों में तेज धार वाले लंबे ब्लेड तथा बहुउद्देशीय उपकरण हैं। कुछ स्थलों पर सभी गतिविधियों के लिए प्रयोग होने वाले औजार भारी मात्रा में मिले हैं, जो संकेत करते हैं कि यहां बस्ती के अतिरिक्त फैक्टरी स्थल भी था। कुछ अन्य छोटे-छोटे स्थल भी थे जहां से साक्ष्य मिलते हैं। यहां केवल औजारों का निर्माण होता था तथा यहां बस्तियां नहीं थीं। कुछ स्थल झरनों के बेहद समीप थे। अधिकांश औजार यहां स्थानीय रूप से पाए जाने वाले चूना पत्थर के बने थे।

इंदौर (22°43‘ उत्तर, 75°50‘ पूर्व)
इंदौर मध्य प्रदेश में है। पेशवा शक्ति के पतनोपरांत माधवराव होल्कर ने इंदौर में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इंदौर शहर की योजना एवं निर्माण होल्कर महारानी, अहिल्याबाई ने की थी। इंदौर के जसवंत राव होल्कर ने ब्रिटिश आक्रमणों का बहादुरीपूर्वक प्रतिरोध किया। यद्यपि, अंत में इंदौर को ब्रिटिश आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा।
इंदौर अपने कई दर्शनीय स्थलों के लिए प्रसिद्ध है। इनमें, ‘लालबाग पैलेस‘, भगवान गणेश की 25 फीट ऊंची प्रतिमा वाला ‘बड़ा गणपति मंदिर‘ होल्कर शासकों का 200 वर्ष पुराना ऐतिहासिक पैलेस श्राजवाड़ाश् एवं श्रवण बेलगोला की तर्ज पर निर्मित बाहुबली गोमतेश्वर की 21 फुट ऊंची मूर्ति इत्यादि प्रमुख है।
इंदौर की रियासत पहली रियासत थी, जिसमें अछूतों को मंदिरों एवं शिक्षण संस्थानों में प्रवेश का अधिकार दिया था। यहां की शासिका अहिल्याबाई होल्कर स्वयं एक समाज सुधारक थीं, जिन्होंने अपनी रियासत से सती प्रथा की समाप्ति हेतु सराहनीय प्रयास किए।

इंद्रप्रस्थ (28°36‘ उत्तर, 77°12‘ पूर्व)
इंद्रप्रस्थ दिल्ली के पुराना किला क्षेत्र में स्थित था। इस स्थान का उल्लेख महाभारत काल से ही मिलना प्रारंभ हो जाता है। महाभारत के अनुसार, पांडवों ने इंद्रप्रस्थ को अपनी राजधानी के रूप में विकसित किया। पुराणों में भी इंद्रप्रस्थ का उल्लेख प्राप्त होता है।
उत्तर वैदिक काल में भी इस स्थान में लोग निवास करते थे तथा यहां से द्वितीय शहरीकरण के साक्ष्य भी प्राप्त होते हैं। चित्रित धूसर मृदभाण्ड, एवं इस काल के चांदी के आहत सिक्कों की प्राप्ति से इस स्थान के महाजनपदकालीन स्थल होने के संकेत प्राप्त होते हैं। हाल के उत्खननों से यहां कुषाण एवं गुप्तकाल से संबंधित वस्तुओं के अवशेष भी पाए गए हैं। कुषाणकाल में, इंद्रप्रस्थ मुख्य व्यापारिक मार्ग में पड़ता था। इससे यहां दस्तकारी एवं वाणिज्य में वृद्धि हुई तथा इसकी यह समृद्धि गुप्तकाल तक बनी रही।

इटानगर (27°06‘ उत्तर, 93°37‘ पूर्व)
अरुणाचल प्रदेश की राजधानी इटानगर एक पूर्ण नियोजित शहर है। कलिक पुराण, महाभारत एवं रामायण में इस क्षेत्र का उल्लेख प्राप्त होता है। 11वीं शताब्दी में इस क्षेत्र में शासन करने वाले जीति शासकों के समय इटानगर को ‘मायापुरश् नाम से जाना जाता था। यह जीति शासकों की राजधानी था। अनुमान है कि 14वीं-15वीं सदी में बना प्रसिद्ध इटा किला का निर्माण राजा रामचंद्र ने करवाया था। दलाई लामा द्वारा संचालित एक बौद्ध मंदिर तथा पीली छत वाले पुण्य स्थल से यहां गहन तिब्बती प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यह इटानगर का एक प्रमुख दर्शनीय स्थल भी है।