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centromere in hindi , सेंट्रोमियर क्या है , प्राथमिक संकीर्णन या सेन्ट्रोमीयर किसे कहते है Primary constriction

पढ़िए centromere in hindi , सेंट्रोमियर क्या है , प्राथमिक संकीर्णन या सेन्ट्रोमीयर किसे कहते है Primary constriction ?

 (d) प्राथमिक संकीर्णन या सेन्ट्रोमीयर (Primary constriction or Centromere)

गुणसूत्रों का हल्का अभिरंजित होने वाला हिस्सा जो संकुचित दिखाई देता है, प्राथमिक संकुचन (Primary constriction) कहलाता है। इस पर सेन्ट्रोमीयर (Centromere) या काइनेटोकोर (Kinetochore) पाया जाता है। इसकी स्थिति नियत (Constant) होती है तथा यह गुणसूत्र की विशिष्टता है। प्राथमिक संकुचन ही गुणसूत्र की आकृति निर्धारित करता है । गुणसूत्र की दोनों भुजायें इसी पर आकर मिलती हैं। इसमें पुनरावृत्ति DNA पाया जाता है। जिसे सेन्ट्रोमीअरिक हेट्रोक्रोमेटिन (Centromearic heterochromatin) कहते हैं। गुणसूत्र के दोनों क्रोमोनिमा इसी स्थान पर एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। कोशिका विभाजन के दौरान मध्यावस्था ( Metaphase) में गुणसूत्र तर्क तन्तुओं से इसी स्थान द्वारा जुड़े रहते हैं। तन्तुओं पर गुणसूत्रों की गति के लिए सेन्ट्रोमीयर आवश्यक होता है। यदि गुणसूत्रों के हिस्से सेन्ट्रोमीयर रहित हों तो वे तर्कु तन्तुओं पर गति प्रदर्शित करने में अक्षम होते हैं, क्योंकि तर्क तन्तु सिर्फ सेन्ट्रोमीयर से ही जुड़ते हैं ।

इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा सेन्ट्रोमीयर प्राथमिक संकुचन पर चिपकी हुई, प्रोटीन से बनी हुई तश्तरीनुमा संरचना है, जिसका व्यास लगभग 0.20 से 0.25 होता है। यह क्रोमोटिन रहित पदार्थ की बनी होती है। अनुप्रस्थ काट में यह तीन भागों की बनी हुई दिखाई देती है- (i) 30 से 40nm मोटी, सघन, उत्तल बाह्य परत जिस पर तकुं तन्तुओं की सूक्ष्म नलिकायें संलग्न रहती हैं तथा इसे भेदकर क्रोमेटिन सूत्रों (chromatin fibres ) से जुड़ी रहती हैं । (ii) आन्तरिक कम सघन परत जो 15 से 30 nm मोटी होती है तथा क्रोमेटिन सूत्रों व बाह्य सघन परत के मध्य में स्थित होती है। (iii) सेन्ट्रोमीयर के उत्तल भाग के ऊपर पाया जाने वाला तन्तुमय पदार्थ (fibrillar material), सघन कोरोना (corona ) का निर्माण करता है ।

अधिकतर सेन्ट्रोमीयर्स में एक या अधिक गहरी अभिरंजित होने वाली विभिन्न आकार की संरचनायें क्रोमोमीयर्स ( Chromomeres) या काइनोसोम्स (Kinosomes ) पायी जाती हैं जिनके बीच क्रोमोनिमा के अन्तरक्रोमोमेरल सूत्र (Interchromomeral fibrillae) पाये जाते हैं। इनकी संख्या अलग- अलग हो सकती है। कुछ सेन्ट्रोमीयर में तो काइनोसोम अनुपस्थित होता है। कुछ में काइनोसोम व तन्तु समानान्तर व कुछ में क्रॉस रूप में व्यवस्थित हो सकते हैं । (चित्र 3.5)

चित्र 3.5 : गुणसूत्र बिन्दु की संरचना

सेन्ट्रोमीयर के कार्य (Functions of Centromere)

  1. क्योंकि तर्क तन्तुओं की सूक्ष्मनलिकायें सेन्ट्रोमीयर से ही जुड़ती हैं, अत: कोशिका विभाजन के दौरान गुणसूत्रों की गति को सेन्ट्रोमीयर ही सहायता प्रदान करती है ।
  2. तर्क तन्तुओं का निर्माण सूक्ष्मनलिकाओं (microtubules ) से होता है। सूक्ष्म नलिकायें ट्यूबुलिन (Tubulin) नामक प्रोटीन से बनी होती हैं । सेन्ट्रोमीयर ही ट्यूबुलिन निर्माण के केन्द्र होते हैं ।

गुणसूत्रों पर सेन्ट्रोमीयर की उपस्थिति, संख्या व अनुपस्थिति के आधार पर गुणसूत्रों को निम्न

प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. मोनोसेन्ट्रिक (Monocentric ) इन गुणसूत्रों में प्रत्येक पर केवल एक ही सेन्ट्रोमीयर पाया जाता है ।
  2. डाइसेन्ट्रिक (Dicentric ) —– जब प्रत्येक गुणसूत्र में दो सेन्ट्रोमीयर्स पाये जाते हैं 3. पॉलीसेन्ट्रिक (Polycentric ) – इन गुणसूत्रों में प्रत्येक गुणसूत्र पर दो से अधिक सेन्ट्रोमीयर्स पाये जाते हैं।
  3. ऐसेन्ट्रिक (Acentric)—ये गुणसूत्रों के टूटे हुए खण्ड होते हैं जो अधिक समय तक अस्तित्व में नहीं रहते हैं, क्योंकि इनमें सेन्ट्रोमीयर का अभाव होता है ।
  4. होलोसेन्ट्रीक (Holocentric ) — कुछ गुणसूत्रों में सेन्ट्रोमीयर्स की संख्या अधिक होती है जिससे गुणसूत्र की पूरी लम्बाई में सेन्ट्रोमीयर विसरित ( diffused) रहती है। जैसे- ऐस्केरिस मेगेलोसिफेला, कुछ कीटों तथा पादप लुजुला में । इसी प्रकार गुणसूत्रों में सेन्ट्रोमीयर की स्थिति के आधार पर गुणसूत्रों को निम्नानुसार वर्गीकृत कर सकते हैं (चित्र 3.6 ) ।
  5. मेटासेन्ट्रिक ( Metacentric ) – जब किसी गुणसूत्र में सेन्ट्रोमीयर मध्य में स्थित होती है जिससे इसकी दोनों भुजाओं की लम्बाई समान रहती है तथा इसकी आकृति ‘V’ जैसी होती है, मेटासेन्ट्रिक गुणसूत्र कहलाता है ।
  6. एक्रोसेन्टिक (Acrocentric ) — इन गुणसूत्रों में सेन्ट्रोमीयर एक सिरे पर होता है जिससे

गुणसूत्र की एक भुजा लम्बी तथा दूसरी नहीं के बराबर होती है । ये गुणसूत्र सीधे, श्लाका (rod) की आकृति के होते हैं । इस प्रकार के गुणसूत्र प्राकृतिक रूप से नहीं पाये जाते हैं।

  1. सबमेटासेन्ट्रिक (Submetacentric ) – जब गुणसूत्रों में सेन्ट्रोमीयर मध्य बिन्दु से थोड़ा हटकर स्थित होता है जिससे पश्चावस्था में (Anaphase) गुणसूत्र ‘L’ या ‘J’ आकृति के दिखाई देते हैं ।
  2. टीलोसेन्ट्रिक (Telocentric ) – इन गुणसूत्रों में सेन्ट्रोमीयर की स्थिति अन्तस्थ होती है, ये टीलोसेन्ट्रिक कहलाते हैं । ये गुणसूत्र भी पश्चावस्था में छड़ाकृति ( rod shaped) के दिखायी देते हैं ।

(e) द्वितीयक संकीर्णन (Secondary constriction)

किसी जाति विशेष की कोशिका के केन्द्रक में केवल दो गुणसूत्रों में प्राथमिक संकीर्णन (Primary constriction) के अतिरिक्त एक या अधिक द्वितीयक संकीर्णन (Secondary constriction) पाये जाते हैं। इनकी गुणसूत्रों में एक निश्चित स्थिति होती है । द्वितीयक संकीर्णन दो प्रकार के होते हैं- (1) द्वितीयक संकीर्णन – I तथा (2) द्वितीयक संकीर्णन – II ( चित्र 3. 7 ) ।

(i) द्वितीयक संकीर्णन-I (Secondary Constriction-I) :

इसे केन्द्रिक संगठक स्थल (Nucleolus organizing region) भी कहते हैं। कोशिकीय चक्र के दौरान अन्तरावस्था ( Interphase) में यह स्थल केन्द्रिक (nucleolus) का निर्माण करता है। इस भाग में क्रोमेटिन अकुण्डलित होता है तथा हल्के रंग का अभिरंजित दिखाई देता है ( हिटरोक्रोमेटिक) । यह केन्द्रकीय DNA की कुल मात्रा का लगभग 0.3% ही होता है । इस क्षेत्र के DNA में रिपीटिटीव क्षार क्रम होते हैं । यह भाग RNA के लिए कोड करता है।

कुछ गुणसूत्रों में द्वितीयक संकीर्णन – 1 से आगे सिरे का गोलाकार अथवा लम्बवत् भाग सेटेलाइट बॉडी (Satellite body) या ट्रेबेन्ट (Trabant) कहलाता है। यह गुणसूत्र की मुख्य काय (Main body) से क्रोमेटिन के बने, पतले, कोमल, बहुत हल्के अभिरंजित होने वाले तन्तु द्वारा जुड़ा रहता है। वे गुणसूत्र जिनमें सेटेलाइट बॉडी होती है, सैट गुणसूत्र ( SAT गुणसूत्र ) कहलाते हैं।

SAT = Sino-Acido-Thymonucleinico अतः बिना थायमोन्यूक्लिक अम्ल अथवा बहुत कम DNA के। मानव कोशिकाओं में 13th, 14th, 15th, 21st, 22nd तथा Y गुणसूत्रों में NOR पाया जाता है। चूँकि किसी गुणसूत्र विशेष में द्वितीयक संकीर्णन की स्थिति निश्चित होती है, अत: इन्हें चिन्हक (Markers) की तरह उपयोग में ले सकते हैं।

द्वितीयक संकीर्णन- II :

ये गुणसूत्रों के खण्डों में टूटने व पुनः संयोजित होने से बनते हैं । ये भी गुणसूत्र में विशेष स्थान पर पाये जाने वाले व बहुत कम अभिरंजित होने वाले स्थल हैं। कैरियोटाइप में से यदि किसी गुणसूत्र विशेष की पहचान करनी हो तो इस संकीर्णन की उपस्थिति के कारण गुणसूत्र को पहचाना जा सकता है।

(f) टीलोमीयर ( Telomere)

गुणसूत्र भुजा का अन्तिम सिरा टीलोमीयर (Telomere) कहलाता है। ‘टीलोमीयर’ शब्द मुलर (Muller, 1938) ने दिया । यह गुणों में अंतरालीय क्रोमोमीयर से अलग होता है, क्योंकि एक टीलोमीयर दूसरे टीलोमीयर या गुणसूत्र के टूटे हुए सिरे से जुड़ नहीं सकता। सम्भवतया यह गुणसूत्र के शरीर पर DNA अणु के शीर्ष के वलित ( coiled) होने के फलस्वरूप होता है तथा DNA के दोनों स्वतन्त्र सिरे गुणसूत्र पदार्थ में ही कहीं जुड़े रहते हैं।

क्रोमेटिन पदार्थ ( Chromatin Material) :

DNA, RNA व प्रोटीन की मात्रा तथा अभिरंजित होने के गुण के आधार पर क्रोमेटिन पदार्थ निम्न दो प्रकार का होता है-

(1) हैटरोक्रोमेटिन, (2) यूक्रोमेटिन ।

हैटेरोक्रोमेटिन तथा यूक्रोमेटिन (Heterochromatin and Euchromatin)

पादपों तथा जन्तुओं का अधिकतर जातियों में कोशिका विभाजन ( समसूत्री अथवा अर्धसूत्री) के समय कुछ गुणसूत्रों के कुछ खण्ड अधिक अथवा कम संघनित दिखाई देते हैं । यह घटना हिटरोपिक्नोसिस (Heteropycnosis) कहलाती है। हिटरोपिक्नोसिस सकारात्मक (+ve) भी हो सकता है अथवा नकारात्मक (-ve) भी हो सकता है । अति संघनन की अवस्था +ve हिटरोपिक्नोसिस कहलाती है। यदि क्रोमेटिन पदार्थ पूरे कोशिका विभाजन चक्र के दौरान बहुत अधिक संघनित रहता है तो इसे हैटरोक्रोमेटिन (Heterochromatin) कहते हैं, और यदि कम संघनित, कम कुण्डलित अथवा फैला हुआ (Extended) रहता है, तो यूक्रोमेटिन (Euchromatin) कहलाता है (चित्र 3.8)।

‘हैटरोक्रोमेटिन’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम हिट्ज (Heitz) ने सन् 1928 में किया। चूँकि हिटरोक्रोमेटिन में गुणसूत्र बहुत अधिक कुण्डलित व वलित (folded) होता है, अतः यह अधिक गहरा अभिरंजित होता है । यह भाग आनुवांशिक रूप से निष्क्रिय पदार्थ से बना होता है । किन्तु यह गुणसूत्र की विभिन्न उपापचयी क्रियाओं, न्यूक्लिक अम्लों का जैव संश्लेषण तथा ATP उपापचय को नियन्त्रित करता है। इस खण्ड में DNA निष्क्रिय ( inert) होने के कारण RNA ट्राँसकाइब (Transcribe) नहीं करता जिससे प्रोटीन संश्लेषण नहीं हो पाता है । उदाहरण ड्रोसोफिला मेलेनोगेस्टर के ‘Y’ गुणसूत्र का काफी लम्बा हिस्सा हैटरोक्रोमेटिक होता है तथा यह आनुवांशिक रूप से निष्क्रिय होता है ।

इसके विपरीत यूक्रोमेटिन बहुत हल्का अभिरंजित होता है। गुणसूत्र का अधिकतर भाग विस्तारित (extended) होता है, यूक्रोमेटिक कहलाता है। यह अधिक सक्रिय भाग होता है। इस खण्ड का DNA इन्टरफेज में mRNA संश्लेषित करता है । इसीलिए संश्लेषण के लिए सक्रिय कोशिका में बड़ी केन्द्रिक (Nucleolus) तथा अधिक यूक्रोमेटिन होता है ।

क्रोमेटिन की उपरोक्त दोनों अवस्थाएँ आपस में एक-दूसरे में परिवर्तित की जा सकती हैं, जैसे मानव लिम्फोसाइट में हैटरोक्रोमेटिन दो प्रकार का होता है-

(A) घटक अथवा आवश्यक हैटरोक्रोमेटिन (Component or essential heterochromatin or constitutive heterochromatin)

– इस प्रकार का हैटरोक्रोमेटिन सभी प्रकार की कोशिकाओं में हर वक्त पाया जाता है। यह स्थायी रूप से संघनित गुणसूत्र खण्ड होता है, जो कि आनुवांशिक रूप से निष्क्रिय होता है । समजात गुणसूत्रों पर इसकी स्थिति निश्चित व स्थिर होती है । यह गुणसूत्र के सेन्ट्रोमीयर, टीलोमीयर, न्यूक्लिओलर ऑरगेनाइजर क्षेत्रों अथवा बेन्ड्स (bands) के रूप में अन्तर्वेश्यीय (Intercalary) हो सकता है। यह बहुत अधिक रिपीटिटिव होता है, तथा प्रोटीन संश्लेषण के समय निष्क्रिय रहता है किन्तु इसमें rRNA के लिए बहुजीन्स होते हैं ।

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