खानवा युद्ध के कारण और परिणाम , महत्व क्या है | causes of battle of khanwa in hindi importance

causes of battle of khanwa in hindi importance results खानवा युद्ध के कारण और परिणाम , महत्व क्या है ?

प्रश्न : खानवा युद्ध के कारण क्या थे ? राणा सांगा इस युद्ध में पराजित क्यों हो गया ? खानवा युद्ध का महत्व स्पष्ट कीजिये।

उत्तर : खानवा युद्ध मेवाड़ के राणा सांगा और मुग़ल सम्राट जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर के बीच 17 मार्च 1527 ईस्वी को बयाना के पास हुआ , यह वर्तमान रूपवास , भरतपुर है।
युद्ध का कारण :
बाबर अपने ग्रन्थ तुजुक ए बाबरी (बाबरनामा) में राणा साँगा पर पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर का असहयोग करने का आक्षेप लगाता है , जबकि अन्य स्रोतों से यह असिद्ध है। यह असल में महत्वाकांक्षाओं का युद्ध था।
युद्ध की घटनाएँ : खानवा युद्ध में कर्नल टॉड के अनुसार राणा की सेना में 7 उच्च श्रेणी के राजा , 9 राव और 104 बड़े सरदार शामिल हुए। 17 मार्च 1527 ईस्वी को प्रात: साढ़े नौ बजे के लगभग युद्ध आरम्भ हो गया। युद्ध के मैदान में राणा सांगा घायल हो गया जिससे युद्ध का मंजर ही बदल गया। अंतिम रूप से विजय बाबर की हुई।
राणा की पराजय के कारण : खानवा के युद्ध में राणा सांगा की पराजय के अग्रलिखित कारण थे – बाबर के पास तोपखाना होना। बाबर की तुलुगमा पद्धति और रणकौशल। राजपूत सेना का एक नेता के अधीन न होना। रायसीन के सलहदी तंवर और नागौर के खानजादा के युद्ध के अंतिम दौर में बाबर से मिल जाना। राजपूत पक्ष के इतिहासकार टॉड तथा वीर विनोद के अनुसार राणा की पराजय का कारण सिलहन्दी तंवर का शत्रुओं से मिलना था परन्तु यह भी सत्य है कि तीर गोली का जवाब नहीं दे सकते थे।
खानवा के युद्ध का महत्व : इससे राजसत्ता राजपूतों के हाथों से निकल कर मुगलों के साथ में आ गयी जो लगभग 200 वर्ष से अधिक समय तक उनके पास बनी रही। यहाँ से उत्तरी भारत का राजनितिक सम्बन्ध मध्य एशियाई देशों से पुनः स्थापित हो गया। युद्ध शैली में भी एक नए सामंजस्य का मार्ग खुल गया। सांस्कृतिक समन्वय स्थापित हुआ।

प्रश्न : मालदेव के हुमायूँ तथा शेरशाह के साथ सम्बन्धों की आलोचनात्मक विवेचना कीजिये।

उत्तर : अपने पिता राव गंगा राठोर की मृत्यु के बाद राव मालदेव 5 जून 1532 को जोधपुर की गद्दी पर बैठा। उनका राज्याभिषेक सोजत में संपन्न हुआ। राव मालदेव गंगा का ज्येष्ठ पुत्र थे। जिस समय उसने मारवाड़ के राज्य की बागड़ोर अपने हाथ में ली उस समय उसका अधिकार सोजत तथा जोधपुर के परगनों पर ही था। राव मालदेव राठोड वंश का प्रसिद्ध शासक हुआ। उस समय दिल्ली पर मुग़ल बादशाह हुमायुँ का शासन था। तत्पश्चात सूर शासक शेरशाह ने अपना शासन स्थापित किया ,मालदेव के दिल्ली के इन दोनों शासकों के साथ सम्बन्ध अनिश्चित रहे तथा अनन्त: अपने राज्य को खो बैठा।
राव मालदेव तथा हुमायूँ : शेरशाह सूरी से हारने के बाद हुमायूँ सिन्ध की तरफ भागा एवं 1541 ईस्वी के शुरुआत में भक्कर पहुँचा। मालदेव ने इसी समय हुमायु के पास यह संवाद भेजा कि वह उसे शेरशाह के विरुद्ध सहायता देने के लिए उद्यत है। इस संदेश में सुझबुझ थी क्योंकि शेरशाह की अनुपस्थिति में मालदेव सीधा दिल्ली और आगरा की तरफ प्रयास कर सकता था तथा हुमायूँ के नाम से अपने समर्थकों की संख्या बढ़ा सकता था लेकिन हुमायुँ ने इस सुझाव पर कोई ध्यान नहीं दिया क्योंकि उसे थट्टा के शासक शाहहुसैन की सहायता से गुजरात विजय की आशा थी। वह सात माह शेवाने के घेरे में अपनी शक्ति का अपव्यय करता रहा। अब शाहहुसैन और यादगार मिर्जा उसके विरोधी बन चुके थे।
इस निराशा के वातावरण से क्षुब्ध होकर हुमायूँ ने लगभग एक वर्ष के बाद मारवाड़ की तरफ जाने का विचार किया। 7 मई 1542 को हुमायूँ जोगीतीर्थ (कुल ए जोगी) पहुँचा। जोगीतीर्थ पहुँचने पर मालदेव द्वारा भेजी गयी अशर्फियों और रसद से हुमायुं का स्वागत किया गया। उस समय यह भी संवाद उसके पास भेजा गया कि मालदेव हर प्रकार से बादशाह की सहायता के लिए उद्यत है तथा उसे बीकानेर पर परगना सुपुर्द करने को तैयार है। इतना सभी होते हुए भी बादशाह के साथी मालदेव से शंकित थे। इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिए मीर समन्दर , रायमल सोनी , अतका खां आदि।
व्यक्तियों को मालदेव के पास बारी बारी से भेजा गया। सभी का लगभग यही मत था कि मालदेव ऊपर से मीठी मीठी बातें करता है लेकिन उसका ह्रदय साफ़ नहीं है। इस पर हुमायूँ ने तुरंत अमरकोट की तरफ प्रस्थान किया। लौटते हुए बादशाही दल का मालदेव की थोड़ी सी सेना ने पीछा किया जिससे भयभीत हो हुमायूँ मारवाड़ से भाग निकला।
राव मालदेव तथा शेरशाह सूरी : बीकानेर के मंत्री नागराज ने मालदेव के विरुद्ध शेरशाह को सहायता देने के लिए चलने की प्रार्थना की थी। इस तरह मेड़ता के स्वामी वीरम ने भी शेरशाह से सहायता चाही थी। शेरशाह ने एक चाल चली। नैणसी लिखता है कि मेड़ता के वीरम ने 20 हजार रुपये मालदेव के सेनानायक कुंपा के पास भिजवाकर कहलवाया कि वह उसके लिए कम्बल खरीद ले। इसी तरह उसने जैता नामक उसी के सहयोगी के पास भी 20 हजार रुपये भेजकर यह कहलवाया कि वह उसके लिए सिरोही की तलवार ख़रीदे। इसी के साथ साथ उसने मालदेव को यह सूचना भिजवायी कि उसके सेनानायकों ने शत्रु से घुस लेकर उसके साथ मिल जाने का निश्चय कर लिया है। जब इसकी  जाँच करवायी तो जैता तथा कूँपा के डेरे में रूपये मिले। इस घटना से मालदेव को धोखे का निश्चय हो गया तथा वह युद्ध स्थल को छोड़कर सुरक्षा के प्रबन्ध में लग गया।
रेऊ के अनुसार वीरम ने शेरशाह के जाली फरमानों को ढालों में सी कर गुप्तचरों के द्वारा मालदेव के सरदारों को बिकवा दिया। उसने मालदेव को भी यह सूचना भिजवायी कि युद्ध के समय उसके सरदार धोखा देंगे। यदि इसमें उनको कोई सन्देह हो तो उनकी ढालों में छिपे हुए फरमानों को देखा जाए। जब इसकी जाँच की गयी तो फरमान ढालों में पाए गए।
इससे मालदेव का अपने सरदारों पर से विश्वास उठ गया। किसी तरह जब यह पत्र मालदेव को मिला तो उसने युद्ध निरर्थक समझा। इस मतभेद में मालदेव ने लगभग आधे सैनिकों को अपने साथ ले लिया तथा लगभग आधी सेना जैता तथा कुंपा के साथ रहकर शेरशाह का युद्ध में मुकाबला करने को डटी रही। जैतारण के निकट गिरी सुमेल नामक स्थान पर जनवरी 1544 में दोनों की के बीच युद्ध हुआ जिसमें शेरशाह सूरी की बड़ी कठिनाई से विजय हुई। तब उसने कहा था कि “एक मुट्ठी भर बाजरी के लिए मैं हिंदुस्तान की बादशाहत खो देता”
इस युद्ध में मालदेव के सबसे विश्वस्त वीर सेनानायक जैता और कुंपा मारे गए थे। इसके बाद शेरशाह ने जोधपुर के दुर्ग पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया और वहाँ का प्रबंध खवास खां को संभला दिया।
अब्बास खां शेरवानी की तारीख ए फिरोजशाही के अनुसार इस विजय के बाद शेरशाह ने अपनी सेना के दो भाग कर दिए। एक भाग तो खवास खां तथा ईसा खां के नेतृत्व में जोधपुर की तरफ गया तथा एक दुसरे भाग को लेकर स्वयं अजमेर पहुँचा। उसने अजमेर को आसानी से अपने अधिकार में कर लिया। इसके अनन्तर वह जोधपुर की तरफ बढ़ा। मालदेव ने जब देखा कि शत्रुओं ने जोधपुर को चारों तरफ से घेर लिया है तो वह सिवाना के पर्वतीय भाग में चला गया। थोड़ी लड़ाई के बाद जोधपुर शत्रुओं के हाथ में आ गया। वीरम को मेड़ता तथा कल्याणमल को बीकानेर सौंपकर वह फिर अपनी राजधानी लौट गया। जब शेरशाह की मृत्यु हो गयी तो सिवाना के पहाड़ों से मालदेव ने अपने आक्रमण अफगानों के विरुद्ध करने आरम्भ कर दिए। 1545 ईस्वी में जोधपुर पर उसका पुनः अधिकार हो गया।
सामेल की लड़ाई का महत्व : सामेल के युद्ध के बाद राजपूतों के वैभव तथा स्वतंत्रता का अध्याय समाप्त हो जाता है जिसके पात्र पृथ्वीराज चौहान , हम्मीर चौहान , महाराणा कुम्भा , महाराणा सांगा तथा मालदेव थे। यहाँ से आश्रितों का एक इतिहास आरम्भ होता है , जिसके पात्र वीरम , कल्याणमल , मानसिंह , मिर्जा राजा जयसिंह , अजीतसिंह आदि थे।