JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: BiologyBiology

दूध देने वाली, मांस देने वाली, दूध और मांस देनेवाली ढोरों की नस्लें cattle breeds in hindi breeding meaning

cattle breeds in hindi breeding meaning दूध देने वाली, मांस देने वाली, दूध और मांस देनेवाली ढोर की नस्ल ?
ढोरों की नस्लें
पालतू ढोरों की बहुत-सी विभिन्न नस्लें हैं। सभी नस्लों को तीन आर्थिक समूहों में विभाजित किया जा सकता है – दूध देनेवाली, मांस देनेवाली, दूध और मांस देनेवाली।
दूध और मांस देनेवाली नस्लें इन नस्लों से बहुत बड़ी मात्रा में दूध मिलता है और बड़े आकार के मोटे-ताजे जानवर होने के कारण उनसे मांस भी बड़ी मात्रा में मिलता है। सोवियत संघ में इनकी एक सर्वोत्तम नस्ल कोस्त्रोमा नस्ल है (आकृति १७०) । इससे बहुत बड़ी मात्रा में दूध और मांस मिलता है। कारावायेवो (कोस्त्रोमा प्रदेश) स्थित राजकीय पशु-संवर्द्धन फार्म की हर गाय सालाना औसत ६,००० किलोग्राम से अधिक दूध देती है। सर्वोत्तम गायें सालाना १०,००० किलोग्राम से अधिक दूध देती हैं। एक एक गाय से रोजाना ५०-६० किलोग्राम दूध पाना एक साधारण बात है। रेकार्ड तोड़नेवाली ग्रोजा नामक गाय ने एक वर्ष में १४,२०३ किलोग्राम दूध दिया। दूसरी ओर कोस्त्रोमा गाय आकार में बड़ी होती है और उसका वजन ६००-७०० किलोग्राम होता है।
आम तौर पर गायें ग्यारह-बारह वर्ष की होने के साथ बुढ़ाने और कम दूध देने लगती हैं। पर कारावायेवो फार्म की बारह साल के ऊपरवाली बहुत-सी गायों से भी सालाना ५ से लेकर १० हजार किलोग्राम तक दूध मिलता है। गायें तीन साल की होने पर दूध देने लगती हैं। गाय के जीवन की दुग्धदायी अवधि बढ़ाना बहुत लाभकारी है।
दूध देनेवाली नस्लें ये गायें दूध तो बहुत देती हैं पर इनका आकार दूध और मांस दोनों देनेवाली नस्लों से छोटा होता है। सोवियत संघ में खोल्मोगोर और यारोस्लाव नस्लों की गायें सबसे ज्यादा दुधारू होती हैं।
खोल्मोगोर नस्ल अल्गेल्स्क प्रदेश के खोल्मोगोर इलाके में स्थित समृद्ध चरागाहों में विकसित की गयी (आकृति १७१)। यह गाय उत्तरी प्रदेशों के मौसम की अच्छी तरह आदी है और वहीं उसका अधिकतर संवर्द्धन भी होता है। अच्छी खिलाई और देखभाल करने पर खोल्मोगोर गायों से सालाना ५,००० किलोग्राम से अधिक दूध मिल सकता है।
यारोस्लाव प्रदेश के बाढ़ के पानी से सिंचित चरागाहों में विकसित की गयी यारोस्लाव नस्ल की गायें भी बहुत बड़ी मात्रा में दूध देती हैं। इनके दूध में चरबी की मात्रा काफी ऊंची यानी औसत ४.२ प्रतिशत होती है (प्राकृति १७२)। सर्वोत्तम फार्मों में यारोस्लाव नस्ल की गायों से सालाना ५,००० किलोग्राम से अधिक दूध मिलता है।
मांस देनेवाली नस्लें इन नस्लों का उपयोग मांस के लिए किया जाता है। वे दूध कम देती हैं। हमारी मांस देनेवाली नस्लों में से सबसे मशहूर प्रास्त्राखान नस्ल है। इसका पालन कास्पियन सागर के समीपस्थ स्तेपियों में किया जाता है। इस नस्ल के प्राणी स्थानीय परिस्थिति में रहने के अनुकूल होते हैं। वे कड़ाके की सर्दी और तेज गरमी आसानी से सह सकते हैं और चरागाहों की घास खाकर रहते हैं। प्रास्त्राखान नस्ल की गायें जल्दी जल्दी बड़ी होने के लिए मशहूर हैं। उनसे बढ़िया मांस और खाल मिलती हैं। कम उम्रवाले जानवरों की खाल विशेष कीमती होती है।
मांस देनेवाली नयी नस्लों में से हम सफेद सिरवाली कजाख नस्ल का उल्लेख कर सकते हैं।
भारत के ढोर भारत के ढोरों में कुब्बड़धारी गाय-बैल शामिल हैं। कंधों के बीचवाले कुब्बड़ के कारण भारतीय ढोर यूरोपीय ढोरों से अलग पहचाने जा सकते हैं।
कुब्बड़धारी गाय-बैल भारतीय-तुर्किस्तानी जंगली सांडों से पैदा हुए। ये जंगली सांड़ अब लुप्त हो चुके हैं। कुब्बड़धारी गाय-बैलों का पालन भारत में पांच हजार से अधिक वर्ष से हो रहा है।
उनका रंग हल्का कत्थई होता है और उनकी टांगों पर काले ठप्पे होते हैं।
मनुष्य के लिए ढोर बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। उनसे महत्त्वपूर्ण खाद्य पदार्थ – अर्थात् दूध और मांस – मिलते हैं और खेती तथा बोझ उठाने में भी उनका उपयोग होता है। इनकी कुछ दौड़ाक नस्लें तो घोड़े की तेजी से दौड़ सकती हैं। गोबर का उपयोग खेती में खाद के रूप में किया जाता है।
भारत में किसी भी देश की अपेक्षा अधिक ढोर हैं पर उनका काफी उपयोग नहीं किया जा रहा है। बहुत-सी गायें बिना देखभाल के घूमती-घामती रहती हैं और दूध बहुत कम देती हैं।
इधर के वर्षों में डेयरी फार्म खोले गये हैं। इनमें गायों की अच्छी खिलाई और देखभाल होती है और वे दूध भी अधिक देती हैं। बंबई के निकटवर्ती आदर्श फार्म में चैदह हजार ढोर हैं । दूध देनेवाली सर्वोत्तम नस्लें ‘सहोरी‘ और ‘थरपाकर‘ हैं।
पालतू भैस दूध देनेवाला एक और प्राणी है। खेती और बोझ उठाने में भी इसका उपयोग किया जाता है (प्राकृति १७३)। पालतू भैंस की पैदाइश जंगली भैंस से हुई है। यह जंगली भैस भारत में नम , दलदली और घास से समृद्ध जगहों में अभी भी मिलती है। वहां उनके झुंड चरते हुए नजर आते हैं। पालतू भैंस बाह्य दृष्टि से अपनी जंगली नस्ल से मिलती-जुलती लगती है पर वह होती है जंगली भैंस से कुछ नाटी और उसके सींग छोटे होते हैं। ये सींग त्रिभुज , पीछे की ओर मुड़े हुए और कुछ चपटे-से होते हैं। गरमी के दिनों में पालतू भैंस पानी में बैठना-लोटना पसंद करती है। नम जगहों में जीवन बिताने के अनुकूल कई लक्षण उसमें बने रहे हैं। उसके चैड़े खुर एक दूसरे से काफी दूर हो सकते हैं और उसकी मोटी खाल बालों से लगभग खाली होती है।
भैंस कुब्बड़धारी गाय-बैलों से नाटी और मोटी होती है। वह ज्यादा मजबूत और सहनशील होती है और उसमें रोग-संक्रमण आसानी से नहीं होता।
अर्थ-व्यवस्था में भैंस की कई नस्लों का उपयोग किया जाता है।
आसाम के पहाड़ी इलाकों में एक पालतू और अर्द्ध-पालतू बैल पाया जाता है। इसे गैयल कहते हैं। भारत के पहाड़ी जंगली इलाके गौर का घर हैं। जंगली भैंसों की बची-खुची नस्लों में से यह सबसे बड़ा जानवर है।
प्रश्न – १. सोवियत संघ में ढोरों की कौनसी नस्लें पाली जाती हैं? २. भारत में कौनसे ढोर पाले जाते हैं ? ३. पालतू और जंगली भैंसों में क्या समानता है ? ४. तुम्हारे इलाके में गाय -भैंसों की कौनसी नस्लों का पालन होता है ?
व्यावहारिक अभ्यास – यह देखो कि तुम्हारे इलाके में कौनसी नस्लों के ढोर पाले जाते हैं और उनके कौनसे गुण आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं ?

 ढोरों की देखभाल
डेयरी-घर उचित देखभाल के अभाव में किसी भी नस्ल की गायें काफी दूध नहीं दे सकतीं। सबसे पहले उन्हें गरम, सूखे, रोशन और हवादार डेयरी-घर में रखना जरूरी है।
ढोरों को रखने के लिए विशेष डेयरी-घर बनार जाते हैं (आकृति १७४)। आम तौर पर ये लंब चैकोर इमारतें होती हैं। इनमें आम तौर पर एक रास्ता बीच में और दूसरे दो बगल की दीवारों वे साथ साथ होते हैं। गायों को बीच के और दोन ओर के रास्तों के बीच , दीवार की ओर सिर किरं रखा जाता है। बिचले रास्ते से गोबर हटाया जात है। इस रास्ते के साथ साथ दो नालियां होती हैं। ढोरों को चारा बगल के रास्तों से पहुंचाया जाता है।
डेयरी-घरों को जाड़ों में गरम नहीं किया जाता ढोरों के शरीर से निकलनेवाली गरमी इमारत में आवश्यक तापमान रखने के लिए काफी होती है। पर डेयरी-घर की दीवारों, खिड़कियों और द्वारों में कोई दरारें नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसी दरारें हों ते उनके जरिये हवा के झोंके अंदर आयेंगे और ढोरे के स्वास्थ्य को हानि पहुंचेगी।
डेयरी-घर में प्रकाश के लिए बड़ी बड़ी शीशेदार खिड़कियां रखी जाती हैं।
डेयरी-घर का फर्श कुछ ढालू होता है और पूरे घर की लंबाई में उथली-सी नालियां होती हैं। इनके जरिये पशुओं का मूत्र इमारत के बाहर एक विशेष गड्ढे में पहुंचता है। इसके अलावा जानवरों के इर्द-गिर्द फर्श पर सूखी घास , पीट या लकड़ी के भूसे की परत बिछायी जाती है।
ताजी हवा पहुंचाने के लिए उचित प्रबंध किया जाता है। इस वायु-संचारप्रणाली में निकास नलियों से बुरी हवा बाहर चली जाती है और प्रवेश नलियों से ताजी हवा अंदर आती है।
बछड़ों की देखभाल के लिए विशेष मकान बनाये जाते हैं।
साधन-सामग्री डेयरी-घर को संबंधित प्राणियों की आवश्यकताओं के अनुसार सज्जित किया जाता है। हर जानवर के सामने एक नांद और एक स्वचालित जल-पात्र होता है। यह जल-पात्र कच्चे लोहे के कटोरे के रूप में होता है (आकृति १७५) । कटोरे के तल में थोड़ा-सा पानी होता है और जब गाय को प्यास लगती है तो वह सिर झुकाकर उसे पीने लगती है। इस समय गाय के मुंह से एक कल दबती है और पानी के नल का ढक्कन खुलकर कटोरा भर जाता है। भरपूर पानी पीने के बाद गाय सिर ऊपर उठाती है, कल पर से दबाव हट जाता है और पानी का प्रवाह बंद हो जाता है। गायों को इस जल-पात्र की आदत आसानी से डलवायी जा सकती है। उनमें संबंधित नियमित प्रतिवर्ती क्रिया आसानी से विकसित हो सकती है।
पानी के नलों और स्वचालित जल-पात्रों की सहायता से गायों को पानी पिलाने का काम कहीं आसान हो जाता है और उन्हें हमेशा ताजा पानी काफी मात्रा में मिलता है।
डेयरी-घर को साफ-सुथरा रखना जरूरी है। हर रोज गोबर हटाया जाता है और नांदों तथा जल-पात्रों को साफ किया जाता है। फर्श और खिड़कियों के शीशों को समय समय पर धोकर साफ किया जाता है।
गोबर को हटाने और घास-चारा पहुंचाने का काम जमीन पर या जानवरों के सिर के ऊपर की ओर से चलनेवाले ट्रकों की सहायता से किया जाता है। इससे श्रम की काफी बचत होती है।
प्रश्न – १. डेयरी-घर में किस प्रबंध की आवश्यकता होती है ? २. स्वचालित जल-पात्र की संरचना का वर्णन दो।

 ढोरों को खिलाई
खिलाई का महत्त्व पशु-पालन में उचित खिलाई का महत्त्व बहुत बड़ा है। गायों के लिए अच्छी खुराक आवश्यक है ताकि उनकी सभी इंद्रियों की जीवन-निर्वाहक गतिविधियां सुचारु रूप से जारी रहें, अंशतः क्षीण होनेवाली इंद्रियों का पुनर्निर्माण हो सके और दूध तैयार हो। इसके अलावा जवान पशुओं की वृद्धि के लिए भी खुराक आवश्यक है।
गाय की जीवन-निर्वाहक गतिविधियों और क्षीण इंद्रियों के पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक खुराक को पोषक खुराक कहते हैं। गाय का डीलडौल जितना बड़ा, आवश्यक खुराक की मात्रा उतनी ही अधिक। जिस खुराक से दूध तैयार होता है । उसे उत्पादक खुराक कहते हैं। गाय से मिलनेवाले दूध की मात्रा जितनी अधिक उतनी ही उत्पादक खुराक की आवश्यकता भी अधिक।
चारे की किस्में
ढोरों की खुराक मोटी (सूखी घास), रसदार (हरी घास कंद-मूलों की फसलें, सीलेज), सारकृत (आटा, भूसी, खली) और खनिज (नमक) हो सकती है। फार्मों में अक्सर मिश्रित खुराक का उपयोग किया जाता है। इसमें विभिन्न चारों का मिश्रण शामिल है और आम तौर पर इसका उत्पादन विशेष कारखानों में किया जाता है।
रसदार चारा सुरक्षित रखने की दृष्टि से विशेष बंद गोदामों या गड्ढों मे सीलेज बनायी जाती है। सीलेज के लिए मक्के , सूरजमुखी और शकर-चुकंदर की पत्तियों आदि का उपयोग किया जाता है।
विभिन्न खुराकों की पोषकता जई के साथ उनकी तुलना करके निश्चित की जाती है। एक किलोग्राम जई को खुराक की एक इकाई माना जाता है। इस प्रकार खुराक की एक इकाई २.५ किलोग्राम सूखी घास और ८ किलोग्राम चारे की चुकंदर के बराबर है।
चारे का राशन उचित खिलाई की दृष्टि से एक जानवर के लिए खुराक का राशन निश्चित किया जाता है। इसमें चारे के सभी प्रकार शामिल किये जाते हैं। यदि केवल मोटे चारे से काम लिया जाये तो अधिक दूध देनेवाली गाय को वह काफी बड़ी मात्रा में खिलाना पड़ेगा। अकेली सारकृत खुराक भी नहीं दी जा सकती क्योंकि गाय की पचनेंद्रियों की संरचना बड़ी मात्रा में खुराक पचाने के अनुकूल होती है।
खिलाई की दृष्टि से हर गाय की निजी हालत पर ध्यान दिया जाता है। उदाहरणार्थ , बछड़ा जनने के पहले गाय को विशेष पोषक और विविधतापूर्ण खुराक दी जाती है। उसकी खिलाई में विटामिनयुक्त गाजर शामिल किये जाते हैं। उक्त अवधि में गाय को खुद अपने जीवन के लिए और भ्रूण की वृद्धि और परिवर्द्धन के लिए पर्याप्त खुराक मिलनी चाहिए। इस अवस्था की ‘खिलाई का प्रभाव बछड़े के स्वास्थ्य और परिवर्द्धन पर और गाय की दूध देने की भावी क्षमता पर भी पड़ता है।
पोषक और उत्पादक खुराक के अलावा गायों को दुग्धवर्द्धक खुराक भी दी जाती है। यदि ऐसी खुराक देने पर दूध देने की क्षमता बढ़ जाये तो इस खुराक की मात्रा बढ़ायी जाती है। इस प्रकार गाय की दूध देने की क्षमता बढ़ायी जाती है।
खुराक का राशन तय करते समय हर जानवर की पसंद पर ध्यान देना चाहिए और आवश्यकतानुसार खुराक में हेरफेर करना चाहिए।
गायों को चारा खिलाने से पहले वह काटा जाता है और उसे गरम भाप दी जाती है। चारा घास-कटाई, कंद-मूल-कटाई और खली-पिसाई की तथा अन्य विशेष मशीनों से काटा जाता है। वाष्प-पात्रों में खुराक को (उदाहरणार्थ आलू) गरम भाप दी जाती है। बड़े बड़े फार्मों में खुराक तैयार करने के काम का यंत्रीकरण करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्न – १. खुराक की किस्में कौनसी हैं ? २. राशन तय करते समय किस बात पर ध्यान देना जरूरी है ? ३. खुराक तैयार करने में कौनसी मशीनों का उपयोग किया जाता है ? ४. ढोरों की उचित खिलाई का महत्त्व क्या है ?

Sbistudy

Recent Posts

सारंगपुर का युद्ध कब हुआ था ? सारंगपुर का युद्ध किसके मध्य हुआ

कुम्भा की राजनैतिक उपलकियाँ कुंमा की प्रारंभिक विजयें  - महाराणा कुम्भा ने अपने शासनकाल के…

4 weeks ago

रसिक प्रिया किसकी रचना है ? rasik priya ke lekhak kaun hai ?

अध्याय- मेवाड़ का उत्कर्ष 'रसिक प्रिया' - यह कृति कुम्भा द्वारा रचित है तथा जगदेय…

4 weeks ago

मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi

malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…

2 months ago

कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए

राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…

2 months ago

हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained

hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…

2 months ago

तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second

Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…

2 months ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now