JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: Uncategorized

जाति किसे कहते हैं | भारत में जाति व्यवस्था की परिभाषा क्या है के गुण दोष caste system in india in hindi

caste system in india in hindi जाति किसे कहते हैं | भारत में जाति व्यवस्था की परिभाषा क्या है के गुण दोष  |

जाति क्या है ?
जाति एक भारतीय शब्द है जिसका अंग्रेजी अनुवाद है – कास्ट (ब्ंेजम)। भारतीय होने के नाते हम जानते ही हैं कि जाति क्या है क्योंकि हम सब जन्म से ही जाति का लेबल लगाए रहते हैं। यह बात गैर-हिन्दुओं पर भी लागू होती है। परन्तु जाति का अर्थ हिन्दुओं व गैर-हिन्दुओं के बीच एक-सा ही नहीं है । जाति को गैर-हिन्दुओं के बीच धार्मिक मंजूरी प्राप्त नहीं है। यह एक सामाजिक स्तरीकरण है। हिन्दुओं के बीच यह माना जाता है कि किसी व्यक्ति की जाति पूर्व जन्म में उसके कर्म (कार्यो) की वजह से है। ऐसी बात गैर-हिन्दुओं के बीच नहीं है।

जाति का अर्थ अपने लिए तथा औरों के लिए हमेशा एक-सा तथा सभी के बीच सुसंगत नहीं होता है। यह लेबल जिस पर लगाया जाता है उस उद्देश्य के अनुसार यह भिन्न-भिन्न होता है। जाति का उस ग्राम समाज की सामाजिक व्यवस्था में किसी व्यक्ति के स्थान को पहचान प्रदान करता एक विशिष्ट सामाजिक अर्थ होता है, जहाँ कि वह व्यक्ति प्रतिदिन स्थानीय समुदाय के अन्य सदस्यों के साथ परस्पर सक्रिय होता है। उदाहरण के लिए, केन्द्रीय गुजरात के एक गाँव में उसका निवासी, मान लीजिए श्रीमान एक्स गड़ौसी बस्ती के अन्य ग्रामीण के साथ परस्पर अंतक्रिया करते समय अपनी पहचान खान्त के रूप में कराते हैं और वह ग्रामीण अन्तर्भोज के उद्देश्य से स्वयं को एक बरीया बताता है। श्रीमान एक्स जब तालुका अथवा जिला स्थान में राजनीतिक पार्टी की सभा में भाग लेते हैं, अपना परिचय क्षत्रिय के रूप में देते हैं। जब वह ऋण अथवा सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम के लिए आर्थिक सहायता लेने अथवा अपने बेटे के लिए छात्रवृत्ति लेने सरकारी कार्यालय में जाते हैं, अपनी जाति को ओ.बी.सी. (अन्य पिछडा वर्ग) बताते हैं। वैवाहिक तथा नाते-संबंध के लिए जाति का एक अर्थ होता है, आर्थिक अन्तक्रिया के लिए एक भिन्न अर्थ और राजनीतिक उद्देश्य के लिए एक तीसरा अर्थ होता है। जब कोई लोकसभा चुनावों की बजाय ग्राम पंचायत के लिए वोट का प्रयोग करता है, जरूरी नहीं है कि इसका एक ही अर्थ हो।

इस प्रकार सभी परिस्थितियों में व्यवहार्य जाति का सुस्पष्ट अर्थ बताना मुश्किल है। यह अंशतः एक आत्मपरक श्रेणी है। कर्ताओं व अनुपालकों द्वारा जाति का सामजिक ढाँचा प्रसंग-प्रसंग में भिन्न-भिन्न होता है।

 जाति के मुख्य अभिलक्षण
एक इकाई के रूप में जाति सटीक परिभाषा पर पहुँचने में मुश्किलों के बावजूद, एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में जाति-व्यवस्था के सामान्य लक्षणों के संबंध में विद्वानों के बीच एक मतैक्य है। जाति पर अधिकांश समाजशास्त्रीय लेखों का निष्कर्ष है कि सम-श्रेणीबद्ध याजक समाज (होमो हाइरार्कीकस) ही जाति-व्यवस्था का केन्द्रीय व सत्तावाचक तत्त्व है। यह वाक्यांश एक फ्रांसीसी समाजशास्त्री लुइस ड्यूमोण्ट द्वारा हिन्दू समाज-व्यवस्था को अन्य समाज-व्यवस्थाओं से भिन्न दर्शाने के लिए प्रयुक्त है – खासकर पाश्चात्य समाज-व्यवस्था से । पदानुक्रम ही जातीय सामाजिक व्यवस्था का सारभाग-केन्द्र है। इसमें शुद्धता-अशुद्धता के आधार पर प्रतिष्ठा, मूल्यों, रीतियों तथा व्यवहार का पदानुक्रम शामिल है। रक्त, भोजन व व्यवसायय तथा कर्मकाण्ड-पद्धति के लिहाज से व्यक्तियों के बीच अन्तर्वैयक्तिक संबंध को दो व्यवस्थाओं में बाँटा जाता है: शुद्ध और अशुद्ध। कुछ जातियों के लिए कुछ व्यवसाय अथवा भोजन का प्रकार शुद्ध माने जाते हैं और वही अशुद्ध हैं इस कारण अन्य जातियों के लिए निषिद्ध हैं। प्रत्येक हिन्दू के लिए यह अवश्यकरणीय है कि वह जाति नामक एक प्रतिबंधित परिधि में ही संबंध तथा अंतर्किया सीमित रखे. ताकि विवाह-सम्बन्धोंय भोजन आदान-प्रदान तथा जाति-आधारित व्यवसाय को जारी रखने में शुद्धता बरकरार रहे। जाति व्यवस्था के चार अनिवार्य अभिलक्षण हैं। ये हैं: (1) पदानुक्रमय (2) सम्मेयताय (3) विवाह पर प्रतिबंधय तथा (4) पैतृक व्यवसाय ।

जाति, वर्ग तथा राजनीति
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
जाति क्या है?
जाति के मुख्य अभिलक्षण
सक्रिय सम्बन्ध
क्षेत्रीय भिन्नताएँ
जाति तथा वर्ग
जाति में स्तरीकरण
दवाब समूह: जाति संघ
राजनीतिक दल
मतदान व्यवहार में जाति
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई का उद्देश्य है – आपको (अ) भारतीय राजनीति में जाति की प्रकृति और भूमिका तथा (ब) इस प्रक्रिया में किस प्रकार जाति व राजनीति, दोनों में परिवर्तन आता है, से परिचित कराना। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप समझ सकेंगे कि –
ऽ किस सीमा तक और किन तरीकों से जाति राजनीति को प्रभावित करती है,
ऽ जाति तथा राजनीति के बीच अन्तर्सम्बन्ध, और
ऽ राजनीति जाति को किस प्रकार प्रभावित करती है।

 प्रस्तावना
सिद्धान्ततः कहा जाये तो जाति तथा लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली विपरीत मूल्य प्रणाली को इंगित करते हैं। जाति अधिक्रमिक होती है। जाति-मूलक सामाजिक प्रणाली में किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा: उसके जन्म से निर्धारित होती है। उसको विभिन्न पवित्र अवतरणों द्वारा धार्मिक स्वीकृति प्राप्त है जिसको पादरियों/ पुरोहितों और कर्मकाण्डों द्वारा मजबूती प्रदान की जाती है। पारम्परिक रूप से, उच्च जातियाँ न सिर्फ धार्मिक क्षेत्र में बल्कि आर्थिक, शैक्षिक व राजनीतिक क्षेत्रों में भी कुछ विशेषाधिकारों का उपभोग करती हैं। प्रथागत कानून जन्म व लिंग द्वारा व्यक्तियों में भेद करते हैं । यानी, कुछ नियम महिलाओं व शूद्रों के लिए कठोर हैं और पुरुषों व ब्राह्मणों के लिए नरम हैं। दूसरी ओर, लोकतांत्रिक राजनीति प्रणाली व्यक्ति की स्वतंत्रता और समान सामाजिक स्थिति की पक्षधर है। यह कानून के शासन को इंगित करता है। कोई किसी भी प्रकार की प्रतिष्ठा वाला हो कानून से ऊपर नहीं है। संविधान के तहत भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली सभी नागरिकों के बीच स्वतंत्रता, समानता और भाई-चारे की द्योतक है। यह समतावादी सामाजिक व्यवस्था के निर्माण हेत संघर्षरत है।

तथापि, किसी समाज में आदर्शों के बावजूद भी राजनीति निर्वात में नहीं चलती। यह सामाजिक वातावरण में ही चलती है। इसलिए, यह विद्यमान सामाजिक शक्तियों से शून्य नहीं है। सामाजिक जीवन के स्तर पर राजनीति शक्ति और संसाधनों हेतु संघर्ष और उनके वितरण से संबंधित है। राजनीति के महत्त्वपूर्ण कार्यों में एक है दृ समाज पर शासन । यह विभिन्न हितों के बीच विवाद को हल करने का आहान करती है। यह समय विशेष पर समाज की आवश्यकताओं को पहचानती है। आवश्यकताओं का प्राथमीकरण किया जाता है: क्या महत्त्वपूर्ण है तथा तुरंत प्राप्त करना है और क्या प्रतीक्षा कर सकता है। समाज की आवश्यकतापूर्ति के लिए उत्पादन प्रणाली की प्रकृति निर्धारित करनी पड़ती है – लाभ कमाने के लिए कारखाने, खेत अथवा खाने व्यक्ति द्वारा निजी रूप से स्वामित्व में ली गई हैं अथवा वे समुदाय या राज्य अथवा दोनों के संयोजन द्वारा स्वामित्व में रखी और चलाई जाती हैं। उसके लिए नियम बनाए जाते हैं और कार्यान्वित किए जाते हैं। संक्षिप्त में, समाज में कौन, क्या, कब और कैसे पाता है ही राजनीति का मुख्य चिन्तनीय विषय है। यद्यपि ऐसे निर्णय राज्य द्वारा लिए जाते हैं, लोकतांत्रिक प्रणाली में लोग निर्णयन प्रक्रिया में शामिल होते हैं । वे अपने शासक चुनते हैं। अपने प्रतिनिधि चुनकर लोग आज और कल के लिए अपनी भौतिक व अभौतिक आवश्यकताओं, अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं । उनकी अपेक्षाएँ उनके स्वयं के लिए होती हैं तथा समुदाय – आसन्न आद्य समूह, जाति व बृहत्तर समाज जिसमें प्रदेश शामिल है, और देश के लिए भी। जनसाधारण संगठित या असंगठित संघर्षों, व्यक्तिगत सम्पर्कों व अन्य कई तरीकों से निर्णयकर्ताओं पर दवाब बनाते हैं। राजनीतिक नेता सामाजिक शक्तियों को नकार नहीं सकते क्योंकि वे स्वयं भी उनका हिस्सा होते हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में निर्णयकर्ताओं के लिए अत्यावश्यक है कि अपनी राजनीति शक्ति को प्राप्त करने व बरकरार रखने के लिए निर्वाचन-क्षेत्रों के समर्थन को तलाशें और बढ़ाएँ।

इसका हालाँकि, यह अर्थ नहीं है कि राजनीति समाजगत शक्तियों की मात्र एक परोक्षी अथवा एक रूपरेखा है। यह लक्ष्य और प्राथमिकताएँ तय करती है। यह परिवर्तन हेतु एक अभिदृष्टि रखती है, बहुजन हितार्थ विद्यमान की अपेक्षा एक बेहतर सामाजिक व्यवस्था हो। राजनीति नए मूल्य जैसे कि समानता और स्वतंत्रताय संस्थाओं जैसे कि राजनीतिक दल तथा श्रमिक संघय जमींदारी व्यवस्था अथवा अस्पृश्यता निवारण जैसी सरकारी नीतियों को प्रस्तुत करती है और पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था तथा मूल्य प्रणाली को निर्मूल करती है। यह समाज में सत्ता-स्थान निर्धारण एक समूह से दूसरे को हस्तांतरित करती है। इसके अतिरिक्त, चुनावों जैसी प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति राजनीतिक पदों की अभिलाषार्थ एक समूह से अनेक व्यक्तियों को प्रेरणा प्रदान करती है। वे आपस में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं अतः जाति-सदस्य भी विभाजित हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में जाति संसंजकता कमजोर पड़ जाती हैय और नया संघटन होता है। इस प्रकार, न सिर्फ जाति राजनीति को प्रभावित करती है वरन् राजनीतिक प्रणाली भी जाति को प्रभावित करती है और इसमें परिवर्तन उत्पन्न कराती है। यह कोई इकतरफा आमदरफत (वन-वे-ट्रैफिक) नहीं है। दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं । यह देखना होता है: कहाँ तक और किस रास्ते राजनीति सामाजिक कायांतरण का लक्ष्य प्राप्त करती है और कहाँ तक यह विद्यमान सामाजिक शक्तियों खासकर जाति, से प्रभावित होती है?

भारत 1950 में गणतंत्र बना । इतिहास में पहली बार देश के सभी वयस्क नागरिकों को वोट देने और ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा तक निर्णयन्-निकायों हेतु अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार मिला है। उन्हें चुनाव लड़ने का अधिकार भी मिला हुआ है ताकि वे भी शासक बन सकें। परिणामतः बहुसंख्य सामाजिक समूहों ने, जो अब तक राजनीति सत्ता से वंचित थे, यह महसूस करना शुरू किया कि वे पारम्परिक रूप से प्रभुत्व सम्पन्न अभिजात्य वर्ग से टक्कर ले सकते हैं और अपनी शिकायतों, आवश्यकताओं, प्राथमिकताओं तथा आकांक्षाओं को व्यक्त करने के लिए सत्ता का प्रयोग भी कर सकते हैं। इस प्रकार निर्धारित होती है उनकी नियति । राजनीति प्रतिस्पर्धात्मक और अनवरुद्ध बन चुकी है। इसके अतिरिक्त, राज्य ने अनेक सामाजिक व आर्थिक कार्यक्रम चलाए हुए हैं, जिन्होंने पारम्परिक सामाजिक बन्धनों व लाभों पर एकाधिकार को प्रभावित करते मौद्रिक तथा संविदात्मक संबंध को विकसित किया है। और, जाति पंचायत के न्यायिक प्राधिकरण के स्थान पर राज्य न्यायपालिका पद्धति आ गई है।

बोध प्रश्न 1
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) जाति के मुख्य अभिलक्षण क्या है?
2) ग्रामीण भारत में जाति तथा भू-स्वामित्व के बीच क्या संबंध है?
3) बृहद-स्तरीकरण दर्शाती एक जाति का उदाहरण दें।
4) सामाजिक जाति तथा राजनीतिक जाति के बीच क्या अंतर है?

बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) ये चार हैं, यथा (1) पदानुक्रम, (2) समानुपातिकता, (3) विवाह पर प्रतिबंध, तथा (4) वंशानुगत व्यवसाय।

2) जाति व भूमि के बीच में एक सकारात्मक संबंध है। इस संबंध के विषय में मुख्य प्रवृत्ति यह दर्शाती है कि निम्न अथवा पिछड़ी जातियाँ तथा पूर्व-अछूत कृषि-श्रमिकों, छोटे व उपांत किसानों से संबंधित हैं, और उच्च व माध्यमिक जातियाँ धनी व मध्यवर्गीय किसानों से संबंधित होती हैं । बहरहाल, ऐसे उदाहरण हैं जहाँ उच्च जातियाँ गरीब कृषिवर्गों से संबंध रखती हैं, और निम्न जातियाँ धनी व मध्य-वर्गीय किसानों से।

3) अंतर्जातीय स्तरीकरण का एक उदाहरण है राजस्थान, उत्तरप्रदेश व गुजरात के राजपूतों व ठाकुरों का। उनमें से अधिकांश उच्च सामाजिक स्तर से संबद्ध हैं, कुछ अपनी जमीन रखते हैं और उनमें से बड़ी संख्या कृषि-श्रमिकों की है।

4) सामाजिक जाति सामाजिक स्तर पर जाति के संचलन को इंगित करती है – इसकी भूमिका सामाजिक व सांस्कृतिक पहलुओं से जुड़ी है । जब जाति चुनावों में अथवा किसी अन्य राजनीतिक उद्देश्य से लामबंदी का प्रतीक बन जाती है यह राजनीतिक जाति बन जाती है।

Sbistudy

Recent Posts

सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke rachnakar kaun hai in hindi , सती रासो के लेखक कौन है

सती रासो के लेखक कौन है सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke…

12 hours ago

मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी रचना है , marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the

marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी…

12 hours ago

राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए sources of rajasthan history in hindi

sources of rajasthan history in hindi राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए…

2 days ago

गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है ? gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi

gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है…

2 days ago

Weston Standard Cell in hindi वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन

वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन Weston Standard Cell in…

3 months ago

polity notes pdf in hindi for upsc prelims and mains exam , SSC , RAS political science hindi medium handwritten

get all types and chapters polity notes pdf in hindi for upsc , SSC ,…

3 months ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now