JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Class 6

Hindi social science science maths English

Class 7

Hindi social science science maths English

Class 8

Hindi social science science maths English

Class 9

Hindi social science science Maths English

Class 10

Hindi Social science science Maths English

Class 11

Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History

chemistry business studies biology accountancy political science

Class 12

Hindi physics physical education maths english economics

chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology

Home science Geography

English medium Notes

Class 6

Hindi social science science maths English

Class 7

Hindi social science science maths English

Class 8

Hindi social science science maths English

Class 9

Hindi social science science Maths English

Class 10

Hindi Social science science Maths English

Class 11

Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics

chemistry business studies biology accountancy

Class 12

Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics

chemistry business studies biology accountancy

भारतीय चुनाव में जाति की भूमिका स्पष्ट कीजिए | चुनाव में जाति समीकरण क्या होता है caste equation in election in hindi

caste equation in election in hindi in india भारतीय चुनाव में जाति की भूमिका स्पष्ट कीजिए | चुनाव में जाति समीकरण क्या होता है जातीय समीकरण किसे कहते है बताइए |

मतदान व्यवहार में जाति
चनावों में जाति की भूमिका के दो आयाम हैं। एक है दलों व प्रत्याशियों का, दूसरा मतदाताओं का। पर्ववर्ती अपने आपको विशिष्ट सामाजिक व आर्थिक हितों के धुरंधरों के रूप में प्रक्षेपित करके मतदाताओं का समर्थन ढूँढते हैं। परवर्ती किसी एक पार्टी या प्रत्याशी के पक्ष में अपने वोट का प्रयोग करते समय जातीय आधार पर दोनों में से किसी को भी वोट दे देते हैं। और यदि ऐसा होता है तो यह कितना अनन्य है? जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है विभिन्न दल पार्टी टिकट बाँटने में कछ निश्चित जातियों को समायोजित करते हैं। प्रत्याशियों का नामांकन करते समय पार्टियाँ किसी निर्वाचन क्षेत्र में खड़े होने वाले प्रत्याशी की जाति तथा विभिन्न जातियों की संख्यात्मक शक्ति को ध्यान में रखती हैं। जाति के नेता भी अपने अनुयायियों को जातीय आधार पर अपने अनुयायियों को लामबंद करते हैं ताकि वे अपना शक्ति-प्रदर्शन कर सकें। पचास के दशक में जहाँ जाति संघ अपनी एकता बनाए रखने में सक्षम थे और किसी एक दल के साथ औपचारिक रूप से नहीं जुड़े थे वे अपने सदस्यों का अपने पार्टी संबंधन की बजाय अपने जाति भाइयों के लिए मतदान करने का आहान करते थे। राजस्थान में मीणाओं से कहा गया, ‘‘अपनी पुत्री अथवा अपना वोट‘‘ किसी ओर को न देकर किसी मीणा को ही दें । इसी प्रकार का नारा तमिलनाडु में प्रयोग किया गया: “वन्निया वोट किसी ओर के लिए नहीं है।‘‘ परन्तु जहाँ कहीं जाति संघ किसी पार्टी विशेष से जुड़ा. जाति-नेताओं ने जाति-सदस्यों से उसी पार्टी के लिए मत देने के लिए कहा। 1952 के चुनावों में गुजरात के क्षत्रिय नेताओं ने क्षत्रिय मतदाताओं को कहा कि यह उनका क्षत्रिय धर्म है कि वो कांग्रेस को वोट दें क्योंकि यही “महान् संस्था है और देश के विकास के लिए काम कर रही है।‘‘ आगामी चुनावों में जैसे ही जाति-नेता बिखर गए कुछ क्षत्रिय नेताओं ने आह्वान किया, “यह हमारा प्रण है कि गुजरात के क्षत्रिय कांग्रेस को वोट दें, तथा किसी और को नहीं।‘‘ दूसरों ने आहान किया कि यह क्षत्रियों का धर्म है कि महागुजरात जनता परिषद् (एक क्षेत्रीय दल) को वोट दें।

यद्यपि जाति सदस्यों के बीच एक प्रवृत्ति है कि एक पार्टी विशेष को वोट दें, कभी भी सामूहिक रूप से संपूर्ण जातीय मतदान नहीं हुआ। कुछ जातियाँ अपनी पार्टी विशेष को अपने दल के रूप में पहचानती हैं। यह उम्मीद की जाती थी कि यह उनके हितों की रक्षा करेगा। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जाटों ने लोकदल को अपनी पार्टी के रूप में पहचान दी। न सिर्फ इसलिए कि पार्टी के नेता जाट थे, परंतु इसलिए भी कि इस पार्टी ने किसानों से संबंधित मुद्दे उठाए। लेकिन सभी जाटों ने इस पार्टी को वोट नहीं दिया क्योंकि कुछ ऐसे भी थे जो कांग्रेस के पारम्परिक समर्थक थे, और वे अपने हितों को उन अन्य जाट किसानों से भिन्न रूप में देखते थे जो वे पूर्वप्रभावी रूप से स्वयं थे। 1988 के उत्तरप्रदेश राज्य विधानसभा चुनावों में 51 प्रतिशत अनुसूचित जाति के मतदाताओं ने ब. स.पा. को वोट दिया। 18 प्रतिशत ने भा.ज.पा. को वोट दिया। ब.स.पा. के अनुसूचित जाति के मतदाताओं का खासा बहुमत गरीब सामाजिक स्तरों से संबद्ध था और भा.ज.पा. का मध्यम वर्ग से संबद्ध था। चुनावी आँकड़ों का विश्लेषण करते समय पुष्पेन्द्र पाते हैं, ष्व्यावसायिक रूप से ब.स.पा. के मतदाता मुख्यतः अकुशल कर्मचारी, कृषि व उससे जुड़े कर्मचारी, शिल्पकार, तथा छोटे व उपांत कृषक थे। भा.ज.पा. मतदाताओं (उत्तरप्रदेश में) में व्यवसाय व सफेदपोश नौकरियों में लगे लोग केवल 2.6 और 1.6 प्रतिशत थे।‘‘

विकासशील समाज अध्ययन केन्द्र (ब्ण्ैण्क्ण्ैण्द्ध द्वारा किए गए 1972 के राष्ट्रीय चुनाव सर्वेक्षण में एक प्रश्न पूछा गया, “इस प्रत्याशी/ दल/ चिह्न को वोट देना आपने क्यों चुना?‘‘ उत्तरदाताओं की एक बहुत ही नगण्य संख्या (एक प्रतिशत से भी कम) का मुख्य मापदंड प्रत्याशी की जाति था। कुछ उत्तरदाताओं ने उन व्यक्तियों को वोट दिया होगा जो उनकी अपनी जाति के थे। परंतु यह जाति मतदान नहीं था। उन्होंने प्रत्याशी को वोट दिया न केवल इसलिए कि वह उनकी जाति का था/थी बल्कि उनकी पाटा थाध्थी जिसके प्रति उसके हितों की रक्ष था/थी बल्कि उनकी पार्टी का था/थी और सक्षम था/थी। उन्होंने वोट इसलिए दिया क्योंकि वह उनकी पार्टी का/की प्रत्याशी था/थी जिसके प्रति उत्तरदाता उन अनेक कारणों से जुड़ा हआ महसूस करता था जिनमें कि यह शामिल था कि वह पार्टी “उसके हितों की रक्षा‘‘ करेगी अथवा उस पार्टी ने उसके जैसे लोगों के लिए अच्छा काम किया था। अथवा, वे उस प्रत्याशी के संपर्क में थे कि जो उनकी मदद करता था। या वे महससू करते थे कि वह उनकी आवश्यकता पड़ने पर मदद करेगा। उनका प्राथमिक मापदंड है कि उनके हितों को समझा जाना। किसी दिए गए वैकल्पिक दलोंध् प्रत्याशियों में तय करते हैं: कौन उनके हितों की रक्षा औरों से बेहतर करेगा। यदि प्रत्याशी उनकी अपनी जाति का है और उसी की पार्टी का है जिसे वो अपना मानते हैं, उसी को वोट देते हैं। अगर उन्हें लगता है कि प्रत्याशी उस पार्टी का है या तो उनके हितों की रक्षा करने में सक्षम है अथवा विरोधी है। अथवा निर्वाचन क्षेत्र की राजनीति में नगण्य है, वे उस प्रत्याशी को वोट नहीं देते बेशक वह उनकी जाति का हो। यही कारण है कि अनेक जाति-नेता अपने जाति-सदस्यों के पूर्वप्रभावी निर्वाचन क्षेत्र में कभी न कभी तब चुनाव हार जाते हैं जब वे दल बदलते हैं अथवा उनकी पार्टी लोकप्रियता खो देती है। इसी कारण प्रत्याशी की जाति तथा मतदाताओं के बीच कोई एक-से-एक का संबंध नहीं है।

बोध प्रश्न 2
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें ।
1) जाति पंचायत तथा जाति सभा के बीच क्या अंतर है?
2) “जाति का लोकतांत्रिक अवतार‘‘ स्पष्ट करें।
3) मतदान व्यवहार को जाति किस प्रकार प्रभावित करती है?
4) उन तीन दलों के नाम दें जो जाति विशेष के निकट सम्पर्क में हैं।

जाति में स्तरीकरण
ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगीकरण तथा विपणन अर्थव्यवस्था के प्रवेश ने अनेक जातियों के पारम्परिक व्यवसाय को प्रभावित किया है। अधिकतर जातियों में कुछ सदस्यों ने अपने पारम्परिक व्यवसाय को छोड दिया है। 1950 के आसपास एफ.जी. बेली ने उडीसा जैसे एक अपेक्षाकृत पिछडे राज्य में स्थित एक गाँव में देखा, ष्हर व्यक्ति अपने परम्परागत व्यवसाय में काम नहीं करता है। आसवक शराब छूते ही नहीं हैं द्य नॉड कुम्हार (ज्ञदवक चवजजमते) बर्तन बनाना ही नहीं जानते ! मछुआरे मछली नहीं पकड़ते हैं। योद्धा खेतिहर किसान हैं। सर्वत्र एक वंशागत व्यवसाय अपनाने के लिए गुंजाइश है, जाति के सभी सदस्य काम में नहीं लगते हैं।‘‘ पचास के दशक में कैथलीन गॉफ ने भी तमिलनाडु में इसी तरह की बानगी देखी। उसने गौर किया, “जाति समुदाय अब व्यवसाय व धन-दौलत में सजातीय नहीं रहा है, क्योंकि व्यवसाय चुनने में जाति आज एक निर्णायक की बजाय एक सीमाकारी कारक है। कुम्बरपेट्टई के वयस्क ब्राह्मणों के यथार्थतः आधे अब सरकारी नौकरों, पाठशाला-शिक्षकों अथवा रोकथामकर्मियों के रूप में शहरों में नियोजित हैं। शेष में से कुछ के पास तो 30 एकड़ तक जमीन है और कुछ के पास मात्र तीन ही। कोई पंसारी की दुकान करता है और तो कोई शाकाहारी रेस्तराँ चलाता है । गैर-ब्राह्मणों के बीच, मछुआरों, ताड़ी-निष्कासकों, मराठाओं, कल्लनों, कोरवों तथा कुट्टादिसों ने अपना पारम्परिक काम छोड़ दिया है। देश के विभिन्न भागों से पचास व साठ के दशकों किए गए ग्राम-अध्ययन भी यही प्रवृत्ति दर्शाते हैं। साथ ही, गैर-कृषि क्षेत्र में व्यवसाय का विविधीकरण हरित-क्रांति के प्रसार के साथ अधिकांश जातियों के भीतर बढा है।

परन्तु अभी तक ऐसी अनेक जातियाँ हैं जिनके सदस्य न्यूनाधिक इसी प्रकार की आर्थिक स्थिति में हैं। ऐसे उदाहरण अनेक अनुसूचित जातियों और संख्यात्मक रूप से छोटी अन्य पिछड़ी जातियों के बीच देखे जा सकते हैं। ऐसी जातियों में अभी तक 10ः साक्षरता दर है और सभी कुटुम्ब अपनी आजीविका के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर करते हैं। दूसरी ओर अनेक जातियाँ ऐसी हैं जो आंतरिक रूप से स्तरीकृत हैं। विभिन्न जातियों में आर्थिक विभिन्नता के तीन प्रकार पाए जाते हैंः (1) तीव्र ध्रुवीकरण के लक्षण वाली जातिय (2) उच्च सामाजिक स्तर से निकली बहुसंख्य सदस्यों वाली जातिय तथा (3) दरिद्र सामाजिक स्तर से सम्बद्ध एक बहुसंख्य सदस्यों वाली जाति । राजस्थान, उत्तरप्रदेश तथा गुजरात के राजपूत और ठाकुर पहली श्रेणी में आते हैं। कुछेक कुटुम्ब विशाल भू-सम्पत्तियों और कारखानों के स्वामी हैं और अनेक कृषि-श्रमिक हैं। ब्राह्मणों, बनियों और क्षत्रियों जैसी अनेक उच्चत्तर जातियों के अधिकांश कुटुम्ब धनी हैं। दूसरी ओर अनेक पिछड़ी जातियों के अत्यधिक बड़े कुटुम्ब हैं जो छोटे तथा उपान्त कृषक, काश्तकार व कृषि-श्रमिक हैं। आर्थिक स्तरीकरण जो राजनीतिक मुद्दों पर संसक्तिशीलता को प्रभावित करता है। प्रबल सामाजिक स्तर जाति के हितों के रूप में अपने हित परिलक्षित करता हैय और सरकार के साथ सौदेबाजी के दौरान अपनी प्राथमिकता रखता है।

दवाब समूह: जाति संघ
किसी लोकतांत्रिक राज-व्यवस्था में किसी समूह की संख्यात्मक शक्ति महत्त्वपूर्ण होती है। सभी जातियाँ एकसमान संख्यात्मक शक्ति नहीं रखती हैं और एक भौगोलिक क्षेत्र – गाँव, गाँवों का समह तालुक अथवा जिला में फैली होती हैं। कुछ बहुत विशाल हैं, कुछ छोटी हैं, और कुछ बहुत ही छोटी। कुछ गाँव/ तालुक में संघनित हैं और कुछ किसी गाँव में चार-पाँच कुटुम्बों में छितरी हैं। संख्यात्मक रूप से बड़ी जातियाँ सरकार तथा राजनीतिक दलों के साथ राजनीतिक सौदेबाजी में अपना पलड़ा भारी रखती हैं। सजातीय विवाह से ही चिपकी जातियाँ राजनीतिक गतिविधियों के लिए जिला स्तरों और उससे परे कोई बहुत बड़ी संख्या नहीं जुटा सकतीं। ऐसी जातियों के कुछ नेता सभा अथवा संगम के नाम से जाति संघ बनाते हैं जिसमें किसी क्षेत्र में एक ही प्रकार के सामाजिक पदस्थिति वाली जातियों के समूह होते हैं। कुछेक जाति संघों में पारम्परिक व्यवस्था में विभिन्न सामाजिक पदस्थिति वाली बहु-जातियाँ भी होती हैं। इनको जाति “महासंघ‘‘ कहा जा सकता है।

यह याद रखा जाना चाहिए कि जाति संघ बिल्कुल जाति-पंचायत या सभा जैसा नहीं होता है। सामान्यतः जाति सभा के कार्यालय परिचर पदानुक्रम स्थिति पर रहते हैं। संघ के साथ ऐसी बात नहीं है। बहुधा संघ का लिखित संविधान होता है जिसमें विभिन्न कार्यालय परिचरों की शक्ति व उत्तरदायित्वों का उल्लेख होता है। जाति सभा के पास न्यायकारी अधिकार होते हैं जिसमें सदस्यों के विवाह, तलाक व अन्य पारिवारिक विवादों से संबंधित कर्मकाण्डीय तथा सामाजिक पहलुओं का जिक्र होता है। इसके निर्णय सभी जाति-सदस्यों के लिए बाध्यकारी होते हैं। जाति संघ आर्थिक, शैक्षणिक तथा राजनीतिक कार्यक्रम चलाते हैं। सभी जाति संगी इन सभाओं के सदस्य नहीं होते हैं। सभा के निर्णय सभी जाति सदस्यों के लिए बाध्यकारी नहीं हैं। जाति-पंचायत के साथ ऐसी बात नहीं है। इस संदर्भ में जाति संघ स्वयंसेवक संघठन से मिलता-जुलता है। अनेक जाति संघ यद्यपि ष्समुदाय के हितों व अधिकारों के प्रोत्साहन तथा संरक्षण‘‘ का उद्देश्य रखते हैं। वे अनिवार्यतः सीधे-सीधे चुनावीय राजनीति में लिप्त नहीं होते हैं। जाति संघ यदा-कदा चुनावीय राजनीति में सक्रिय होते हैं । रुडोल्फ-रुडोल्फ राजनीति में जाति संघों की भागीदारी को “जाति का लोकतांत्रिक अवतार‘‘ बताते हैं। कोठारी इसे जातियों का ‘‘लोकतंत्रीकरण‘‘ कहती हैं।

जाति संघों का इतिहास 19वीं शताब्दी से शुरू हुआ यद्यपि उनकी संख्या स्वतंत्रता के बाद बढ़ी। ये सभी राज्यों में पाये जाते हैं। हम कुछ उदाहरण लेते हैं। जैसा कि 80 के दशकारंभ में सरकार ने फैसला किया कि उत्तरप्रदेश के कुर्मियों को कुर्मियों के रूप में पुलिस सेवा में भरती होने से रोका जाए। कुर्मियों से संबद्ध सरकारी सेवाकर्मियों ने इस निर्णय के खिलाफ विरोध करने के लिए 1884 में “सरदार कुर्मी क्षत्रिय सभाश्श् बना ली। एक अन्य उदाहरण गिलनाडु के नाडारों का देखा जा सकता है। अपने आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिए, 1895 में तमिलनाडु के धन-सम्पन्न शनारों ने नाडार महाजन संगम बनाया। गुजरात में, स्वतंत्रता के बाद राजपूतों ने शासकों के रूप में राजनीतिक सत्ता तथा भूमि-सुधारों के तहत भू-स्वामित्व को खोने के बाद एक बृहत्तर संख्यात्मक समर्थनाधार की आवश्यकता महसूस की, क्योंकि वे कुल आबादी के मात्र चार प्रतिशत थे। कुछ राजनीतिक उच्चाकांक्षी राजपूतों ने गुजरात क्षत्रिय सभा बनायी। कोलियों की विभिन्न जातियों ने जाति-संगठन अपना लिया जो कि क्षत्रिय पदस्थिति की आकांक्षा रखते थे। क्षत्रिय बांधव के रूप में राजपूतों तथा कोलियों के बीच जाति गौरव तथा विचारों को विभिन्न माध्यमों से बढ़ावा दिया गया। जाति संघ अपने जाति सदस्यों के लिए शैक्षणिक सुविधाओं, भूमि के स्वामित्व तथा उसके वितरण, सरकारी नौकरियों की माँग करते हुए सरकार के समक्ष प्रतिनिधित्व करते हैं। उनमें से कुछ सिंचाई, विद्युत्, कृषि विकास हेतु उर्वरक के लिए ऋण तथा अनुदान जैसी आधारभूत सुविधाओं की माँग करते हुए ज्ञापन देते हैं तथा जनसभाएँ आयोजित करते हैं।

राजनीतिक दल
अनेक जातियाँ साथ जुड़ती हैं और आंदोलन चलाती हैं। तमिलनाडु तथा महाराष्ट्र में गैर-ब्राह्मण आंदोलन इसके उदाहरण हैं। ज्योतिराव फुले ने ब्राह्मणवादी आधिपत्य को चुनौती देते हुए 1873 में ‘सत्य शोधक समाज‘ शुरू किया। तमिलनाडु में वेल्ला. गोण्डा तथा पदयाची जैसी अनेक कृषक जातियोंः चैत्री जैसी व्यापारिक जातियों, शिल्पकार जातियों — तच्चान (बढ़ई), कोल्लन (लोहार). तटन (सुनार), ने वैयक्तिक तथा सम्मिलित रूप से गैर-ब्राह्मण आंदोलन चलाए। इस आंदोलन के बाद 1890 में पारायण महाजन सभा, आदि-द्रविड़ महाजन सभा जैसे अनेक जाति संघ आए। 1916 में सरकारी नौकरियों में ब्राह्मणों के प्रभुत्व और उन गैर-ब्राह्मणों के प्रति अन्याय को उजागर करता हुआ एक गैर-ब्राह्मण घोषणा-पत्र बनाया गया जो विशाल बहुमत में थे। जस्टिस पार्टी का गठन 1916 में हुआ। इस पार्टी ने 1919 में उस संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष गैर-ब्राह्मण मुद्दा प्रस्तुत करने एक शिष्टमंडल इंग्लैण्ड भेजा जो ‘गवर्मेण्ट ऑव इण्डिया बिल‘ तैयार करने के लिए उत्तरदायी था। ‘द्र.मु.क.‘ इसी की प्रशाखा है। नाडारों के वन्नियाकुला क्षत्रिय संगम ने दो गुट – तमिलनाडु टॉइलर्स पार्टी तथा कॉमनवैल्थ पार्टी, बनाए और 1952 के चुनाव लड़े। फिर उन्होंने राज्य मंत्रीमण्डल में स्थान पाने के लिए कांग्रेस के साथ सौदेबाजी की। अनुसूचित जाति संघ डॉ. अम्बेडकर के द्वारा चालीस के दशक में बनाया गया और रिपब्लिकन पार्टी दलित नेताओं द्वारा 1956 में बनायी गई। वे प्राथमिक रूप से दलितों की तथा दलितों द्वारा पार्टियाँ ही रहीं। बिहार के आदिवासी नेताओं द्वारा बनायी गई झारखण्ड पार्टी एक आदिवासियों की ही पार्टी रही। कांशीराम द्वारा शुरू की गई बहुजन समाज पार्टी दलितों, अल्प संख्यकों तथा अन्य पिछडे वर्गों के गठबंधन के लक्ष्य को लेकर चलती दलितों की एक पार्टी है ।

स्वंतत्रता के बाद चुनाव में प्रतिस्पर्धा के लिए राजनीतिक उद्देश्यों को लेकर कुछ जाति संघ बनाए गए। गुजरात में पचास के दशकारंभ में क्षत्रियों की एक पार्टी बनाने के लिए क्षत्रिय सभा के कुछ नेताओं ने विचार किया। शीघ्र ही उन्होंने महसूस किया कि मात्र क्षत्रियों की शक्ति के बलबूते चुनाव लड़कर वे अधिक समर्थन नहीं जुटा सकते थे। इसी प्रकार, चुनाव लड़ने के लिए कुर्मियों, यादवों और कोरियों के राजनीतिक आभिजात्य वर्ग ने 1947 में बिहार राज्य पिछड़ी जाति संघश् बनाया। इन जातियों से सम्बद्ध कांग्रेसी नेताओं के प्रतिरोध के चलते यह योजना शुरू ही नहीं हो पायी।

ऐसी जाति संघों ने विभिन्न अग्रणी राजनीतिक दलों के साथ हक कायम किया ताकि जाति-सदस्य चुनावों में पार्टी टिकट पा सकें । इन पार्टियों ने आरंभतः ऐसे दबावों का प्रतिरोध किया क्योंकि उन प्रभावी जातियों का उन पर प्रतिकूल दबाव था जो पार्टी को नियंत्रित करती थीं। परवर्ती ने पूर्ववर्ती पर जातिवादी अथवा साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाया परन्तु जैसे-जैसे दलों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ी और राजनीतिक गतिविधियों के लिए जाति संघ ने सदस्यों को सफलतापूर्वक लामबंद किया, सभी पार्टियों ने उन अग्रणी जाति प्रत्याशियों को लुभाना शुरू कर दिया जो जाति-वोटों को लामबंद कर सकते थे। ऐसे राजनीतिक प्रत्याशी विभिन्न राजनीतिक दलों में शामिल हो गए। चूँकि वे जाति के सामाजिक अथवा कर्मकाण्डीय हितों की रक्षा करने की बजाय स्वयं के लिए राजनीतिक पद प्राप्त करने में प्राथमिक रूप से इच्छुक थे, उन्होंने या तो एक नया संघ शुरू कर लिया अथवा जो था उसको तोड़ दिया। उनके लिए जाति संघ राजनीतिक सत्ता हासिल करने के अनेक औजारों जैसा ही है।

चुनावों में पार्टी प्रत्याशियों के नामांकन और लामबंदी हेतु कुछ राजनीतिक दल कुछ निश्चित जातियों के साथ पहचाने जाते हैं। 1969 के चुनावों में भारतीय क्रांति दल ने उत्तर प्रदेश की चार प्रमुख कृषक जातियों का एक गठजोड़ बनाया। इस गठजोड़ को ‘अजगर‘ (।श्रळ।त्) कहा गया, यानी अहीर, जाट, गूजर तथा राजपूत। 1977 में गुजरात में कांग्रेस (इं.) ने क्षत्रियों, हरिजनों. आदिवासियों तथा मुसलमानों का गठबंधन ‘खाम‘ (ज्ञभ्।ड) बनाया। 1977 तथा 1980 के संसदीय चुनावों में उत्तरप्रदेश में लोकदल जाटों से पहचाना गया। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी 1977 के राज्य विधानसभा चुनावों में आमतौर पर पिछड़ी जातियों और खासतौर पर यादवों से पहचाना गया। भा.ज.पा. आमतौर पर उच्च जातियों से और कांग्रेस मध्यम व पिछड़ी जातियों से पहचानी जाती है। यह बात अस्सी के दशक में गुजरात तथा महाराष्ट्र के उनके समर्थनाधार में प्रकट हुई। नब्बे के दशक में भा.ज.पा. ने कांग्रेस की रणनीति अपनायी जिसके तहत चुनावों में पिछड़ी जातियों के प्रत्याशियों को शामिल किया और उनके जाति भाइयों का सफलतापूर्वक समर्थन प्राप्त किया।

जाति संघों तथा राजनीतिक दलों के इस प्रकार के अंतर्संबंध के तीन परिणाम हुए। एक, खासकर गरीब तथा हाशिये के वे जाति-सदस्य जो अब तक राजनीतिक प्रक्रियाओं से अछूते थे, राजनीतिकृत हो गए और उन्होंने इस उम्मीद के साथ चुनावीय राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया कि उनके हितों की रक्षा होगी। दूसरे, जाति-सदस्य जाति की पकड़ को कमजोर करते हुए विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच छितर गए। तीसरे, संख्यात्मक रूप से बड़ी जातियों ने निर्णयन-निकायों में प्रतिनिधित्व प्राप्त कर लिया और पारम्परिक रूप से प्रबल जातियों के शक्ति कमजोर पड़ गई। इससे अधिकांश राज्य विधानसभाओं में मध्यम व पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व स्पष्ट होता है। तालिका-2 1957 से 1990 के दौरान गुजरात विधानसभा में विधायकों का जातीय संयोजन प्रस्तुत करती है। यह तालिका दर्शाती है कि एक समयावधि विशेष में ब्राह्मणों और बनियों की संख्या गंभीर रूप से घटी, जबकि एक समय कोलियों व राजपूतों ने क्षत्रियों के रूप में अपनी संख्या दुगनी कर ली। 1967 और 1995 के दौरान उत्तर प्रदेश में, राज्य विधानसभा में ऊंची जातियों का अनुपात घटकर 42 प्रतिशत से 17 प्रतिशत रह गयाय जबकि अन्य पिछड़े वर्गों के सदस्य उसी अवधि के दौरान 24 प्रतिशत से बढ़कर 45 प्रतिशत हो गए।

बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 2
1) किसी जाति के सभी सदस्य जाति सभा के सदस्य होते हैंय इसका नेतृत्व अनुक्रमिक होता है, इसके पास कर्मकाण्डों और विवाह, तलाक तथा परिवार के अन्य विवाद जैसे दूसरे सामाजिक पहलुओं से निबटने के लिए न्यायिक अधिकार होता है। दूसरी ओर, किसी जाति के सभी सदस्य जाति संघों के सदस्य नहीं होतेः इसका नेतत्व अनक्रमिक नहीं होता. इसके निर्णय जाति के सभी सदस्यों के लिए बाध्यकारी नहीं होतेय इसके पास आर्थिक, शैक्षणिक तथा राजनीतिक कार्यक्रम होते हैं।

2) राजनीति में जाति संघों की भागीदारी को रुडोल्फ-रुडोल्फ द्वारा “जाति का लोकतांत्रिक अवतार‘‘ कहा गया है।

3) मतदान व्यवहार में जाति का प्रभाव दो तरीकों में प्रकट होता है – प्रत्याशियों को टिकट आबंटित करने में, और जातीय आधार पर मतदाताओं द्वारा वोट डाले जाने में। सामान्यतः किसी जाति के वोट एक पार्टी अथवा प्रत्याशी के लिए जाति के आधार पर डाले जाते हैं। परंतु कभी भी संपूर्णतः सामूहिक मतदान नहीं हुआ।

4) (1) गुजरात में कांग्रेस (इं.) ‘खाम‘ (ज्ञभ्।ड) दृ क्षत्रियों, हरिजनों, आदिवासियों तथा मसलमानों का एक गठबंधन से पहचानी गईय (2) उत्तरप्रदेश में भारतीय क्रांति दल ‘अजगर‘ (।श्रळ।त्) – अहीरों, जाटों, गूजरों तथा राजपूतों का एक गठबंधनय और, (3) बहुजन समाज पार्टी दलितों से पहचानी जाती है।

सारांश
राजनीति निर्वात में नहीं काम करती। यह उस समाज में व्यवहृत है जिसमें वह सामाजिक बलों द्वारा प्रभावित होती है। राजनीति सामाजिक बलों को प्रभावित करती है और उनको बदल डालती है। यदि राजनीतिक संस्थाएँ और राजनीतिक नेता सामाजिक बलों में हस्तक्षेप करने में संज्ञापूर्ण प्रयास करें तो वे सामाजिक व्यवस्था और संबंध में काफी हद तक प्रभाव डाल सकते हैं और परिवर्तन ला सकते हैं। भारत में लोकतांत्रिक राजनीति जाति द्वारा प्रभावित रहा है परंतु उसने पारम्परिक जातीय व्यवस्था उसके मूल्यों को भी परिवर्तित किया है। विभिन्न स्तरों पर चुनावी प्रक्रियाओं में भाग लेते समय जाति की संरचना और कार्यकलाप बदले हैं। शुद्धता और अशुद्धता का इसका पारम्परिक पहलू उल्लेखनीय रूप से कमजोर हुआ है। जाति ने राजनीतिक भागीदारी के लिए दरिद्र व पारम्परिक रूप से वंचित समूहों को सांस्थानिक यंत्र रचना प्रदान की है। जाति अपने सदस्यों के कर्मकाण्डीय के बजाय आर्थिक व सामाजिक विषय के निष्पादनार्थ राजनीतिकृत की गई है। इस संदर्भ में यह जाति का लोकतांत्रिक अवतार है। परंतु इस प्रक्रिया ने विभिन्न गतिरोधों का सामना किया है और विभिन्न परिधियों में फंसी है। राजनीतिक नेता लामबंदी के लिए जातीय चेतना का प्रयोग करते हैं। परंतु उन आर्थिक व सामाजिक समस्याओं को उत्साह के साथ जारी नहीं रखते जो जाति के अधिकांश सदस्यों के सामने आती है। जातीय ढाँचे की अपनी सीमाएँ हैं। यह विभाज्य और पदानुक्रमिक है। यह जातिमूलक राजनीति के सामने एक चुनौती है।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
कोठारी, रजनी, कास्ट एण्ड पॉलिटिक्स इन इण्डिया, हैदराबाद, ऑरिएण्ट लॉन्गमैन, 1970।
बैटिल, एन्द्रे, एसेज इन् कम्पैरिटिव पर्सपैक्टिव, अध्याय 4, दिल्ली, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1992।
रुडोल्फ, एल.आई. एवं रुडोल्फ एस.एच., दि मॉर्डिनिटी ऑव ट्रेडीशन, दिल्ली, लॉन्गमैन, 1961 ।
शाह, घनश्याम, कास्ट इन इण्डियन पॉलिटिक्स, दिल्ली, परमानेण्ट ब्लैक, 2000।
सामाजिक अध्ययन केन्द्र, कास्ट, कास्ट कन्फ्लिक्ट एण्ड रिजर्वेशन, अध्याय 1, 2 व 8, दिल्ली. अजन्ता पब्लिकेशन, 1985।

 

Sbistudy

Recent Posts

four potential in hindi 4-potential electrodynamics चतुर्विम विभव किसे कहते हैं

चतुर्विम विभव (Four-Potential) हम जानते हैं कि एक निर्देश तंत्र में विद्युत क्षेत्र इसके सापेक्ष…

1 day ago

Relativistic Electrodynamics in hindi आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी नोट्स क्या है परिभाषा

आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी नोट्स क्या है परिभाषा Relativistic Electrodynamics in hindi ? अध्याय : आपेक्षिकीय विद्युतगतिकी…

3 days ago

pair production in hindi formula definition युग्म उत्पादन किसे कहते हैं परिभाषा सूत्र क्या है लिखिए

युग्म उत्पादन किसे कहते हैं परिभाषा सूत्र क्या है लिखिए pair production in hindi formula…

5 days ago

THRESHOLD REACTION ENERGY in hindi देहली अभिक्रिया ऊर्जा किसे कहते हैं सूत्र क्या है परिभाषा

देहली अभिक्रिया ऊर्जा किसे कहते हैं सूत्र क्या है परिभाषा THRESHOLD REACTION ENERGY in hindi…

5 days ago

elastic collision of two particles in hindi definition formula दो कणों की अप्रत्यास्थ टक्कर क्या है

दो कणों की अप्रत्यास्थ टक्कर क्या है elastic collision of two particles in hindi definition…

5 days ago

FOURIER SERIES OF SAWTOOTH WAVE in hindi आरादंती तरंग की फूरिये श्रेणी क्या है चित्र सहित

आरादंती तरंग की फूरिये श्रेणी क्या है चित्र सहित FOURIER SERIES OF SAWTOOTH WAVE in…

1 week ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now