Carbon Dioxide dissociation curve in hindi , कार्बन डाई ऑक्साइड वियोजन चक्र क्या है , क्रिया

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कार्बन डाई ऑक्साइड वियोजन चक्र ( Carbondioxide dissociation curve) : विन्टन एवं बेयलिस (Whinton and Bayliss) ने 1955 में रूधिर में उपस्थित CO2 की सम्पूर्ण मात्रा एवं CO2 के विभिन्न आंशिक दाब के मध्य वक्र द्वारा कार्बन डाई ऑक्साइर्ड के वियोजन को प्रदर्शित किया (चित्र 4.15) इस प्रकार प्राप्त वक्र ऑक्सीजनित एवं विऑक्सीजनित रूधिर के लिये भिन्न होता है क्योंकि ऑक्सीजनित रूधिर तुलनात्मक रूप से कम CO2 की मात्रा को संयुग्मित करता है। यह प्रक्रिया बोर प्रभाव (Bohr effect) से थोड़ी मिलती-जुलती है। बोर- प्रभाव के अनुसार CO2 की सांद्रता बढ़ती है तब ऑक्सीहीमोग्लोबिन एवं हीमोग्लोबिन का साम्य तनु अम्ल (हीमोग्लोबिन) की दिशा में अग्रसर होता है। इस तरह अधिक शीघ्रता से ऑक्सीजन मुक्त होती है जो बोर- प्रभाव को दर्शाता है।

 

चित्र 4.19 : स्तनियों के रूधिर में कार्बन डाई ऑक्साइड का विनियोजन वक्र

शरीर में CO2 के लिये वास्तविक वियोजन वक्र चित्र 4.11 में A-V बिन्दुओं द्वारा दर्शाया गया है जिसमें बिन्दु A सामान्य धमनी रूधिर को तथा बिन्दु ( V मिश्रित शिरीय रूधिर को प्रदर्शित करता है। मिश्रित शिरीय रूधिर पूर्ण से विऑक्सीकारी नहीं होता है इस कारण यह वक्र “क्रियात्मक वक्र’ (functional cureve) या ‘कार्यिकीय वियोजन वक्र’ (phsiological dissociation curve) कहलाता है।

श्वसनीय स्तर पर कार्बन डाई ऑक्साइड का निष्कासन (Release of CO2 at the respiratory surface) :

उपरोक्त वर्णन के अनुसार कार्बन डाई ऑक्साइड रूधिर द्वारा फेफेडों तक कार्बोनिक अम्ल, कार्बअमीनों यौगिकों एवं बाइकार्बोनेट्स के रूप में ले जाई जाती है। फुफ्फुसीय कोशिकाओं (Pulmonary capillaries) में कूपिकाओं में उपस्थित वायु की अपेक्षा अधिक CO2 का दाब होने के कारण CO2 रूधिर से फेफड़ों की कूपिकाओं में विसरित हो जाती है। इसके लिये निम्न अभिक्रियाएँ होती है।

(i) H2CO3                →                         H2O + CO2

 

कार्बोनिक एन्हाइड्रेज एन्जाइम

 

(ii) NaHCO3                     →                        Na+ + HCO3

ऑक्सीहीमोग्लोबिन की अम्लता के कारण

या

2NaHCO3 →   Na2CO3 + H2O + CO2

(ii) HbNHCOOH           →            Hb.NH2 + CO2

ऑक्सीहीमोग्लोबिन की मात्रा में वृद्धि के कारण

चित्र 4.20 : हैल्डेन प्रभाव को दर्शाता CO2 वियोजन वक्र

इस प्रकार हीमोग्लोबिन के ऑक्सीजनीकरण (oxygenation) के विपरीत होने वाली क्रिया को  हैल्डेन प्रभाव (Haldane effect) कहते हैं। 02 आयनों प्रवेश के समय जब हीमोग्लोबिन इस प्रकार हीमोग्लोबिन के ऑक्सीजनीकरण (oxygenation ) के विपरीत होने वाली क्रिया को ऑक्सीहीमोग्लोबिन में परिवर्तित होता है तब यह H+ आयनों को निर्मुक्त करता है। फेफड़ों में लाल रक्ताणुओं में क्लोराइड आयन (CI) बाहर प्लाज्मा में निकल आते हैं तथा बाइकोर्बोनेट आयन पुनः शीघ्र निर्माण (HCO3) पुन: अन्दर प्रवेश कर जाते हैं। कार्बोनिक एन्हाइड्रेज एन्जाइम CO2 के की क्रिया को बढ़ाता है जिससे प्राप्त CO2 रूधिर से फुफ्फुसीय कूपिकाओं की केशिकाओं में आ जाती है। (चित्र 4.16)

श्वसन का नियंत्रण (Control of respiration)

श्वसन एक अनैच्छिक (involuntry) एवं स्वचालित (automatic ) क्रिया है जो सामान्य स्थिति में ऐ नियत गति से होती है। स्वस्थ मनुष्य में सामान्य श्वसन दर (normal breathing rate) 16-20 प्रति मिनिट होती है । श्वसन के समय गैसों के पर्याप्त मात्रा में आदान-प्रदान हेतु विभिन्न श्वसन पेशियों का संकुचन प्रतिवर्ती क्रियाओं (reflexes) की अनेक श्रृंखलाओं द्वारा नियंत्रित रहता है । श्वसन की गति पर तंत्रिकीय (nervous ) एवं रासायनिक (chemical) दोनों प्रकार के नियंत्रण पाये जाते हैं।

तंत्रिकीय नियंत्रण (Nervous control) : श्वसन-पेशियों की क्रियाओं पर नियंत्रण के लिये मस्तिष्क के मेड्यूला ऑबलोंगेटा (medulla oblongata) में एक श्वसन-केन्द्र (respiratory centre) स्थित होता है। यह केन्द्र द्विपाश्र्वय (bilateral) होता है तथा इसका प्रत्येक पार्श्व – भाग एक अन्त:श्वसन केन्द्र (inspiratory centre) एवं एक बहि: श्वसन केन्द्र (expiratory centre) से बना होता है । श्वसन केन्द्र के नियंत्रण के लिये निम्न दो क्रिया-विधियाँ होती है।

(i) वेगसी क्रिया – विधि (Vagus mechanism) : श्वसन के प्रारम्भ में अन्त – श्वसन केन्द्र की तंत्रिका कोशिकाएँ बाह्य इन्टरकॉस्टल पेशियों को संकुचन हेतु उत्तेजित करती है। इसी के साथ डायफ्राम की रेडियल पेशियों में भी संकुचन होता है जिससे यह अपनी वास्तविक स्थिति से नीचे खिसकर सीधा हो जाता है। इन क्रियाओं के कारण वक्षीय गुहा के आयतन में वृद्धि हो जाती है  जिससे फेफड़ों के आयतन में वृद्धि होने पर इनमें उपस्थित वायु का दाब बाहरी वातावरण की अपेक्ष कम हो जाता है जिससे बाहरी वायु अन्दर ग्रहण कर ली जाती है तथा यह क्रिया निश्वसन (inspiration) कहलाती है।

चित्र 4.21: श्वसन का नियंत्रण

फेफड़ों के ऊत्तकों में विशेष प्रकार की ग्राही केन्द्र (receptor centre) पाये जाते हैं। जो फेफड़ों में वायु ग्रहण होने पर उत्तेजित हो जाते हैं। इनके उत्तेजन से उत्पन्न हुए आवेग (impulse) वेगस तंत्रिका (vagus nerve) के तन्तुओं द्वारा उच्छवसन या बहि: श्वसन केन्द्र ( expiratory centre) तक पहुँच जाते हैं। यह केन्द्र अन्तःश्वसनी केन्द्र को संदमक आवेग (inhibitory impulses) भेजता है जिससे अन्तःश्वसन बन्द हो जाता है। इस क्रिया – विधि को हेरिंग- ब्रेयुर प्रतिवर्त (Haring-Beruer reflex) कहते हैं।

अन्तःश्वसन के बन्द होते ही निष्क्रिय बहि: श्वसन या उच्छवसन (passive expiration) की क्रिया सम्पन्न होती है। इसके लिये बहि: श्वसन केन्द्र बहि: श्वसन की पेशियों को आवेग नहीं भेजता है बल्कि यह केवल अन्तःश्वसन की क्रिया को संदमित कर देता है। श्वसन की क्रिया में बहि: श्वसन के कारण जब फेफड़ों के वायु का एक निश्चित अंश निकल जाता है तो बहि: श्वसन केन्द्र द्वारा उत्पन्न संदमन से अन्तःश्वसन केन्द्र मुक्त हो जाता है जिससे यह अगले अन्त: श्वसन के लिये आवेग भेजता है। इस तरह श्वसन की सामान्य क्रिया जारी रहती है।

(ii) वातानुचलनी क्रिया – विधि (Pneumotaxic mechanism) : स्तनधारियों में श्वसन नियंत्रण से सम्बन्धित तंत्रिका कोशिकाओं का एक समूह मस्तिष्क के पोन्स (pons) भाग में पाया जाता है। इसे वातानुचलन केन्द्र ( pneumotaxic centre) कहते हैं। इस क्रिया – विधि के अनुसार जब अन्तःश्वसन को प्रारम्भ करने के लिये मेड्यूला ऑब्लेगेंटा का अन्तःश्वसन केन्द्र अपनी क्रिया प्रारम्भ करता है तो यह वातानुचलन केन्द्र को भी आवेग भेजता है । इस केन्द्र से आवेग बहि: श्वसन या उच्छवसन केन्द्र तक भी भेजता है। इस केन्द्र से आवेग बहि: श्वसन केन्द्र की क्रिया रूक जाती है तो यह वातानुचलन एवं बहि: श्वसन केन्द्र दोनों को ही आवेग भेजना बन्द कर देता है। इस कारण अन्तःश्वसन केन्द्र बहि: श्वसन केन्द्र की क्रिया से पूर्णरूपेण मुक्त हो जाता है। इसके पश्चात् यह फिर से आवेग भेजना प्रारम्भ करता है तथा पुनः अन्तःश्वसन की क्रिया होना प्रारम्भ हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि वातानुचलन केन्द्र केवल श्रम – युक्त (forcible breathing) के समय ही सक्रिय होता है।

चित्र 4. 22 : श्वसन का तंत्रिका नियंत्रण

चित्र 4. 23 : श्वसन का प्रतिवर्ती नियंत्रण

रासायनिक नियंत्रण (Chemical control) : श्वसन केन्द्र कुछ रासायनिक कारकों (chemical factors) जैसे रक्त में कार्बन डाई ऑक्साइड व ऑक्सीजन के आंशिक दाब एवं हाइड्रोजन आयनों की सान्द्रता द्वारा भी नियंत्रण किया जात है। हेयमान्स (Heymans, 1936) के अनुसार ग्रीवा काय (carotid body) एवं महाधमनी काय (aortic body) में ग्राही (receptors) पाये जाते हैं जो रसोसंवेदी (chemosensitive) होते हैं। इन दोनों कायों की रसोसंवेदी कोशिकाऐं धमनीय रूधिर के सामान्य PO2 पर सक्रिय होती है। इन ग्राहियों (receptors) द्वारा रक्त में उपस्थित ऑक्सीजन सांद्रता की जानकारी निरन्तर श्वसन केन्द्र को दी जाती है। रूधिर में ऑक्सीजन की सान्द्रता कम होने पर रसोसमंदी कोशिकाएँ उत्तेजित होकर आवेग को श्वसन केन्द्र तक पहुँचाती है जहाँ पर वे अन्तःश्वसन केन्द्र रक्त में उपस्थित कार्बन डाई ऑक्साइड की सान्द्रता के प्रति भी संवेदी होता है। हैल्डन (Haldane ) ने स्तनियों के रूधिर में उपस्थित CO2 की मात्रा द्वारा श्वसन नियंत्रण का अधययन किया । निःश्वसन में ली जाने वाली वायु में 0.03 प्रतिशत CO2 उपस्थित होती है। मेड्यूला का सम्पर्क हटने पर रूधिर में CO2 की मात्रा 6.5 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। रूधिर में CO2 की अधिकता होने पर सीधे ही श्वसन केन्द्र उत्तेजित हो जता है जिससे श्वसन की दर बढ़ जाती है। रूधिर में CO2 के तनाव वृद्धि को हाइपरकेनिया (hypercapnia) कहा जाता है। इसी प्रकार रूधिर में CO2 की मात्रा कम होने पर श्वसन की दर एवं गहराई कम हो जाती है। इसी कारण नवजात शिशु प्रथम संवातन तभी लेता है जब रूधिर में CO2 की सान्द्रता एक निश्चित मात्रा में होती है। रूधिर में CO2 की निम्न सांद्रता को एकेप्निया (acapnia) कहा जाता है जिससे संवातन या श्वसन की क्रिया बन्द हो जाती है।

दैहिक तापक्रम में वृद्धि एवं रूधिर की pH का कम होना (अम्लीयता का बढ़ना) भी श्वसन केन्द्र को प्रभावित करता है। इसी कारण ज्वर (fever) होने की स्थिति में तथा शारीरिक व्यायाम (exercise) की स्थिति में श्वसन केन्द्र प्रभावित होता है जिससे श्वसन की दर (breathing rate). में वृद्धि होती है। उपरोक्त दोनों ही स्थितियों में देह की आधार भूत उपापचय गति (basal metabolic rate) में वृद्धि होती है जिसकी आवश्कयकता की पूर्ति हेतु अधिक 02 की मात्रा की आवश्यकता देह को रहती है।