काल्विनवाद क्या है Calvinism in hindi , काल्विनवाद किसे कहते हैं परिभाषा क्या है

जाने काल्विनवाद क्या है Calvinism in hindi , काल्विनवाद किसे कहते हैं परिभाषा क्या है ?

प्रश्न: काल्विनवाद क्या था ?
उत्तर: 16वीं शताब्दी का फ्रांस निवासी कॉल्विन एक विशुद्ध नैतिकतावादी धर्म-सुधारक था। इसे ‘प्रोटेस्टेंट पोप‘ कहा जाता है। काल्विन लूथर के सिद्धांतों से प्रभावित हुआ तथा उसके विचारों का प्रचार किया। 1533 ई. में काल्विन स्विट्जरलैण्ड चला गया। जहां ज्विंगली ने धर्म सुधार आंदोलन के लिए वातावरण तैयार कर दिया था। काल्विन के सिद्धांत को ‘काल्विनवाद‘ भी कहते हैं। जिनेवा काल्विनवाद का केंद्र था। इसके अन्तर्गत –
ऽ उसने बाईबिल की सर्वोच्चता पर बल दिया।
ऽ उसने ईसाईयों द्वारा उत्सव व मेले आयोजित करने का विरोध किया।
ऽ उसने थियेटर का विरोध किया।
ऽ उसने पूर्व नियति के सिद्धांत (Doctrine of Predestination) में विश्वास किया।
ऽ उसके अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के लिए किसी अध्ययन की आवश्यकता नहीं है। जिन्हें नियति के अनुसार मोक्ष प्राप्त करना है उन्हें ‘इलैक्ट‘ (Elect) कहा गया।
ऽ काल्विन के अनुसार ईश्वर की इच्छा से ही सब कुछ होता है। इसलिये मनुष्य की मुक्ति न श्कर्मश् से हो सकती है न ‘आस्था‘ से। वह तो बस ईश्वर के ‘अनुग्रह‘ से ही हो सकती है। मनुष्य के जन्म लेते ही यह निर्णीत हो जाता है कि उसका उद्धार होगा अथवा नहीं।
ऽ उसने चर्च की व्यवस्था के लिए वृद्ध प्रीस्ट (पादरी) नियुक्त किये। जो प्रेसबिटर्स (Presbisters) कहलाये। स्कॉटलैण्ड में काल्विनवाद ‘प्रेसबीटीरियन‘ नाम से प्रसिद्ध हुआ।
1536 ई. में उसने “ईसाई धर्म की संस्थाएं”  (Institustes of Christian Religion) नामक पुस्तक लिखी। यह ईसाई परम्पराओं की पुस्तक थी। इसे धर्मशास्त्र की उत्कृष्ट कृति माना जाता है। यह पुस्तक उसने फ्रांस के सम्राट फ्रांसिस- I को समर्पित की। फ्रांस में काल्विन के अनुयायी ह्यूगोनोट्स (Huguenots) कहलाये।

प्रश्न: ‘‘धर्मसुधार आन्दोलन पोप पद की शक्ति के विरूद्ध एक राष्ट्रीय विद्रोह था, जिसकी शुरूआत मार्टिन लूथर ने की।‘‘ व्याख्या कीजिए।
उत्तर: मध्यकालीन ईसाई धर्म में चर्च को ईश्वर की कति माना गया। जितने भी चर्च से जुड़े संत थे उन्हें बिशप कहा जाता था। परंतु रोम के चर्च के बिशप को सर्वप्रमुख बिशप माना जाता था। सेन्ट पीटर प्रथम बिशप था। पोप के स्थान पर बिशप कहा जाता था। मध्य युग में बिशप का चुनाव सामंतों द्वारा किया जाता था। कई बार इन्हीं सामतों में से बिशप चुन लिया जाता था। 1059 ईसवी में पोप निकोलस-प्प् ने पोप के चुनाव की प्रक्रिया में परिवर्तन किया। इस समय तक रोम के बिशप को पोप कहा जाने लगा। निकोलस-प्प् ने पोप के चुनाव का अधिकार कुछ विशेष पादरियों को दिया जिन्हें ‘कार्डिनल्स‘ (ब्वतकपदंसे) कहा जाता है और यह निश्चित किया कि पोप शब्द का प्रयोग केवल रोम के बिशप (पोप) के लिए प्रयुक्त होगा। आज तक यह परम्परा बनी हुई है। इस कार्डिनल्स के समूह को ‘कॉलेज ऑफ कॉर्डिनल्स‘ कहते हैं।
1073 में पोप ग्रेगरी टप्प् ने पोप के अधिकारो पर एक पुस्तक लिखी जिसे ‘डिक्टेटस‘ (Dictatus) कहा जाता है। इस पुस्तक में कहा गया कि इस पृथ्वी पर दो शक्तियां है। एक पोप की शक्तियां व दूसरी राजा की शक्तियां। ये अंतरिक्ष में दो शक्तियों सूर्य व चंद्रमा के समान है। किन्तु जैसे सूर्य चन्द्रमा से बड़ा है उसी प्रकार पृथ्वी पर पोप की शक्तियाँ राजा की शक्तियों से बड़ी हैं। इसलिए राजा को पोप के प्रति उत्तरदायी होना चाहिये। इस प्रकार चर्च विश्व की सबसे शक्तिशाली संस्था बन गई। पोप धर्म व राजनीति की दृष्टि से सर्वोच्च हो गया।
ईसाई राज्यों के राजाओं की नियुक्तियाँ पोप द्वारा की जाती थी। किसी भी ईसाई राज्य में नियम व कानून बनाने का अधिकार पोप के पास था। राज्य की आय का एक हिस्सा चर्च को दिया जाता था। चर्च (पोप) के पास राजा को धर्म से बहिष्कृत करने का अधिकार था जिसे एक्सकम्यूनिकेशन कहते थे। धार्मिक आध्यात्मिक सेवाओं के बदले में चर्च ईसाईयों से कर वसूल करता था। राज्य का नियम पोप व धर्माधिकारियों पर लागू नहीं होता था। चर्च के अपने न्यायालय थे। चर्च के फैसले को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं की जा सकती थी। उत्तराधिकार, विवाह, तलाक, सम्पत्ति आदि के निर्णय पोप द्वारा किये जाते थे। धीरे-धीरे चर्च में भ्रष्टाचार बढ़ने लगा तथा धर्माधिकारी नैतिक रूप से गिरने लगे। मार्टिन लूथर जर्मन निवासी था। वह बिटेनबर्ग विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र का प्रोफेसर था। उसकी चर्च और पोप में आस्था थी। उसकी नजर में पोप का पद एक अत्यंत पवित्र और आध्यात्मिक तथा धर्मपरायण व्यक्ति जैसा था। लेकिन 1517 में पोप के एजेंट टेटजेल ने जब बिटेनबर्ग में पाप मोचन पत्र बेचे तो यहीं से मार्टिन लूथर चर्च का विरोधी हो गया और जब पोप से मिलने गया तो उसके पद की भव्य सांसारिकता को देखकर वह उसका विरोधी हो गया। मार्टिन लूथर को अपने राष्ट्र के राजाओं का संरक्षण मिला।
16वीं शताब्दी के प्रारम्भ में चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन हुआ जिसका नेतृत्व लूथर ने किया जो ‘‘धर्म सुधार आंदोलन पोप के पद की सांसारिकता व भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक नैतिक विद्रोह था‘‘।
मार्टिन लूथर व उनके अनुयायियों ने चर्च के खिलाफ विद्रोह किया अतः उसके अनुयायी प्रोटेस्टेण्ट कहलाये। जर्मनी के किसानों की मान्यता थी कि लूथर धार्मिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता का भी समर्थक है। अतः दक्षिण-पूर्वी और मध्य जर्मनी के किसानों ने लूथर के उपदेशों से प्रेरणा पाकर 1525 में विद्रोह कर दिया। शुरू में लूथर को इस आंदोलन से सहानुभूति थी लेकिन बाद में इसका चरित्र जनवादी व हिंसक हो गया तो लूथर ने शासकों का सहयोग कर इसे नृशंसता से दबवा दिया। क्योंकि वह जानता था कि शासकों व मध्यवर्ग के बीच ही उसका विचार पनप सकता है, इसलिए उसने जन विरोधी फैसला किया।
अपने देश में लूथर को छोटे-छोटे जर्मन राजाओं से सहायता मिली। बहुत से राज्य चर्च से बिगड़े हुए थे। इसलिए वे लूथर का समर्थन करने लगे और सैक्सनी के शासक ने उसको संरक्षण दिया। लूथर ने चर्च के बजाय अपने राष्ट्र की बात की। इस प्रकार उसका आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन था न कि सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता का समर्थक। पुर्नजागरण एक सांस्कतिक चेतना थी तो धार्मिक सुधार आंदोलन एक धार्मिक चेतना के साथ राजनीतिक चेतना थी। जो कार्य रैनेसा से प्रारंभ हुआ वह कार्य सुधार आंदोलन ने पूर्ण किया।