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भूमरा का शिव मंदिर कहां स्थित है , bhumra shiv temple in hindi

bhumra shiv temple in hindi भूमरा का शिव मंदिर कहां स्थित है ?

भूमरा (24°24‘ उत्तर, 80°43‘ पूर्व)
भूमरा मध्य प्रदेश के बघेलखंड क्षेत्र में स्थित है तथा पांचवीं-छठवीं ईस्वी के गुप्त युग के शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर वास्तुकला के परवर्ती चरण का एक सुंदर नमूना है। गुप्तकालीन प्रारंभिक मंदिरों के विपरीत इस मंदिर में एक बड़ा गर्भगृह है, तथा इसकी छत भी भिन्न है। जबकि गुप्तकाल के प्रारंभिक मंदिरों की छत सपाट है एवं उनमें छोटे छज्जे पाए जाते हैं। इसमें एक बड़ा वर्गाकार गर्भगृह है। इसके साथ देवता हेतु अपेक्षाकृत छोटा वर्गाकार कक्ष है। बड़े गर्भगृह में प्रवेश हेतु एक बड़ा द्वार है तथा उसके चारों ओर प्रदक्षिणापथ बना हुआ है। जिसे तदनंतर संधार प्रासाद कहा गया। भूमरा मंदिर की एक अन्य विशेषता है अग्रभाग की सीढ़ियों के दोनों ओर छोटे तीर्थ मंदिरों की उपस्थिति। इस शैली ने कालांतर में मंदिर के चार कोनों में चार तीर्थ मंदिरों के निर्माण का नेतृत्व किया। वास्तुकला के लेखों में इस प्रकार की व्यवस्था को ‘पंचायतन’ कहा गया।
अवशेष दर्शाते हैं कि मंदिरों को विभिन्न प्रकार की मूर्तियों द्वारा सजाया गया है, जिनमें गंगा-यमुना की मूर्तियां सम्मिलित हैं। यद्यपि सबसे महत्वपूर्ण मूर्ति गणेश की है जोकि, सामान्यतया, पाए जाने वाले चूहे (वाहन) के बिना है। माना गया है कि भगवान गणेश की यह मूर्ति प्राचीनतम मूर्तियों में से एक है।

भीतरी (25.58° उत्तर, 83.57° पूर्व)
भीतरी, पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में स्थित है तथा प्रसिद्ध सम्राट स्कंदगुप्त (455-467 ई.) के स्तंभलेख के लिए प्रसिद्ध है। यह स्तंभलेख लाल बलुए पत्थर से निर्मित है। इस स्तंभलेख पर गुप्त शासकों के विजय अभियानों का उल्लेख है तथा यह गुप्तों की हूणों पर विजय की सूचना भी देता है। इस लेख के अनुसार, स्कंदगुप्त ने पुष्यमित्रों पर विजय प्राप्त की थी, हूणों को पराजित किया था तथा वंश की प्रतिष्ठा को पुनस्र्थापित किया था।
नरसिंह गुप्त के पुत्र कुमार गुप्त द्वितीय का एक मुहरयुक्त लेख भी यहां से प्राप्त किया गया है। इस लेख से भी प्रारंभिक गुप्त शासकों के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होती हैं। इस मुहर लेख के अनुसार नरसिंह गुप्त ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था तथा अपने सिंहासन को अपने पुत्र के लिए छोड़ दिया था। इस लेख में उल्लिखित तथ्यों की पृष्टि ह्वेनसांग के विवरणों से भी होती है।
भीतरी से प्राप्त अन्य अवशेषों में स्कंदगुप्त द्वारा ही निर्मित एक विष्णु मंदिर के अवशेष भी हैं। इस मंदिर का निर्माण बलुआ पत्थर एवं ईंटों से किया गया था। यह मंदिर पत्थर एवं ईंट दोनों के सम्मिश्रण से मंदिर निर्माण का एक सुंदर नमूना है। साथ ही यह दोनों के सम्मिश्रण का एक नया प्रयोग भी था। क्योंकि इससे पहले धार्मिक स्थलों के निर्माण में या तो बलुआ पत्थर का उपयोग होता था या फिर ईंटों का। यहां उत्खनन से एक मंदिर में श्रीकुमार गुप्त का भी एक लेख पाया गया है तथा कृष्ण एवं यशोदा की आकृति युक्त एक अन्य अवशेष भी पाया गया है। लेख में स्कंद गुप्त का कृष्ण तथा उनकी मां का देवकी के रूप में उल्लेख किया गया है।

भुवनेश्वर (20.27° उत्तर, 85.84° पूर्व)
मंदिरों का शहर भुवनेश्वर, वर्तमान में उड़ीसा की राजधानी भी है। यहां कलिंग काल से संबंधित 30 से अधिक मंदिर आज भी विद्यमान हैं। यहां का परशुरामेश्वर मंदिर प्रारंभिक उड़िया कला शैली (750-900 ई.) का एक सुंदर नमूना है। शहर के बाहरी भाग में स्थित मुक्तेश्वर का छोटा मंदिर 900-1100 ई. काल का सुंदर प्रतिनिधित्व करता है। विशालकाय लिंगराज मंदिर भी इसी काल से संबंधित है। लिंगराज मंदिर भारत का सबसे बड़ा शिवलिंग मंदिर है। इसका निर्माण सोम शासक ययाति ने प्रारंभ करवाया था। मध्यम आकार के कई अन्य मंदिर 1100-1250 ई. के काल अर्थात् तृतीय चरण का प्रतिनिधित्व करते हैं। स्वतंत्रता से कुछ समय पूर्व तक ओडिशा की राजधानी कटक थी।

बीदर (17.9° उत्तर. 77.5° पर्व)
वर्तमान समय में कर्नाटक में स्थित बीदर, बहमनी साम्राज्य का एक हिस्सा था। अहमदशाह प्रथम ने 1425 में राजधानी को गुलबर्गा से बीदर स्थानांतरित किया था। बहमनी साम्राज्य के विखंडन के पश्चात यह बीदर के बरीदशाही वंश के अंतर्गत आ गया। 1619 में बीजापुर के आदिलशाही वंश द्वारा इस पर अधिकार कर लिया गया। 1657 में औरंगजेब ने बीदर पर अधिकार कर लिया। तथा इसके उपरांत यह हैदराबाद के निजाम के साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया। स्वतंत्र भारत में कर्नाटक राज्य बनने के उपरांत यह स्थायी रूप से कर्नाटक में सम्मिलित हो गया।
बीदर में बासव के नेतृत्व में लिंगायतों का धार्मिक आंदोलन भी हुआ। बासव कल्याण, जहां शैववाद का काफी प्रचार-प्रसार हुआ, बीदर जिले का ही एक तालुका है।
बीदर धार्मिक इमारतों एवं दक्कनी शैली की कला एवं स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध है।
जैसे ही हम शहर में प्रवेश करते हैं, हमें बीदर का ऐतिहासिक किला दिखाई पड़ता है। यह किला 14-15वीं शताब्दी में बहमनी शासकों की शक्ति का केंद्र था। वर्तमान समय में इसका अधिकांश हिस्सा नष्ट हो चुका है। यहां बहमनी शासकों के 12 मकबरे हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध अहमदशाह प्रथम का मकबरा है। महमूद गवां का मदरसा एक अन्य महत्वपूर्ण इमारत है, जिसे ईरानी शैली में निर्मित किया गया है। महमूद गवां बहमनी साम्राज्य का प्रसिद्ध प्रधानमंत्री था। किसी जमाने में यह मदरसा न केवल भारत अपितु पूरे विश्व में इस्लाम की शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र था तथा पूरे संसार से छात्र यहां अध्ययन हेतु आते थे। सोला खंबा मस्जिद बीदर की सबसे प्राचीन इस्लामी इमारत है तथा भारत की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। नानक झूरा, गगनमहल एवं रंगीन महल भी यहां की दर्शनीय इमारते हैं
यद्यपि वर्तमान समय में बीदर, कर्नाटक के गंभीर सूखा प्रभावित क्षेत्र में आता है।

बीजापुर (16.83° उत्तर, 75.71° पूर्व)
बीजापुर कर्नाटक में है। इस प्रसिद्ध शहर की नींव कल्याणी के चालुक्य शासकों ने 10वीं-11वीं शताब्दी के मध्य रखी थी। चालुक्य इसे ‘विजयपुर‘ कहकर पुकारते थे तथा इसी से आगे चलकर इसका नाम ‘बीजापुर‘ पड़ गया।
13वीं शताब्दी में बीजापुर, खिलजी वंश के शासक अलाउद्दीन खिलजी के अंतर्गत आ गया। 1347 में इस पर बहमनी साम्राज्य के बीदर के शासकों ने अधिकार कर लिया। बीदर में बहमनी साम्राज्य के पतनोपरांत, एक राज्यपाल यूसुफ आदिलशाह ने यहां 1489 में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी तथा बीजापुर में आदिलशाही वंश की स्थापना की। बीजापुर का यह स्वतंत्र अस्तित्व 1686 में तब तक बना रहा, जब तक कि मुगल शासक औरंगजेब ने इसे अधिग्रहित कर मुगल साम्राज्य में सम्मिलित नहीं कर लिया।
आदिलशाही वंश के शासनकाल में यहां कला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति हुई तथा शीघ्र ही यह कला एंव संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया। आदिलशाही शासकों ने स्थापत्य कला को भरपूर प्रोत्साहन दिया, इसीलिए बीजापुर में कई प्रसिद्ध इमारतों का निर्माण हुआ। यहां 50 से अधिक मस्जिदों, 20 से अधिक मकबरों एवं कई अन्य महत्वपूर्ण इमारतों का निर्माण किया गया।
मो. आदिलशाह का ‘गोल गुम्बद‘ पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। यह एक भव्य इमारत है तथा प्रतिवर्ष हजारों पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
यहां स्थित जामा मस्जिद दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला शैली का एक अन्य सुंदर उदाहरण है। इसमें एक बड़ा उल्टे कटोरे के आकार का गुंबद है एवं एक बड़ा बरामदा है इसका निर्माण अली आदिलशाह प्रथम (1557-1579) ने कराया था।
इब्राहीम रौजा, 17वीं शताब्दी में निर्मित प्रसिद्ध मकबरा है। यह शहर के पश्चिमी ओर स्थित एक सुंदर इमारत है। इसमें ढलवांदार मीनारें हैं तथा इसके पैनल कमल की आकृतियुक्त वक्राकार तरीके से निर्मित हैं। यह भी आदिलशाही वंश की वास्तुकला का एक सुंदर नमूना है।

बीकानेर (28° उत्तर, 73° पूर्व)
चारों ओर से ऊंची सुरक्षात्मक दीवार से घिरे हुए बीकानेर शहर की स्थापना 1465 ई. में जोधपुर के राठौर शासक राव बीकाजी ने की थी। बीका ने यह क्षेत्र 1465 से जीतना शुरू कर दिया तथा 1488 में उसने बीकानेर नगर बनाना आरंभ किया-जिसका अर्थ है ‘बीका का अधिवास‘, आगे चलकर बीकानेर राजपूताना का एक शक्तिशाली राज्य बना। आज भी बीकानेर में मध्यकालीन जीवन की झलक देखी जा सकती है। बीकानेर, ऊंटों की सवारी के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है तथा ‘ऊंटों के देशश् या ‘ऊटों के शहर‘ के नामों से प्रसिद्ध है। यहां कई सुंदर किले, महल एवं मंदिर हैं, जो यहां की, भव्यता की झलक देते हैं। हर साल लगने वाला ऊंट मेला इस शहर की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। वर्तमान समय में बीकानेर ऊंट अनुसंधान का एक प्रमुख केंद्र है।
1570 में, बीकानेर के कल्याणमल ने आमेर के राजा भगवान दास के माध्यम से अकबर से मित्रता कायम कर ली तथा अपने पूरे जीवन में वह अकबर के प्रति निष्ठावान बना रहा। भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के पश्चात बीकानेर के शासकों ने ब्रिटिश आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
बीकानेर में ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व के अनेक स्थान हैं। इनमें प्रमुख हैं-जूनागढ़ किला, लालगढ़ किला एवं देशनोक का करणी माता मंदिर। यह मंदिर 600 वर्ष पुराना है तथा इसमें चांदी एवं संगमरमर की सुंदर नक्काशी की गई है। ऐसी मान्यता है कि माता के भक्तों की आत्मा चूहों में निवास करती है, इसीलिए चूहों को यहां पवित्र माना जाता है। यहां गजनेर वन्य जीव अभयारण्य तथा कपिल मुनि का पवित्र स्थल भी है।
यहां कई जैन मंदिर भी हैं, जिनमें बंदेश्वर जैन मंदिर सबसे प्रसिद्ध है।

बोध गया (24.69° उत्तर, 84.99° पूर्व)
बिहार में फाल्गु नदी के तट पर स्थित, बौध गया बौद्ध धर्म के अनुयायियों का एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है। यह वही स्थान है, जहां शाक्यमुनि (गौतम बुद्ध) ने मानव जीवन के करुणामयी दृश्यों से प्रभावित होकर तपस्या प्रारंभ की थी। यहां आज भी वह विशाल बोधिवृक्ष विद्यमान है, जिसके नीचे बुद्ध ने अपनी तपस्या प्रारंभ की थी तथा निर्वाण प्राप्त किया था। बोध गया का महाबोधि मंदिर विभिन्न संस्कृतियों के मिलन का एक अच्छा उदाहरण है। इस मंदिर में गुप्तवंश एवं उसके बाद के वंशों के विभिन्न प्रमाण प्राप्त होते हैं। मंदिर की दीवारों पर महात्मा बुद्ध की विभिन्न अवस्थाओं एवं रूपों की झलक दिखाई देती है तथा परम पावन स्थल में विशाल बुद्ध पृथ्वी का स्पर्श करते दिखाई देते हैं, जिसका बौद्ध कथाओं में महत्व है। मंदिर में अभिलेख हैं जिनमें श्रीलंका, चीन, म्यांमार के सातवीं से दसवीं शताब्दी के तीर्थयात्रियों के विषय में लिखा है। इसे बौद्ध धर्म का उद्गम स्थल माना गया है अशोक के अभिलेख में इसे सम्बोधि कहा गया है जहां अशोक का अभिषेक हुआ। फाह्यान तथा ह्वेनसांग ने भी यहां की यात्रा की थी। सिंघल के राजा मेघवर्ण ने यहां एक संघ का निर्माण कराया था। यहां से कई महत्वपूर्ण लेख भी प्राप्त हुए हैं।
1947 के पश्चात् चीन, तिब्बत एवं म्यांमार ने यहां कई बौद्ध मठों का निर्माण करवाया है।

ब्रह्मगिरि (11°57‘ उत्तर, 75°57‘ पूर्व)
ब्रह्मगिरि कर्नाटक के चित्रदुर्ग जिले में स्थित है। इस स्थल पर हुई खुदाई में मिले पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चला है कि ब्रह्मगिरि मौर्यकाल के पहले से ही दक्षिण भारत का एक प्रमुख केंद्र रहा है। प्रथम चरण में हमें अच्छी तरह से पॉलिश की हुई पाषाण से बनी कुल्हाड़ी तथा तांबे एवं कांसे की वस्तुएं प्राप्त होती हैं। महापाषाण काल लोहे की वस्तुओं एवं काले व लाल अचित्रित बर्तनों द्वारा पहचाने जाते हैं। सैकड़ों वर्षों तक यहां निरन्तर बस्तीकरण के कारण यह एक प्रभावशाली नगर बन गया, विशेषतः मौर्य साम्राज्य की पश्चिमी चैकी बनने के बाद तो यह और भी प्रभावशाली हो गया। यह कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के उद्गम स्थल की तीर्थ यात्राओं का आरम्भ स्थल भी था।
इस पर सातवाहनों ने प्रथम शताब्दी ईस्वी में कब्जा कर लिया। यहां से सातवाहन काल की प्राचीन वस्तुएं मिली हैं जिसमें सम्मिलित हैं-मनके, कांच, अर्द्ध-मूल्यवान पत्थर तथा मिट्टी, कांसे व सोने की चूड़ियां इत्यादि। रोमन सभ्यता से संबंधित रूले मृदभांडों (Roulette Pottery) का पाया जाना सातवाहन काल में पश्चिमी देशों के साथ व्यापार संबंधों को इंगित करता है। सम्राट अशोक के दो लघु शिलालेखों में से एक ब्रह्मगिरि में पाया गया है। यह शिलालेख इस संभावना की ओर संकेत करता है कि बौद्ध धर्म अपनाने के अढ़ाई वर्ष पश्चात् अशोक ने बौद्ध संघ में पूर्ण भिक्षु के रूप में प्रवेश कर लिया था।

बूंदी (25.44° उत्तर, 75.64° पूर्व)
बूंदी, राजस्थान का एक जिला है, जिसका इतिहास 12वीं शताब्दी ई. तक प्राचीन है। 12वीं सदी में राव देवा ने इस क्षेत्र को विजित कर लिया तथा बूंदी एवं हड़ौती की स्थापना की। इसका संस्थापक परिवार हाड़ा चैहान शासकों से संबंधित था। 17वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में, जब मुगल साम्राज्य पर जहांगीर का शासन था, बूंदी के शासक राव रतन सिंह ने अपने पुत्र माधव सिंह को कोटा की जागीर प्रदान की। इसके पश्चात कोटा राजपूत कला एवं संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। तारागढ़ का किला हाड़ा राजपूत शासकों की वास्तुकला का एक सुंदर एवं भव्य उदाहरण है।
बूंदी शहर में कई बावड़ियां (बावली या छोटी झीलें) हैं। इनमें रानी की बावड़ी सबसे सुंदर है। बूंदी के शासकों ने चित्रकला को भी भरपूर संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया। वे कला एवं संस्कृति की अन्य विधाओं के भी संरक्षक थे।
चित्रकला की बूंदी शैली की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं हैंः जैसे-विविध रंगों एवं सोने का प्रयोग, चित्रकला की मेवाड़ शैली का प्रभाव, गोलाकार मुखाकृति, लाल एवं गुलाबी रंगों से अलंकृत चेहरे एवं सुंदर रंगों से युक्त केले के वृक्ष। इस शैली के चित्रों में आकाश को भी विभिन्न रंगों से रंगा गया है तथा कई चित्रों में आकाश में लाल रंग की एक फीतेनुमा आकृति भी परिलक्षित होती है।
राजा सूरजमल हाड़ा ने मुगल शासक अकबर का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। इसके पश्चात बूंदी के शासकों ने मुगल साम्राज्य के प्रति सदैव निष्ठा बनाए रखी।

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