भरतनाट्यम का इतिहास क्या है ? what is bharatanatyam history in hindi भरतनाट्यम नृत्य का प्राचीन नाम क्या था ?

what is bharatanatyam history in hindi भरतनाट्यम का इतिहास क्या है ? भरतनाट्यम नृत्य का प्राचीन नाम क्या था ? कहाँ से पल्लवित हुआ है?

भरतनाट्यम
नृत्य कला का एक अत्यंत प्राचीन रूप है भरतनाट्यम। इसकी उत्पत्ति ईश्वर में अगाध आस्था से हुई। इसका उद्देश्य मनुष्य को पवित्रता, सदाचार तथा सौंदर्ययबोधात्मक मूल्यों का महत्व समझाना था। भरतनाट्यम में कविता और संगीत, नृत्य और नाट्य का समावेश था जिन्हें अपनी पूर्णता के साथ बाह्य विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया जाना था। यह एक सुसंपादि। सर्वतोमुखी शैली थी जो उच्च कोटि के रचना विन्यास और विधि पर आधारित थी। यह तमिलनाडु में पनपी और दक्षिण भारत के बहुत बड़े क्षेत्र में इसका प्रभाव फैला।
18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तंजौर के शासक. भरतनाट्यम में दिलचस्पी लेने लगे और उन्होंने इस कला के महान प्रणेता महादेव अन्नवी को प्रश्रय दिया। अन्नवी ने इस नृत्य शैली की उन्नति के लिए अपने शिष्यों के साथ बहुत परिश्रम किया था। जिन दिनों सुविख्यात त्यागराज कर्नाटक संगीत के इतिहास में एक नया अध्याय जोड रहे थे, उन्हीं दिनों भरतनाट्यम ने भी ओजस्विता और परिष्कृति के नए दौर में प्रवेश किया। भरतनाट्यम नृत्य का का विस्तृत अध्ययन करने और इसकी एक सुसंपादित शैली तैयार करने का श्रेय तंजौर के चार भाइयों चिनैया, पोनैया, वादिवेलू और शिवानन्दम को है।
उन्होंने इस शैली को इतनी पूर्णता की स्थिति में पहुंचाया कि आधुनिक भरतनाट्यम इन्हीं चार भाइयों की साधना का ऋणी है। ट्रावनकोर के राजा स्वाति तिरूनाल ने इनमें से एक भाई वादिवेलू को अपने दरबार में स्थान दिया और उन्हें कई शिष्यों को प्रशिक्षित करने के लिए बढ़ावा दिया। चिनैया को अपने शिष्यों को प्रशिक्षित करने के लिए तंजौर राजदरबार से सहायता प्राप्त हुई।
धीरे धीरे भरतनाट्यम नृत्य शैली अन्य स्थानों जैसे विजयनगरम, पीठपुरम, रामनाथपुरम और करवेती नगर में भी स्थापित हुई। लेकिन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के दौरान जब तमिलनाडु पर अंग्रेजों और पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव पूरी तरह पड़ चुका था, भरतनाट्यम शैली अत्यंत संकटपूर्ण दौर से गुजरी। यह लगभग समाप्त होकर भुला दी जाने वाली थी। लेकिन तंजौर बंधुओं के एक लगभग मीनाक्षीसुन्दरम पिल्ले ने इस कला को समाप्त नहीं होने दिया।
भरतनाट्यम के साथ साथ इसकी दो उपशैलियों-भागवत मेला नृत्य नाटक, और कुरवंजी नृत्य नाटिका-का भी फिर से उदय हुआ। भरतनाट्यम नृत्य मुख्यतः एक व्यक्ति प्रस्तुत करता है, जिसमें श्रृंगार और भक्ति रस की अभिव्यक्ति होती है।
सामान्यतः इस नृत्य के सात मुख्य भाग हैं-अलारिप्पु, जाति स्वर, शब्द, वर्ण, पद, तिल्लाना और श्लोक। अलारिप्पुश् भरतनाट्यम नृत्य का प्रारंभिक भाग है, जिसमें साधारण मुद्राएं और अंग संचालन होता है तथा देवताओं की संक्षिप्त स्तति होती है। श्जाति स्वरश् से वास्तविक नत्य शुरू होता है. जिसमें राग के स्वर तथा ताल के साथ. अंग संचालन को समन्वय किया जाता है। लय और ताल के साथ शरीर के अंगों के संचालन के सौंदर्य के विविध रूप प्रस्तुत किए जाते हैं। इसके बाद श्शब्दश् वाले भाग में मुद्राओं के माध्यम से अभिनय या भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है। वैसे तो शब्द का असली मतलब है श्यशोगीतिश् या श्किसी देवता अथवा महान व्यक्ति की ख्याति की प्रशंसा।श् यह यशोगान करते हुए नर्तक अथवा नर्तकी अभिनय के माध्यम से उसके विभिन्न गुणों को व्यक्त करता है। ष्वर्णश्श् इस नृत्य का अत्यंत प्राविधिक भाग है। यहां नृत्य अपने तीव्रतम रूप में प्रस्तुत किया जाता है और फिर बारी बारी से प्रस्तुत करने के बाद इन दोनों को एक साथ किया जाता है। हाथों और अंगुलियों से मुद्राएं और चेहरे से आंतरिक भावनाएं व्यक्त होती हैं। यह सारा कार्य राग, ताल और भाव में निबद्ध रहता है। श्वर्णश् इस नृत्य का अंतर्भाग है और आम तौर पर इसका वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत करने में कुछ अधिक समय लगता है। अगला भाग है श्पदश्, जिसमें आम तौर पर कोई गीत, विशेषकर कोई प्रणय गीत होता है। जिस समय गीत के छंद गाए जा रहे होते हैं तो नृत्य करने वाला, रूक जाता है और गीत के अर्थ को अभिनय द्वारा प्रस्तुत करता है। एक के बाद एक चलते रहने वाले पदों के बीच समरसता को खत्म करने के लिए अगले भाग यानी श्तिल्लानाश् को बीच बीच में प्रस्तुत किया जाता है। तिल्लाना में नर्तक अत्यंत सुंदर अंग संचालन करता है। यह इस नृत्य का सबसे अधिक चित्ताकर्षक भाग है। भरतनाट्यम का अंतिम भाग है श्श्लोकश् जिसके साथ ही नृत्य का समापन हो जाता है।
20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में भरतनाट्यम की एक प्रणेता श्रुक्मिणी देवीश् ने नृत्य के लिए पहने जाने वाले परिधान में आमल परिवर्तन किए। नृत्य मुद्राओं की प्राचीन भूर्तियों में जिस तरह के परिधानों के आभास मिले उन्हीं के अनुसार परिधान तैयार किए गए। साथ ही, कई तरह के कपड़े प्रयोग में लाना बंद कर दिया गया और भारी तथा अडचन डालने वाले परिधान त्याग दिए गए जिससे कि नर्तक को आसानी हो जाए। नर्तक अथवा नर्तकी को और संदर बनाने के लिए आधनिक प्रसाधन सामग्री का प्रयोग किया गया। रंगमंच में भी कई नई बातें शामिल करके परिवर्तन लाया गया। रंग-बिरंगी बत्तियों और रोशनी ने इस कला के सौंदर्य को और बढ़ाया। पार्श्व संगीत से नृत्य कलाकार को और अधिक तल्लीन होने में सहायता मिली।
आधुनिक समय में भरतनाट्यम की उन्नति के काम में श्ई. कृष्ण अय्यरश् और श्रुक्मिणि देवीश् ने बहुत उल्लेखनीय योगदान किया है। अय्यर ने संगीत और नृत्य प्रेमियों का ध्यान इस प्राचीन नृत्य शैली के छिपे गुणों और भले हए मल्यों की ओर आकष्ट किया और निष्ठावान शिष्यों की एक मंडली बनाई जिन्होंने सार्वजनिक रूप से नृत्य कार्यक्रम प्रस्तुत किए। रुक्मिणी देवी ने, कभी देवदासियों द्वारा किए जाने वाले नृत्यों के प्रति समाज की घृणा को दूर किया। ब्राह्मण परिवार की होते हुए भी उन्होंने स्वयं रंगमंच पर नृत्य किए. और इसे बड़ी गरिमा और शालीनता के साथ एक कला के रूप में लोकप्रिय बनाया। इस नृत्य शैली के तीन कलाकारों के नाम उल्लेखनीय हैं। ये हैं शांता, कमला और कौशल्या।

संगीत संस्थानों का विकास
संगीत के अग्रणी संस्थानों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं। पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने 1901 ई. में लाहौर में एक संगीत विद्यालय की स्थापना की। 1908 ई. में उन्होंने इसी तरह का एक और विद्यालय बंबई में खोलने के लिए भी आधारशिया रखी, जिसका नाम था श्गांधर्व महाविद्यालय ‘A इसके प्रति संगीत प्रेमियों का आकर्षण हुआ। इनमें भारतीय रियासतों के कुछ राजा भी थे, जिन्होंने गांधर्व महाविद्यालय को वित्तीय सहायता दी। इस विद्यालय में गायन विद्या और वाद्य संगीत दोनों के ही योग्यता प्राप्त अध्यापक थे। बाद में एक संस्थान संगीत संघ, कलकत्ता में स्थापित किया गया जिसका उदृदेश्य भारतीय संगीत की शिक्षा देना था और साथ ही जहां तक व्यावहारिक हो सके यूरोपीय संगीत की कुछ विशेषताओं को भारतीय संगीत में सम्मिलित करने की संभावनाएं खोजने का भी प्रयत्न करना था।
1916 ई. में बड़ौदा के महाराजा ने एक अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन” आयोजित करने में पहल की। यह निर्णय किया गया कि सम्मेलन हर साल हो। सम्मेलन में किए गए विचार-विमर्श का एक तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि 1919 ई. में एक अखिल भारतीय संगीत अकादमी (आल इंडिया म्यूजिक अकादमी) की स्थापना हुई। इस अकादमी और वार्षिक सम्मेलनों ने सारे देश के संगीतज्ञों के विभिन्न वर्गों में नई आशा का संचार किया। हिंदुस्तानी रागों को सुव्यवस्थित और पद्धतिबद्ध करने के प्रयत्न किए गए, जिससे कि इन्हें और अच्छी तरह समझने, और संगीत के अध्ययन में और अधिक रूचि पैदा करने के लिए विभन्न शैलियों को एक ही मंच पर लाया जा सके। अकादमी ने भारत के विभिन्न भागों में संगीत विद्यालयों और संगठनों की स्थापना को भी प्रोत्साहन दिया। 1928 ई. में मद्रास में एक संगीत अकादमी की स्थापना हुई। इसमें कर्नाटक संगीत के नियमों और प्रणालियों में अनुसंघान कार्य शुरू किया गया और दक्षिण भारत की भाषाओं के विभिन्न रागों को प्रकाश में लाने का प्रयत्न भी किया गया।
1921 ई में लखनऊ में हिंदुस्तानी संगीत के श्मारिस कालेजश् की स्थापना की गई। बाद में इसे महान संगीत प्रेमी व विटान एन. वी. भातखंडे के नाम पर, (हिंदुस्तानी संगीत भातखंडे विश्वविद्यालय) के रूप में विकसित किया गया। मद्रास विश्वविद्यालय ने अध्यापन और अनुसंधान दोनों कार्यों के लिए भारतीय संगीत का विभाग खोला, जिसमें संगीत की शिक्षा के पाठयक्रम थे। स्वाधीनता के बाद कई नगरों और राज्यों की राजधानियों में संगीत विद्यालय, अकादमियां, शिक्षा केंद्र और ऐसे ही संस्थान खुले।
20वीं सदी में गायन और वाद्य संगीत के क्षेत्रों में शास्त्रीय संगीत के जाने माने कलाकारों में ओंकारनाथ, बड़े गुलाम अली खां, गोपेश्वर बन्दोपाध्याय, सुनन्दा पटनायक, रमेश बन्दोपाध्याय, स्वामी प्रज्ञानानंद, अली अकबर खां, रवि शंकर, सामता प्रसाद और विलायत खां तथा कुछ अन्य लोग हैं जिन्हें संगीत में गहरी श्रद्धा और निष्ठा के लिए सदा याद रखा जाएगा। जो गायक वर्तमान समय में लाखों-करोड़ों लोगों तक संगीत को अपने कंठ स्वर से लाए हैं, उनमें विशेषज्ञ उल्लेखनीय हैं-कुंदनलाल सहगल, लता मंगेश्कर, आशा भोंसले, गीता दत्त, मुहम्मद रफी, तलत महमूद, मुकेश, मन्ना डे और हेमंत कुमार।
. नृत्य कला
नृत्य, भारतीय संस्कृति की प्राचीनतम कलाओं में से एक है। बहुत पहले वैदिक काल से इसके भारत भूमि में अपनी जड़ें जमा ली थी क्योंकि धार्मिक गतिविधियों से इसका गहरा संबंध था।
ब्रिटिश काल के प्रारंभ के समय भारत की नृत्य श्कला भी इस देश की संस्कृति की चित्रकला और स्थापत्य कला की भांति, अवनति की स्थिति में थी। उसे राजदरबारों से प्रश्रय मिलना बंद हो चुका था, और संपन्न वर्ग परंपरागत संस्कृति.स मुंह मोड़ कर पश्चिम के नए मनोरंजन साधनों की ओर निहारने लगा था। 19वीं शताब्दी के मध्यवर्गीय परिवारों में नैतिकता के ऐसे कट्टर मूल्य स्थापित हुए कि नृत्य को वासनाजनक समझा जाने लगा। मंदिरों की नृत्यांगनाओं (देवदासिया) से घृणा की जाने लगी। पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार होने से धार्मिक मान्यताएं बदलने लगी मध्य युग की धार्मिक आस्था समाप्त हो जाने से धर्मस्थलों पर किए जाने वाले नृत्यों पर घातक प्रहार हुआ। भारत की प्रमुख नृत्य शैलियों के आधुनिक युग में विकास और उनके स्वरूप की झलक नीचे दी जाती है।