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बेणेश्वर धाम कहां स्थित है | बेणेश्वर धाम का मेला कब भरता है आदिवासियों का कुम्भ बागड़ का पुष्कर
beneshwar dham history in hindi बेणेश्वर धाम कहां स्थित है | बेणेश्वर धाम का मेला कब भरता है आदिवासियों का कुम्भ बागड़ का पुष्कर ?
प्रश्न: बेणेश्वर धाम
उत्तर: ‘बागड़ का पुष्कर‘ और ‘ बागड़ का कुम्भ‘ आदि नामों से लोकप्रिय है डुंगरपुर का बेणेश्वर धाम। यह सोम, माही तथा जाखम तीनों नदियों के संगम पर नवा टापरा ग्राम में स्थित है। बेणेश्वर स्थित शिव मंदिर इस क्षेत्र के आदिवासियों के लिए सर्वाधिक पूज्य माना जाने वाला आस्था स्थल है। इसलिए इसे ‘आदिवासियों का कुम्भ‘ भी कहा जाता है। यहाँ हर वर्ष माघ में एक भव्य मेला लगता है, जिसमें अन्य जातियों के अलावा हजारों की संख्या में आदिवासी नर-नारी एकत्रित होते हैं।
प्रश्न: लकुलीश मंदिर
उत्तर: लकुलीश मंदिर अथूना: यहाँ शिवजी के 22वें अवतार भगवान लकलीश की दो भुजाओं वाली मूर्ति बनी हुई है। मूर्ति के बाये हाथ में लकुट तथा दायें हाथ में बीजोरा का फलं है। लकलीश ने पाशपत संप्रदाय चलाया था। उदयपुर एकलिंगजी का लकुलीश मंदिर एकदम सादा है।
प्रश्न: देलवाड़ा के जैन मंदिर
उत्तर: देलवाड़ा में पाच जैन मंदिरों का समूह है जिनमें विमलशाही व लूणवशाही मंदिर स्थापत्य कला की दृष्टि से अत्यधिक महत्तपूर्ण हैं। श्वेत संगमरमर का प्रयोग, गर्भगृह. सभामण्डप, स्तम्भ, देवकलिकाएं, हस्तिशाला आदि शिल्प सिद्धान्त के अनुरूप है। बारीक तक्षितस्तम्भ, छतें व मण्डपों की विशदता. कौशलता सर्वोत्कष्ट है। फर्ग्युसन, हेवेल, स्मिथ ने तो यहाँ तक कहा है कि कारीगरी व सूक्ष्मता की दृष्टि से तो इन मंदिरों की समता हिन्दुस्तान में कोई इमारत नहीं कर सकती।
प्रश्न: ओसियां मंदिर स्थापत्य
उत्तर: ओसियां में 8वीं से 12वीं सदी तक महामारू शैली के बडे-बडे सुन्दर और परिष्कृत बारह वैष्णव, शैव, शाक्त व जैन मंदिर बनें। उनमें सच्चिया माता, हरिहर, महावीर एवं सर्य मंदिर प्रमुख हैं। अलंकृत जगती पर अवस्थिति, गर्भगृह, मण्डप, गूढमण्डप, मुखचतुष्की, तोरणद्वार स्तम्भ, पंचायत संयोजन, पंचरथ विन्यास आदि स्थापत्य की मुख्य विशेषताएं हैं। भीतर व बाहर विविध प्रकार की तक्षणकला का अंकन है जिनमें सूर्य मंदिर, तक्षणकला का बेजोड़ नमूना है।
प्रश्न: नाथद्वारा मंदिर (हवेली मंदिर)
उत्तर: मुस्लिम शासकों की धार्मिक असहिष्णुता के कारण शास्त्रीय शैली के मंदिरों की बजाय हवेली शैली के मंदिरों के निर्माण की बहुलता रही। ऐसा ही मामला वल्लभाचार्य के आराध्य श्रीनाथजी के मंदिर का रहा। श्रीनाथद्वारा मंदिर के प्रमुख द्वार के अगल-बगल में गवाक्ष, द्वार के बाद लम्बी पौल फिर बडा चैक और चैक के अगल-बगल के बड़े कमरे जो देवालय हैं। चैक के सामने चैबारा को गर्भगृह का रूप दिया गया जहाँ श्रीनाथजी के स्वरूप को स्थापित किया गया। ये मंदिर अपनी कलात्मक संगतराशी के कारण बेजोड हैं यहाँ रंगीन कांच एवं रंगों से बेहतरीन चित्रकारी की गई है। इसलिए विशाल हवेलियां मंदिरों के रूप में आज जगह-जगह देखी जा सकती है।
प्रश्न: सोलंकी या मारु शैली
उत्तर: महागुर्जर शैली में स्थापत्य को प्रधानता दी गई और महामारु में तक्षणकला को। इन दोनों शैलियों के सम्मिश्रण से एक तीसरी शैली का जन्म हुआ, जिसे सोलंकी शैली (मारुशैली) कहा गया। अति की हदों को छूता हुआ अलंकरण इस काल की अन्य शैलियों, यथा ‘कच्छपघात‘, ‘चन्देल‘, ‘परमार‘, ‘कलिंग,‘ ‘चालुक्य‘ एवं ‘होयसल‘ इत्यादि का भी एक लक्षण था। 11वीं, 12वीं एवं 13वीं शताब्दियों में गुजरात और राजस्थान दोनों में बहुत बड़ी संख्या में बड़े और अलंकृत मंदिर सोलंकी शैली में बने। बाद में मंदिरो में ‘चित्तौड़ दुर्ग का समिद्धेश्वर मंदिर‘ चन्द्रावती के मंदिर एवं जैन मंदिर प्रसिद्ध हैं। ग्यारहवीं से तेरहवी सदी के बीच इस युग में राजस्थान में काफी संख्या में बड़े और अलंकृत मन्दिर बने, जिन्हें सोलंकी या मारू गुर्जर शैली के अन्तर्गत रखा जा सकता है। इस शैली के मन्दिरों में ओसियाँ का सच्चिया माता मन्दिर, चित्तौड़ दुर्ग में स्थित समिंधेश्वर मन्दिर आदि प्रमुख हैं।
प्रश्न: भूमिज शैली का मंदिर स्थापत्य
उत्तर: दसके शिखर के चारों ओर प्रमुख दिशाओं में तो लतिन या एकान्डक शिखर की भाँति ऊपर से नीचे तक चैत्यमुख डिजाइन वाले जाल की लताएं या पट्टिया रहती हैं। लेकिन इनके बीच में चारों कोणों में, नीचे से ऊपर तक कमशः घन असर छोटे-छोटे शिखरों की लड़िया भरी रहती है। इस प्रकार यह शिखर मूलतः अनेकाण्डक या शेखरी शिखर का एक विशिष्ट प्रकार है। सभी भमिज मंदिर निरन्धार (खुली छत वाला परिक्रमा पथ) है। राजस्थान में इस शैली का सबसे पुराना (1010-20 ई.) मंदिर सेवाडी का जैन मंदिर (पाली) है। इसके बाद मैनाल का महानालेश्वर मंदिर, रामगढ़ का भण्डदेवरा (बारा), बिजौलिया का अण्डेश्वर मंदिर, झालरापाटन का सूर्य मंदिर, रणकपुर का सूर्य मंदिर, चित्तौड़गढ़ का अद्भुत नाथ मंदिर भूमिज शैली के मंदिर हैं।
प्रश्न: नीलकण्ठ महादेव मंदिर
उत्तर: मंदिर के एक शिलालेख के अनुसार बड़गुर्जर राजा अजयपाल ने वि.सं. 1010 के पूर्व यह भव्य मंदिर टहला ग्राम के निकट बनवाया। मंदिर के आसपास अनेक मंदिरों के अवशेष और असंख्य खण्डित मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं। खण्डहरों को देखकर ऐसा लगाता है कि अपने वैभव के दिनों में ये खजुराहों मंदिर समूह की तरह रहे होंगे।
प्रश्न: शिलामाता का मंदिर
उत्तर: आमेर राजप्रासाद के जलेब चैक के दक्षिण-पश्चिम कोने में शिलादेवी का दग्ध धवल मंदिर है। शिलामाता कच्छवाहा राज परिवार की आराध्य देवी थी। शिलामाता की यह मूर्ति पाल शैली में काले संगमरमर में निर्मित है। इस मूर्ति हो जयपुर के महाराजा मानसिंह प्रथम 1604 ई. में बंगाल से लाये थे। वर्तमान में बने मंदिर का निर्माण सवाई मानसिंह द्वितीय (1922-1949) ने करवाया था। यह मर्ति बंगाल के राजा केदार कायथ के राज्य में पूजान्तर्गत थी। मूर्ति की यह प्रसिद्धि थी कि जहाँ यह मर्ति पजित होती है उसे कोई जीत नहीं सकता। यहाँ राजपरिवार की ओर से सर्वप्रथम पूजा करने के बाद ही जनसामान्य के लिए मंदिर के द्वार खुलते हैं। नवरात्रों में यहाँ छठ के मेले का आयोजन किया जाता है। जनश्रुति के अनुसार प्रारम्भ में शिला माता को मानव की बलि दी जाती थी बाद में जब उसे भैंसे की बलि दी गई तो माता ने उसे अस्वीकार कर दिया और अपना मुँह फेर लिया। आज भी माता का मुँह हल्का सा टेड़ा है। वर्तमान में माता को शराब का भोग लगता है तथा चाहने पर माता के भक्तों को प्रसाद में शराब मिलती हैं।
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