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Benefits of genetic engineering in hindi , importance , advantage disadvantage , आनुवंशिक आभियांत्रिकी के लाभ , हानियाँ

पढ़े Benefits of genetic engineering in hindi , importance , advantage disadvantage , आनुवंशिक आभियांत्रिकी के लाभ , हानियाँ क्या है ?

आनुवंशिक आभियांत्रिकी के लाभ (Benefits of genetic engineering)

सम्पूर्ण विश्व के वैज्ञानिक आजकल आनुवंशिक अभियांत्रिकी के क्षेत्र में विस्तृत विषाण्विक अनुसंधान कार्य में जुटे हुये हैं। इस क्षेत्र में हुयी कुछ खोजों ने विज्ञान एवं मानव जगत के सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन ला दिये हैं जो हमारे दैनिक जीवन में सहायत सिद्ध हुये हैं एवं अनेक वर्षों तक विभिन्न क्षेत्रों में बहुत कुछ किये जाने की विपुल संभावनाएँ दिखाई देती हैं। यहां तक कि विशिष्ट प्रोटीन हेतु वह जीन जो इस कोडित करती है का पृथक्त प्राप्त किया जाना संभव है। इस प्रकार जीन का संश्लेषण कर किसी भी प्रकार के विशिष्ट प्रोटीन का संश्लेषण संभव  हो सकता है चित्र 22.6 में इसकी रूपरेखा दर्शायी गयी है। आनुवंशिक अभियांत्रिकी के प्रमुख भ निम्न प्रकार से वर्णित किये जा सकते हैं-

  1. मानव वृद्धि हार्मोन (Human growth hormone) HGH एवं इन्सूलिन जैसे जटिल एवं आवश्यक हार्मोनस का निर्माण पुनर्योगज डी एन ए बनाकर आनुवांशिक अभियांत्रिकी द्वारा सस्ती दरों पर व्यापक मात्रा में तैयार किया जा रहा है। सोमेटोस्टेटिन हाइपोथैलेमस से स्त्रावित किया जाने वाला लघु पेप्टाइड है जिसमें 14 अमीनो अम्ल पाये जाते हैं। यह वृद्धि हार्मोन व इन्सुलिन के मुक्त होने क्रिया का नियमन करता है। पहले इसे भेड़ों के मस्तिष्क से प्राप्त किया जाता था। 5mg सोमेटोस्टेटिन प्राप्त किये जाने हेतु एक लाख भेड़ों की आवश्यकता होती थी। आनुवांशिक अभियांत्रिकी के तहत प्राप्त किये जाने हेतु सोमेटोस्टेटिन के जीन s की ई. कोलाई (coli) के बीटा गेलेक्टोसिडेज (B-galctosidase) जीन के साथ जोड़ दिया गया इसके साथ मिथिओनीन का जीन भी युग्मित किया गया इसे वाहक ई. कोलाई में स्थानान्तरित कर दिया गया जीवाणु ई. कोलाई द्वारा जो उत्पाद बनाया गया उसके सोमेटोस्टेटिन, मिथिओनिन व B-गेलेक्टोसिडेज की पेप्टाइड श्रृंखला बनाई गयी। इसमें से सोमेटोस्टेटिन को पृथक् कर लिया गया। इन्सुलिन उत्पादन का वर्णन पूर्व में अध्याय 4 में किया जा चुका है। सोमेटोट्रोपिन या मानव वृद्धि हार्मोन का निर्माण भी इसी तकनीक द्वारा ई.कोलाई से किया जा रहा है। B-एन्डोर्फिन 30 अमीनो अम्ल युक्त अन्य हार्मोन भी इसी तकनीक द्वारा तैयार किया जाने लगा है।
  2. मानव इन्टरफेरॉन जीन्स (Human interferon gense) – HIG को इजाक एवं लिन्डेमान (Isaacs and Lindenmann) ने पृथक किया। इस जीन द्वारा निर्मित पदार्थ इन्टरफेरान विषाणुओं के द्वारा मानव पर आक्रमण किये गये पर सुरक्षा प्रदान करता है। यह ठण्ड व हिपेटाइटिस के उपचार हेतु आवश्यक है। यह Oc, Bandy इन्टरफेरान के रूप में संश्लेषित किया जाता है। यह 1980 में oc व B ई. कोलाई के प्लाज्मिड के साथ सुग्मित कर दिया गया एवं इससे 1000 से 1 लाख क इन्टरफेरान अणु प्राप्त किये गये। बायोजीन कंपनी इन तकनीक से इनके उत्पादन के प्रयास में लगी है।
  3. टीके (Vaccines)-हिपेटाइटिस B व अन्य विषाणु तथा जीवाणु जनित रोगों के लिये शुद्ध व सस्ते टीके बनाने हेतु यही तकनीक अपनायी जा रही है। हिपेटाइटिस B विषाणु के DNA को ई. कोलाई में युग्मित कर लिया या है। यह मानव देह में एन्टीजन का कार्य का हानि पहुँचाया है। इस रोग हेतु विषाणु आनुवांशिक अभियांत्रिकी की सहायता से टीके तैयार किये जाने लगे हैं। रेबीज (Rabies) पोलियो (Polio) विषाणु मानव में हाइड्रोफोबिया व पोलियो रोग उत्पन्न करते हैं। इन रोगों के टीके भी उपरोक्त विधि से ही ई. कोलाई में तैयार किये जाते हैं इनको मुख्य द्वारा सेवन किया जा सकता है। जानवरों में खुर व मुख एक विषाण्विक रोग एफ्थोवायरस ( Apthovirus) द्वारा उत्पन्न किया जाता है। इसके टीके भी जानवरों हेतु तैयार किये जा चुके हैं। डिप्थीरिया, चेचेक, आदि के टीके भी तैयार किये गये हैं।
  4. मानव में आनुवांशिक रोग उत्पन्न करने वाले जीन को पहचान लिया गया है। इस प्रकार के जीन्स को यीस्ट के DNA के साथ युग्मित कर छोटे-छोटे खण्डों में विभक्त कर अध्ययन किया गया है। इस प्रकार इनसे होने वाले रोगों में पूर्वानुमान हो सकेगें तथा उसी के अनुरूप उपचार समय रहते किया जाना संभव होगा।
  5. फिनाइल कोटोन्यूनिया- जीन्स नवजात शिशु में टायरोसीन अमीनो अम्ल का उपापचय सही तौर पर करने हेतु बाधा उत्पन्न करते हैं अतः रोगी में मानसिक विकार उत्पन्न होता है। पुनर्योगज DNA तकनीक द्वारा गर्भधारण की अवस्था में ही रोग के उपचार के प्रयास किये जा रहे हैं। इसी प्रकार यूरोकाइनेस जीन्स के कारण रक्त में थक्के बनने का रोग उत्पन्न होता है। यूरोकाइनेस आनुवांशिक तौर पर तैयार किये गये जीवाणुओं में तैयार किया जाना आरम्भ हो गया है।
  6. थेलेसेमिया – कुछ जीन्स के कारण में c व B ग्लोबिन श्रृंखलाएँ विकृत प्रकार की बनती है अत: होमोलाइटिक एनेमिया व प्लीहा वर्धन की स्थिति बन जाती है। इसके जीन पहचान कर DNA विकसित कर लिया गया है किन्तु सभी उपचार हेतु बहुत कुछ किया जाना शेष है।
  7. हीमोफिलिया – यह लिंग सहलग्न रोग है जिसके कारण कारक VIII: C की कमी के कारण रक्त का थक्का नहीं बनता। इसके जीन क्लोन कर लिये गये हैं जो मानव देह की संबंधित कोशिकाओं में प्रोटीन VIII-C उत्पन्न करते हैं। इस रोग का उपचार संभव हो गया है।
  8. विटामिन्स, कार्बनिक अम्ल, एल्कोहल एवं प्रतिजैविक औषधियों का उत्पादन आनुवांशिक रूप से उत्पन्न एवं क्लोनित डी एन ए की सहायता से आरम्भ हो गया है। इसका विवरण अध्याय 12 में दिया गया है।
  9. रोगों की पहचान हेतु डी एन ए प्रोब, एक क्लोनी प्रतिरक्षीकाय आदि का उपयोग किया जाता है। विषाण्विक रोग ADIS, हिपेटाइटिस, हैजा, टीबी, लेप्रोसी एवं मलेरिया रोग के कारक की रोगी में पहचान इस तकनीक द्वारा संभव है परजीवी के डी एन ए में नाइट्रोजन क्षारक युग्म उपक्रम की पहचान कर यह क्रिया ही जाती है। इसके लिये रेडियाएक्टिव प्रोब भी बनाये जाते हैं। गर्भ में पल रह शिशु की देह में इसी समय उपस्थित एवं विकसित होने वाले रोगों की पहचान भ्रूण से एम्निओटिक तरल की जाँच कर इस विधि से की जानी संभव हो गयी है।
  10. माता-पिता के गुणसूत्रों की जाँच करके आनुवांशिक परामर्श (genetic counselling) विवाह हेतु अथवा सन्तान प्राप्ति हेतु दिया जा सकता है। इस तकनीक से मेचिंग कराकर सही निष्कर्ष पर पहुँचना संभव है।
  11. डी एन ए प्रोब का उपयोग अपराध विज्ञान (forensic science) विवादस्पद पैतृकता, बलात्कारी एवं अपराधी करने में की पहचान करने किया जाने लगा है। 1985 में एलक जेफरी एवं साथियों (Alec Jeffry and co workers) ने DNA फिंगर प्रिन्टिंग की पद्धति विकसित की है। अपराधी के रक्त, अस्थि, बाल, थूक या वीर्य से DNA प्राप्त कर क्षार अनुक्रम को जिन पर शक होता है से मिलाया जाता है व सही अपराधी को पहचान लिया जाता है। 300 से 300 मिलियन लोगों में एक से क्षार अनुक्रम मिलने की संभावना हो सकती है अन्यथा सब के भिन्न पाये जाते हैं, भारत में सेन्टर फार सेल्यूलर एवं मॉलीक्यूलर हैदराबाद में यह कार्य किया जाता है। भारतीय वैज्ञानिक लाल जी सिंग ने अपनी भिन्न तकनीक विकसित की है, सर्पों में लिंग के पहचान हेतु भी यह तकनीक अपनायी जाती है।
  12. जीन थेरेपी- आनुवांशिक रोगों में उपचार हेतु रोगी की देह के किसी विशेष अंग की कोशिकाओं में नया जीन प्रवेशित करा कर उपचार किया जाना संभव है। इस नयी जीन का उत्पादन रोगी में आवश्यक तत्वों का निर्माण करने लगता है। जीन प्रतिस्थापन तकनीक में विकृत जीन को देह से हटा कर नया जीन प्रतिस्थापित किया जाता है। आनुवांशिक अभियांत्रिकी की सहायता से यह कार्य संभव है। जीन का निवेशन शुक्राणु, अण्ड या भ्रूण के स्तर पर किया जाता है। कायिक थेरेपी (somatic therapy) यकृत, त्वचा, रक्त की कोशिकाओं में की जाती है जीन थेरेपी हेतु माइक्रोइन्जेक्शन तकनीक, डिटरजेन्ट मिश्रण तकनीक, मेजिक बुलेट तकनीक या विषाणुओं का उपयोग किया जाता है। इस क्रिया हेतु रेट्रोवायरस, एडीनोवायरस, एडिनोएसोसिएटेड वायरस एवं हर्पीज सिम्पलेक्स विषाणु का उपयोग वाहक के रूप में किया जाता है।

जीन थेरेपी के अभी परीक्षण ही चल रहे हैं। इन्हें अभी मुक्त से बाजार में विक्रय हेतु जारी नहीं किया गया है। कुछ परीक्षणों के दौरान उन रोगियों की मृत्यु हो गयी जिनमें ये जीन प्रवेशित कराये गये थे। एक पार्किन्संस रोग के रोगी में यह परीक्षण सफल रहा है। कायिक थेरेपी के द्वारा किये गये उपचार में यह जीन संतति में भी जा सकता है इसे कैसे रोका जायेगा इस पर भी विचार विमर्श किया जाना शेष है।

  1. जन्तु एवं पादप प्रजातियों में सुधार करने की दिशा में आनुवांशिक आभियांत्रिकी का योगदान महत्वपूर्ण है। ट्रान्सजैनिक विधि से गाय, भैंस आदि दुधारू जानवरों की किस्मों में सुधार किय गया है। tPA प्लाज्मिनोजन सक्रियक (plasminogen activator) दुग्ध के साथ स्त्रावित करने वाले मूषकों को विकसित किया गया है। इस दुग्ध से मनुष्य की रक्त वाहिनियों में रक्त के थक्के घुल जाते हैं अतः रोगी को हृदयाघात से बचाया जा सकता है। ट्रान्सजेनिक बकरी जिसमें 8 केसिन प्रमोटर जीन है विकसित की जा चुकी है। इसी प्रकार -1 प्रतिट्रिप्सिन दुग्ध के साथ स्त्रावित करने वाली भेड़ विकसित की जा चुकी है लेक्टोफेरिन जीन जो गाय में दुग्ध स्त्रावित किये जाने हेतु आवश्यक है की खोज की गयी है। ट्रान्सजेनिक गाय व पक्षी भी विकसित किये गये हैं।

बढ़ती जनसंख्या को भोजन देने हेतु फसलों को प्रजातियों में सुधार के कार्यक्रम इस तकनीक द्वारा शोध हुतु अपनाये गये हैं ताकि अधिक उत्पादन देने वाली फसलों को विकसित किया जा सकें। ये अच्छे प्रोटीन, विटामिन व तेल उत्पन्न करने वाली होगी। ये रोग नाशक जीव सूखा, कीटनाशकों व लवण प्रतिरोधकता युक्त होगीं। नाइट्रोजन स्थिरीकारक जीन युक्त फसलें विकसित की जा चुकी है।

  1. हानिकारक रसायनों, आविष, आण्विकों आदि के अपघटन या इन्हें अहानिकारक बनाये जाने के जीन कुछ विषाणुओं व जीवाणुओं में पाये जाते हैं। इनके इन जीन्स को जो प्लाज्मिड में होते हैं को वातावरणीय प्रदूषकों के निम्नीकरण हेतु पहचाना गया है।
  2. OCT प्लाज्मिड आक्टेन, हेक्सेन व डेकेन का अपघटन करता है।
  3. XYL प्लाज्मिड जाइमीन व टॉलीन का अपघटन करता है।
  4. CAM प्लाज्मिड केम्फर का अपघटन करता है ।
  5. NAH प्लाज्मिड नेप्थेलीन का अपघटन करता है।

भारतीय मूल के वैज्ञानिक आनन्द मोहन चक्रवर्ती (अमेरिका वैज्ञानिक) ने इन सभी प्लाज्मिड युक्त जीव सुपरबग (superbug) विकसित किया है जो इन सभी प्लाज्मिड युक्त पी. पुटिडा (P.putida) है। यह सभी उपरोक्त चार प्रकार के हाइड्रोकार्बन का अपघटन करता है। इसी प्रकार TOL प्लाज्मिड युक्त ई.कोलाई बनाया गया है। उनका उपयोग जल सतह पर तेल की परत को हटाने हेतु किया जाने लगा है।

  1. नाशक कीट या जीवों को नष्ट करने हेतु कीटनाशकों का प्रयोग किया जा रहा है। जैव कीट नाशक की विकसित किये गये हैं। अब आटोसाइडल बायलॉजिकल कन्ट्रोल (autocidal biological control) विधि विकसित की गयी है। इसमें आनुवांशिक तौर पर तैयार किये गये कीटों को वातावरण में छोड़ दिया जाता है। जब नाशक कीट इनसे प्रजनन करते हैं तो इनसे उत्पन्न कीट शीत काल में जीवित रहने में असमर्थ रहते हैं अतः इसकी मृत्यु हो जाती है इसी प्रकार भ्रूणीय विकास हेतु आवश्यक जीन को लेकर भी शोध कार्य किये जा रहे हैं।

आनुवांशिक अभियांत्रिकी से संभावित हानियाँ (Potential hazards of genetic engineering)

इसमें कोई संदेह नहीं है कि आनुवांशिक अभियांत्रिकी द्वारा अनेकों जानकारियाँ उपलब्ध हुयी हैं जो समाज के लाभ एवं विज्ञान की प्रगति हेतु लाभदायक है। विकसित राष्ट्र अमेरिका, बिट्रेन एवं जापान इससे संबंधित शोध कार्यों पर बहुत अधिक राशि खर्च कर रहे हैं। अनेकों बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने बलबूते पर अनुसंधान कार्य कराकर खोज के परिणामों को पेटेन्ट करा रही हैं। अर्थात् सार्वजनिक लाभ के स्रोत को अपने तक सीमित कर लाभ अर्जित करने का मार्ग ढूंढ रही है। दूसरी ओर पुनर्योगज तकनीक से यदि कोई ऐसा क्लोन बन गया जिसे नियंत्रण करना हमारे बस में न रहे तो मानव जाति का विनाश भी हो सकता है या अन्य समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। अधिकतर उत्पाद पोषक ई. कोलाई को आधार बना करा प्राप्त किये जा रहे हैं। यह जीवाणु मानव आन्त्र में रहने वाला परजीवी है। यदि गलती से ऐसा जीन क्लोनित होकर इस जीवाणु में प्रवेश कर जाता है तो स्थिति गम्भीर हो जायेगी इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता है। इसी प्रकार यदि प्रतिजैविक औषधियों के प्रति प्रतिरोधकता रखने वाला जीन विकसित कर ई. कोलाई में प्रवेशित करा दिया जाये मो मानव में नये रोग उत्पन्न होने लगेगें जिनकी औषधियाँ नहीं है। पुनर्योजन डी एन ए द्वारा यदि कोई हानिकारक प्रोटीन कोडित होता है तो अनेकों विकृतियाँ या रोग उत्पन्न कर सकता है। यह भी संभव है कि आरम्भिक प्रयोगों में नये जीन या DNA खण्ड को कोशिकाओं में रोपित करने के बाद यह सफल रहे किन्तु बाद में भिन्न पारिस्थितिक स्थिति में यह कोशिका वृद्धि को रोक दें या अत्याधुनिक प्रणाली को पंगु बना दें।

क्लोनिंग के प्रयोग सफल रहे हैं भेड़ का क्लोन सार्वजनिक तौर पर बना व सराहा गया। वानरों एवं अब मानव क्लोन बनने की खबरें भी आ रही हैं। अतः इस तकनीक के दुष्परिणाम को नकारा नहीं जा सकता। मुर्दों में जीवन कोमार्य व प्रसन हेतु महिलाओं द्वारा स्वयं के क्लोन बनाने की खबरें आ रही हैं। इस पर चिन्तन किया जाना चाहिये। हो सकता है इस प्रकार सुपरमानव तैयार हो जाये जो इस मानव प्रजाति के नियंत्रण से बाहर हो जाये। अतः मानव क्लोनिंग पर पुनः विचार करने की आवश्यकता है। यह समाज के लिये हानिकारक या घातक हो सकता है।

पादपों में नयी जातियाँ तो विकसित की गयी हैं किन्तु कुछ प्राइवेट कम्पनियों ने व अमेरिका के कृषि विभाग ने जीन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने व पेटेन्ट कराने हेतु पंजीकरण कराया है। इस तकनीक के अनुसार पौधे की अच्छी फसल देने हेतु जाति विकसित कर ली गयी किन्तु पौधे जो’ बीज बनायेगें. वे नयी पौध नहीं दे पायेंगें अर्थात इनमें से अकुंरण हेतु आवश्यक जीन निष्कासित कर लिया गया है। स्पष्ट है बार-बार किसान का उसी कम्पनी से महंगा मुँह मांगी कीमत का बीज खरीदना जरूरी हो जायेगा। इसे टर्मिनेटर टेक्लॉजी अर्थात् समापन तकनीक का नाम दिया गया है। क्योंकि इन पौधों के DNA अपने ही अंकुर का वध करेगें। संकर पौधे को ही सभी देशों में उगाये जाने या एक समान फसलों बोंये जाने पर पौधे की विविधता धीरे-धीरे समाप्त हो जायेगी। एक समान फसलों पर महामारी जैसी स्थिति में गम्भीर समस्या उत्पन्न हो सकती है। इसी प्रकार टेट्रासाइक्लीन युक्त बीज जब बार-बार बोये जायेगें तो वे मिट्टी में उपस्थित लाभकारी जीवाणुओं को नष्ट कर देगें एवं मृदा की उर्वरा शक्ति घट जायेगी। हमारे देश के वैज्ञानिकों ने इस प्रकार की क्रियाओं को अनैतिक बताया है एवं मानव जाति हेतु दूरगामी खतरे हेतु चेताया है। इस प्रकार के प्रयोगों पर रोक लगायी जानी चाहिए।

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