जाने बैलेनोग्लॉसस में उत्सर्जी तन्त्र क्या है , Balanoglossus Excretory System in hindi तन्त्रिका तन्त्र एवं संवेदी अंग (Nervous System and Sense Organs) ?
उत्सर्जी तन्त्र (Excretory System)
केन्द्रीय कोटर से रक्त शुण्ड क्षेत्र में एक गुच्छक या ग्लोमेरुलस (glomerulus) में जाता है। जिसे शुण्ड ग्रन्थि (proboscis gland) भी कहते हैं। यह अनेक उभारों या प्रवर्धी जैसा होता है तथा इसका एक भाग शुण्ड गुहा (protocoel) में उभरा रहता है। सम्भवतः रक्त के साथ आए उत्सर्जी पदार्थ इस ग्रन्थि द्वारा शुण्ड गुहा में छोड़ दिए जाते हैं। शुण्ड गुहा एक नाल व रन्ध्र से बाहरी समुद्री से जुड़ी होती है अतः उत्सर्जी पदार्थ यहाँ से उत्सर्जित कर दिए जाते हैं।
तन्त्रिका तन्त्र एवं संवेदी अंग (Nervous System and Sense Organs)
बैलेनोग्लॉसस में संवेदी अंग बहुत कम विकसित होते हैं। बैलेनोग्लॉसस के एक संवेदी अंग मुख-पूर्वी पक्ष्माभी अंग (preoral ciliary organ) के विषय में हम पहले पढ़ चुके हैं। यह मुख के पूर्व शुण्ड के आधार पर स्थित होता है तथा जल धारा रसोग्रहण (chemoreception) के लिए उत्तरदायी है। सम्भवतः यह भोजन व जलधारा का रासायनिक परीक्षण करता है ।
उपरोक्त प्रकार पक्ष्माभी अंग के अतिरिक्त बैलेनोग्लॉसस के शरीर में कुछ तंत्रिका – संवेदी कोशिकाएँ (neuro-sensory cells) पाई जाती हैं जो प्रकाश व स्पर्श का संवेदन कराती हैं। ये अधिचर्म (epidermis) पर पाई जाती हैं। चूंकि शुण्ड व कॉलर का अग्र भाग बिल के बाहर रहता है अतः ऐसी अधिकांश कोशिकाएँ इसी भाग में पाई जाती हैं।
इस जन्तु का तन्त्रिका तन्त्र अल्पविकसित तथा सीलन्टरेट व एकाइनोडर्म जन्तुओं जैसा होता है। इस आद्य (primitive ) प्रकार के तंत्रिका तन्त्र में अधिचर्म के नीचे द्वि व बहु ध्रुवीय तन्त्रिका तन्तुओं का जाल आधारी कला के निकट पाया जाता है। इस जाल में दो स्थानों पर अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट तन्त्रिका रज्जु (nerve cord) देखी जा सकती है। धड़ क्षेत्र में मध्य पृष्ठ व मध्य अधर दिशा
तन्त्रिकाओं के स्थूलन से क्रमशः पृष्ठ तन्त्रिका रज्जु (dorsal nerve cord) तथा अधर तन्त्रिका रज्जु (ventral nerve cord) बनती हैं। कॉलर क्षेत्र में दोनों रज्जु एक तन्त्रिका वलय (nerve-ring) से जुड़े रहते हैं, इसे परिआन्त्र तन्त्रिका वलय (circum-enteric nerve ring) कहते हैं।
पृष्ठ तन्त्रिका रज्जु कॉलर तक आगे बढ़ती है तथा यहाँ यह अधिचर्म से अलग होकर देहगुहा में रहती है। इसे कॉलर रज्जु ( collar cord) कहते हैं।
प्रजनन तन्त्र (Reproductive System)
बैलेनोग्लॉसस द्विलिंगी (dioecious ) जन्तु है अर्थात् इसमें नर व मादा अलग-अलग होते हैं। परन्तु इसमें नर व मादा को बाहर से देखकर नहीं पहचाना जा सकता है अर्थात् इसमें लैंगिक द्विरूपता (sexual dimorphism) नहीं पाई जाती है। जनद ( gonads) धड़ में क्लोम जनन क्षेत्र (branchiogenital region) में अनुदैर्घ्य पंक्तियों में पाए जाते हैं। ये पंक्तियाँ आन्त्र व क्लोम खाचों के पाश्र्वों पर स्थित होती हैं। जनद देहगुहा की भित्ति से विकसित होते हैं परन्तु वयस्क होने पर ये इससे पृथक हो जाते हैं। जनद (वृषण व अण्डाशय) कोषरूप (sacciform ) होते हैं तथा प्रत्येक जनद से एक बारीक नलिका निकलती है जो जननरन्ध्र ( gonopore), द्वारा बाहर खुलती है।
जनद (वृषण व अण्डाशय) की जनन उपकला के विभाजन से शुक्राणु व अण्डे (sperm and ovum) बनाते हैं। ये जनन रन्ध्र से बाहर निकलते हैं। बैलेनोग्लॉसस में बाह्य निषेचन (external fertilization) पाया जाता है। नर से निकले शुक्राणु समुद्री जल में उपस्थित अण्डों को निषेचित करते हैं। जीवनचक्र की सफलता के लिए एक क्षेत्र के जन्तु एक ही मौसम में जनद शुक्राणु व अण्डे उत्पन्न करते हैं तथा शुक्राणुओं व अण्डों की संख्या भी बहुत होती है। अण्डों में पीतक की मात्रा अत्यल्प होती है।
निषेचन के परिणामस्वरूप युग्मनज या जाइगोट (zygote) बनता है। इनमें विदलन (cleavage) होता है। विदलन समान (equal), अरीय (radial ) व पूर्णभंजी (holoblastic ) होता है। विभाजन के परिणामस्वरूप उत्पन्न विभिन्न कोशिकाओं के आकार में विशेष अन्तर नहीं होता है क्योंकि अण्डे में पीतक की मात्रा अत्यन्त कम होती है। अनेक विभाजनों के फलस्वरूप एकल कोशिकीय परत से बनी एक खोखली संरचना का निर्माण होता है जिसे ब्लेस्टुला (blastula) कहते हैं। इसमें पायी जाने वाली गुहा के कारण इसे सीलोब्लेस्टुला (coeloblastula) भी कहते हैं। इस ब्लेस्टुला के केन्द्र में पाई जाने वाली तरल से भरी गुहा ब्लेस्टोसील (blastocoel) कहलाती है।
ब्लेस्टुला अवस्था के बाद और विदलन होने से एक ओर की कोशिकाओं का अन्तर्वलन (invagination) प्रारम्भ होता है। इस अन्तर्वलन से ब्लेस्टोसील के अतिरिक्त एक ओर गुहा का
निर्माण होता है जिसे आद्यान्त्र (archenteron) कहते हैं। इसका मुख कोरक रन्ध्र या ब्लेस्टोपोर (blastopore) कहलाता है। कुछ समय उपरान्त कोरक रन्ध्र बन्द हो जाता है। अब भ्रूण गैस्टुला (gastrula) कहलाता है। गैस्टुला अग्र- पश्च अक्ष पर थोड़ा लम्बा हो जाता है। आद्यान्त्र अग्र सिरे पर संकुचन करते हुए दो भागों में बंट जाती है। पृथक हुआ अग्र भाग अग्र देहगुहा या प्रोटोसील (protocoel) कहलाता है। यह भाग एक रन्ध्र, जिसे हाइड्रोपोर (hydropore) कहते हैं, से बाहर है। आद्यान्त्र भविष्य में वयस्क की आन्त्र व हाइड्रोपोर भविष्य में प्रोटोसील या शुण्ड गुहा खुलता का रन्ध्र (यानि शुण्ड रन्ध्र proboscis pore) बनाता है।
आद्यान्त्र परिवर्द्धन के कारण अग्र भाग में अधर दिशा में मुख के रूप में खुलती हैं तथा पश्च भाग में गुदा (anus) बनाती है। आन्त्र में ग्रसिका, आमाशय व आन्त्र का विभेदन हो जाता है।
टोरिया लार्वा (Tornaria Larva)
कुछ घन्टों के उपरान्त परिवर्द्धन द्वारा एक लार्वा का निर्माण होता है जिसे टोर्नेरिया लार्वा नाम दिया गया है। यह अण्डाकार व लगभग पारदर्शक लार्वा होता है। इसके अग्र सिरे पर एक शिखरस्थ पट्टिका (apical plate) मिलती है। इस पर एक पक्ष्माभों का गुच्छ तथा एक जोड़ी दृक् बिन्दु (eye spots) पाए जाते हैं।
लार्वा का मुख अधर सतह पर होता है। आहार नाल बहुत साधारण होती है व इसमें ग्रसिका, आमाशय व आन्त्र पाई जाती है। आन्त्र पश्च अन्तस्थ भाग में खुलती है। यह रन्ध्र गुदा (anus) कहलाता है। लार्वा में दो पक्ष्माभी वलय (band) पाए जाते हैं। एक वलय (band) मुख के पहले स्थित होता है अतः यह मुख पूर्वी पक्ष्माभी वलय (pre-oral ciliary band) कहलाता है। इसके पक्ष्माभ छोटे होते हैं तथा यह मुख की ओर भोजन धारा ले जाने में सहायक होते हैं। इस वलय को परिमुख पक्ष्माभी वलय (circum oral ciliary band) भी कहते हैं। यह मुख के ऊपर एक लूप बनाता है। दूसरा वलय मुख के पीछे व गुदा के चारों ओर होता है। इसे टीलोट्रॉक (telotroch), पश्च-मुखीय पक्ष्माभी वलय (post-oral ciliated band) या परिगुद वलय (circum anal ring) कहते हैं। इस वलय के पक्ष्माभ बड़े होते हैं व गमन में सहायक होते हैं।
कायान्तरण (Metamorphosis)
टोर्नेरिया लार्वा प्लवकभक्षी (planktotrophic) होता है। यह मुक्तजीवी ( free living) यानि गमनशील होता है तथा कुछ समय पोषण लेने के उपरान्त पैंदे में बैठ जाता है। इसके पक्ष्माभी वलय व दृक् बिन्दु समाप्त हो जाते हैं तथा यह विभाजन के कारण लम्बा होना प्रारम्भ कर देता है। परिवर्द्धन से शुण्ड, कॉलर व धड़ स्पष्ट दिखाई देने लग जाते हैं। लार्वा, जो पहले पारदर्शी था, अब अपारदर्शी हो जाता है। परिवर्द्धन के परिणामस्वरूप लार्वा वयस्क में बदल जाता है। यह घटना कायान्तरण कहलाती है।