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बैलेनोग्लॉसस का पाचन तंत्र समझाइये , बैलेनोग्लोसस श्वसन तंत्र balanoglossus digestive system in hindi रक्त परिसंचरण तंत्र

balanoglossus digestive system in hindi बैलेनोग्लॉसस का पाचन तंत्र समझाइये , बैलेनोग्लोसस श्वसन तंत्र ?

पाचन तन्त्र (Digestive System)

बैलेनोग्लॉसस में पूर्ण आहार नाल पाई जाती है, अर्थात् इसमें मुख व गुदा दोनों उपस्थित होते हैं। बैलेनोग्लॉसस पक्ष्माभी अशन ( ciliary feeding) करता है अर्थात् इसमें आन्त्र में उपस्थित पक्ष्माभों से श्वसनाशन प्रवाह ( respiratory cum-feeding current) उत्पन्न किया जाता है जिससे प्रवाह के साथ आए भोजन का उपयोग जन्तु पोषण के लिए करता है। इसकी आन्त्र में भोजन पेशियों के क्रमांकुचन (peristalsis) से गति नहीं करता है क्योंकि इसकी आन्त्र में पेशियाँ नहीं पाई जाती हैं। आन्त्र की आन्तरिक दीवार पक्ष्माभी कोशिकाओं की होती है। आन्त्र की बाहरी दीवार आधारी कला (basement membrane) से ढकी रहती है तथा आन्त्र को पृष्ठ व अधर झिल्लियाँ देहभित्ति से बान्धे रखती हैं। आन्त्र में निम्न भाग पाए जाते हैं

(i) मुख (Mouth)

(ii) मुख गुहा (Buccal cavity )

  • ग्रसनी (Pharynx)

(v) ग्रसिका (Oesophagus )

(v) आन्त्र (Intestine)

(vi) गुदा (Anus)

(i) मुख (Mouth) : बैलेनोग्लॉसस की शुण्ड व कॉलर क्षेत्र की सन्धि के क्षेत्र में अधर दिशा पर मुख पाया जाता है। इस प्रकार मुख के पृष्ठ भाग में शुण्ड वृन्त, अग्र भाग पर शुण्ड व अधर भाग पर कॉलर के प्रवर्ध या कोलरेट (collarette ) पाए जाते हैं। इस पर अरीय व संकेन्द्री पेशी तन्तु मिलते हैं जो क्रमशः मुख को खोलने व बन्द करने के लिए उपयोगी हैं। मुख के ऊपरी हिस्से में, शुण्ड वृन्त (proboscis stalk) के आधार पर, एक संवेदी अंग पाया जाता है जिसे मुखपूर्वी पक्ष्माभी अंग (pre-oral ciliary organ) कहते हैं। सम्भवतः यह जल प्रवाह व भोजन के परीक्षण या संवेदन से सम्बन्धित अंग है। मुख मुख-गुहा में खुलता है।

(ii) मुख गुहा (Buccal Cavity): मुख व ग्रसनी के बीच कॉलर क्षेत्र में एक चोड़ी व छोटी मुख गुहा पाई जाती है। इस गुहा की उपकला पक्ष्माभी ( ciliated) होती है तथा इसमें कलशग्रन्थियाँ (Goblet gland cells) पाई जाती हैं। मुख गुहा की दीवार अगले भाग पर मध्य पृष्ठ सतह पर एक सख्त छड़ जैसी रचना बना कर शुण्डगुहा या प्रोटोसील तक बढ़ी होती है। इसे मुखीय अन्धवर्ध (buccal diverticulum) कहते हैं । मुख गुहा ग्रसनी में खुलती है।

(iii) ग्रसनी (Pharynx) : मुख गुहा के पीछे ग्रसनी पाई जाती है। यह धड़ के क्लोम क्षेत्र (branchial region) में पाई जाती है । ग्रसनी की अवकाशिका (lumen) दोनों पाश्र्वों से निकले उभारों के कारण अपूर्ण रूप से दो भागों में विभाजित हो जाती है। ये अनुदैर्घ्य पाश्र्वय उभार अन्दर की ओर पराक्लोम कटक (parabranchial ridge) कहलाते हैं। इन कटकों के कारण ग्रसनी अवकाशिका पृष्ठ व अधर दो भागों में बंट जाती है।

(a) ग्रसनी का पृष्ठ (dorsal) भाग क्लोम या श्वसन भाग ( respiratory or branchial protion) कहलाता है। इस भाग में दोनों पृष्ठ पार्श्व तलों पर ‘U’ आकृति के क्लोम छिद्रों (gill slits) की पक्तियाँ पाई जाती हैं। मुख से होता हुआ जल मुख गुहा व यहाँ से ग्रसनी के इस भाग में आता है तथा गिल छिद्रों से निकल कर क्लोम कोष्ठों (gill sacs) में जाता है तथा अन्ततः गिल रन्ध्रों से बाहर निकल जाता है। यह जल का प्रवाह श्वसन में उपयोगी होता है।

(b) ग्रसनी का अधर भाग पाचक भाग ( digestive portion) कहलाता है। इसकी आन्तरिक दीवार में पक्ष्माभी उपकला व ग्रन्थि कोशिकाएँ पाई जाती है। यह भाग अशन व पाचन से सम्बन्धित होता है।

(iv) ग्रसिका (Oesophagus ) : ग्रसनी जहाँ तक पाई जाती है धड़ का वह क्षेत्र क्लोम क्षेत्र कहलाता है। अन्तिम क्लोम छिद्र के पीछे की आहार नाल ग्रसिका (oesophagus) कहलाती है। यह छोटी नलिकाकार संरचना है। ग्रसनी के कटक इस क्षेत्र में जारी रह कर क्रमशः समाप्त हो जाते परन्तु ग्रसिका के अन्तिम भाग में उपकला अत्यन्त ग्रन्थिल व वलनयुक्त (folded) हो जाती है। (v) आन्त्र (Intestine ) : आन्त्र सर्वाधिक लम्बी संरचना है। यह धड़ के यकृति व पश्च यकृति क्षेत्र में पाई जाती है। यकृति क्षेत्र (hepatic region) में आन्त्र अत्यन्त संवहनी (vascular) होती है। इस क्षेत्र में आन्त्र की भित्ति में कोषरचन (sacculations) पाए जाते हैं जो देहभित्ति से बाहर भी स्पष्ट दिखाई देते हैं (चित्र 2)। इन अन्धवर्गों को यकृति अन्धवर्ध या हिपेटिक सीका ( hepatic caeca) कहा जाता है। इनका कार्य पाचक एन्जाइमों का स्रावण करना है।

पश्च यकृति क्षेत्र में आन्त्र व देहभित्ति के बीच एक दृढ़ छड़ाकृति रचना पाई जाती है जिसे पुच्छरज्जु या पाइगोकॉर्ड (pygochord ) कहा जाता है।

(vi) गुदा (Anus) : आन्त्र अन्तस्थ (terminal) छोर पर एक गोल छिद्र के रूप में समाप्त होती है। यह रन्ध्र या छिद्र गुदा ( anus) कहलाता है। यह स्फिंक्टर पेशियों (spninctor muscles) द्वारा घिरा छिद्र होता है।

भोजन, अशन एवं पाचन

बैलेगोग्लॉसस एक बिलकारी या नालवासी ( tubicolous) जन्तु है तथा अपने शरीर से लम्बी ‘U’ या ‘Y’ आकृति की नाल (चित्र 1) समुद्र के किनारों पर बिल बना कर रहता है। यह जन्तु रात्रिचर है तथा इनके बिल जल निमग्न होते हैं। पोषण के लिए यह नाल से अपनी शुण्ड व कॉलर नाल से बाहर निकाले रखता है। जन्तु की आन्त्र, विशेष रूप से गिल क्षेत्र, में उपस्थित पक्ष्माभों के स्पन्दन से एक जल प्रवाह उत्पन्न होता है जो पानी को मुख से खींच कर गिल के रास्ते बिल के बाहर निकाल देता है। इस जल प्रवाह में अनेक सूक्ष्म जीव भोज्य कण हो सकते हैं, साथ ही इसमें समुद्री गर्द-मिट्टी भी होती है। यह सभी मुख से अन्दर प्रविष्ट होता है। मुख के पहले शुण्ड वृन्त पर एक संवेदी अंग पाया जाता है जिसे, मुखपूवी संवेदी अंग (pre-oral sensory organ) कहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह भोजन व जल धारा का परीक्षण करता है तथा अनुपयुक्त भोजन की मुख में प्रविष्टि कॉलरेट अथवा मुख के संकुचन से रोकी जा सकती है।

जल प्रवाह के साथ आए भोजन कण आहार नाल की श्लेष्म से चिपक जाते हैं तथा आन्त्र ग्रसनी में अधर भाग में पक्ष्माभों के स्पन्दन से आगे बढ़ते जाते हैं। बैलेनोग्लॉसस की शुण्ड पर भी श्लेष्म ग्रन्थियाँ तथा पक्ष्माभी कोशिकाएँ पाई जाती हैं। इस पर उपस्थित कणिकामय ग्रन्थि कोशिकाएँ एमाइलेज एन्जाइम भी स्रावित करती हैं। शुण्ड पर श्लेष्म की उपस्थिति के कारण भोज्य कण शुण्ड पर भी चिपक जाते हैं जिन्हें शुण्ड व कॉलर क्षेत्र के पक्ष्माभों के स्पन्दन से मुख तक पहुँचा दिया जाता है।

बैलेनोग्लॉसस में पाचन के विषय में विस्तृत जानकारी नहीं है परन्तु प्राणिशास्त्रियों का विचार है कि यकृति अंधवर्ध एमाइलेज, माल्टेज, लाइपेज, प्रोटिएज आदि एन्जाइमों का प्रावण करते हैं। इस प्रकार पाचित पदार्थों का अवशोषण आन्त्र की आन्तरिक दीवार द्वारा कर लिया जाता है तथा अपचित, मृदा आदि गुदाद्वार द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है। जल प्रवाह के कारण यह उत्सर्जित पदार्थ बिल के पश्च भाग से निकल कर बिल के निकास द्वार पर मलबे (casting) के रूप में जमा दिखाई देता है।

श्वसन (Respiration)

बैलेनोग्लॉसस श्वसन के लिए जल को माध्यम बनाता है तथा इसमें विलीन ऑक्सीजन को अपनी ग्रसनी की अत्यन्त संवहनी एवं विशिष्टीकृत दीवार से विसरण द्वारा प्राप्त करता है तथा कार्बन डाई ऑक्साइड को उत्सर्जित करता है। इस बिलवासी जलचर जीव में लगातार नए व ताजा जल का प्रवाह बनाए रखने के लिए विभिन्न अंग समन्वित तरीके से कार्य करते हैं। श्वसन से सम्बद्ध भाग निम्न प्रकार हैं

(i) मुख, मुख गुहा व ग्रसनी का क्लोम क्षेत्र श्वसन के लिए शरीर में प्रविष्ट जल मुख व मुख गुहा से होता हुआ ग्रसनी में प्रवेश करता है। यह पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि ग्रसनी की अवकाशिका (lumen) दोनों पाश्र्वों पर अन्दर की ओर उभर आए अनुदैर्घ्य वलनों से दो अपूर्ण भागों में विभाजित हो जाती है यह उभार या कटक पराक्लोम कटक (parabranchial ridge) कहलाते हैं तथा इन अपूर्ण भागों में से पृष्ठ भाग श्वसन से सम्बन्धित है (चित्र 11 ) अत: क्लोम भाग (branchial portion) कहलाता है। क्लोम भाग में पृष्ठ भाग पर रन्ध्रों की दो अनुदैर्घ्य पंक्तियाँ पाई जाती हैं। यह रन्ध्र क्लोम रन्ध्र हैं जो ग्रसनी व ग्रसनी कोष्ठ (branchial sac or gill pouch) के बीच खुलते हैं । ग्रसनी कोष्ठ ग्रसनी व देह भित्ति के बीच का स्थान है । अन्ततः यह स्थान पर देह भित्ति के क्लोम रन्ध्रों के कारण बाहरी जल से सतत रहता है।

ग्रसनी की दीवार में उपस्थित रन्ध्र प्रारम्भ में अण्डाकार होते हैं परन्तु परिवर्धन के साथ ही ग्रसनी भित्ति पृष्ठ दिशा से बढ़ कर इन रन्ध्रों को ‘U’ आकृति का बना देती है। यह उभार अन्दर से खोखले होते हैं क्योंकि इनमें देहगुहिकीय गुहा पाई जाती है। इन उभारों को द्वितीयक क्लोम दण्ड या सैकेण्डरी गिल बार या टन्ग बार (secondary gill bar or tongue bar) कहते हैं। दो निकट के गिल रन्ध्रों की दीवार पट सेप्टम या प्राथमिक क्लोम दण्ड ( septum or primary gill bar) कहलाती है। दोनों गिल बार्स या गिल दण्डों का सन्धि स्थल पटबन्ध या सिनैप्टेकुलम (synapticulum, बहुवचन – synapticula) कहलाता है।

दोनों क्लोम दण्डों के बीच ‘U’ आकृति की दृढ़ संरचनाओं का कंकाल पाया जाता है (चित्र 9 ) । जिव्हा दण्ड (tongue bar) या द्वितीयक क्लोम दण्ड (SGB) में दो निकटस्थ भुजाओं का संगलन हो जाता है जबकि प्राथमिक क्लोम दण्डों या पटों (septa) में ये पृथक रहते हैं अत: इन कंकाली छड़ों की आकृति त्रिशूल या ‘m’ के समान दिखाई देती है।

(ii) क्लोम कोष्ठ : देह भित्ति व ग्रसनी की दीवार के बीच बड़े कोष्ठ पाए जाते हैं जिन्हें क्लोम कोष्ठ (branchial or gill sac) कहते हैं। इनमें ग्रसनी के क्लोम रन्ध्र खुलते हैं। यह कोष्ठ स्वयं देह भित्ति पर उपस्थिति गिल रन्ध्रों से बाहर खुलते हैं । कोष्ठ के प्रारम्भ में प्रथम गिल रन्ध्र के निकट कॉलर की गुहा (mesocoel) एक रन्ध्र, कॉलर रन्ध्र (collar pore), द्वारा गिल कोष्ठ में खुलती है।

श्वसन व भोजन के लिए जन्तु अपने क्लोम विदर व शेष आहारनाल के पक्ष्माभों का स्पन्दन – करता है जिससे जल का एक श्वसनाशन प्रवाह ( respiratory cum food current) उत्पन्न होता है। इस जल का भोजन योग्य भाग तो ग्रसनी के अधर भाग में जाता है तथा कुछ जल क्लोम खांचों व क्लोम रन्ध्रों के रास्ते बाहर निकल जाता है। क्लोम क्षेत्र में अपनी ग्रसनी की दीवार अत्यन्त संवहनी (vascular) होती है, अर्थात् इसमे रक्त प्रवाह अधिक व सतह के अत्यन्त निकट होता है। उपरोक्त कारण से गैसीय आदान-प्रदान विसरण द्वारा सम्भव हो जाता है।

रक्त परिसंचरण तंत्र (Blood Vascular System)

बैलेनोग्लॉसस के शरीर में भोज्य, उत्सर्जी पदार्थों व गैसीय आदान-प्रदान के लिए रक्त परिसंचरण तन्त्र पाया जाता है। परिसंचरण तन्त्र में संकुचन शील वाहिकाएँ व एक केन्द्रीय आशय पाया जाता है। इनमें रक्त प्रवाहित होता है। रक्त रंगहीन व सम्भवतः श्वसन वर्णक ( respiratory pigment) विहीन होता है। इसमें कुछ श्वेताणु (white corpuscles) पाए जाते हैं व वाहिकाओं की दीवार से निकली अन्त:स्तरीय कोशिकाएँ (endothelial cells) पाई जाती हैं।

बैलेनोग्लॉसस के रक्त परिसंचरण तन्त्र में हृदय आशय (heart vesicle), केन्द्रीय कोटर (central sinus), एक पृष्ठ वाहिका व एक अधर वाहिका पाई जाती है। इनके अतिरिक्त इनसे निकलने वाली अन्य वाहिनियाँ भी पाई जाती हैं। परिसंचरण तन्त्र के प्रमुख घटकों का वर्णन निम्न प्रकार हैं

(a) हृदय आशय व केन्द्रीय कोटर (Heart Vesicle and Central Sinus) : शुण्ड मुखीय अंधवर्ध के पृष्ठ सतह पर एक छोटी कोटर पाई जाती है। इसे केन्द्रीय कोटर कहते हैं। इसमें पृष्ठ वाहिका (dorsal vessel) से रक्त एकत्र होता है। इस कोटर में संकुचन की क्षमता नहीं होती है। केन्द्रीय कोटर के पृष्ठ भाग में एक त्रिकोणीय हृदकोष्ठ (heart sac ) या हृदय आशय (heart vesicle or pericardium) पाया जाता हैं। इस आशय की केन्द्रीय कोटर के निकट की सतह पेशीय होती है तथा लयबद्ध संकुचन से कोटर के रक्त का शरीर में संचरण करने में सहायता करती है। कोटर के आगे के ओर अनेक अभिवाही वाहिकाएँ (afferent vessels) पाई जाती हैं जो शुण्ड में एक गुच्छक (plexus) बनाती है जिसे शुण्ड ग्रन्थि (proboscis gland) या ग्लोमेरुलस (glomerulus) कहते हैं। यह ग्रन्थि उत्सर्जन का कार्य करती है। इस प्रकार केन्द्रीय कोटर पश्च भाग में अपवाही पृष्ठ रक्त वाहिकाओं (efferent dorsal blood vessle) से तथा अग्र भाग में अभिवाही वाहिकाओं (afferent vessels) से जुड़ी होती है।

(b) धमनियाँ या वितरण वाहिनियाँ (Arteries or Distributing vessels) : ग्लोमेरुलस से चार वाहिकाएँ या धमनियाँ निकलती हैं। दो धमनियाँ शुण्ड को रक्त वितरित करती हैं, इनमें से एक मध्य पृष्ठ क्षेत्र में मिलती है अतः मध्य-पृष्ठ धमनी (mid-dorsal artery) कहलाती है तथा दूसरी मध्य-अधर धमनी (mid ventral artery) कहलाती है। शेष दो धमनियाँ गुच्छक समान होती हैं तथा मुख के पाश्र्वों से निकल कर अधर सतह पर मिल जाती हैं तथा मिलकर अधर वाहिका (ventral vessel) बनाती हैं। मुख के चारों ओर पाए जाने के कारण इन धमनियों को परिमुखीय धमनीयाँ (peribuccal arteries) कहते हैं।

अधर वाहिका अग्र से पश्च सिरे की ओर रक्त ले जाती है। इसकी भित्ति संकुचनशील होती है। यह स्थान-स्थान पर शाखाएँ छोड़ती है। कॉलर में इससे अधर कॉलर वाहिका ( ventral collar vessel) निकलती है। जो कॉलर क्षेत्र को रक्त पहुँचाती है। एक वलय वाहिका (ring vessel) कॉलर व धड़ के पट (septum) तक जाती है। धड़ के क्लोम क्षेत्र में अभिवाही क्लोम वाहिकाएँ (afferent branchial vessels or arteries) अधर वाहिका से निकलती हैं तथा क्लोम के पट तक जाती है। पट में ये दो भागों में बंट जाती है तथा आस-पास की दो क्लोम – जिव्हाओं (tongue bars) में रक्त पहुँचाती हैं। क्लोम क्षेत्र में वाहिकाएँ अत्यन्त शाखित होती हैं।

धड़ में क्लोम क्षेत्र के पीछे भी अधर वाहिका से शाखाएँ निकलती हैं जो पुनः शाखित होकर आन्त्र व देह भित्ति को रक्त प्रदान करती है।

(c) शिराएँ या संचयी वाहिकाएँ (Veins or Collecting vessels ) : शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचा रक्त एक पृष्ठ वाहिका (dorsal vessel) से पुन: केन्द्रीय कोटर में लौटता है। इस वाहिका की दीवार या भित्ति भी संकुचन शील होती है। इस वाहिका में रक्त पश्च से अग्र सिरे ( शुण्ड) की ओर बढ़ता है । वाहिका केन्द्रीय कोटर के सन्धि स्थल पर कुछ फूली हुई या बड़ी होती है, यह भाग शिरा कोटर ( venous sinus) कहलाता है। इसमें शुण्ड से रक्त लाने वाली दो पार्श्व शुण्ड शिराएँ (lateral proboscis veins) मिलती हैं।

धड़ व यकृत क्षेत्र में आन्त्र व देह भित्ति से शिराएँ एक पृष्ठ वाहिका में आकर जुड़ती है। क्लोम क्षेत्र में क्लोम उपकरण से आकर अपवाही क्लोम वाहिकाएँ (efferent branchial vessels) भी इसी में खुलती है।

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