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back cross method in hindi , प्रतीप संकरण विधि क्या है , बैक क्रॉस को उचित उदाहरण सहित समझाइए

पढ़िए back cross method in hindi , प्रतीप संकरण विधि क्या है , बैक क्रॉस को उचित उदाहरण सहित समझाइए ?

 परागण या क्रांसिंग (Crossing or Pollination)

पहले से थैली में बंधे हुए नर जनक के विपुंसित पुष्प/पुष्पक्रमों की थैली को खोला जाता है तथा परागकणों को एकत्र कर लिया जाता है। अब इन परागकणों को ब्रश या शीशी (Vial) की सहायता से मादा जनक की ग्राही वर्तिकाग्र पर छिड़क दिया जाता है। इसके लिये प्राय: ताजे एकत्रित परागकणों का ही उपयोग करते हैं, यहाँ पुराने इकट्ठे किये गये परागकणों को सामान्यतया काम में नहीं लिया जाता। प्रातः 9 बजे से 12 बजे तक का समय इस कार्य के लिये उपयुक्त रहता है, क्योंकि यह परागण के लिये अनुकूल परिस्थितियों का समय है तथा इस समय वर्तिकाग्र भी ग्राही (Receptive) होती है। फिर भी प्रत्येक कृष्य पौधे में परागण का समय अलग-अलग भी हो सकता है। इस विधि को क्रांसिंग या कृत्रिम परपरागण या हस्तपरागण (Crossing / Artificial cross pollina- tion/Hand pollination) कहते हैं । इस कृत्रिम परपरागण या क्रांसिंग को एन्थेसिस (Anthesis) भी कहते हैं ।

परपरागित फसलों के अन्तःप्रजातों (Inbreeds) को पैदा करने के लिए बहुधा स्वनिषेचन (Self fertization) करवाना पड़ता है। इसके लिये लगभग अपरिपक्व तरुण उभयलिंगी पुष्पों को या इनके पुष्पक्रम को परागण से बचाने के लिये थैली से ढक दिया जाता है, जिससे केवल स्वपरागण ही संभव हो पाता है। कुछ पौधों जैसे मक्का में उभयलिंगाश्रयी (Monoecious) पौधे पर अलग-अलग अवस्थित नर एवं मादा पुष्पक्रमों को अलग-अलग थैलियों से ढका जाता है। नर पुष्पक्रम से परागकण एकत्र कर मादा पुष्पों पर डाल दिये जाते हैं, या कभी-कभी नर पुष्पक्रम को काट कर मादा पुष्पक्रम के साथ एक ही थैली में डाल दिया जाता है ।

  1. संकर बीजों का एकत्रीकरण तथा F, पीढ़ी को उगाना (Collection of hybrid seeds and growing F, generation)

कृत्रिम पर परागण क्रिया सम्पन्न करवाने के बाद मादा जनक पुष्प / पुष्पक्रम को वापस थैली से ढक दिया जाता है। मादा जनक में निषेचन के पश्चात् बीजों के परिपक्व हो जाने पर उनके पुष्पक्रमों या बीजों को लेबल्स के साथ अलग-अलग लिफाफों में रखा जाता है। इसके अगले वर्ष प्रत्येक पौधे से प्राप्त बीजों को F, पीढ़ी उत्पन्न करने के लिये अलग-अलग बोया जाता है। क्योंकि F, पीढ़ी में प्राप्त पौधे आनुवंशिक रूप से समान होते है अतः आकारिकी या बाह्य लक्षणों में भी एक समान दिखाई देते हैं। इनमें संकर ओज (Hybrid vigous) स्पष्टतया परिलक्षित होती है। इनकी वृद्धि एवं उत्पादन क्षमता अधिकाधिक होती है, तथा ये आकार में भी बड़े दिखाई देते हैं।

  1. पादप किस्म का किसानों के लिए लोकार्पण (Release of a new variety)

यह संकरण की प्रक्रिया का अंतिम चरण है, जिसके अंतर्गत नवीन पादप किस्म का चयन परीक्षण नामकरण किया जाता है एवं इसके बाद किसानों के उपयोग हेतु मुक्त करते हैं।

विभिन्न प्रकार के पौधों में संकरण की विधियाँ (Hybridization methods in various plants)

विभिन्न पौधों में F, तथा इसके बाद की पीढ़ियों को अलग-अलग संकरण विधियों के द्वारा विकसित किया जाता है । यहाँ स्वपरागित एवं परपरागित पौधों में संकरण की प्रक्रिया में भी भिन्नता पाई जाती है। अतः परपरागित, स्वपरागित एवं कायिक रूप में प्रविर्धत फसलों में संकरण हेतु प्रयुक्त उपयोगी विधियाँ निम्न प्रकार से है-

  1. स्वपरागित फसलों में संकरण विधियाँ (Methods of hybridization in self pollinated crops)— अनेक आर्थिक महत्त्व के कृष्य पौधों (Cultivated plants) जैसे गेहूँ, जौ, चावल, तम्बाकू, कपास एवं मटर इत्यादि में स्वपरागण (Self pollination) ही पाया जाता है । अत: इनकी फसलों के सुधार हेतु पादप प्रजननविज्ञानियों के द्वारा, संकरण एवं पादप प्रजनन की निम्न उपयोगी विधियाँ प्रस्तावित की गई है –
  2. वंशावली विधि (Pedigree method)
  3. प्रपुंज विधि (Bulk method)

III प्रतीप संकरण विधि (Back cross method)

  1. बहुलित या मिश्रित संकरण विधि (Multiple or Composite cross method)

उपरोक्त प्रक्रियाओं का विस्तृत विवरण निम्नानुसार है-

  1. वंशावली विधि (Pedigree method)

स्वपरागित कृष्य पौधों में इस विधि का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। प्राय: स्व-परागित फसलों में दो या दो से अधिक जीन प्ररूपों से प्राप्त इच्छित लक्षणों को संयोजित करना ही संकरण प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य होता है । इस विधि में F, व इससे आगे की पीढ़ियों (F….. ) से कुछ पौधों का चुनाव किया जाता है। पुनर्योजन या प्रेरित उत्परिवर्तनों (Recombination or Induced mutation) के द्वारा नवीन संभावित संयोजन प्राप्त करके अतिरिक्त विविधताएँ उत्पन्न की जाती हैं।

वंशावली विधि में उत्तम एवं विविध लक्षणों वाले जनक पौधों को चयनित कर उनके बीच संकरण करवाया जाता है । इस विधि की प्रमुख विशेषता यह है जनक पौधों से संतति पौधों का पूरा रिकार्ड पीढ़ी दर पीढ़ी रखा जाता है।

किसी पूर्वज पौधे से उत्पन्न उसकी संतति के विवरण को वंशावली (Pedigree) कहते हैं । इस वंशावली में जनक पीढ़ियों (Grand parents, great grand parents) का रिकॉर्ड रखा जाता है तथा इसके आधार पर यह मालूम कर सकते हैं कि दो पौधे आपस में समान हैं और क्या उनके जनक एक ही हैं?

वंशावली विधि की प्रक्रिया की आधारभूत विशेषता, वांछित लक्षणों वाले समयुग्मजी पौधों की मिश्रित व्यष्टि (Population) से श्रेष्ठ पौधों का चयन करना तथा उनके विकास एवं संवर्धन से नवीन पादप किस्म को तैयार करना है। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त विभिन्न सोपानों का क्रमबद्ध विवरण निम्न प्रकार से है

  1. प्रथम वर्ष (जनक पौधों का चयन एवं संकरण या Cross) – आनुवंशिक विविधता के आधार पर जनक पौधों का चयन किया जाता है तथा विभिन्न उपयुक्त संकरण विधियों के द्वारा उनमें संकरण करवाया जाता है जनक पौधों के उचित चयन पर ही वंशावली विधि प्रक्रिया की सफलता निर्भर करती है। अत: जनक पौधों के बीच विविधता होना श्रेष्ठ परिणामों के लिए आवश्यक है। इस वर्ष जनक पौधों के संकरण द्वारा प्राप्त F, पीढ़ी के पौधे उगाने के लिये बोया जाता है ।
  2. द्वितीय वर्ष (F, पीढ़ी) – द्वितीय वर्ष में F, पीढ़ी के बीजों को पर्याप्त दूरी छोड़ कर बोते हैं, जिससे उगने वाले पौधों की पर्याप्त वृद्धि एवं तलशाखन हो सके। इस प्रकार F, पौधों को उत्पन्न किया जाता है, एवं पर्याप्त मात्रा में F2 पीढ़ी के लिये बीज प्राप्त कर लिये जाते हैं ।

 

  1. तृतीय वर्ष (F, पीढ़ी) – दूसरे साल में उत्पन्न F, पौधों के बीजों से F, पीढ़ी के पौधे तैयार किये जाते हैं । इसके लिये 2000 से 10000 पौधों को उपयुक्त दूरी पर लगाया जाता है। गुणवत्ता एवं इच्छित लक्षणों के आधार पर इनमें 100 से 500 पौधों का चयन किया जाता है। चयन प्रक्रिया को अधिक उपयोगी एवं प्रभावी बनाने के लिये पौधों का कृत्रिम संक्रमण या संरोपण कीट एवं रोगजनक कारकों द्वारा करवाया जा सकता है। चयनित पौधों लेबल कार्ड लगाया जाता है। इस प्रकार रोग प्रतिरोधी पौधे जो वांछित लक्षण रखते हैं उनको चुना जाता है, इनके बीजों को अलग-अलग इकट्ठा किया जाता है तथा इन बीजों से आने वाले साल में F, पौधे तैयार किये जाते हैं।
  2. चौथा वर्ष (F, पीढ़ी) -F, पीढ़ी से चयनित प्रत्येक पौधे से जो बीज प्राप्त हाते हैं, उनसे उगाये गये पौधे F♭ पीढ़ी को निरूपित करते हैं। अलग-अलग पौधों से प्राप्त बीजों को अलग अलग पंक्तियों में बोया जाता है। लगभग 30 से 100 पौधे प्रत्येक पंक्ति में पर्याप्त दूरी पर बोये जाते हैं। इच्छित लक्षणों के आधार पर अलग-अलग पौधों का चयन कर, इनके बीजों को अगले वर्ष बुवाई के लिये अलग-अलग सुरक्षित कर लिया जाता है। कमजोर, रोगग्रस्त एवं निम्न गुणवत्ता वाले पौधों को हटा दिया जाता है।
  3. पंचम वर्ष (F, पीढ़ी ) – F पीढ़ी में चौथे साल की उपरोक्त प्रक्रिया को फिर से दोहराया जाता है। पिछले वर्ष की भांति ही एकल पौधों का चयन इस साल फिर किया जाता है, लेकिन F पीढ़ी में चयन का मुख्य आधार श्रेष्ठ पंक्तियाँ होती हैं। क्योंकि प्रत्येक पंक्ति के अन्दर समयुग्मजता के कारण एकरूपता (Uniformity) आ जाती है ।
  4. छठा वर्ष (Fg पीढ़ी ) – F पीढ़ी से प्राप्त बीजों को F, संतति प्राप्त करने के लिये पंक्तियों में बोया है। F पीढ़ी के चयनित पौधे 3-4 पंक्तियों में लगाये जाते हैं, जिससे संततियों की आपस में तुलना की जा सके, श्रेष्ठ पौधों का इनमें से चयन कर लिया जाता है। उत्तम एवं समरूपता वाली संततियों के सभी पौधों के बीजों को मिला कर इकट्ठा कर लिया जाता है। इनकी उपज को प्रारंभिक मूल्यांकन परीक्षण (Initial evaluation test) के लिये उपयोग में लाया जाता है।
  5. सातवाँ वर्ष व इसके बाद – सामान्य प्रक्रिया में F पीढ़ी के बाद की पीढ़ियों में लगातार (continu- ous) कोई पृथक्करण नहीं होता। फिर भी अगला कोई संतति पादप विसंयोजन दर्शाता है तो उसे अमान्य कर देते हैं। समरूपी (Uniform ) एवं श्रेष्ठ संततियों का चुनाव कर इनके बीजों से एक साथ फसल उगाई जाती है (Harvesting) और उनको उपयुक्त मानक या जाँच किस्म (Check variety ) के साथ प्रतिरूप परीक्षणों (Replicated trials) के लिये बो कर उत्पादन क्षमता (Yield) तथा अन्य गुणों के लिये मूल्यांकन कर लिया जाता है। जो संतति प्ररूप लगातार सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होते हैं और मानक या जाँच किस्म से अधिक उपज देते हैं, नामकरण करके नई पादप किस्म के रूप में किसानों के उगाने के लिये मुक्त कर देते हैं। ध्यान रहे कि श्रेष्ठतम संततियों का परीक्षण विभिन्न स्थानों पर कम से कम 6-7 वर्ष के लिये किया जाता है। इस प्रकार वंशावली विधि के द्वारा एक नई पादप किस्म को उत्पन्न करने में लगभग 14 वर्ष लगते हैं ।

वंशावली विधि के गुण (Merits of Pedigree method): के

(1) यह विधि स्वपरागित फसलों के लिये सर्वथा उपयुक्त है क्योंकि इसके द्वारा गुणात्मक एवं मात्रात्मक दोनों प्रकार के लक्षणों के लिये संतोषजनक परिणाम प्राप्त होते हैं ।

(2) सरलता से पहचान किये जाने वाले गुणों के सुधार के लिये एक अच्छी विधि है।

(3) इस प्रक्रिया में बल्क विधि की तुलना में कम समय लगता है।

(4) एकल पौधों के चुनाव की दृष्टि से यह एक अच्छी विधि है, क्योंकि संतति के विवरण से गुणात्मक लक्षणों के बारे में जानकारी मिलती है।

(5) यह विधि पादप प्रजननकर्ता को पौधों के बारे में आनुवंशिकीय सूचनाएँ उपलब्ध करवाने में सहायक है ।

वंशावली विधि के दोष (Demerits of Pedigree method)

(1) इस विधि में प्रारम्भिक पीढ़ियों में प्रत्येक चुने गये पौधे का वंशावली रिकार्ड रखना पड़ता है जो अत्यन्त सावधानी व मेहनत का काम है। अतः यह श्रमसाध्य, लम्बी व खर्चीली विधि है।

(2) इसकी सफलता पादप प्रजननविज्ञानी की निपुणता पर निर्भर करती है।

(3) पादप समष्टि (Population) पर प्राकृतिक चयन कोई प्रभाव नहीं डालता ।

वंशावली विधि की उपलब्धियाँ (Ahievements of Pedigree method)

स्वपरागित फसलों में प्रयुक्त यह एक बहुप्रचलित विधि है । इसका उपयोग करके अनेक फसलों में नई किस्में तैयार की जा चुकी हैं, जैसे-गेहूँ में NP-120, NP-52, K-65, K 68 व WL-711; चावल में, जया पद्मा व रत्ना, कपास में लक्ष्मी एवं टमाटर में पुसा अर्ली ड्वार्फ, इत्यादि कुछ उन्नत किस्में हैं।

  1. प्रपुंज विधि (Bulk method)

नेलसन-एहल (1908) द्वारा इस संकरण विधि का सर्वप्रथम उपयोग किया गया था। इसे संहति विधि या मास विधि (Mass method) भी कहते हैं। किसी फसल विशेष में प्राप्त करने के लिये विशिष्ट उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए इस विधि का उपयोग किया जाता है। अपनी जरूरत के अनुसार पादप प्रजननविज्ञानी भी इसकी प्रक्रिया में आवश्यक परिवर्तन भी कर सकते हैं।

इस विधि द्वारा नई पादप किस्म प्राप्त करने में प्राय: 8 वर्ष का समय लग जाता है, परंतु कुछ कृष्य पौधों में यह समय और भी ज्यादा लग सकता है।

प्रपुंज विधि की संक्षिप्त कार्यप्रणाली निम्न प्रकार से हैं

(1) प्रथम वर्ष – फसल में इच्छित गुणों के आधार पर जनक पौधों को चुना जाता है तथा इनमें सरल व जटिल प्रकार का संकरण करवाया जाता है।

( 2 ) द्वितीय वर्ष-संकरण द्वारा प्राप्त F, पीढ़ी के पौधों को उपयुक्त दूरी पर बोया जाता है एवं इनसे उगे पौधों के बीजों को एकत्र कर आपस में मिला देते हैं। इस पीढ़ी में अधिक संख्या में संतति पौधे प्राप्त होने चाहिये ।

( 3 ) तृतीय वर्ष (F2 पीढ़ी) – इस वर्ष F, पीढ़ी में संतति पौधों को अधिकतम संख्या में लगाया जाता है तथा इन पौधों से प्राप्त बीजों को एक साथ इकट्ठा किया जाता है।

(4) चौथे से सातवें वर्ष तक (F3 से F6 पीढ़ी) 1) – इस वर्ष से F, पीढ़ी के लिये अपनायी गयी प्रक्रिया को सातवें वर्ष तक लगातार दोहराया जाता है, अर्थात् F3 से F पीढ़ी के संतति पौधों को पर्याप्त जगह में बोया जाता है एवं इनसे प्राप्त बीजों को मिला देते हैं। प्रत्येक पीढ़ी में पौधों की संख्या बहुत अधिक या हजारों में होनी चाहिये ।

(5) नवाँ वर्ष (F, पीढ़ी) – – इस वर्ष में एकल पादप संतति के पौधों को हजारों की संख्या में लगाया जाता है, पौधों को सदैव पर्याप्त दूरी पर लगाते हैं। इनमें से श्रेष्ठ पौधों को छांटा जाता है तथा कमजोर पौधों को हटाया जाता है। इनके बीजों को अलग-अलग एकत्र करते हैं। श्रेष्ठ पौधें का चुनाव बाह्य आकारिकी लक्षणों के आधार पर किया जाता है।

( 6 ) दसवाँ वर्ष (F, पीढ़ी) – एकल पौधों से प्राप्त संतति पीढ़ी को एक या कई पंक्तियों में लगाते हैं, इन संततियों के पादप अब इच्छित लक्षणों के लिये शुद्ध हो जाते हैं। छाँटे हुए पौधों के प्राप्त बीजों को मिला देते हैं। दुर्बल एवं हल्की गुणवत्ता वाले पौधों को हटा दिया जाता है। अब इन पौधों में से वांछित लक्षणों वाले और श्रेष्ठ पौधों को भविष्य के लिये बचा कर रख लेते हैं, फिर भी यदि इन पौधों के गुणों में यदि भिन्नताएँ दिखाई देती हैं तो ऐसे पौधों को भी हटा दिया जाता है। गुणवत्ता परीक्षण (Quality test) के साथ ही कुछ और परीक्षण जैसे, फसल तैयार होने की अवधि, फसल की ऊँचाई आदि के लिए भी किये जाते हैं ।

( 7 ) ग्यारह से पन्द्रहवाँ वर्ष (F10 से F 14 पीढ़ी) – इन बाद के वर्षों में नई किस्म के श्रेष्ठ चयनित पौधों का पैदावार परीक्षण मानक, या स्टेंडर्ड किस्म से तुलना करते हुए अलग-अलग परीक्षण केन्द्रों पर किया जाता है शुद्ध (Pure) लक्षणों वाले पौधों का अन्य गुणों के लिये भी परीक्षण करते हैं। इनमें से श्रेष्ठ लक्षणों वाले पौधों को नई पादप किस्म का नाम दिया जाता है ।

( 8 ) सोलहवाँ वर्ष – इस नई श्रेष्ठ पादप किस्म के असंख्य पौधों से बीजों को प्राप्त करके, इनका बारंबार गुणन (Multiplication) किया जाता है एवं इनकी संख्या बढ़ाई जाती हैं। जिससे इन बीजों को किसानों के लिये मुक्त करने में आसानी रहती है ।

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